विशद कुमार
मनसा मूलतः बंगाल और बंगाल सटे झारखंड के विभिन्न क्षेत्रों में दलित और कथित निम्न जातियों की देवी के रूप में प्रतिष्ठित है, वहीं उच्च जातियों में गौणत: स्वीकृति है। इसकी पूजा की कोई शास्त्रीय पद्धति नहीं है। इसलिए इसके लिए ब्राह्मण पुजारी की आवश्यकता नहीं होती। लोग अपने-अपने इलाके में प्रचलित परंपरा-पद्धति से स्वयं पूजा करते हैं।
मनसा देवी दरअसल सांपों की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती है।
खोरठा साहित्यकार एवं खोरठा प्राध्यापक दिनेश दिनमणी बताते हैं कि ‘मनसा देवी के संबंध में एक मिथक प्रचलित है। जिसमें मनसा अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए संघर्ष करती दिखाई देती हैं। चांद सौदागर नामक एक शिवभक्त राजा मनसा को तिरस्कार की नजर से देखता है, मनसा को क्षुद्र की देवी मानता है। जिसके प्रतिशोध में वह अनेक तरह से राजा को परेशान करती है और उसके 7 बेटों को मार डालती है, आर्थिक नुकसान करवाकर चांद सौदागर को कंगाल बना देती है। उसका अंतिम बेटा लखिंदर को भी अपने वाहन सर्प दंश द्वारा मार देती है। लखिंदर की नवविवाहिता पत्नी बेहुला के जरिए दबाव बना कर अंततः राजा चांद को झुका देती है। राजा प्रतिज्ञा किये हुए रहता है कि वह जिस हाथ से शिव की पूजा करता है, उस हाथ से मनसा जैसी क्षुद्र देवी की कदापि पूजा नहीं कर सकता। अंतत: राजा विवश और विमुख होकर बांये हाथ से मनसा की पूजा करता है। इसके बाद उसके पुत्र के प्राण लौट आते हैं और राज्य भी वापस मिल जाता है।’
कहना ना होगा कि इस कथा में पुरुष वर्चस्व व पितृत्व सत्ता और दलितों की सामाजिक प्रतिष्ठा के लिए किए जा रहे संघर्षों का प्राचीन गाथा है।
सराइकेला—खरसावां के सामाजिक कार्यकर्ता अनुप महतो बताते हैं कि ‘मनसा पूजा रोपा मास के तीसरे पहर (17 अगस्त) से शुरू होकर तीसरे एवं चौथे पहर के दोनों पख (पखवारा) में मनाया जाता है। यह मूलतः आदिवासी, आदिम जनजाति, कुड़मि जनजातियों की पूजा मानी जाती है। परन्तु वर्तमान में आदिवासी समुदाय के साथ साथ सदानों (गैर आदिवासी) में भी प्रचलित है और प्राकृतिक रूप से पूरे धूमधाम से मनाया जाता हैं। समयानुकूल अच्छी व पर्याप्त बरसात हो ताकि फसल अच्छी हो और अच्छी फसल की कामना लिए किसान वर्ग मन में आस जगायें मनसा (जल) की पूजा करते हैं।’
वे आगे बताते हैं कि ‘मनसा पूजा या बारि पूजा का तात्पर्य है बाड़ि से उपजें फसल से। बाड़ि से उपजें फसल जोन्डरा, बरई, घंघरी, ऊरीद, झिंगा, बरवल, भिन्डी आदि नाना किस्मों के फसल तबतक नहीं खाते है, जबतक बाड़ि पूजा न हुआ हो। हमारी पुरखों की परंपरा रही है कि बाड़ि से उपजें फसल सबसे पहले अपने राइ-रइया को चढ़ा-पढ़ा यानि बाड़िबंधा करने के बाद ही सपरिवार ग्रहण करेंगे, ताकि बाड़ि में उपस्थित विषैले जीव-जन्तु, कीड़े-मकोड़े, विषैले “लत” आदि से सुरक्षित रहें। यहाँ “लत” का मतलब रेंगने वाले जीवों से है, जैसे – साँप वगैरह। कालांतर में बाड़िबंधा ही बारि पूजा हो गया।’
बताते चलें कि मनसा पूजा को कहीं कहीं ‘बानसिनि’ पूजा भी कहते हैं। यह एक कुड़मालि शब्द है। “बान” का मतलब बाढ़ या पानी का ऊपर से नीचें आने की प्रक्रिया और “सिनि” जिसका शाब्दिक अर्थ पानी होता है। सिनि शब्द से ही सिनान (स्नान) शब्द की उत्पत्ति हुई।
