मेरे एक अजीज़ साथी श्री ब्रजेश पेरियार ने मुझसे कहा कि आनंद जी! आप श्री दुसाध जी के इस प्रश्न का जवाब देने की कोशिश करो कि, “भारत के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग सवर्ण समुदाय के लोग भी क्या सर्वहारा की कसौटी पर खरे उतर सकते हैं? अगर हाँ, तो कैसे?”
साथियों! श्री दुसाध जी बहुत ही विद्वान व्यक्ति हैं। मैं उनके बहुत से पोस्ट को पढ़ता हूँ और अच्छे विचारों को ग्रहण भी करता हूँ लेकिन जहाँ असहमतियाँ हैं, मैं वहाँ भी चुप रहता हूँ। मुझे लगता है बहुत एक्टिव सीनियर से उनकी गलती पब्लिक प्लेटफार्म पर बताना अनुचित है। दूसरी बात, सीनियर्स की कमियाँ निकालकर अन्य जूनियर्स को भी हम हिम्मती बना देते हैं। कई बार बहुत से जूनियर्स अनुभूतियों को ख्याल न करते हुए अपने द्वारा समझे गए सैद्धांतिकी को अधिक महत्वपूर्ण मानकर सीनियर्स की खिल्ली उड़ाने का अपराध करने लगते हैं। इससे भी अधिक बुरा यह होता है कि सवर्ण वर्ग को यह समझने में बिल्कुल आसानी हो जाती है कि दलित अपने ही बड़ों का सम्मान करना नहीं जानता है तो वह किस नेतृत्व में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध और किस नैतिकता के साथ लड़ेगा। इससे हमारी एकता और बौद्धिकी का टोटा प्रदर्शित हो जाता है।
खैर, आप ने मुझे सर्वहारा विषय की तरह आकृष्ट किया है तो मैं अपने प्रिय साथी को निराश भी नहीं करूँगा। साथ ही, मैं अपने किसी भी अति के लिए श्री दुसाध जी से पूर्व ही विनीत भाव से क्षमा माँगते हुए कुछ शब्दों को लिख रहा हूँ।
सर्वप्रथम, जिस व्यक्ति के पास श्रमशक्ति के अतिरिक्त जीवन-यापन के लिए कोई संसाधन नहीं है, वह सर्वहारा है। इस परिभाषा के अनुसार, 80 प्रतिशत दलित और 20 प्रतिशत सवर्ण सर्वहारा हैं। भारत में शोषण की दो स्थिति है, प्रथम-शारीरिक, दूसरा-मानसिक। शारीरिक में श्रम का शोषण है तो मानसिक में बुद्धि का। दलितों पर चाहे जितने भी आघात किए जाँय लेकिन उसे मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है क्योंकि वह मूर्ख बनाए जाने की भौतिक स्थिति से बहुत दूर है लेकिन ब्राह्मण और क्षत्रिय ऐसी कौम है जिसके सर्वहारा को आसानी से सवर्ण कहकर, सम्मानित जाति कहकर, सर्वोच्च हिन्दू कहकर, श्रेष्ठ कहकर दलित जाति के सर्वहारा से काट दिया जाता है। यहाँ मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि उन 20 प्रतिशत सवर्ण सर्वहारा को उसका सम्भ्रांत सवर्ण एक जून की रोटी नहीं देता है, न अपनी जमीनों का थोड़ा अंश ही देता है, न उनकी कहे जाने वाली सरकार ही उनके बच्चों के शिक्षा व रोजगार की व्यवस्था करती है लेकिन वोट और अलगाव के नाम पर उनके मानसिकता में शूदों-चमारों से श्रेष्ठ होने की भावना भर कर पक्की कर दी जाती है बल्कि सवर्ण सर्वहारा के दिमाग़ में यह भी पक्का कर दिया जाता है कि वह अछूत है, नीच है, तुम्हारी और उसकी सामाजिक औकात में जमीन-आसमान का अंतर है। अब बेचारे को यह नहीं बोध हो पाता है कि वे जिस सामाजिक औकात की बात कर रहे हैं, वह इनकी औकात नहीं है, यह उनकी सामाजिक औकात है। वे अपने सामाजिक औकात को इनकी सामाजिक औकात बता कर इनका मानसिक दोहन करते हुए इनको अपने पक्ष में करते हैं तथा सर्वहारा वर्ग की एकता को खंडित करते हैं क्योंकि वे सवर्ण के नाम पर अपना दोहरा शोषण करवाने के लिए चेतना की आँखे बन्द कर लेते हैं।
