स्त्री कामगारों ने काशी में भारत बंद को बनाया कामयाब

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किसान आंदोलन के समर्थन में भारत बंद
संयुक्त किसान मोर्चे ने बीएचयू लँका गेट पर किया विरोध प्रदर्शन

 

वाराणसीः खेती-किसानी बचाने के मुद्दे पर आहूत 27 सितंबर के भारत बंद को काशी में स्त्री कामगारों ने सफल बनाया। ऐपवा नेता कुसुम वर्मा की अगुवाई में आईं स्त्री कामगारों ने इस मौके पर जनविरोधी सरकारी नीतियों के चलते आम मेहनतकश जनता पर बरपा होने वाले कहर को सीधी-सादी भाषा में व्यक्त किया। बमुश्किल साक्षर लगने वाली इन कामगार स्त्रियों ने तीनों काले कृषि कानूनों की असलियत बताते हुए कहा कि गरीब किसानों-खेत मजदूरों के साथ ही साथ शहरी सर्वहारा के हितों के लिए यह लाजिमी है कि इन्हें फौरन वापस लिया जाए।

बीएचयू के लंका गेट पर आयोजित सभा को संबोधित करते हुए कृषि मामलों के जानकार डॉ. मोहम्मद आरिफ ने कहा कि केंद्र की मोदी सरकार ने नए कृषि और श्रम क़ानूनों के रूप में भारत के मज़दूरों, ग़रीबों, मध्यम किसानों सहित सारी मेहनतकश जनता पर एक बड़ा हमला किया है। श्रम क़ानूनों में बदलाव के ख़िलाफ़ मज़दूर संगठनों ने भले ही बड़े स्तर पर आवाज़ उठाई है, बड़ी संख्या में मज़दूरों ने सड़कों पर उतरकर रोष जताया है, लेकिन हुकूमत को बड़ी चुनौती देने में कामयाबी हासिल नहीं कर सके। लेकिन कृषि क़ानूनों के विरुद्ध किसान संगठनों की पहलक़दमी पर उठे जन आंदोलन, जिसमें मुख्य भागीदारी ग़रीब और मध्यम किसान की रही है, ने फासीवादी हुकूमत को बड़ी टक्कर दी है और इसके अनेकों आकलन फेल कर दिए हैं। लेकिन फिर भी मोदी सरकार हार मानने को तैयार नहीं है। इसलिए जनता के और बड़े स्तर पर, और अधिक मज़बूती से इस संघर्ष में शामिल होने की ज़रूरत है।

नए कृषि क़ानूनों से सबसे अधिक मार मज़दूरों-अर्ध मज़दूरों पर ही पड़नी है, भले ही उनकी बड़ी संख्या को फि़लहाल इसकी समझ नहीं है। नए कृषि क़ानूनों के मुद्दे को सिर्फ़ किसानों का मुद्दा कहना उचित नहीं है। यह मसला कुल मेहनतकश जनता का मसला है। लेकिन मज़दूर वर्ग इस मसले की चुभन अभी उतना महसूस नहीं कर रहा, जितनी कि ज़रूरत है। मज़दूर वर्ग में चेतना और संगठनिक ताक़त की कमी के कारण श्रम कोडों के रूप में लाए गए श्रम क़ानूनों के ख़िलाफ़ भी आवश्यक संघर्ष नहीं हो पाया है। नए श्रम और कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ शहरों-गाँवों की मज़दूर-अर्ध मज़दूर आबादी को जागरूक, लामबंद और संगठित करने के लिए ज़ोरदार कोशिशों की ज़रूरत है। कुछ संगठनों ने इस संबंधी सराहनीय क़दम उठाए भी हैं। लेकिन विभिन्न आत्मगत और वस्तुगत कारणों के चलते ज़रूरी नतीजे हासिल नहीं हो सके हैं।

