– एच.एल. दुसाध
अमेरिका के मिनीपोलिस की एक पुलिस हिरासत में गत 25 मई को श्वेत पुलिसकर्मी डेरेक चाउविन द्वारा जिस अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की घुटने से गर्दन दबाकर हत्या किए जाने का वीडियो सामने आने के बाद पिछले 52 सालों में उग्र धरना-प्रदर्शनों का जो सबसे बड़ा सिलसिला शुरू हुआ,उनको गत मंगलवार को ह्यूस्टन में दफना दिया गया। इस दौरान अमेरिका के टेक्सास के ह्यूस्टन स्थित ‘ह्यूस्टन मेमोरियल गार्डेन्स कब्रिस्तान’ में हजारों की संख्या में जमा लोगों ने नम आँखों से उनको अंतिम विदाई दी। लोगों ने नस्लवाद के खिलाफ संघर्ष जारी रखने का संकल्प भी लिया। बहरहाल फ्लॉयड तो दफन हो गए किन्तु उनकी मौत के बाद विरोध प्रदर्शनों का जो सिलसिला अमेरिका के 50 में से 40 से अधिक राज्यों के लागभग 150 शहरों तक फैला,उनमें खूब कमी नहीं आई है । आज भी ढेरों शहरों मे लोग हाथों में ‘नो जस्टिस, नो पीस’ और ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ जैसे नारे लगी तख्तियाँ लिए लिए वह मंजर पैदा कर रहें हैं, जिसे देखकर मौजूदा सरकार की पेशानी पर चिंता की लकीरें और गहरी हुये जा रही है।
पुलिस सुधारों की घोषणा के लिए बाध्य हुये: डोनाल्ड ट्रम्प
इस बीच इस घटना क्रम में एक नया मोड़ यह आया है कि प्रदर्शनकारियों के बढ़ते दबाव के आगे झुकते हुये अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प नें पुलिस सुधारों की बात मान ली है। फ्लॉयड के दफनाये जाने के अगले दिन डलास में इस आशय की घोषणा करते हुये उन्होंने कहा कि,’ दो हफ्ते पहले जो कुछ हुआ उससे देश कि प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचा है। पिछले दो हफ्तों में लोग मारे गए और यह अत्यधिक डराना और अनुचित है। इनमें कई पुलिस पुलिस अधिकारी थे। यह बहुत ही खराब स्थिति थी। मैं इसे दोबारा नहीं देखना चाहता।.. हम उस शासकीय आदेश को अंतिम रूप देने पर काम कर रहे हैं जिसमें देशभर में पुलिस विभाग बल प्रयोग के लिए मौजूदा पेशेवर जिससे पुलिस विभाग बल प्रयोग के लिए मौजूदा पेशेवर मानकों पर खरा उतर सके।‘ पुलिस सुधार की दिशा में आगे बढ्ना निश्चय ही जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद शुरू हुये धरना प्रदर्शनों की बड़ी विजय है, क्योंकि ये धरना-प्रदर्शन पुलिस सुधारों को लेकर ही शुरू हुये थे। बहरहाल ट्रम्प द्वारा पुलिस सुधारों की घोषणा के बाद जब अमेरिका से शुरू होकर विश्व के कई देशो तक फैले इन धरना -प्रदर्शनों का सिलसिला थम जाने की उम्मीद दिखने लगी, तभी एक और घटना सामने आ गयी ।
एक और नस्लीय हत्या
ट्रम्प द्वारा पुलिस सुधारों में घोषणा के दो दिन बाद ही 12 जून को अटलांटा में एक श्वेत पुलिस अफसर द्वारा रेशर्ड ब्रुक्स नामक एक अश्वेत की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। ब्रुक्स पार्किंग में खड़ी कार में सो रहा था। पुलिस को लगा वह नशे मे हैं। पूछताछ में पुलिस से झड़प हो गयी और ब्रुक्स पुलिस अफसर का गन छीनकर भाग निकला । दूसरे अफसर ने उसका पीछा किया । इतने मे ब्रुक्स पलटा और उसने पुलिस अफसर पर गन तान दी। तभी अफसर नें उस पर गोली दाग दी। बाद मे अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गयी।घटना के बाद श्वेत पुलिस चीफ एरिका शिल्ड्स ने इस्तीफा दे दिया। उसकी जगह उनके जूनियर अश्वेत पुलिस अधिकारी रॉडनी ब्रायंट की तैनाती हो गयी। उधर 13 जून को प्रदर्शनकारियों नें उस रेस्तरां में आग लगा दी, जहां ब्रुक्स को गोली मारी गयी थी।अब अटलांटा की घटना के बाद लगता है, फ्लॉयड की मौत के बाद धरना-प्रदर्शनों का जो सिलसिला हुआ वह ट्रम्प द्वारा पुलिस सुधार का आश्वासन दिये जाने के बावजूद लगता है आने वाले दिनों में भी जारी रहेगा।
फ्लॉयड को न्याय दिलाने के अभियान मेँ शामिल हुये: विश्वविख्यात एक्टर-स्पोर्ट्समैन !