बताया जाता है कि रोपा (रोपनी) के बाद खेत में पानी जम जाता है, जिससे “बोकी” (हरिहर धान के आग में सफेद होना) लगने का डर रहता है, जिस कारण बानसिनि के संजोत दिन पइन (खेत के सबसे निचला हिस्सा में) खोल देते हैं, ताकि जमा हुआ पानी निकले और उपवास के शाम को पइन बांध देते हैं, जिसे पइनबंधा कहते हैं। कालांतर में पइनबंधा ही बानसिनि बन गया। बानसिनि पूजा के बारे में यह विश्वास है कि इस दिन निश्चित रूप से बारिश/ वर्षा होती ही है।
यहां पुरखों से यह विश्वास है कि पारंपरिक विधि-विधान से उन्नत कृषि कार्य के संरक्षण-संवर्धन, समयानुकूल पर्याप्त बारिश एंव कृषि फसलों तथा मानव जाति को रोग-विघ्न से मुक्ति एंव विषैले जीव-जन्तुओं से सुरक्षा हेतु बानसिनि पूजा की जाती है।
बताते हैं कि कुड़मियत 13 मासें, 13 परब, 13 पूजा-पासा, 13 राइ-रइया, 13 दिन घाट-कमान में ही एक मनसा पूजा भी होता है।
इस पूजा में मुख्य रूप से पीठ़ा-पकवान के साथ-साथ पेरूवा (कबूतर), गैड़इ (बतख), पाठ़ा आदि पशु-पंक्षियों की पूजा (बलि) करते हैं। इस पूजा में बतख की बलि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अति महत्वपूर्ण माना गया है। क्योंकि बतख का माँस बहुत ही चिमट होता है एंव उसमें लिवर टॉनिक पाया जाता है, जो पीलिया (Jaundice) एंव पथरी (Kidney Stone) जैसी बीमारियों के लिए लाभदायक होता है। साथ ही कादो-पानी में तैरने वाला एवं शरीर का खून चुसने वाला “जोंक” शरीर में चिपकने पर बतख के खून से छुड़ाया जाता है। बतख के खून में प्रचुर मात्रा में आयोडीन पाया जाता है, जो घेंघा बीमारी होने से बचाता है। आदिवासियों की पारंपरिक प्रथा “पूजा” हैं। पूजा का शाब्दिक अर्थ “बलि” से हैं। इस पूजा में “चटिया” भी भोराते हैं, जो इस पूजा को आकर्षित और उत्कृष्ट बनाता है।
बता दें कि टोटेमिक कुड़मि जनजाति प्रकृति पूजक है इसलिए सभी कृषि कार्य करने से पूर्व प्रकृति को आह्वान कर पूजा करते हैं। बिहिन (बीज) बोने से पहले “रहइन पूजा”, बिहिन (पौधा) रोपने से पहले “मड़इ पूजा”, बारि, टाँड़ आदि के उपजें फसल खाने (नेवाइन करने) से पहले “मनसा पूजा”, धान (फसल) काटने से पहले “जाहेरथान पूजा” आदि करते हैं ।
इस प्राकृतिक पूजा को खेत / तालाब / नदी आदि घाट से सिनि (पानी) लाकर किया जाता है। सिनि लाने को कहीं कहीं “बारि लाना” तो कहीं-कहीं “पइनबंधा” भी कहते हैं। इसकी पूजा / आराधना पारिवारिक रूप से घर के आँगन में भूतपिंढ़ा के सामने घर के मुखिया द्वारा और सामूहिक रूप से गाँव का नाँया / पाहन द्वारा मनसा मंड़रि में “सोलह आना” का पूजा करते हैं। पीठ़ा-पकवान के साथ-साथ सोलह आना का पूजा भेजा-बिहरी उठाकर सलानी करिया पाठ़ा पूजा दिया जाता हैं। पूजा के माँस को “प्रसाद” कहते हैं । मनसा पूजा के परना दिन पूजा के बाद सुबह को ही प्रसाद को हुँडा लगा के बाँटकर घर-घर पहुंचाया जाता है।
यह पूरी तरह आदिवासियत रीति-रिवाज, परंपरा एंव प्राकृतिक पूजा है, कोई मूर्ति पूजा नहीं, कोई देवी नहीं, कोई मंदिर नहीं। बावजूद इसे वर्तमान में ब्राह्मणवाद की शिकार बना दिया गया है। मंदिर और मूर्ति भी स्थापित किए जा चुके हैं। सबसे मजे की बात तो यह है कि मनसा के साथ विद्या और धन की देवी माने जाने वाली सरस्वती और लक्ष्मी की मूर्तियां भी होती हैं।
