“कृष्ण, जो सबको प्यार लुटाता है, जो सबको लूटता है, सबको निस्सीम देता है, सबसे असीम पा भी लेता है…
जो सबको मथता है, सबमें व्यापता है, सबको विरह में जलाता है, सबको टेरता है, वंशी की धुन में डुबोता है फिर उसी राग से पार लगाता है…वो जो राधा चरनों में अपनी मौन कहन नवाता है…
उस छलिया से अपना भी नेह भरा नाता है…
किसना को
अबीर-गुलाल सा उड़ता
विनत महकता
अमिट और विस्तृत प्यार सा पसरा
रोम रोम में स्पंदित राग
आकुल अनुराग
मौन वाणी में गूँजता मथता
अनमिट स्वीकार….
सब जो ईश ने
सौ सौ बहानों से दिया
सब जिसे काल की गंगा में बहाया
सब जिसे
उस छोर पर तुमने भी
अनगिनत रूपों में मोहों विकलता में
अँजुरी भर भर
जीवन में पाया…
सब तुमको
नयी धज से व्यापे
चरन पखारे
उजास भीतर की उभारे…
सब….”
संजय देव