बीएचयू की प्रो. प्रतिमा गोंड ने अपने संबोधन में कहा कि नए श्रम और कृषि क़ानूनों के मेहनतकश जनता पर पड़ने वाले घातक असरों के बारे में शहरों-गाँवों की मेहनतकश जनता में और अधिक जागरूकता फैलाने के लिए और अधिक ज़ोरदार कोशिशों की ज़रूरत है।

किसान नेता रामजनम भाई ने कहा कि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे संघर्ष को साल होने वाला है। पिछले दिनों कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ संघर्ष में एक नया उभार आया है। इस नए उभार ने केंद्र की मोदी हुकूमत के आकलनों पर पानी फेर दिया है। केंद्रीय हुकूमत ने ये भ्रम पाला था कि दिल्ली मोर्चा दो-चार दिन का खेल है। लेकिन नए कृषि क़ानूनों के ज़रिए किए गए इस हमले की चुभन जनता में, ख़ासकर ग़रीब और मध्यम किसानों में, इतनी ज़्यादा है कि भारतीय शासकों की तमाम साजिशों, सर्दी-गर्मी-बारिश की भारी मार, किसान संगठनों के आपसी मतभेदों, ग़लतियों, लंबे मोर्चे, विधानसभा चुनाव का अखाड़ा गर्माने आदि सब भारी मुश्किलों के बावजूद दिल्ली मोर्चा लगातार जारी रहा है। कृषि क़ानूनों के विरुद्ध जारी संघर्ष विभिन्न मोड़ों से गुज़रता हुआ, बड़े उभार के बाद गिरावट की स्थिति का सामना करते हुए सँभलता हुआ आज फिर उभार की स्थिति में है।

भगत सिंह छात्र मोर्चा की इप्शिता ने अपने संबोधन में कहा कि 26 जनवरी की घटनाओं ने मोदी हुकूमत को दिल्ली मोर्चे को उखाड़ फेंकने के लिए एक सुनहरा मौक़ा मुहैया करवाया था। इस मौक़े को इस्तेमाल करने के लिए इसने अपना पूरा ज़ोर भी लगाया। लेकिन मोदी सरकार का लगाया एड़ी-चोटी का ज़ोर काम नहीं कर सका। कॉमरेड बनाम खालिस्तानी, बुजुर्ग बनाम नौजवान जैसी साजिशों ने आंदोलन का नुक़सान तो किया, लेकिन इसकी गहरी जड़ों को नहीं हिला सकीं।

नेताओं पर माओवादी होने के ठप्पे, आंदोलन में खालिस्तानियों की घुसपैठ के बहाने कुत्साप्रचार और दमन द्वारा संघर्ष को कुचलने की कोशिशें नाकाम सिद्ध हुईं। विधानसभा चुनावों की घोषणा के बाद, भाजपा, कांग्रेस, अकाली दल, बसपा, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी आदि विभिन्न पूँजीवादी पार्टियों ने चुनावी अखाड़ा गर्मा कर इस संघर्ष को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश की। दिल्ली मोर्चे का लगातार जारी रहना, पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में हुई मुज़फ़्फ़रनगर रैली में हुए लाखों के जुटान, करनाल में किसानों के दमन विरोधी मोर्चे और कई अन्य घटनाओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि इस आंदोलन को कुचलना इतना आसान नहीं है। उत्तर प्रदेश में भाजपा की हालत कमजोर करने में कृषि क़ानूनों विरोधी संघर्ष ने अहम भूमिका निभाई है। लगातार हो रहे विरोध के कारण पंजाब में इन राजनीतिक पार्टियों को चुनाव प्रचार धीमा करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। पंजाब में टोल प्लाज़े अभी भी बंद हैं। अंबानी-अडानी के कारोबारों का बड़े स्तर पर नुक़सान हुआ है। भाजपा नेताओं के पार्टी से इस्तीफ़ों का सिलसिला लगातार जारी है। इस संघर्ष ने आर.एस.एस./भाजपा के तेज़ी से आगे बढ़ते जा रहे सांप्रदायिक दमन-उत्पीड़न के रथ के आगे बाधा खड़ी करने का काम किया है और सांप्रदायिक एकता को मज़बूत करने में भूमिका निभाई है। इस संघर्ष की एक ख़ास देन यह भी है कि इसने सरकारों, विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के साथ-साथ अंबानी-अडानी जैसे कारपोरेट घरानों के प्रति दुश्मनी की समझ हासिल करने में जनता की बड़े स्तर पर मदद की है।

