सनातन श्रमण दर्शन व बाबागिरी की प्रथाएँ

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बाबा प्रेमानंद की भक्ति में मगन हिंदुओं के पास तर्क के नाम पर वही सबकुछ है. जो रामपाल, आसाराम, नित्यानंद आदि के भक्तों के पास था या है. जैसे:
— बाबा प्रेमानंद जी अपने संप्रदाय की सर्वोच्चता को ही तो कहते हैं. वह राधा के भक्त हैं तो उन्हें सर्वश्रेष्ठ मानते हैं. इसमें क्या परेशानी है?
कोई परेशानी नहीं है. लेकिन यही तर्क तो इस्लाम, ईसाई आदि मतों पर भी लागू होता है. सब अपनी सर्वोच्चता का युद्ध कर लें.
तो जब कोई मुसलमान अजान देता है “कोई और पूजा (इबादत) के योग्य नहीं है अल्लाह के सिवा” तो वह गलत क्यों कहा जाएगा?
प्रेमानंद भी बाकी सबको नीचा दिखाते हैं, और इस्लाम भी यही करता है. जैसे प्रेमानंद राधा के आगे भद्रकाली को दासी बनाते हैं.
ऐसे में जब इस्लाम, काफिरों को गाली देता है. तो क्यों बुरा लगता है. जो बातें प्रेमानंद कहते हैं, वैसे ही बातें जाकिर नायक अपने मजहब के लिए करता है.
और यदि संप्रदाय की सर्वोच्चता के शिखर से देखा जाए, तो जाकिर नायक और बाबा प्रेमानंद एक ही तो हैं. अपनी-अपनी दुकान लगाए, तो एक अच्छा और एक बुरा क्यों?
— राधा-रानी के बारे में गर्ग संहिता में लिखा है जाकर पढ़ो. उसमें राधा-रानी को कृष्ण की आह्लादित शक्ति बताया गया है?
हिंदु धर्म में प्रमुख आधार ग्रंथ वेद माने गए हैं, जहाँ से सनातन श्रमण परंपरा का यज्ञ, हवन, जप आदि का उदय होता है. इसमें चार वेद – ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्वेद हैं.
वैदिक काल में ही सनातन का बौद्धिक विकास चरम पर था तो इसी काल में छह दर्शन आए – न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांस और वेदांत.
इन्हीं दर्शनों की विचार मीमांसा पर आधारित 108 उपनिषदों की रचना की गई इन उपनिषदों में कुछ विशेष प्रसिद्ध हैं – ईशावास्योपनिषद, केनोपनिषद, कठोपनिषद, प्रश्नोपनिषद्, मुण्डकोपनिषद, माण्डूक्योपनिषद, तैत्तरीयोपनिषद, ऐतरेयोपनिषद आदि
यह उपनिषद प्रश्नों के उत्तर खोजने की पद्धति में लिखे गए हैं, जो दर्शन के उच्च स्तर का प्रदर्शन करते हैं. इनमें ईश्वर, कर्ता आदि पर भी प्रश्न किए हैं.
इसी कालखंड में चार्वाक जैसा नास्तिक दर्शन भी आया था. जिसके संपूर्ण ग्रंथ का तो लोप हो चुका है. थोड़ा बहुत ही शेष है.
इसके अतिरिक्त समाज, व्यवस्था और धर्म के लिए इक्कीस स्मृतियाँ – मनु स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, अत्रि स्मृति, विष्णु स्मृति, हारित स्मृति, औशनस स्मृति, अंगिरा स्मृति, यम स्मृति, कात्यायन स्मृति, बृहस्पति स्मृति, पराशर स्मृति, व्यास स्मृति, दक्ष स्मृति, गौतम स्मृति, वशिष्ठ स्मृति, आपस्तम्ब स्मृति, संवर्त स्मृति, शंख स्मृति, लिखित स्मृति, देवल स्मृति, सतातप स्मृति हैं.
इसी कालखंड के अंतर में रामायण और जय संहिता (अब महाभारत) नामक ग्रंथ और महाभारत के भीतर से भगवद्गीता की उत्पत्ति होती है.
यह युद्ध कालखंड था, जिस दौरान संभवतः युद्धों ने दर्शन आदि करने की क्षमता को बहुत प्रभावित किया.
क्योंकि गीता के बाद हमें कोई भी उच्च दार्शनिक ग्रंथ सनातन हिंदु धर्म से नहीं मिलता है. गीता अंतिम ग्रंथ सिद्ध होती है.