बहरहाल फ़्लॉयड की मौत के बाद जिस तरह अमेरिका से लेकर पूरी दुनिया के गोरों के साथ ढेरों देशों के नामचीन बुद्धिजीवी, संगीतज्ञ, एक्टर, स्पोर्ट्समैन अश्वेतों समर्थन में उतर आए, उसे हमेशा याद किया जाएगा। कैसे कोई भूल पाएगा कि फ्लायड को न्याय दिलाने के अभियान में टेनिस के मौजूदा दिग्गज और बिग थ्री में शामिल रोजर फेडरर, राफेल नडाल और नोवक जोकोविक भी शामिल हुये थे। बिग थ्री से पहले कई अश्वेत खिलाड़ी भी फ्लॉयड को न्याय दिलाने के लिए आगे आए थे,जिनमें गोल्फर टाइगर वुड्स, पूर्व श्रीलंकाई क्रिकेटर कुमार संगकारा, वेस्ट इंडीज के कप्तान डरेन सामी, क्रिस गेल जैसे बड़े नाम रहे ।
चुप्पी साधे रहे: सचिन-धोनी-कोहली- अमिताभ इत्यादि !
अब जहां तक भारत का सवाल है जॉर्ज फ्लॉयड को इंसाफ दिलाने के लिये न तो भारत के बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट सड़कों पर उतर रहे हैं, न ही विराट कोहली, सचिन तेंदुलकर, धोनी जैसे स्पोर्ट्समैन और अमिताभ बच्चन, अक्षय कुमार, दीपिका पादुकोण इत्यादि जैसे स्पोर्ट्स और फिल्म स्टार ही कोई बयान जारी किए।लेकिन भारत के सेलेब्रेटी स्तर के बुद्धिजीवी-एक्टिविस्ट, स्पोर्ट्समैन और फिल्म स्टार भले ही चुप्पी साधे हो, पर,फ्लॉयड की मौत को लेकर भारत में भारी संख्या में लोग मुखर हुये और मुखर होने अधिकांश लोग उन समुदायों से हैं, जिन्हें जाति-भेद का सामना करना पड़ता है। हालांकि अगस्त 2014 में फर्ग्यूशन के एक अश्वेत युवक को गोलियों से उड़ाने वाले श्वेत पुलिस अधिकारी डरेन विल्सन पर नवंबर 2014 में ग्रांड ज्यूरी द्वारा अभियोग चलाये जाने से इंकार करने एवं 18 मई, 2015 को 21 साल के श्वेत युवक डायलन रूफ द्वारा साउथ कैरोलिना स्थित अश्वेतों के 200 साल पुराने चर्च में गोलीबारी कर नौ लोगों को मौत के घाट उतारने के बाद भी अमेरिका में बड़े पैमाने आज जैसे धरना- प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हुआ था , पर, भारत के वंचित समुदायों के लोग आज की भांति उद्वेलित नहीं हुये। किन्तु इस बार हुये हैं तो उसके पिछे दो कारण दिख रहा है।
पहला,तब सोशल मीडिया इतनी विकसित नहीं हुई थी कि सुदूर इलाकों तक की सूचनाएँ मिनटों में पूरी दुनिया में वायरल हो जाय। उन दिनों स्मार्ट फोन तक की पहुँच सिर्फ भारत के जाति समाज के सुविधाभोगी वर्ग तक थी, जबकि आज सुदूर गावों के वंचित वर्गों की महिलाओं तक के लिए स्मार्ट फोन कोई सपना नहीं रह गया है।दूसरा, इस बार जिस मात्रा में गोरे अश्वेतों के समर्थन में उतरे वैसा पहले के आंदोलनों में नहीं दिखा । एक ऐसे दौर में जबकि मोदी के अमेरिकी क्लोन ट्रम्प अमेरिकी बहुसंख्यकों(गोरों) में अल्पसंख्यकों (अश्वेत,रेड इंडियंस, हिस्पैनिक्स,एशियन पैसेफिक) के प्रति नफरत को तुंग पर पहुंचा कर सत्ता दखल किया हो और इस नफरत की आग को जलाए रखने के लिए का लगातार सत्ता का इस्तेमाल किए जा रहा हो, गोरों का अश्वेतों के समर्थन में अभूतपूर्व संख्या में सड़कों पर उतरना और उग्र धरना- प्रदर्शन करना पूरी दुनिया के साथ भारत के लोगों को भी विस्मित किया और कुछ ज्यादे ही विस्मित किया।
