प्रख्यात आलोचक अभय कुमार ठाकुर की नई कृति ‘रामचंद्र शुक्ल: कल, आज और कल’ का लोकार्पण और परिचर्चा समारोह!
वाराणसीः हिन्दी विभाग, का.हि.वि.वि. के विभागाध्यक्ष प्रो. वाशिष्ठ अनूप ने कहा कि, “शुक्ल जी ने अपनी आलोचना में जीवन के संपूर्ण पक्षों को रेखांकित करने वाली रचनाओं को विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण बताया। इसीलिए वे आलोचना को रीतिकाल से निकालकर भक्तिकाल की तरफ़ ले गए। जहां जीवन के लगभग सभी पक्ष मौजूद हैं। शुक्ल जी सहृदय आलोचक होने के साथ ही अपने विवेक का भी बराबर प्रयोग करते हैं। जोकि ‘चिंतामणि’ में लिखी उनकी भूमिका को सार्थक करता है।” वह बुधवार को बीएचयू परिसर स्थित हिन्दी विभाग के आचार्य रामचन्द्र शुक्ल सभागार में प्रख्यात आलोचक अभय कुमार ठाकुर की नई कृति ‘रामचंद्र शुक्ल: कल, आज और कल’ के लोकार्पण और परिचर्चा समारोह को सम्बोधित कर रहे थे।
वाणी प्रकाशन ग्रुप एवं हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित प्रख्यात आलोचक अभय कुमार ठाकुर की नई कृति ‘रामचंद्र शुक्ल: कल, आज और कल’ के लोकार्पण और परिचर्चा समारोह की शुरुआत मंचस्थ अतिथियों द्वारा महामना मालवीय जी की प्रतिमा पर माल्यार्पण एवं पुष्प अर्पित करके किया गया। स्वागत वक्तव्य देते हुए वाणी प्रकाशन ग्रुप के चेयरमैन अरुण माहेश्वरी ने कहा कि, “शोधार्थियों, विद्यार्थियों एवं साहित्य चिंतकों के लिए यह महत्वपूर्ण पुस्तक है।”
‘रामचंद्र शुक्ल: कल, आज और कल’ के लेखक अभय कुमार ठाकुर ने अपने लेखकीय वक्तव्य में कहा कि, “रचना करने के बाद लेखक को बोलना कम चाहिए और सुनना ज्यादा चाहिए और इसीलिए मैं सिर्फ़ रचना करते हुए मन में आए मनोद्वंदों और आपकी तरफ़ से आए प्रश्नों पर अपनी बात रखूंगा। आचार्य शुक्ल से आप असहमत हो सकते हैं, पर उन्होंने जो एक फ्रेमवर्क या कसौटी ली है, हम उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। उन्हें बखूबी समझने के लिए उनके समय के स्वाधीनता आंदोलन और उनके जीवन को भी समझना होगा। वास्तव में शुक्ल जी हिंदी साहित्य में पहले एंटीडिसिप्लिनरी लेखक हैं। आचार्य शुक्ल अपनी आलोचना में किसी रचनाकार की उपलब्धियों के साथ उसकी सीमाओं का भी बराबर ध्यान रखते हैं। शुक्ल जी स्पष्टवादी होने के साथ ही एक दुस्साहसी आलोचक भी हैं। उन्हें किसी रचनाकर का भय नहीं है।” अपने वक्तव्य के साथ ही लेखक ने श्रोताओं की तरफ़ से आए निम्नलिखित प्रश्न का भी यथासंभव उत्तर दिया:-
1. क्या यह कहा जा सकता है कि आचार्य शुक्ल की नज़र फोर्ट विलियम कॉलेज और वहां के लेखकों पर कम पड़ी है?
2. एक संपादक होने के नाते आचार्य शुक्ल के आलोचनात्मक निबंधों को संक्षिप्त रूप में संकलित एवं संपादित करते हुए आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा।
बीएचयू के एचआरडीसी सचिव एवं चर्चित कवि प्रो. आनंदवर्धन शर्मा ने कहा कि, “डॉ. ठाकुर ने इन लेखों के कालखंडों का एक बड़ा वितान चुना है, जिसमें हमें मध्यकाल से आधुनिक काल तक का कालखंड दिखाई पड़ता है। जोकि महत्त्वपूर्ण है। आचार्य शुक्ल ने हिन्दी ही नहीं, बल्कि दूसरी भाषाओं में हुए लेखन का पारायण एवं अनुवाद किया। इस किताब में ”
हिन्दी विभाग के आचार्य प्रो. कृष्णमोहन ने अपने वक्तव्य में कहा कि, “इस किताब में आप आचार्य शुक्ल के प्रतिनिधि लेखन के साथ उन पर पक्ष और विपक्ष में लिखे गए लेखों को भी पाएंगे। इसमें दो-तीन ऐसे लेख भी हैं, जोकि आचार्य शुक्ल के लेखन पर होती आई बहसों को संपूर्णता प्रदान करते हैं। जोकि संपादकीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।”
हिन्दी विभाग के ही आचार्य प्रो. प्रभाकर सिंह ने कहा कि, “आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर लिखी गई तमाम पुस्तकों के बाद यह पुस्तक इस मायने में खास है कि इसमें रचना और आलोचना का सुनियोजित ढंग से समन्वय किया गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल रचनात्मकता और आलोचना के बीच पुल का काम करते हैं। तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद आचार्य शुक्ल के बिना हिन्दी मानस पर बात नहीं की जा सकती। आचार्य शुक्ल के रचना की रचनात्मक मनोभूमि को समझने के लिए यह पुस्तक हमें नवाचारी दृष्टि देती है।” इस पूरे कार्यक्रम का संचालन एवं धन्यवाद ज्ञापन डॉ. विंध्याचल यादव ने किया।
इस कार्यक्रम में प्रो. आभा गुप्ता ठाकुर, प्रो. आशीष त्रिपाठी, प्रो. राजेश सिंह, डॉ. डी.के. सिंह, डॉ. काशिम अंसारी, डॉ. सिद्धि, बाबूराम, डॉ. महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा, डॉ. सुशीला शुक्ला, डॉ. राहुल मौर्य, डॉ. प्रभात मिश्र, डॉ. सत्यप्रकाश सिंह, डॉ. हरीश कुमार, डॉ. रवि शंकर सोनकर आदि के साथ काफ़ी संख्या में शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों की उपस्थिति रही।