विशद कुमार
इश्तेयाक अहमद द्वारा संचालित साझा संवाद के ऑनलाइन वेबिनार श्रृंखला में स्त्री की उत्पीड़न, बदहाली और गैरबराबरी जैसी जटिल सामाजिक एवं नैतिक ज़िम्मेदारी को ध्यान में रखते हुए “स्त्री – कल, आज और कल” विषय पर परिचर्चा का तीसरा और अंतिम भाग 30 अगस्त 2020 को आयोजन किया गया।
इस परिचर्चा की अध्यक्षता करते हुए टाटा मोटर्स के पूर्व डी जी एम एवं साझा संवाद के संस्थापक सदस्य रामबल्लव साहू ने कहा कि मौजूदा दौर में भी हमारे समाज में महिलाओं को उनका अधिकार, स्वाभिमान और पुरूष प्रधान समाज की बंदिश से मुक्ति नहीं मिल सकी है। इस परिचर्चा के द्वारा महिलाओं के शोषण और भेदभाव पर बहुत सारे मुद्दे उभर कर सामने आए। महिलाएं आधी आबादी होने के बावजूद समाज में असमानता और उत्पीड़न का शिकार आज भी हो रही हैं, जिसे हम पुरूषों को अविलंब दूर करना होगा।
इस परिचर्चा में भाग लेते हुए सामाजिक कार्यकर्ता एवं मुजफ्फरपुर बाल गृह कांड को माननीय सर्वोच्च न्यायालय तक लड़ाई लड़ने वाले संतोष कुमार ने कहा कि भारतीय संविधान के 73वें एवं 74वें संशोधन का विधेयक संसद में लाया गया ताकि कम से कम 33 प्रतिशत महिला की सीट लोक सभा एवं राज्य सभा मे सुनिश्चित हो सके, परन्तु दुर्भाग्यवश राजनीतिक पार्टियों के बीच तू-तू और मैं-मैं के बीच आजतक बिल पारित नहीं हो सका है। सारी राजनीतिक पार्टियां दलित समाज की तरह महिलाओं की सशक्तिकरण की सबसे बड़ी हिमायत कहती हैं परन्तु आश्चर्य यह है कि कोई भी राजनीतिक पार्टियां महिलाओं के हक के बराबर टिकट नहीं देती। कोई भी राजनीतिक यदि पार्टी अपनी पार्टी के अंदर 50 प्रतिशत टिकट महिलाओं को दे दे तो भी कोई संविधानिक रुकावट नहीं है। परन्तु कोई राजनीतिक यह करने को तैयार नहीं है। जहां एक तरफ अमेरिका के संसद में करीब 32 % महिलाएं हैं वहीं हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश में भी 21% से अधिक महिला सांसद हैं। परंतु हमारे देश में इस लोकसभा में सबसे अधिक 78 महिला सांसद चुने जाने के बाद भी 15% से कम हैं। लोकसभा के ऐसे 264 संसदीय क्षेत्र हैं जहां से आजतक एक बार भी महिला चुनाव नहीं जीती हैं। यही हाल राज्य के विधान सभाओं का भी है, क्योंकि किसी भी राज्य के विधान सभा में 15 प्रतिशत से ज्यादा महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं है। ग्राम पंचायत स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व मिला, परन्तु वहां भी पुरुष एमपी-एसपी यानी मुखिया-पति और सरपंच-पति बनकर उसके अधिकार और सम्मान में हस्तेक्षप किया करते हैं और सरकार भी इसको लेकर उदासीनता दिखती रही है। आवश्यकता है, कानून के साथ व्यवहारिक रूप से परिवार से लेकर संसद तक उनके हक और सम्मान देने का, जिससे बेहतर और संतुलित समाज का निर्माण हो सके।
इस मौके पर अपर अवर प्रमंडल पदाधिकारी (ग्रामीण कार्य विभाग), साहित्यकार व समाज सेवी अशोक कुमार ने कहा कि पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं की अनेक चुनौतियां रही है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संघठन के अनुसार दुनिया के 98% पूंजी पर पुरूषों का एकाधिकार है। भ्रूण हत्याएँ और सती प्रथा का कानून मेक अप की तरह है। श्रम और पूंजी का बिना हिसाब किये पुरुष, महिलाओं को गुलाम की तरह ही समझता है। उत्तराधिकार कानून को महिलाओं को हथियार की तरह इस्तेमाल करना चाहिए। हमें सबसे पहले अपने परिवार में महिलाओं को उचित सम्मान देना चाहिए। घर के बड़े छोटे फ़ैसलों में उनकी भी मतों को मानना चाहिए.। बेटी को बेटा के बराबर प्यार और सम्मान देना चाहिए। महिलाओं के भी घरेलू कार्य को उचित सम्मान और महत्त्व देना चाहिए। साथ ही गृह कार्यों में पुरुषों को अपनी पत्नी के साथ हाथ बढ़ानी चाहिए।