फ़्लॉयडों की समस्या को लेकर: पहली बार उद्वेलित हुये बहुजन
वास्तव मे अमेरिकी प्रभुवर्ग का कालों के समर्थन में उतरना में अगर सबसे अधिक किसी को चौकाया तो वह भारत का वंचित बहुजन समाज ही है। भारतीय लेखकों और मीडिया के सौजन्य से आम भारतियों में यही धारणा थी कि जिस तरह भारत का प्रभुवर्ग दलितों के प्रति अमानवीय व्यवहार करते हैं, कुछ वैसा ही अमेरिका के गोरे वहाँ के अश्वेतों के साथ करते हैं। किन्तु विगत दो सप्ताह से आ रही धरना-प्रदर्शनों की खबरों ने अमेरिकी गोरों के प्रति बनाई धारणा को खंड – खंड कर दिया है। इसलिए भारतीय प्रभुवर्ग और सेलेब्रेटीज़ के खिलाफ तंज़ भरी बातों से यहाँ की सोशल मीडिया पट गयी।प्राख्यात पत्रकार महेंद्र यादव ने लिखा – ‘कोरोना का डर पीछे छूट गया है।इंसानियत और नागरिक अधिकारों को बचाना ज्यादा जरूरी लग रहा है। खास बात ये है कि डेरेक को कड़ा सजा देने की मांग करने वालों में श्वेत लोग ही ज्यादा हैं। जॉर्ज फ्लॉयड की जान नहीं बचाई जा सकी, लेकिन श्वेत अमेरिकियों ने इंसानियत तो बचा ही ली।डेरेक चाउविन नौकरी से निकाला जा चुका है। 25+10=35 साल की सजा होना भी तकरीबन तय ही है। दूसरी ओर, ऐसा मुल्क भी है जहां जाति पूछकर गोली मारने वाला शान से नौकरी करता है, इंस्पेक्टर से लेकर आम नागरिकों की मॉबलिंचिंग करने वालों को मंत्री माला पहनाकर सम्मानित करते हैं। हां, “खास परिस्थितियों” में एक करोड़ का मुआवज़ा और हत्या के संदेह के घेरे में आ रही मृतक की पत्नी को क्लीन चिट देते हुए क्लास वन की नौकरी दे दी जाती है।‘ क्रांति कुमार ने भारतीय जॉर्ज फ्लॉयडों की दशा पर भारतीय प्रभुवर्ग की निर्लिप्तता पर सवाल उठाते हुये फेसबुक पर लिखा -‘ अमेरिका ने साबित कर दिया कोरोना से ज्यादा खतरनाक नस्लवाद है, नस्लीय हिंसा और असमानता की मानसिकता को बर्दाश्त नही करेंगे। लेकिन भारत में हर रोज जॉर्ज फ्लॉयड जैसे लोग जाति के नाम पर मार दिये जाते हैं. कभी पूरे भारतीय समाज ने एक होकर जातिवादी हिंसा असमानता के खिलाफ प्रदर्शन नही किया। भारत में जॉर्ज फ्लॉयड को मूंछ रखने पर, घोडा पालने पर, घोड़ी पर चढ़ने पर, बुलेट खरीदने पर, ऊंचा मकान बनाने पर, उच्च शिक्षा हासिल करने पर, अच्छे कपड़े पहनने पर… ब्राह्मणवाद अपने पैरों से गर्दन दबा कर हत्या कर देता है। मरने से पहले हर पीड़ित जॉर्ज फ्लॉयड की तरह चिल्लाता है..तड़पता है…कहता है‘मैं सांस नही ले पा रहा हूँ !’
