याद करने की इस अदा पर कौन न मर जाए ऐ खुदा

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श्री अश्विनी कुमार चतुर्वेदी जो अपने अंदाज से ही अफसर मालूम होते हैं और वह भी पुलिस के। पब्लिक डीलिंग तो कमाल की है। थाने पर आने वाले लोग चतुर्वेदी जी के आकर्षक व्यक्तित्व-तीक्ष्णता और न्यायप्रियता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाते। अंतरविरोधों से भरी इस दुनिया में बाह्य-दबावों के आगे तनिक भी नहीं झुकने वाले पुलिस अफसर हैं अश्विनी जी।

मैंने एक फेसबुक प्रोफाइल बनाई है, सिर्फ जासूसी करने के लिए। पहले अपने नाम से बनाई थी, जिसे कि एक परम दुष्ट ने खोजकर ब्लॉक कर दिया, हमने बुरा नहीं माना कि चलो हमें याद किया जा रहा है और खुद के होने का ऐहसास दिलाया जा रहा है। जासूसी के दौरान पता चला कि मनीष आजाद व उनके लोगों पर एनआईए की कार्रवाई से जुड़ी फेसबुक पोस्ट पर SR Camp के लोगों ने लाइक तक नहीं किया है, कमेंट करना और एकजुटता दिखाना तो दरकिनार। और ये लोग इतने बकलोल हैं कि ऐसे सुविधाभोगी-दोमुंहे कायरों के लिए कामता प्रसाद का बॉयकाट किए हुए हैं। जबकि कामता प्रसाद तो बस रिस्पांसिबल तरीके से बिहैव करना सिखा रहे थे और उसमें कामयाब भी रहे हैं क्योंकि तर्क और विज्ञान की सत्ता वस्तुगत होती है और उन्होंने लड़ाई में सच का साथ कभी नहीं छोड़ा। 
वाराणसी में बीएचयू के सिंहद्वार पर जब-तब 15-20 लोग इंकलाब-जिंदाबाद करते ही रहते हैं। लंका थाने की खलिहर पुलिस, आईबी-एलआईयू और तमाशबीन राहगीर अगर जुटना बंद हो जाएं तो ऐसे जिंदाबादियों को कुत्ता भी न पूछे। एकाध बार मेरे देखने में आया है कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के लंठों ने जिंदाबादियों के प्रोग्राम में चार चाँद लगा दिए।
विधि-प्रवर्तन एजेंसियों से जुड़े लोगों के पास भी काम नहीं है। चहुँ ओर जड़ता पसरी हुई है। बनारस में वर्दीधारी पर्याप्त संख्या में नजर आते हैं लेकिन बिना वर्दी के रहने वाले आईबी-एलआईयू, एटीएस, एसटीएफ-एनआईए के लोग भी तो हैं। भीमकाय सरकारी मशीनरी इसलिए निर्मित की गई है कि चहुँओर अमन कायम रहे।
बनारस के विभिन्न थानों का महीने भर भ्रमण करने के उपरांत मैंने पाया कि थानेदारों की कोशिश प्रायः यह रहती है कि मानवीय हस्तक्षेप के द्वारा मामले को रफा-दफा करवा दिया जाए जिससे प्राथमिकी दर्ज करने की नौबत ही नहीं आए। समस्त सरकारी महकमों में पुलिस महकमा ही ऐसा है, जिसकी छवि दिन ब दिन नागरिक-हितैषी के रूप में निखरती और स्थापित होती जा रही है। बनारस के तमाम आईपीएस-पीपीएस अफसरों और धानाध्यक्षों से मैं मिल चुका हूँ लेकिन पुलिस अफसर के रूप में मैं बिना वर्दी के सिर्फ अश्विनी कुमार चतुर्वेदी को ही पहचान सकता हूँ कि यह थानेदार हैं, बाकी किसी की भी बॉडी-लैंग्वेज ऐसी नहीं है कि कर्तव्यबोध के साथ रुतबा झलके। पुलिस वालों से मिलकर ऐसा लगता है मानो वे सुरुचिसंपन्न कलाकार हों और अगर उन्होंने अपनी आवाज के आरोह-अवरोह को तनिक लोचदार बनाया तो उनकी शराफत पर सवाल उठने लगेंगे। सब-इंस्पेक्टरों से मिलकर ऐसा लगता है कि मनुष्यता विकास की अपनी अगली मंजिल पर पहुंच चुकी है, चेतना का स्तर उन्नत हुआ है-संवेदनशीलता बेहिसाब बढ़ी है।