भारत में दलित कभी भी जातिप्रथा नहीं खत्म कर सकता है क्योंकि इसको अभी तक कोई भी तरीका समझ में नहीं आया है और न ही दलित वर्ग संसदीय राजनीति से हटना चाहता है। दलित इसी व्यवस्था में सिर्फ और सिर्फ प्रतिनिधित्व चाहता है। दलित वर्ग यह नहीं सोच रहा है कि पूँजीवाद इतना विकृत होता जा रहा है कि यह वैश्वीकरण के माध्यम से सरकारों पर उदारीकरण की प्रक्रिया द्वारा सब कुछ का निजीकरण कर देना चाह रहा है। विश्व पूँजीवाद ने सत्ता प्रतिष्ठानों के साथ मिलकर ऐसी साजिश तैयार कर दिया है कि जनता के सारे आंदोलन स्वतः रुक से गए हैं। इस बात को जनता समझते-समझते समझेगी तब तक बहुत देर हो चुकी रहेगी और यदि दो चार समझते भी है, वे आंदोलन के लिए जनता से अपील करेंगे तो उन्हें करोना के तहत पुलिस उठा लेगी।
हर तरफ पूँजीवाद अपने खेल के मोहरों को तत्पर करके रखती है। विभिन्न व्यक्तियों को विभिन्न मुद्दों, तौर-तरीकों, भाषा-संस्कृतियों, रीति-रिवाजों, जाति-धर्मों, छूत-अछूत, छीटे-बड़े के नाम पर बाँट रखती है। ये सब सर्वहारा के एक न हो पाने की अड़चने हैं। इस पर हमारा यह विचार भी बहुत महत्वपूर्ण अड़चन है कि अमुक अपनी जाति के कारण ऐसा नहीं है।
भारत में दलित क्रान्ति चाहता ही नहीं है और न जातिप्रथा उन्मूलन ही चाहता है। दलित ब्राह्मणवाद के चौथे वर्ण को खूब कसके पकड़ रखा है और उसी को मजबूत कर रहा है। सिर्फ चिल्लाता है ब्राह्मणवाद किन्तु छोड़ता नहीं है ब्राह्मणवाद और न ही ब्राह्मणवाद छोड़ने का कोई उपाय ही करता है। आज हम दलित, शूद्र, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, मूलनिवासी को ऐज इट इज मजबूत कर रहे हैं। डॉ. आम्बेडकर द्वारा तैयार किए गए संविधान के मूल ड्राफ्ट “राज्य और अल्पसंख्यक” पर हम नए संविधान को न तैयार कर उनके द्वारा मजबूरी में काम किए गए संविधान को पूज्य मानते हुए हम उसी से काम चलाना चाहते हैं और वह भी जिसमें 117 संशोधन किए जा चुके हैं। भारत में मार्क्सवाद का विरोध आरएसएस भी करता है और आम्बेडकवादी भी करता है। दोनों पूँजीवाद के समर्थक हैं। दोनों दक्षिणपंथी हैं।
जबकि, यहाँ जरूरत है व्यवस्था परिवर्तन की। व्यवस्था परिवर्तन के लिए यदि सवर्ण सर्वहारा साथ न भी दें, तो भी 85 प्रतिशत के लोगों को परिवर्तन में भाग लेना चाहिए। यदि 85 प्रतिशत भी भाग न ले, तो भी कोई बात नहीं, दलित 22.5 प्रतिशत है। तकरीबन 30 करोड़ दलित हैं। क्रान्ति भर को हैं। किसी का मुँह क्यों ताकते हैं। सवाल है क्या व्यवस्था परिवर्तन दलितों का एजेंडा है?
