आदिवासियों में है जनविद्रोह की विरासत

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सरायकेला खरसावां : संयुक्त ग्राम सभा मंच, चांडिल अनुमंडल के तत्वावधान में 9 अगस्त 2020 दिन रविवार को अनूप महतो के नेतृत्व और डोबो ग्राम प्रधान शंकर सिंह, तूलिन ग्राम प्रधान गणेश बेसरा, काठजोड़ ग्राम प्रधान आनंद सिंह की अध्यक्षता में विश्व आदिवासी दिवस मनाया गया, सभा का संचालन सुकलाल पहाड़िया के द्वारा किया गया।
अवसर पर डोबो ग्राम सभा के शहीद निर्मल महतो स्मारक से माल्यार्पण करते हुए कांदरबेड़ा चौक रघुनाथ मुर्मू को माल्यार्पण करते हुए चिलगू चौक बाबा तिलका मांझी को माल्यार्पण किया गया, उसके बाद एक यात्रा निकाल कर माकुला कोचा दलमा गेस्ट हाउस में समाप्त किया गया। गेस्ट हाउस में एक सभा की गई, जिसमें परिचर्चा के तहत वक्ताओं ने अपने अपने विचार रखे।


सामाजिक कार्यकर्ता अनूप महतो ने कहा कि विश्व आदिवासी दिवस के अवसर में झारखंड सरकार के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने राज्य में अवकाश की घोषणा की इसके लिए हेमंत जी को झारखंडी वासियों की तरफ से हुल जोहार एवं आभार। आज विश्व आदिवासी दिवस में हम आदिवासियों के लिए बहुत ही खुशी और आनंद का दिन है, परंतु क्या वाकई में हम आदिवासी खुश हैं? इस तरह झूठी खुशी के आड़ में झारखंडियों को सरकार गुमराह करना बंद करें, अगर सरकार वास्तव में झारखंडियों के हित का बारे सोचती हैं तो पहले 1932 का खतियानी लागू करें। क्योंकि 1932 को लागू करने का हेमंत सोरेन के चुनावी एजेंडों में से एक था और झारखंडी जनता इसी एजेंडा को देखते हुए हेमंत सोरेन को सत्ता में लाने का काम किया। हेमंत सरकार सहयोगी दलों का नाम पर झारखंडी जनता को गुमराह करना बंद करे, हेमंत सरकार को यह ध्यान में रखना चाहिए कि झारखंडी जनता से सरकार है ना कि सरकार से झारखंडी हैं।
अन्य लोगों ने भी अपने अपने वक्तव्य में कहा कि एक तरफ झारखंडी जनता के साथ साथ सरकार भी विश्व आदिवासी दिवस धूमधाम से मना रही है, तो दूसरी तरफ झारखंडी जनता की जल, जंगल, जमीन को उद्योगपति घरानों और भूमि माफियाओं की सांठगांठ से खुल्लम खुल्ला लूटी जा रही है।
सवाल यह भी उठता है कि इस लूट का जिम्मेदार कौन है? सरकार अगर विश्व आदिवासी दिवस मना रही है तो पहले आदिवासियों को बचाइए क्योंकि आदिवासी बचेगा तो ही राज्य की जनता आदिवासी दिवस मना पाएंगी और सरकार भी, अगर आदिवासी को बचाना है तो जल, जंगल, जमीन को बचाना होगा।

आज इस जल, जंगल, जमीन यानी आदिवासी को बचाने के लिए तिलका मांझी, सिद्धू—कानू, बिरसा मुंडा से लेकर निर्मल महतो और अनगिनत हमारे पूर्वज इस माटी में शहीद हुए हैं, क्या आज जो झारखंड का स्वरूप है, क्या इसी झारखंड के लिए हमारे पूर्वज शहीद हुए हैं? आज अगर इन महापुरुषों के दिखाए हुए रास्ते पर कोई झारखंडी चलता है तो उसे नक्सलवादी का ठप्पा लगाकर सलाखों के पीछे डाल दिया जाता है, सच कहने वाले का मुंह बंद कर दिया जाता है और आदिवासी समाज के बीच भय पैदा करने का काम किया जाता है। यह सच है जब तक आदिवासियों के जल, जंगल, जमीन की लूट होगी और आदिवासियों का शोषण होगा, तब तक नक्सल पैदा होगा, अब सरकार के हाथ में है कि आदिवासियों को सरकार नक्सल बनाना चाहती हैं या उन्हें शांति पूर्वक रूप में देखना चाहती है? आज अगर सिद्धू—कानू जिंदा होते तो उन्हें भी नक्सल कहा जाता।  सिद्धू—कानू के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ हूल विद्रोह हुआ था, जो पूरे विश्व का ध्यान अपनी तरफ खींचा था, क्योंकि मार्क्स वादी दर्शन के अध्येता कार्ल मार्क्स का भी ध्यान इस हूल विद्रोह ने खींचा था और उन्होंने इस विद्रोह को जनक्रांति कहा था। इससे साफ साफ पता चलता है कि उद्योगपति घरानों और पूंजीपति घरानों के खिलाफ संघर्ष करना हमारे पूर्वजों ने ही दुनिया को सिखाया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सत्ताधारी लोग आदिवासी को जिंदा रखने चाहते हैं या पूंजीपति और उद्योगपति घरानों का हमें गुलाम बनाना चाहते हैं?

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