सूबे के सीएम योगी आदित्यनाथ विदेशी निवेश लाने और रोजगार बढ़ाने के लिए खूब द्रविड़ प्राणायाम कर रहे हैं। मीडिया के बनिए इस प्रक्रिया में कृतार्थ हो रहे हैं, मालामाल हो रहे हैं माने खूब विज्ञापन बटोर रहे हैं। जितना पैसा योगीजी अपनी उपलब्धियों का बखान करने के लिए विज्ञापनों पर खर्च कर रहे हैं, उतने अगर शिक्षा-स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता तो विपक्षियों के मुँह भी सिले रहते और आम जनता में प्रदेश सरकार की साख बढ़ती क्योंकि तब बखान भाड़े के कलमघसीट नहीं वरन मज़दूर-किसान और प्रजा कर रही होती।
आखिर पेंच कहाँ फँसा है? बनियों से क्यों यारी निभाई जा रही है। प्रचारित किया जाता है कि मीडिया लोकतंत्र का चौथा खंभा है लेकिन चूँकि वर्ग-विभाजित में निरपेक्ष लोकतंत्र जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती तो मीडिया शासक वर्ग का और अपनी समस्त सकारात्मकता को खो चुके संप्रभुता-संपन्न देश का चौथा खंभा होता है। आज का मीडिया हर तरह के पाखंड और मज़दूर-विरोधी नीतियों के गौरव-गान में लगा हुआ है। उससे इतर की उम्मीद भी नहीं की जा सकती क्योंकि वर्गीय एकता भी तो कोई चीज हुआ करती है।
जिस देसी-विदेश निवेश को आकर्षित करने-बढ़ाने की बात की जा रही है आखिर उसकी असलियत क्या है? असलियत यह है कि मज़दूरों का सुपर-शोषण करने के लिए उत्तर प्रदेश में व्याप्त भुखमरी-भयंकर गरीबी बहुत मुफीद पड़ेगी क्योंकि जहाँ जीने के लाले पड़े हों वहाँ उच्चतर जीवन-स्तर के हिसाब से मज़दूरी कौन मांगेगा। जो सबसे कम पर काम करने के लिए तैयार होगा उसे नौकरी मिल जाएगी, बेरोजगारों की फौज का समंदर जो उमड़ रहा है। रही राजकीय हस्तक्षेप की बात तो उसे तो पूँजीपतियों के पक्ष में ही होना है। योगीराज में पुलिस उन सभी लोगों को पिछवाड़ा सुजाने की कूवत रखती है, जो भी जिंदगी से जुड़ी माँगों के लिए सड़क पर उतरने की हिमाकत करेंगे। जब पुलिस की दम पर सरकार चलानी हो तो मीडिया को तो खुश रखना ही पड़ेगा। जनमत का निर्माण मीडिया भी करता है, फासिस्टों के पक्ष में और बड़ी पूँजी के लिए चलने वाले सामाजिक आंदोलन को मज़बूती प्रदान करने का काम भी मीडिया ही करता है।
जनता के दरिद्रीकरण के मद्देनजर नव-कींसियाई नुस्खे अपनाने माने खैरात बाँटने की बाध्यता और खर्चों में कटौती करने की पूँजीपतियों की माँग के बीच तीखा अंतरविरोध है, दुनिया के पोलिटिकल लीडर्स परेशान हैं, चकरघिन्नी बन गए हैं। सत्ता-व्यवस्था समर्थक बुद्धिजीवियों के पास इस पर कहने के लिए कुछ नहीं है, बहस करना तो दरकिनार।
400 रुपये की दिहाड़ी भी नहीं मिल रही है। औसत मज़दूरी 5-6 हजार से अधिक नहीं। इस समस्या पर न राहुल गाँधी बोल रहे, न संसदीय वाम। सब एक दूसरे को दोषी ठहरा रहे हैं और बड़ी पूँजी के मालिकों की सेवा में दंडवत हैं। जब सब चुप हों तो योगी बाबा काहे जमाने भर से वैर मोल लें। चुनावों में तो उन्हें भी जाना है और अरबों-खरबों का खर्च तो धनपशु ही उठाएंगे तो क्यों न उन्हीं की खिदमत की जाए?
संजय सिंह