परमानंद पांडेय
मानहानि के दावे और कॉपी राइट उल्लंघन के मामले
सच्चाई की तह तक जाने के लिए ‘द वायर’ मुद्दे की जांच होनी चाहिए
फर्जी और झूठी खबरें फैलाना पत्रकारिता के लिए कोई नई बात नहीं है। यह प्रथा लंबे समय से चली आ रही है लेकिन जिस पैमाने पर जितनी जल्दी ऐसे मामले सामने आ रहे हैं और ऐसा करने वालों में समाज के भिन्न वर्गों के लोगों की जो भागीदारी है उसका वर्णन बहुत मुश्किल है। इसका दुखद पहलू यह है कि जो लोग सत्य और वस्तुनिष्ठता के समर्थक होने का दावा करते हैं, वे भी इस नापाक कार्य में लिप्त हैं। कुछ समय पहले हमने देखा था कि एक यूट्यूब चैनल के संचालक, जो खुद के फैक्ट चेकर होने का दावा करते हैं ने खुद को नोबेल शांति पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट किए जाने से संबंधित एक अफवाह फैलाई थी। कई समाचार चैनल्स ने इस अफवाह पर विश्वास कर व्यापक प्रचार दिया और ऐसा करने के इच्छुक तथा मिलीभगत करने वाले पक्ष बन गए।
इसी तरह, कई साल पहले एक टीवी चैनल ने एक स्कूली शिक्षक द्वारा देह व्यापार चलाने और पैसे कमाने के लिए स्कूल की छात्राओं का इस्तेमाल करने की झूठी खबर फैलाई थी। उक्त अफवाह ने न केवल निर्दोष शिक्षक का करियर खराब कर दिया बल्कि स्कूल और छात्रों को भी बदनाम किया। दूसरी ओर पत्रकार महोदय नौकरी के लिहाज से दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करते रहे। सबसे बड़ा झटका यह है कि कई जिम्मेदार पत्रकार, जिनकी बातों को आम जनता समाचार और सत्य मानती है, भी निराधार खबरें और कहानियां फैलाने में लिप्त पाए गए हैं। तथाकथित जिम्मेदार पत्रकारों और टीवी चैनलों द्वारा विमुद्रीकरण और कोविड के समय फैलाए गए झूठ, घोटालों से कम कुछ नहीं थे।
संबंधित अधिकारियों ने इन मामलों में उचित कार्रवाई क्यों नहीं की, इसे समझना वाकई पेचीदा है। दरअसल उन बेशर्म पत्रकारों और मीडिया घरानों के नाम बताने और उनकी पोल खोलने के लिए स्वतंत्र और स्वायत्त संगठनों को आगे आना चाहिए था।
लंबे समय से चली आ रही यह स्थिति पत्रकारिता में फर्जीवाड़ा को रोकने और नियंत्रित करने के लिए एक प्रभावी नियामक संस्था की आवश्यकता को रेखांकित करती है। इंटरनेट के इस युग में पेशे की विश्वसनीयता के लिए यह अराजक स्थिति सबसे बड़ा खतरा है। खासकर तब जब फैक्ट चेकिंग के नाम पर भी बेईमानी हो रही है। एक तरफ सोशल और वेब मीडिया की पहुंच दूर-दूर तक हो गई है और शरारती तत्व इस तकनीकी वरदान का दुरुपयोग कर छल, अफवाह और झूठ फैला रहे हैं। एजेंडा संचालित पत्रकारिता पेशे को अपूरणीय क्षति पहुंचा रही है जिसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।
हाल ही में एक वेब पोर्टल ‘वायर’ ने यह साबित कर दिया है कि कुछ ऑपरेटरों के पास पत्रकारिता के सुनहरे सिद्धांतों के लिए बहुत कम सम्मान है, और वे देश के हितों के खिलाफ काम करने वाली ताकतों के इशारे पर अपना फायदा उठा रहे हैं। इस बार द वायर और उसके संचालकों को रंगे हाथों पकड़ा गया है क्योंकि उन्होंने शक्तिशाली कंपनी मेटा पर आरोप लगाया था।
