8 नवंबर 2025 को 05:47 pm बजे
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मौज के लिए क्रांतिकारिता में लगे जेएनयू के हुड़दंगियों को जीत मुबारक

मौज के लिए क्रांतिकारिता में लगे जेएनयू के हुड़दंगियों को जीत मुबारक

कामता प्रसाद
जेएनयू के छात्र संघ के चुनावों में सरकारी कम्युनिस्ट पार्टियों से जुड़े स्टूडेंट संगठनों की विजय से फर्जी वामी-बकलोल गगन-मगन हैं, इसका निहिताशय क्या है, आइए हम इसकी पड़ताल करते हैं।

यूरोपीय व्यापारी अपने साथ तरह-तरह की सब्जियाँ लेकर आए। अंग्रेज ज्ञान-विज्ञान और सभ्यता में हमसे आगे थे। उन्होंने तर्क-विवेक और मानववाद की भी उस हद तक प्राण-प्रतिष्ठा की, जिस हद तक उनका स्वार्थ आड़े नहीं आता था वर्ना तो उन्हीं के राज में लाखों लोग अकाल से काल-कवलित हुए। जरा सोचकर देखिएः हमारी थाली में आज जो सुस्वादु व्यंजन पाए जाते हैं, उनकी उमर कितनी है। बमुश्किल पाँच सौ साल। इन्हीं पाँच सौ सालों में विज्ञान और सभ्यता ने इतनी ऊँची उड़ान भरी जितनी कि हजारों साल में नहीं भरी थी।
यह सच है कि भारत की ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था ने गैर-द्विजों का जीना हराम कर रखा था लेकिन वर्ष 2025 में वह ऐसा था बन गया है, जो कभी वापस आने वाला नहीं है। फिर भी संविधान-लोकतंत्र के नाम पर द्विजेतर जातियाँ बेहिसाहब पगलाई हुई हैं। उनके कुछ स्वयंभू नेता-विचारक तो यहाँ तक कहते सुने जा सकते हैं कि वे कल के हुक्मरान हैं और ब्राह्मणों को इस देश में रहने देंगे, वर्ना शासन किस पर करेंगे।
भूमिका बहुत हुई, अब आते हैं मूल बात पर। क्या हमारे देश में उत्पादन को समाज की जरूरतों के लिए संगठित किया जाता है या मुनाफे के लिए? तो जब तक मुनाफा निचोड़ने की इस व्यवस्था पर संकट नहीं आता, इसको चुनौती नहीं दी जाती तब तक हमारे हुक्मरानों को क्या ही कष्ट होगा।
आइसा-एसएफआई मार्का स्टूडेंट संगठनों के धमाल मचाते बंदरों की असलियत क्या है? ये खाते-कमाते घरों के नौनिहाल हैं जो इसी व्यवस्था में अपना चेहरा चमकाने में यकीन रखते हैं। कुछ नौकरशाही में तो कुछ राजनीति में तो कुछ एनजीओ जगत में खपा लिए जाएंगे, बचे-खुचे लखैरागीरी करेंगे और खुद को जेएनयू का प्रोडक्ट बताते हुए जिंदगी भर अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनते फिरेंगे।
धर्मभीरु लोग कम से कम रूढ़िवादी नैतिकता को तो मानते हैं लेकिन ये गाय-सूअर खाने वाले फैशनेबल कम्युनिस्ट तो प्रायः श्रम-विरत, परजीवी और सामान्य मानवीय संवेदना से च्युत देखे गए हैं। भाकपा-माले (लिबरेशन) के जिला सम्मेलन में एक बार गया था। इंटरवल में आइसा की एक लड़की रॉकेट की गति से सिगरेट फूँक रही थी, गोया अपना कोटा पूरा करना हो। मशीन मेकिंग मशीन बनाने के नाम पर जिन स्टूडेंट्स को कम्युनिस्ट ग्रुप अपनी कतारों में भर्ती करते हैं, उनमें से अधिकांश कालांतर में इतने इच्छाशक्ति-विहीन हो जाते हैं कि किसी भी तरह का श्रम करके अपना पेट नहीं पाल सकते।
अर्थव्यवस्था चौतरफा मंदी की शिकार है, पूँजीवाद सिस्टमिक संकट में है। ऐसे में मध्यवर्गीय रूमानियत जब जोर मारती है तो मजदूर आबादी को शिक्षित-प्रशिक्षित और गोलबंद किए बिना उनका मसीहा बनने की चाहत जन्म लेती है। तेलंगाना-महाराष्ट्र-उड़ीसा-झारखंड के जंगलों यानि कि दंडकारण्य के दुर्गम इलाकों में जारी ‘जनयुद्ध’ को इसी चश्मे से देखा जा सकता है। अपने ही देश के किसानों और आम घरों के नौजवानों को मारकर सीपीआई (माओवादी) के रण-बांकुरे इलाकावार दखल करने की अपनी रणनीति को आगे बढ़ा रहे हैं।

सीएलआई बोले तो कम्युनिस्ट लीग ऑफ इंडिया के शशिप्रकाश वाले धड़े ने जब बनारस में पैसा लेकर कार्ल मार्क्स रचित पूँजी पढ़ाने का आयोजन किया था तो मुख्य रूप से माओवादियों के मैदानी हमदर्दों-काडरों ने इसकी खूब खिल्ली उड़ाई थी कि यह तो पैसा कमाने का जरिया भर है। ये लोग बड़ी सहूलियत के साथ भूल गए थे कि बच्चू जब तुम्हारी आजीविका का जरिया तुम्हारा परिवार-समाज है तो तुम नोट्स लेकर पूँजी क्यों नहीं पढ़ सकते या क्रांतिकारिता के नाम पर तुम्हें बस मटरगश्ती करनी है, मौज मारनी है। गतिविधि वह होती है, जिसमें मज़ा आए जबकि काम वह होता है, जिसमें आनंद आए यह जरूरी नहीं होता।
मौज के लिए क्रांतिकारिता में लगे जेएनयू के हुड़दंगियों को जीत मुबारक। हा हा हा