भूमिका बहुत हुई, अब आते है मूल मुद्दे पर। इलाहाबाद निवासी मनीष आजाद फेसबुक पर मनोजन्मा किस्सा सुना रहे हैं कि NIA के अफसर ने कात्यायनी के ग्रुप को शाकाहारी कहा था।
सच्चाई यह है कि मनीष आजाद-कात्यायनी दोनों ही सांगठनिक रूप से बेले हैं। हिंदी पट्टी में कहीं पर भी जनउभार नहीं है। जिनके पास जनता को संगठित-एकजुट और गोलबंद करने का वास्तविक काम होगा, वे फेसबुक पर आत्म-महानता के किस्से नहीं सुनाया करेंगे। RCLI के पास तीन-चार लेखक हैं, जिनके लिखे हुए को दर्जनों लोग फेसबुक पर इधर से उधर किया करते हैं। मनीष आजाद का भी इलाहाबाद में न तो कोई काम है और न ही कोई जनाधार। हिंदी पट्टी के कम्युनिस्ट नामधारी लफ्फाज 100-200 बौने बुद्धिजीवियों का ज्ञानवर्धन करते रहते हैं। पंजाब के सुखविंदर कभी भी जबान का सुख लेने के लिए उद्यत नहीं होते, हालांकि उनके साढ़ू भाई यानि कि शशिप्रकाश के जाँबीज उनको अक्सर ही उकसाते रहते हैं।
पिछले 48 घंटों से मेरा दिमाग भी शांत है और मैंने भी तय कर रखा है कि भाषा में भदेस हमें भी नहीं बनना। विधि प्रवर्तन एजेंसियों से जुड़े लोगों को लगता है कि पगार तो मिल रही है लेकिन करने के लिए कोई काम नहीं है। वे बेचारे भी अपने होने की सार्थकता को दिखाने के लिए प्रयासरत रहते हैं। अब चूँकि माओवादियों की पार्टी प्रतिबंधित है तो उससे जुड़े लोग आसान शिकार की तरह उपलब्ध हैं। पिछले दिनों NIA की कार्रवाई से तो यही मालूम पड़ता है।
क्या मनीष आजाद-रितेश विद्यार्थी को मालूम भी है कि दंडकारण्य में उनकी जो सेंट्रल कमेटी है, उसमें कौन-कौन लोग हैं? सशस्त्र बलों के खिलाफ जो ऐक्शन प्लान-एक्जीक्यूट होते हैं, मैदानी जनों को उसकी भनक तक नहीं लगती। मेहनतकश मुक्ति मोर्चा के रितेश विद्यार्थी हों या भगतसिंह स्टूडेंट मोर्चा की आकांक्षा आजाद ये दोनों उतने ही शाकाहारी कम्युनिस्ट हैं, जितने कि अमित पाठक या प्रसेन। सशस्त्र सैन्य बलों के विरुद्ध ऐक्शन में तो कोई भी नहीं है।
लफ्फाजों के विरुद्ध स्टेट मशीनरी को अगर ऐक्शन में आना है तो शाकाहारी-मांसाहारी के बँटवारे से उसे परहेज करना चाहिए। बिना श्रम किए चंदे पर पलने वाले बनारस के मनीष शर्मा और लखनऊ की कात्यायनी सिन्हा जैसे लोगों को सश्रम कारावास की सजा मिलनी चाहिए। मिथ्या-भ्रम फैलाकर दारू-मुर्गा चाँपने वाले इस तरह के लफ्फाजों से देश-समाज का कोई भला होने वाला नहीं।
कामता प्रसाद

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