लड़कियों को बराबरी का हक़, स्नेह और शिक्षा दिए बिना हम विकासशील देशों की श्रेणी में नहीं आ सकते

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* विशद कुमार

साझा संवाद द्वारा ऑनलाइन वेबिनार श्रृंखला में स्त्री के उत्पीड़न, बदहाली और गैरबराबरी जैसी जटिल सामाजिक एवं नैतिक ज़िम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए “स्त्री – कल, आज और कल” विषय पर परिचर्चा का दूसरा भाग 23 अगस्त 2020 को आयोजन किया गया। विषय प्रवेश करते हुए टाटा मोटर्स के पूर्व डी जी एम एवं साझा संवाद के संस्थापक सदस्य रामबल्लव साहू ने कहा कि साझा संवाद एक सामाजिक संगठन है जिसका मुख्य उद्देश्य है साझी संस्कृति एवं साझा इतिहास की रक्षा करना एवं साझा संवाद स्थापित करना। मौजूदा दौर में भी हमारे समाज में महिलाओं को उनका अधिकार, स्वाभिमान और पुरूष प्रधान समाज के बंदिश से मुक्ति नहीं मिल सकी है। साझा संवाद का यही प्रयास की महिलाओं के हक़ और सम्मान के लिए प्रतिबद्ध है।

इस परिचर्चा में टाटा स्टील की पूर्व अधिकारी एवं वर्तमान में  डी क्यू एस (DQS, India) के सस्टैनबिलिटी कंसल्टेंट प्रिया रंजन ने कहा कि महिला जो जिस समाज ने देवी का दर्जा दिया गया उसी समाज में रूढ़िवादी परंपरा थी जो समय के साथ साथ खत्म होती गई और कुछ अभी भी प्रासंगिक हैं। डायन, दहेज, भ्रूम हत्या, बेटा जन्म होने पर अधिक खुश होना, बहु बेटियों के साथ अत्याचार, रेप जैसी अनेक सामाजिक बुराइयों को दूर करना होगा। लड़कियों को बराबरी का हक़, स्नेह और शिक्षा दिए बिना हम विकासशील देशों की श्रेणी में नहीं आ सकते हैं।

इस मौके पर एशिया की पहली कैब ड्राइवर एवं उद्यमी, रेवती रॉय ने कहा कि मेरे पति का बीमारी का ईलाज कराने और परिवार चलाने के लिए मुझे बहुत संघर्ष करना पड़ा। ड्राइविंग का शौक को मैंने रोजगार का साधन बनाने का निर्णय लिया। मैंने टैक्सी लेकर मुंबई के सड़को में 10 महीनों तक निकल पड़ी और पुरष ड्राइवरों का उत्पीड़न सहन करना पड़ा। मजबूत कामगार यूनियन के खिलाफ लंबी लड़ाई के बाद माननीय सर्वोच्च न्यायालय से मुझे न्याय मिला। 8 मार्च 2016 को मैंने हे दीदी (Hey DeeDee) नाम से ई कॉमर्स पार्सल डिलेवरी का काम शुरू किया जिसमें नॉन मैट्रिक से लेकर ग्शिक्षित जरूरत महिलाओं को गाड़ी चलाना एवं सेल्फ डिफेंस और कस्टमर केयर की प्रशिक्षण देकर आत्म निर्भर करते हुए रोजगार प्रदान करते हैं। ये ऐसा रोज़गार का जरिया है जिसमें महिलाएं स्वाभिमान के साथ अपना रोजगार कर रही है। अंत में मैं महिलाओं से अपील करती हूँ की वो अपनी सोच को घर की चार दिवारी और सामाजिक बंदिशों से बाहर निकले और आत्म निर्भर बने।
इस परिचर्चा में भाग लेते हुए स्त्री और नागरिक अधिकारों के  लड़ने वाली, सत्तर के दशक के बिहार आंदोलन की अगुआ नेत्री है और वरिष्ठ पत्रकार किरण शाहीन ने कहा कि 1975 अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष खत्म हुआ था और देश में आपातकाल होने के बावजूद स्त्री अधिकारों को लेकर कुछ चेतना आने लगी थी। लड़कों के साथ साथ कई नौजवान लड़कियां पढ़ाई लिखाई छोड़कर बिहार आंदोलन में कूद पड़ी थीं, उसमें मैं भी एक लड़की थी। कट्टर परंपरागत परिवार में जन्म लेने के कारण मेरे पास दो ही रास्ता था, एक कि घर की सुरक्षित दिवारों में बंद हो जाऊं, या फिर अपनी और सबकी मुक्ति का रास्ता चुनूं, मैंने दूसरा रास्ता चुना।