इस सवाल को हल करने में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि, श्री दुसाध जी दलित हैं, आम्बेडकरवादी हैं और डायवर्सिटी सिद्धांत के भारतीय प्रतिपादक हैं। वे दलित समस्याओं का निदान डायवर्सिटी सिद्धांत के अपनाए जाने और उसके विस्तार में देखते हैं। दूसरा सवाल कि, दलित आम्बेडकरवादी है। यह मार्क्सवाद के अध्ययन को बिल्कुल पसंद नहीं करता है, दलित न वर्ग की बात विमर्श में रखता है, न सर्वहारा की ही बात को विमर्श में रखता है और न ही दलितों को वर्गीय एकता की चिन्ता है। दलित समाज और आम्बेडकरवादी चिंतकों को मार्क्स से कुछ भी लेना-देना नहीं है। दलितों के लिए मार्क्सवाद संक्रामक रोग की तरह है। दलित मार्क्सवाद को अपने रास्ते का रोड़ा तथा कुछ दलित मार्क्सवादी विद्वानों के हाथ का झुनझुना समझते हैं। दलित मार्क्सवाद और मार्क्सवादियों में न अंतर करता है न अंतर समझने का प्रयास करता है। यदि कोई दलित मार्क्सवाद की सिफ़ारिश कर दे तो उस पर यह तोहमत बरपा कर दी जाती है कि अमुक आरएसएस व ब्राह्मणों का गुलाम/दलाल है। उसकी विद्वता उसका चिंतन दलित निरादर करता हुआ ख़ारिज कर देता है। यहाँ कहना यह है जिस वर्ग को कम्युनिज्म, कम्युनिस्ट आंदोलन, वर्ग, वर्ग-संघर्ष, सर्वहारा, सर्वहारा की तानाशाही, क्रान्ति, मार्क्स, मार्क्सवाद से कुछ भी लेना-देना न हो बल्कि अव्वल दर्जे की नफ़रत हो, वह जब भी इन शब्दों के मायने-मतलब की बात करेगा तो वह साम्यवादी समाज की स्थापना की चिंता के लिए नहीं करेगा बल्कि पूर्वाग्रहपूर्ण कोई न कोई कमी बताने/गिनाने के लिए करेगा। जिसे जिस चीज की जरूरत नहीं है, वह हमेशा उसमें खोट निकलेगा। ऐसे प्रश्न ही उसका मज़ाक बनाए जाने के लिए किया जाता है।
श्री दुसाध जी के प्रश्न का निहित उत्तर है कि सवर्ण सर्वहारा सवर्ण होने के नाते कभी भी दलित सर्वहारा के साथ अपना सम्बन्ध नहीं जोड़ेगा। सवर्ण सर्वहारा को भारत में जातीय सम्मान प्राप्त है इसलिए वह निम्न जातियों के साथ अपनी गरीबी की लड़ाई नहीं लड़ेगा। सवर्ण सर्वहारा की जातीय अस्मिता श्रेष्ठ है। उसे अपने जातीय अस्मिता पर गर्व है। वह खाने बिना मर जाए, उसके बच्चे निरक्षर रह जाँय, उसकी बीवी दवा के अभाव में मृत्यु गले लगा ले तथा वे सदियों-सदियों तक गरीब/सर्वहारा रहें, उन्हें कोई गम नहीं है। उनकी अस्मिता जिंदा रहनी रहनी चाहिए इसलिए सवर्ण सर्वहारा कभी भी सर्वहारा की कसौटी पर खरे नहीं उतर सकते हैं।
जब श्री दुसाध जी के प्रश्न का निहित उत्तर यह है कि सवर्ण सर्वहारा कभी भी सर्वहारा की कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता है, तो इसका अर्थ हुआ सवर्ण किसी भी तरह मार्क्सवादी नहीं हो सकता है, सवर्ण कभी भी कम्युनिस्ट नहीं हो सकता है। जो सवर्ण कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी दिखते हैं, वे छद्म हैं, धोखेबाज़ हैं, प्रॉक्सी हैं।
जब श्री दुसाध जी के प्रश्न का उत्तर इस तरह आभास होने लगता है तो बहुत बड़ी आशा यह बधती है कि लगता है दलित कम्युनिज्म/मार्क्सवाद चाहने लगा है। क्या मैं पूँछने का साहस कर सकता हूँ कि दलित यह मानकर प्रश्न पूँछ रहा है कि मार्क्सवाद तो बहुत अच्छा दर्शन है तथा सर्वहारा की लड़ाई उचित है लेकिन सवर्ण कभी भी न कम्युनिस्ट हो सकता है, न मार्क्सवादी हो सकता है और न सर्वहारा की लड़ाई में साथ ही दे सकता है। इसका एक अर्थ यह भी हुआ कि दलितों को मार्क्सवाद की चिंता है, कम्युनिज्म की चाह है, सर्वहारा आंदोलन में वर्ग-संघर्ष मान्य है।
यदि दलित यह मानता कि मार्क्सवाद एक क्रान्तिकारी विज्ञान है जिसे सवर्ण ओढ़-बिछा कर गंदा कर रहा है तथा उस पर इसलिए कब्ज़ा कर रखा है जिससे वास्तविक क्रान्तिकारी उसे अपनाए ही न, तब तो बहुत अच्छी सोच थी लेकिन यदि इन विमर्शों/बहसों का अर्थ यह निकालता है कि सवर्णों ने मार्क्सवाद अपनाया है, वे मार्क्सवादी हैं, तो मार्क्सवाद हमारे किसी काम का नहीं है। यही नहीं, दलित इन छद्म मार्क्सवादियों को ही मार्क्सवाद समझने की भूल भी कर रहा है। वैज्ञानिक चेतना के लिए पूर्वाग्रह बाधा है। दलितों की यह भूल और यह समझ सिर्फ इस कारण बनी हुई है कि दलितों की आदत में अध्ययन नहीं है। दर्शन की दरिद्रता दर्शन के अध्ययन से ही खत्म होगी।
आर डी आनंद
30.08.2020