विक्रम सिंह चौहान ने भारतीय सुपरस्टारों पर प्रहार करते हुये लिखा है,’ हॉलीवुड सुपरस्टार जॉर्ज क्लूनी ने अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या पर कहा है,’नस्लवाद अमेरिका की ‘‘सबसे बड़ी महामारी’’ है, हम सब उससे संक्रमित हैं और 400 वर्षों के बाद भी हम उसका टीका नहीं खोज पाए हैं।‘ उन्होंने कहा है सिर्फ जॉर्ज फ्लॉयड नहीं हम पुलिस द्वारा नस्लभेद के कारण टैमिर राइस, फिलैंदो कैस्टिले, लाक्वान मैकडोनाल्ड को भी मरते देखा है। हमें व्यवस्था परिवर्तन करना होगा और इस बार मताधिकार का प्रयोग करते इस सरकार को उखाड़ फेंकना होगा। क्लूनी ने दक्षिण सूडान की संकट पर भी ऐतिहासिक कार्य किया था ,संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें ‘शांति का दूत’ का खिताब दिया था। तो सोचिये यह अमेरिका का लोकतंत्र हैं और वहां के सुपरस्टार। उन्हें न सत्ता का डर है और न किसी की परवाह। वे खुलकर ट्रम्प सरकार का विरोध कर रहे हैं। इधर भारत में भी थोक के भाव में बहुत से ‘सुपरस्टार’ हैं। ये सुपरस्टार न मॉब लिंचिंग में मुंह खोलते हैं और न किसी दलित की हत्या या आदिवासियों के माओवाद के नाम पर एनकाउंटर पर। ये सिर्फ नाम के ‘सुपरस्टार’ हैं। क्लूनी जैसे लोगों के कारण अमेरिका का लोकतंत्र महान था और महान रहेगा। भारत में लोकतंत्र अंतिम सांसे गिन रहा है।‘
फ्रैंक हुजूर ने खेल की दुनिया के भारतीय सुपर स्टारों को आड़े हाथों लेते हुये लिखा है,’ जॉर्ज फ्लोयड की मौत के मद्देनजर, एनबीए-अमेरिकन बास्केटबॉल लीग सामाजिक रूप में एक जागरूक खेल निकाय के रूप में उभरा है। उसके विवेकसम्पन्न71 वर्षीय सम्मानित कोच ग्रेग पोपोपोविच, एक बार फिर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की विषाक्त आलोचना के कारण सुर्खियों में है। उन्होंने फ्लॉयड की हत्या की निंदा करते हुए कहा है कि वास्तविकता यह है कि अफ्रीकी-अमेरिकियों को दैनिक आधार पर निशाना बनाया जाता है और वे पीड़ित हैं। क्या हम भारत में महान स्पोर्ट्समैन सुनील गावस्कर- सचिन तेंदुलकर या संधु- सायना नेहवाल के मुंह से ऐसा कुछ सुन सकते हैं!’
सिर्फ महेंद्र यादव, क्रांति कुमार, विक्रम सिंह चौहान, फ्राइक हुजूर ही नहीं, इनकी तरह हजारों लोगों ने यहाँ के प्रभुवर्ग के लेखक-पत्रकार, सिने और स्पोर्ट्स स्टारों की भूमिका को लेकर तंज़ कसे । इनमें बहुत से लोगों ने विकास कुमार जाटव की भांति सीधे यह सवाल उठाया,’ क्या भारत में एससी/एसटी के साथ जो रोजाना “जॉर्ज फ्लॉयड” जैसी घटनायेँ होती हैं , उसमें गैर-एससी/एसटी इस प्रकार के आन्दोलन का हिस्सा बन सकते है?’ यही नहीं इस सवाल के जवाब में अधिकांश लोगों ने उनकी ही भांति यह जवाब दिया,’ इस बारे में सोचना भी गलत है।क्योंकि वो आन्दोलन का हिस्सा बनने की जगह आरोपी को बचाने के लिए हर तरह की कोशिश करेंगे, सरकार से लेकर प्रशासन तक पर दवाब डालेंगे। आन्दोलन खत्म करने के लिए अपने बंदे भेजकर हिंसक आन्दोलन में तब्दील करवा देंगे। मुख्य मुद्दा ही खत्म हो जाएगा। और जो एक दो ब्राह्मण, छत्रिय, वैश्य में समानता के लक्षण होने के कारण आंदोलन का हिस्सा बनेंगे, उन्हें भी टारगेट कर दिया जाएगा।‘
डॉ. आंबेडकर के अनुसार : सामाजिक विवेक से शून्य हैं हिन्दू !