इसने उन्हें इतनी बुरी तरह से बेनकाब कर दिया कि उनके पास माफी मांगने और खबर को हटाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा। यह भी सामने आया है कि कुछ विदेशी देश में अविश्वास का माहौल बनाने के लिए भारी मात्रा में धन खर्च कर रहे हैं।
वैसे तो भारत में किसी भी ऐसे मीडिया संस्थान का पंजीकरण नहीं कराया जा सकता है, जिसका संपादक या मालिक विदेशी नागरिक हो। पर देखा जाता है कि कई विदेशी इन वैधानिक प्रावधानों का खुले तौर पर उल्लंघन कर रहे हैं। दुर्भाग्य से, सरकारी अधिकारी इन उल्लंघनकर्ताओं की ओर से आंखें मूंदे रहते हैं और कई बार अपराधियों और कानून तोड़ने वालों को अपना गुप्त और संदिग्ध समर्थन देते हैं।
वास्तव में, भारतीय संविधान द्वारा गारंटीकृत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आनंद लेने के नाम पर ब्लैकमेल करने वाले नकाबपोश पत्रकारों के खिलाफ सख्त और अनुकरणीय कार्रवाई की जानी चाहिए। कानून के सख्त क्रियान्वयन के अभाव में, अपने विदेशी आकाओं की धुन पर नाचने वाले ये शैतान देश का नाम बदनाम करने से नहीं हिचकिचाएंगे।
इन तथाकथित पत्रकारों का इतना दबदबा है कि वे एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया जैसे नपुंसक और फर्जी निकायों पर अधिकार के साथ हुक्म चलाते हैं।
इन नकाबपोश पत्रकारों की व्यवस्था इतनी गहरी है कि अपनी इच्छा से किसी की छवि बनाते या बिगाड़ते हैं। यह वह समय है जब आम जनता को अमूल्य मौलिक अधिकारों की रक्षा और पत्रकारिता के पेशे की विश्वसनीयता की रक्षा के लिए गोएबल्स के नए अवतारों के खिलाफ अथक संघर्ष छेड़ना चाहिए।
यह पोस्ट कल की है और मुझे लगता है कि उस समय तक द वायर के संपादकों के खिलाफ छापे की कार्रवाई की खबर नहीं थी। मेरा और बहुत सारे अन्य लोगों का मानना है कि विदेशी ताकतों ने अपने निहित स्वार्थवश द वायर का उपयोग किया और जब द वायर को यकीन हो गया कि उसके सूत्र गलत हो सकते हैं तो उसने माफी मांग ली और खबर हटा ली। ऐसे में मामला संपादकों के खिलाफ कार्रवाई से ज्यादा का है और दिल्ली पुलिस की कल की कार्रवाई सरकार की सेवा है जबकि सरकार को चाहिए कि वह पत्रकारिता की सेवा करे। पत्रकारिता के साथ जिस ईमानदारी की आवश्यकता है वह उसके लोगों में न दिखे तो प्रमुख स्टेकधारक होने के नाते सरकार की जिम्मेदारी है कि वह उसे ठीक करे पर सरकार अभी पत्रकारिता का उपयोग अपने हित में कर रही है और इसके लिए सरकारी धन और विज्ञापनों का दुरुपयोग किया जा रहा है। सरकार को और जनता को निष्पक्षता पत्रकारिता की मांग करनी चाहिए। मुझे लगता है कि स्वस्थ पत्रकारिता के लिए कॉपी राइट का मामला भी जरूरी है और इसके उल्लंघन पर ऐसी कार्रवाई होनी चाहिए कि कोई ऐसा करे ही नहीं पर वह भी नहीं हो रहा है। उल्टे ऐसी चूक या गलती के लिए कार्रवाई हो रही है जिसे स्वीकार किया जा चुका है, माफी मांग ली गई है।
अनुवाद
संजय सिंह