हिंदी व खोरठा के जाने माने साहित्यकार व कथाकार दलित लेखक प्रह्लाद चंद्र दास कहते हैं कि ‘मनसा पूजा मुख्यत: बंगाल का त्योहार है, जिसे बंगाल से सटे हुए झारखंड में भी मनाया जाता है।’
वे बताते हैं कि ‘इस पूजा की कहानी में शामिल मिथकीय चरित्रों की एक सरल व्याख्या मैंने अपनी कहानी,”झपांग” (बया में प्रकाशित) के माध्यम से करने की कोशिश की है।’
वे बताते हैं कि ‘इस पूजा में ब्राह्मण नहीं होते। श्रद्धालु खुद पुजारी होता है। इस देवी की मूर्ति बना कर या बगैर मूर्ति के भी पूजा की जाती है। यह पूजा किसी खास दिन में ही हो, यह जरूरी नहीं है। श्रावण संक्रान्ति से आरंभ कर भादो के पूरे महीने में, जब मन हो या सामर्थ्य हो जाय, श्रद्धालु पूजा कर सकते हैं। सामर्थ्य की बात इसलिये कि इस पूजा में बलि देनी पड़ती है। पर, किस की बलि ? यह तय नहीं है। बलि कबूतर, बत्तख से ले कर बकरे तक की बलि चढ़ायी जा सकती है। चूंकि श्रद्धालु निम्नतर आय वर्ग के होते हैं, उन्हें इसके भी जुगाड़ के लिए सोचना पड़ जाता है। अमूमन यह पूजा तीन दिनों तक, कभी और कहीं-कहीं पांच दिनों तक चलती है। इस लचीलेपन को ध्यान में रखते हुए इसके लिए ‘मोनेर मोनोसा’ उक्ति का प्रयोग किया जाता है, अर्थात जब मन हो पूजा कर लो।’
उनका मानना है कि ‘दुर्गा सामंतों की देवी है व मनसा दीन- दुःखियों की। किसी समर्थ शूद्र ने दुर्गा पूजा के प्रतिकार में इस पूजा की शुरुआत की होगी, जहां ब्राह्मणेतर सारी जातियों का प्रवेश है। मैं यह भी बता दूँ कि यह पूजा शूद्रों के यहां ही होती है। तथाकथित सवर्णों के यहां नहीं।’
वे कहतें हैं कि ‘झारखंड की सदान संस्कृति में रुचि रखने और खोज करने वाले विद्वान इसकी ऐतिहासिकता की जाँच में कुछ समय और साधन व्यय कर सकें तो यह एक बड़ी उपलब्धि होगी।’
खोरठा पत्रिका ”लुआठी” के संपादक गिरिधारी गोस्वामी का मानना है कि ‘दरअसल मनसा पिछड़ी व अनुसूचित जाति के बीच सबसे लोकप्रिय देवी है। एक बंगला ‘जात’ की पंक्ति है ‘आमी मनसा मायेर चेला। भात खाय माँ दूटी-दुटी, मोद खाय दू बेला, आमी मनसा मायेर चेला।’
अर्थात- ‘मैं मनसा माँ का शिष्य हूँ। मैं भात थोड़ा-थोड़ा ही खाता हूँ पर दारु दोनों वक्त (सुबह-शाम) पीता हूँ, मैं मनसा माँ का शिष्य हूँ।’
मनसा पूजा के अवसर पर गाये जाने वाले इस भजन को ‘जात’ कहते हैं।
वे बड़े आक्रामक होकर कहते हैं कि ‘मनसा पूजा में मांस-दारु खाने की पूरी छुट होती है। तन्त्र-मन्त्र, डायन, ओझा, संपेरे जादू-टोना करने वाले अशिक्षित और ढोंगी लोग मनसा देवी की ओर सहज आकर्षित होते हैं।’
जेएनयू के पूर्व छात्र नेता एवं झारखंड जनतांत्रिक महासभा से जुड़कर सामाजिक राजनीतिक काम कर रहे है दीपक रंजीत बताते हैं कि ‘इस मनसा पूजा के पीछे कारण है की खेती बाड़ी का काम पानी के बिना असंभव है, जब किसान कृषि के लिए उपयुक्त पानी से संतुष्ट हो जाता है तो उसकी कृतज्ञता व उपकार की पूजा करके प्रकृति महाशक्ति के प्रति अपने श्रद्धा व निष्ठा को दर्शाता है।’
बत्तख की बलि देने के पीछे के कारण पर वे बताते हैं कि ‘कृषि कार्य करते हुए यहां वहां की पानी पीने से किसान के शरीर में विभिन्न प्रकार के जीवाणु पैदा हो जाते हैं और उसकी जठराग्नि कम हो जाती है इससे पुनः अधिक करने हेतु बत्तख का मांस काफी लाभदायक होता है और इसे पूरे परिवार को एक नई ऊर्जा मिलती है।’