बहरहाल अमेरिका के गोरे अपने यहां के अश्वेतों के प्रति क्यों करुणशील रहते हैं और भारत के सवर्ण दलितों के प्रति क्यों उदासीन रहते हैं, इस सवाल से टकराने का वर्षों पहले बलिष्ठ प्रयास डॉ. आंबेडकर ने ही किया था।स्मरण रहे ज्ञानार्जन के सिलसिले में डॉ. आंबेडकर को तीन साल अमेरिका में गुजारने का अवसर मिला। वहां रहने के दौरान ही उन्हें बुकर टी. वाशिंगटन और अब्राहम लिंकन जैसे महामानवों के विषय में जानने का अवसर मिला जो बाद मेँ उनके दलित – मुक्ति आंदोलन मेँ उतरने का अन्यतम कारण बना। वहीं रहने के दौरान कालों के प्रति गोरों का सामाजिक व्यवहार देखने के साथ जाना कि किस तरह गोरों ने कालों के लिए भूरि –भूरि साहित्य रचा, किस तरह समय -समय पर उनके लिये अपार अर्थदान किया। गोरों के मुकाबले भारत के हिंदुओं, खासकर सवर्णों का व्यवहार कितना अमानवीय है, इसका तुलना करने का बेहतर अवसर उन्हें उसी दौरान मिला।अमेरिका और भारत के प्रभुवर्ग के क्रमशः अश्वेतों और दलितों के प्रति सामाजिक व्यवहार और त्याग इत्यादि के विषय मेँ डॉ. आंबेडकर का अनुभव ‘बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर सम्पूर्ण वाङ्ग्मय’ के खंड 9 के पृष्ठ 145-156 पर ‘हिन्दू और सामाजिक विवेक का अभाव’ शीर्षक से लिपिबद्ध है। इसके पृष्ठ 156 पर दोनों देशों के प्रभुवर्ग के पार्थक्य को चिन्हित करते हुये बाबा साहेब लिखते हैं- ‘यह अंतर क्यों है? अमेरिका में लोग अपने यहाँ के नीग्रो लोगों के उत्थान के लिए सेवा और त्याग कर इतना कुछ क्यों करते हैं? इसका एक ही उत्तर है अमेरिकियों मे सामाजिक विवेक है, जबकि हिंदुओं में इसका सर्वथा अभाव है। ऐसा नहीं कि हिंदुओं में उचित- अनुचित, भला-बुरा या नैतिकता का विचार नहीं है । हिंदुओं में दोष यह है कि अन्य के प्रति उनका जो नैतिक विवेक है , वह सीमित वर्ग, अर्थात अपनी जाति के लोगों तक ही सीमित है।‘
भारत मेँ डाइवर्सिटी के परवान न चढ़ने के पीछे : सवर्णों की विवेकशून्यता
अमेरिकी और हिन्दू : दो समाजों के प्रभुवर्ग के चरित्र का ऐसा निर्भूल समाजशास्त्रीय विश्लेषण डॉ. आंबेडकर जैसे ज्ञानी ही दे सकते थे। उनके विश्लेषण के आधार पर ही कहा जा सकता है कि गोरे अमेरिकी अपने उस सामाजिक विवेक से ही प्रेरित होकर फ्लॉयड को न्याय दिलाने के लिए सड़कों पर उतरे, जिस विवेक का वे वर्षों से परिचय देते रहे हैं। अपने सामाजिक विवेक से प्रेरित होकर ही 1861-65: चार सालों तक चले उस अमेरिकी गृह-युद्ध , जिसमे 6 लाख लोगों की प्राणहानि हुई, में अमेरिकी गोरो नें उठा लिया था हाथों में बंदूक अपने ही उन भाइयों के खिलाफ जिनमे वास कर रही थी, उनके उन पुरुखों की आत्मा, जिन्होंने कालों का पशुवत इस्तेमाल कर मानवता को शर्मसार किया था। यह अमेरिकियों में व्याप्त सामाजिक विवेक ही था, जिसके कारण पिछली सदी के 70 के दशक में तत्कालीन राष्ट्रपति जॉन्सन ने जब डाइवर्सिटी पॉलिसी के तहत अश्वेतों को प्रत्येक क्षेत्र में भागीदार बनाने का