बाद में जब सनातन धर्म का विस्तार और विकास हुआ तो इसमें पांच पंथ स्थापित हुए – शैव (भगवान शंकर पर आधारित), शाक्त (देवी शक्ति पर आधारित), वैष्णव (भगवान विष्णु पर आधारित), सौर (भगवान सूर्य पर आधारित), गाणपत्य (भगवान गणेश पर आधारित).
इसके पश्चात इन्हीं पंथिक स्थापनाओं के आधार पर अठारह पुराणों की कल्पना की गई. कल्पना इसलिए क्योंकि हर पंथ की सृष्टि से लेकर अपनी कल्पना और कहानी थी.
जैसा पहले ही स्पष्ट है इन पुराणों में वैदिक दर्शन और तर्क शक्ति का अभाव था यह नितांत भक्ति शैली के ग्रंथ जो एक दूसरे को ही काटते हैं.
हिंदु धर्म के अठारह पुराण हैं – ब्रह्म पुराण, पद्म पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण, भागवद पुराण, नारद पुराण, मार्कंडेय पुराण, अग्नि पुराण, भविष्य पुराण, ब्रह्म वैवर्त पुराण, लिंग पुराण, वाराह पुराण, स्कन्द पुराण, वामन पुराण, कूर्म पुराण, मत्स्य पुराण, गरूड़ पुराण, ब्रह्मांड पुराण.
अब यहाँ यदि देखा जाए तो राधा-रानी के आह्लादित शक्ति होने का जो भी साक्ष्य दिया जा रहा है. वह पुराणों से भी बाहर लिखी गई किसी “गर्ग-संहिता” से दिया जा रहा है.
जो काल्पनिक ग्रंथ से अधिक नहीं है. क्योंकि यदि जय संहिता और गीता तक में यदि आह्लादित शक्ति का प्रतीक यदि स्वयं भगवान कृष्ण नहीं दे रहे हैं. वेदव्यास नहीं दे रहे हैं. तो बाद में कुछ भी लिखा जा सकता है.
ऐसी कई संहिताएँ जिनमें भक्तिकाल का संक्रमण है उनकी कहानी में कुछ भी जोड़ा जा सकता है. गर्ग संहिता हिंदु धर्म का कोई आधार ग्रंथ नहीं है, जिसकी बातें सच मानी जाएँ.
भागवत पुराण में उद्धव से लेकर रूक्मिणी तक की चर्चा है तो क्यों ना सभी को देवी और देवता मान लिया जाए. क्यों हम राधा पर ही इतना फोकस लगाए हुए हैं.
तार्किकता की बात की जाए तो रामवतार में देवी सीता भी तो थीं? और उनके शक्ति होने पर कोई आपत्ति भी नहीं होगी? क्या कहीं सीता-सीता अकेले जपने का विधान है?
मुगलकाल में उगे, इस्लामिक सूफीज्म की फंफूद से ऊपजे भक्ति-काल में सेठ वर्ग ने जिस तरह से राधा को उठाया वही आज प्रेमानंद कर रहे हैं.
यदि इतने ग्रंथों और दर्शनों के बाद हम गर्ग-संहिता को ही आधार बना सकते हैं. तो हम मूर्ख ही हैं. राधा किसी भी स्थिति में सर्वश्रेष्ठ कैसे हो सकती हैं. कैसे प्रेमानंद भद्रकाली को राधा की दासी कह सकते हैं.
त्रिदेवियाँ और भद्रकाली जैसी शक्तियाँ तो राधा के अस्तित्व से पहले से हिंदु धर्म में उपस्थित हैं. ऐसे में कैसे हम राधा को सर्वोपरी रख दें कि कोई बाबा यह कह रहा है बस.
गर्ग-संहिता एक पंथिक कल्पना भर है, जो पढने पर स्पष्ट हो जाता है कि उसमें सूफीज्म की छाप अधिक है, बनिस्पत योगेश्वर कृष्ण के कर्मयोग के.
कृष्ण का चरित्र हनन करने की मुगलिया और बाद में मारवाड़ी-जैन सेठों के प्रयास को यदि ऐसे ही आगे बढ़ाया जाएगा. तो हम किसी दर्शन के लायक ही नहीं रह जाते हैं.
इतने ग्रंथ हमारे पास होकर यदि पुराणों के कुछ मिलावटी खंडों और गर्ग-संहिता जैसे काल्पनिक ग्रंथों पर टिके हैं. तो हम गीता-प्रेस के सस्ते अनुवाद और मिलावट के ही लायक हैं.
हरिशंकर शाही 

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