नए कृषि क़ानूनों का विरोध करते हुए, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मेहनतकश जनता का इस संबंधी पैंतरा वही नहीं हो सकता जो धनी किसानी का है। मुनाफ़े को ध्यान में रखकर लिया गया पैंतरा मज़दूरों, ग़रीब किसानों सहित गाँवों, शहरों की अन्य मेहनतकश आबादी का पैंतरा हो ही नहीं सकता। यह बात बार-बार तथ्यों सहित सिद्ध हो चुकी है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (असल में अधिक मुनाफ़े) की माँग धनी किसानी की माँग है और ये देश की मेहनतकश आबादी (ग़रीब किसानों सहित) के हितों के ख़िलाफ़ भुगतने वाली माँग है। हम नए कृषि क़ानूनों का विरोध इसलिए करते हैं, क्योंकि इनके कारण अनाज की सरकारी ख़रीद के ख़त्म होने से राशन की सार्वजनिक वितरण प्रणाली ख़त्म कर दी जाएगी। राशन डिपुओं से मिलने वाली भोजन सामग्री पर भारत के करोड़ों मेहनतकश लोग निर्भर हैं, जिनकी भोजन सुरक्षा पर खतरे की तलवार लटक चुकी है। पूँजीपतियों को अनाज की ख़रीद की छूट से अनाज की जमाखोरी और कालाबाज़ारी बढ़ेगी और महँगाई की मार और तीखी हो जाएगी। ठेका समझौतों में झगड़े संबंधी झगड़े के पक्षों को सि‍विल कोर्ट में जाने का अधिकार नहीं है। जिसका नुक़सान ग़रीब किसानी को होना है। यह ग़रीब किसानों के न्याय हासिल करने के जनवादी अधिकार पर एक तीखा हमला है। अनाज मंडियों के मज़दूरों को बड़े स्तर पर बेरोज़गारी का सामना करना पड़ेगा। ये क़ानून भारतीय हुक्मरानों की उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की घोर जनविरोधी नीतियों के तहत लाए गए हैं। इसलिए नए कृषि क़ानूनों का विरोध उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण की नीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष का हिस्सा है।

डॉ. नूरफातमा ने अपने संबोधन में कहा कि कृषि क़ानूनों के विरोध का एक बड़ा और महत्वपूर्ण कारण यह है कि केंद्र सरकार द्वारा कृषि संबंधी क़ानून बनाना राज्यों/राष्ट्रों को हासिल अधिकारों पर तीखा हमला है। भारतीय संविधान के अनुसार सिर्फ़ राज्य सरकारें ही कृषि पर क़ानून बना सकती हैं। केंद्र सरकार को यह अधिकार प्राप्त नहीं है। लेकिन मोदी हुकूमत ने कृषि संबंधी क़ानून बनाकर राज्यों के अधिकारों का उल्लंघन किया है। यह कोई छोटा मसला नहीं है। फासीवादी हुकूमत भारत के बड़े पूँजीपतियों के हितों के अनुसार ‘एक देश, एक बाज़ार’ का एजेंडा लागू कर रही है। इसी एजेंडे के तहत ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’, भारत को एक राष्ट्र बनाने, राज्यों/राष्ट्रों के अधिकार छीनने, ताक़तों के केंद्रीकरण करने का एजेंडा लागू किया जा रहा है। वैसे तो सन् सैंताली से ही भारत का बड़ा पूँजीपति वर्ग इस कोशिश में लगा हुआ है, लेकिन 2014 से केंद्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा भाजपा की सरकार बनने के बाद इन कोशिशों में काफ़ी तेज़ी आई है। इस मामले में सबसे तेज़ हमला धारा 370 और 35ए को ख़त्म करके कश्मीरी राष्ट्र के अधिकारों पर हमले के रूप में किया गया है। फासीवादी हुकूमत के राज्यों/राष्ट्रों के अधिकारों को कुचलने की इन साजिशों को तीखी टक्कर देने की ज़रूरत है। इसलिए नए कृषि क़ानूनों को रद्द करवाने का संघर्ष फासीवादी हुकूमत की ताक़तों के केंद्रीकरण, राज्यों/राष्ट्रों के अधिकारों को कुचलने की लिए राष्ट्रीय दमन-उत्पीड़न की नीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष भी है।