आह्वान किया, तब हर कोई होड़ लगाने के लिए सामने आया । परिणामस्वरूप अमेरिकी दलितों(कालों) को उद्योग-व्यापार, फिल्म-टीवी, मीडिया, शिक्षण संस्थाओं सहित राष्ट्र के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ही प्रतिनिधित्व मिला। अमेरिका में लागू उसी डाइवर्सिटी पॉलिसी को जब दलित बुद्धिजीवियों ने भारत में लागू करने की मांग उठाया तो उपहास के सिवाय और कुछ नहीं मिला। आज दलितों का उद्योग- व्यापार,सप्लाई-डीलरशिप-ठेकेदारी,फिल्म- मीडिया इत्यादि में नहीं के बराबर हिस्सेदारी है,पर, भारत का प्रभुवर्ग इससे पूरी तरह निर्लिप्त है तो इसलिए कि उसमें सामाजिक विवेक नहीं है। अब सवाल पैदा होता है हिन्दू दलितों के प्रति अपने सामाजिक विवेक का परिचय देने में क्यों व्यर्थ हैं? इसका जवाब पाने के लिए समाज मनोविज्ञानियों के शरण में जाना होगा ।
दुनिया मेँ सबसे निराली : हिंदुओं की पूर्वाग्रही मनोवृति !
समाज मनोविज्ञानियों के मुताबिक अश्वेतों, दलितो, यहूदियों इत्यादि सहित महिलाओं व अन्य सामाजिक समूहों की उपेक्षा व उत्पीड़न के लिए ज़िम्मेवार है विभिन्न समाजों की पूर्वाग्रही मनोवृतियाँ। इनके उद्भव के पृष्ठ मेँ एकाधिक कारक क्रियाशील रहते हैं, जिनमेँ प्रमुख हैं, आर्थिक-सामाजिक संस्थिति तथा धार्मिक व सांस्कृतिक कारक । अश्वेतों और यहूदियों के प्रति विरुद्ध मनोवृति के लिए विशेष तौर पर ज़िम्मेवार है आर्थिक-सामाजिक संस्थिति । समाज मनोविज्ञानियों के मुताबिक समान्यतया गोरों के निम्न आर्थिक वर्ग के लोग कालों के प्रति विरोधी मनोवृति रखते हैं, जबकि उच्च वर्गीय गोरे, यहूदियों से आर्थिक प्रतियोगिता करने से डरते हैं, इसलिए वे उनसे नफरत करते हैं। किन्तु आर्थिक-सामाजिक संस्थिति से उपजी मनोवृति से पार पाना संभव है, इसलिए ढेरों गोरे अश्वेतों और यहूदियों के प्रति सदय होते नजर आते हैं। किन्तु दलितों के प्रति हिंदुओं मेँ पूर्वाग्रही मनोवृति पैदा करने के पृष्ठ मेँ जो कारक हैं, उससे पार पाना बहुत कठिन है। समाज मनोविज्ञानियों का निष्कर्ष है कि तीन बातों के कारण हिंदुओं की मनोवृतियाँ संसार के अन्य समाजों की मनोवृतियों से बहुत ही भिन्न हैं। ये तीन हैं – एक, जाति का विचार ,दो, समावेशन का तथा तीसरा आत्मा-परमात्मा तथा पुनर्जन्म का विचार, जिसका उत्स है हिन्दू धर्म और वर्ण-व्यवस्थाधारित संस्कृति। पूर्वाग्रही मनोवृति के पीछे संस्कृति की भूमिका का उल्लेख करते हुये मनोविज्ञानियों ने कहा है,’प्रत्येक संस्कृति अपनी नयी पीढी को अन्य समूहों के प्रति कुछ विश्वासों,स्थिराकृतियों तथा मनोवृत्तियों तथा आचरणों को अपनाने की शिक्षा देती है। इस प्रकार पूर्वाग्रह और कुछ नहीं अपितु सांस्कृतिक विरासत तथा लोकाचार का ही एक अंश है.प्रत्येक संस्कृति का एक मापदंड होता है,जिसके अनुपालन के फलस्वरूप व्यक्ति अन्य नृजातीय समूहों के प्रति पूर्वाग्रह विकसित कर लेता है।
शक्तिसम्पन्न शूद्रातिशूद्र : क्यों होते हैं हिन्दुओं की घृणा के शिकार!