आज का ये परिचर्चा मैं बहादुर बहन सोनी सोरी को समर्पित करती हूँ जिसने पुलिसिया और राजकीय दमन का जिस बहादुरी से मुकाबला किया वो शब्दों में वर्णन नहीं किया जा सकता है। सोनी उस हर आदिवासी स्त्री की प्रतीक है जो ज़ुल्म और उत्पीड़न के खिलाफ में आवाज़ उठाती है। उसे न केवल गिरफ्तार किया जाता है बल्कि शरीर में पत्थर के टुकड़े भर दिए जाते है।
क्या कारण है इसका? क्योंकि सोनी सोरी कहती हैं कि हमसे हमारी जल, जंगल, जमीन, झरना, हमारी पहचान और आज़ादी मत छीनों।  हमें तुम्हारा विकास नहीं चाहिए है।
पूंजीपतियों एवं राजसत्ता द्वारा खेले जा रहे तथाकथित विकास के इस खेल में आदिवासियों को सतरंज की मोहरों की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। जिनका सबकुछ उन्हें ही गरीबी के कारण पलायन के लिए मजबूर किया जा रहा है और पलायन भी ऐसे बाजार में उठाकर फेंक देता जहां उनकी देह ही पूंजी के रूप में इस्तेमाल की जाती है। मनुष्य ट्रैफिकिंग, सेक्स वर्क और घरेलू कामगार के रूप में उत्पीड़न – पूंजी की निर्मम दुनिया आदिवासी स्त्रियों को यही देती हैं।
आदिवासियों को आमतौर पर सबसे अलग – थलग समझा जाता है और उन्हें मुख्यधारा में लाने की बात बार बार कही जाती है जैसे कि हाशिये पर रहने वाली प्राणी हों और कथित रूप से सभ्य नागरिक समाज उन्हें अशिक्षित, पिछड़ा और जंगली मानता है। आदिवासी स्त्री का जीवन इन हाशिये पर भी सबसे निचले पायदान पर है।
हमारा संविधान कहता है प्रत्येक नागरिक बराबर है। लेकिन जाति, धर्म और वर्ग में बंटा हमारा समाज कहता है आदिवासी पिछड़े हैं, वे समान नहीं है, वे हम जैसे नहीं है उन्हें मुख्यधारा में लाने की ज़रूरत है। ये अजीब बिडम्बना की बात है क्योंकि इनका सबकुछ लूटकर और शोषण करके उनके ही उत्थान की बात करते हैं।
देश के 5 करोड़ घरेलू कामगार में 90 प्रतिशत कामगार आदिवासी, दलित और अन्य उत्पीड़ित समाज से आते हैं। कानून है पर उन्हें लागू कराने की ईच्छाशक्ति नहीं है।
विधवा और एकल आदिवासी महिला ‘डायन’ के नाम पर मार दी जाती हैं। वेदांता, अडानी एवं अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जमीन के असल मालिक को रौंदने का इजाजत दे दी जाती है। कल कारखानों से निकलने वाले ज़हरीले रसायन से न केवल वातावरण और पानी प्रदूषित होता है बल्कि आम गाँव के लोगों के स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। ऐसी पूंजीवादी व्यवस्था में अपने ही जमीन में असहाय आदिवासी मजदूर हो जाता है। जंगल कट जाती है, पहाड़ रौंद दी जाती है और जहरीली पानी गर्व में ही शिशुओं को अपंग बनाता है। आदिवासी विकास के नाम पर बेदखल कर दिए जाते हैं।
बातें कहने को बहुत है पर आदिवासी स्त्री की वेदना, प्रताड़ना, संघर्ष और उसके डटें रहने को दिल से महसूस करनी होगी और सिर्फ कागज़ी हमदर्दी दिखाने के बजाए उनके साथ कंधा से कंधा और कदम से कदम मिलाकर अपने कर्तव्यों का निदान करना चाहिए।

इस परिचर्चा में मुख्य रूप से अरविंद अंजुम, मंथन बेबाक, शिबली फ़ातमी, अबुल आरिफ़, दीपक रंजीत, अजित तिर्की डेमका सोय, इश्तेयाक जौहर, लक्ष्मी पूर्ति, पुरुषोत्तम विश्वनाथ, महेश्वर मंडी आदि लोग उपस्थित थे।
साझा संवाद के संयोजक इश्तेयाक अहमद जौहर ने ऑनलाइन इस वेबिनार श्रृंखला की सफलता पर इस परिचर्चा में भाग लेने वालों का आभार व्यक्त किया।

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