पुराने श्रम क़ानूनों के तहत भारत के मज़दूर वर्ग को पहले से ही बहुत थोड़े क़ानूनी श्रम अधिकार हासिल थे। हमें बिलकुल भी यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि पुराने श्रम क़ानून मज़दूर वर्ग की सेवा के लिए बने हुए थे। जैसे पूरा भारतीय संविधान पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है, वैसे ही पुराने श्रम क़ानून भी इसी वर्ग की ही सेवा करते थे। लेकिन देश-दुनिया की हालतों, मज़दूर वर्ग के क़ुर्बानी भरे संघर्ष के दबाव में भारतीय हुक्मरानों को मज़दूरों के लिए अलग-अलग समय पर अनेकों संवैधानिक अधिकार मज़दूर वर्ग को देने पर मजबूर होना पड़ा है। विभिन्न केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा इन अधिकारों पर कैची चलाने की कोशिशें भी लगातार जारी रही हैं। आर्थिक संकट के गहराने से पूँजीपति वर्ग की ये कोशिशें भी तेज़ होती गईं। भारत की मेहनतकश जनता के जनवादी अधिकारों के सबसे बड़े दुश्मन हिंदुत्वी कट्टरपंथी फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा भाजपा को केंद्र सरकार पर काबिज़ करवाने में पूँजीपति वर्ग के सबसे बड़े मक़सदों में एक मक़सद श्रम क़ानूनों में बदलाव करके इन कोशिशों को सफल बनाना था। चार श्रम कोडों के रूप में नए श्रम क़ानून लाकर मोदी हुकूमत ने पूँजीपति वर्ग का एक बड़ा सपना साकार कर दिया है। नए श्रम क़ानूनों के तहत आठ घंटे की काम दिहाड़ी और उसका न्यूनतम वेतन, हड़ताल करने, यूनियन बनाने, श्रम विभाग द्वारा औद्योगिक इकाइयों की जाँच-पड़ताल आदि संबंधी क़ानूनी श्रम अधिकार छीने गए है। इसका अर्थ है कि जो कुछ अधिकार मज़दूरों को पुराने श्रम क़ानूनों के तहत हासिल थे, उनमें से अब बहुत सारे ख़त्म कर दिए गए हैं।

सभा में उपस्थित लोगों ने मोदी सरकार को किसान विरोधी-मजदूर विरोधी बतलाते हुए जम के नारेबाजी की।
कार्य्रकम अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसिएशन(ऐपवा) भगतसिंह छात्र मोर्चा औऱ समाजवादी जन परिषद द्वारा आयोजित था।
कार्यक्रम का संचालन ऐपवा की राज्य सचिव कुसुम वर्मा ने किया।
ऐपवा से सुतापा गुप्ता, किसान मजदूर परिषद से अफलातून, राजेन्द्र, किसान नेता जन्म, लक्ष्मण, पीएसफोर से निराला, बीसीएम से इप्शिता, आइसा से राजेश,  घरेलू कामगारिनो में विमला शीला, सविता, गांधी वादी विचारक पारमिता, डॉ मुनीज़ा, पीयूसीएल से प्रवाल जी, डॉ. नूरफतिमा ,ट्रेड यूनियन नेता वी की सिंह जी ने भी बात रखी।
किसानों की मांगों को लेकर ज्ञापन भी दिया गया।

 

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