अंत में अशोक कुमार ने कहा कि फिल्मों में आइटम सॉन्ग में महिलाओं को प्रदर्शित करने की परंपरा बंद करनी चाहिए और इस परंपरा को खुद महिला संगठनों एवं नेताओं को विरोध करनी चाहिए, ताकि उनकी शक्ति का आभास पुरुष प्रधान समाज को कराया जा सके।
इस परिचर्चा में भाग लेते हुए जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के रिसर्च स्कॉलर आरती यादव ने विषय पर अपनी बातें रखते हुए कहा कि आज की स्त्री के सामने कौन कौन सी समस्याएँ हैं? इन समस्याओं से निपटने के लिए उसके सामने किस तरह की चुनौतियाँ पेश आती हैं? अगर इस सवाल के तह में हम जाएं तो आज हमारे पूरे समाज के सामने सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक, लैंगिक व जातिगत असमानता और वर्गीकरण के साथ ही ‘राष्ट्रवाद’ से लड़ना कठिन से कठिनतम होता जा रहा है, क्योंकि ‘राष्ट्रवाद’ विभिन्न असमानताओं को और भी मजबूत करता है.। राजनीतिक, धार्मिक व जातिगत ध्रुवीकरण का जो विकृत रूप देखने को मिल रहा है, इससे ख़िलाफ़ निर्भय होकर आवाज़ उठाना आज के समय की मांग है, जिसमें स्त्रियां अपना अहम भूमिका अदा कर सकती हैं। हम जानते हैं कि ‘राष्ट्रवाद’ के नाम पर असमानता को बनाये रखने का खामियाजा हमारे पूरे समाज को भुगतना पड़ता है, लेकिन महिलाएं उसकी आसान शिकार होती हैं, जैसा कि आज की विकृत राजनीति ने हमें यह दिखा भी दिया है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण बलात्कार के दोषियों को ‘राष्ट्रवाद’ को आधार बना कर कानूनी सजा से बचाने के प्रयास के रूप में हमारे सामने आता है। आज राष्ट्रवाद के नाम पर मुट्ठी भर वर्चस्वशाली लोग सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में अपना प्रभुत्व और दबदबा बनाये रखना चाह रहे हैं। एक ओर पितृसत्ता को तरह-तरह के दांवपेंचों द्वारा बनाये रखने का षडयंत्र जारी है तो दूसरी तरफ ‘राष्ट्रवाद’ के बेबुनियाद दलीलों द्वारा असमानता और शोषण को बढ़ावा दिया जा रहा है और इस शोषण की शिकार सबसे ज्यादा महिलाएं हैं। इसलिए आज के समय की यह मांग है कि विभिन्न धार्मिक पहचानों, जातिगत अस्तित्व से जुड़े लोगों, संगठनकर्ता और आंदोलनों से जुड़ी महिलाओं को एक मंच पर आकर लैंगिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और जातिगत भेदभावों व असमानताओं पर अपनी आवाज़ बुलंद करने की जरूरत है। जिस तरह से सत्ता और संसाधनों पर कब्ज़ा जमाये लोग ‘राष्टवाद’ को अपनी घृणित राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं, उसके विरुद्ध आवाज उठाना आज के दौर की सबसे ईमानदार पहल होगी। शोषित पीड़ित समुदाय खासकर दलित एवं आदिवासी महिलाओं को जिस तरह से यौन शोषण का शिकार बनाया जाता रहा है और बनाया जा रहा है, इससे लड़ना आज हर वर्ग और समाज की स्त्रियों के सामने सबसे बड़ी और अहम चुनौती है।
इस परिचर्चा में मुख्य रूप से अभिषेक राज, बिन्नी आज़ाद, स्वेता राज, पुरुषोत्तम विश्वनाथ, अबुल आरिफ़, बृहस्पति सरदार, माधुरी शर्मा, डेमका सोय, हरेंद्र प्रताप सिंह, मोती चंद, ईम्दाद खान, इश्तेयाक जौहर, लक्ष्मी पूर्ति, महेश्वर मंडी, आशुतोष महतो, विजय महतो आदि लोग उपस्थित थे।