भारतीय संस्कृति मेँ पीढ़ी दर पीढ़ी दलितों के प्रति जो विश्वास, स्थिराकृतियाँ,मनोवृतियां शिफ्ट होती रही हैं, उसके मूल मेँ हैं, हिन्दू धर्म शास्त्र। वर्ण-व्यवस्थाधारित हिन्दू धर्म मुख्यतः शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक- के बँटवारे का धर्म है। इसमेँ जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष के लिए, कर्म को धर्म का अनिवार्य अंग बताते हुये बड़ी सफाई के साथ चिरकाल के लिए शक्ति के सारे स्रोत ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यों से युक्त सवर्णों के आरक्षित किए गए हैं। इसके माध्यम से सवर्णों को शक्ति के स्रोतों के दैविक- अधिकारी वर्ग के रूप मेँ मान्यता प्रदान कर दी गयी है। सवर्णों के विपरीत अस्पृश्यों, आदिवासी और पिछड़ों से युक्त शूद्रातिशूद्रों को मोक्ष के नाम पर हजारों साल से चिरस्थाई तौर पर शक्ति से स्रोतों से यह कहकर बहिष्कृत किया गया है कि यह इनके लिए धर्म-विरुद्ध है। इसलिए हजारों साल वर्ण-व्यवस्थाधारित हिन्दू धर्म मेँ शूद्रातिशूद्र हिन्दू धर्म के अनुपालन के नाम पर आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक व धार्मिक गतिविधियों से पूरी बहिष्कृत रहे। इसलिए जब शूद्रातिशूद्रों मेँ जब कोई शक्तिसंपन्न होता है, धर्म-प्रिय हिंदुओं का मन उनके प्रति घृणा से भर जाता है।वर्तमान मेँ संविधान की सौजन्य से राज्य शूद्रातिशूद्र शक्ति के स्रोतों मेँ शेयर देने के लिए बाध्य है। इस बाध्यता से मुक्ति पाने के लिए ही वर्तमान हिंदुत्ववादी सरकार सारा कुछ निजी हाथों मेँ देने मेँ अपनी सत्ता का अधिकतम इस्तेमाल कर रही है।
जबतक हिन्दू धर्म का वजूद है : सवर्ण कभी नहीं अवतरित हो सकते अमेरिकी गोरों की भूमिका मेँ!
जहां तक दलितों का सवाल है हिन्दू धर्म शास्त्रों के सौजन्य से उनके प्रति हिंदुओं मेँ घृणा-भाव का कोई ओर-छोर नहीं रहा है। इसलिए अस्पृश्य जब आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक रूप से जरा भी सक्षम होते है तो हिंदुओं की पूर्वाग्रही मनोवृति तुंग पर पहुँच जाती है। हिंदुओं की नजरों मेँ अस्पृष्यों की मानवीय सत्ता मनुष्येतर प्राणी के रूप मेँ है, इसलिए इनके साथ मानवीय व्यवहार हिंदुओं को अपने धर्म के खिलाफ लगता है। इसलिए भारतीय संस्कृति मेँ पीढ़ी दर पीढ़ी दलितों के प्रति जो विश्वास, स्थिराकृतियाँ,मनोवृतियां शिफ्ट होती आई हैं, उसके आधार पार 1000 प्रतिशत दावे के साथ कहा जा सकता है कि भारतीय फ्लॉयडों को न्याय दिलाने के हिन्दुओ का प्रभुवर्ग उस तरह कभी सड़कों पर नहीं उतर सकता , जिस तरह अमेरिकी प्रभु वर्ग उतरा है।और इसका 1- 9 तक कारण है: हिन्दू धर्म-शास्त्र ! हिन्दू धर्म शास्त्रों नें हिंदुओं को मनुष्य से पूरी तरह पाषाण मेँ तब्दील कर दिया है। जबतक हिन्दू धर्म धरा से फिनिश नहीं हो हो जाता, हिंदुओं के प्रभुवर्ग को अमेरिकी प्रभु वर्ग की भूमिका मेँ अवतरित होने की कल्पना ही नहीं की जा सकती। यही कारण है डॉ. अंबेडकर ने ‘जाति का उच्छेद’ नामक अपनी विश्वविख्यात रचना मेँ हिन्दुओ को रास्ते पर लाने के लिए हिन्दू धर्म-शास्त्रों को डायनामाइट से उड़ाने का नुस्खा सुझाया था।
लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क- 9654816191