पंडितों की काहिली से नहीं वरन राजपूतों की कायरता से लुटा था सोमनाथ मंदिर, बता रहे हैं ठाकुर सुधीर राघव
1024 में जब मोहम्मद गजनवी ने सोमनाथ को लूटकर अकूत खजाना पाया तो अरब और तुर्कों ने भारत को सोने की चिड़िया कहना शुरू कर दिया।
ऐसी चिड़िया जिसका सारा खजाना मंदिरों में एक जगह ही संग्रहीत था न कि जनता के पास घर घर बंटा था। एक चिड़िया जिसे आसानी से लूटा जा सकता था, क्योंकि कोई बड़ा प्रतिरोध नहीं था।
चिड़िया के पास न तीखे दांत होते हैं न शक्तिशाली पंजे। उसे आसानी से शिकार बनाया जा सकता है। उससे किसी को डर नहीं होता। इसलिए लुटेरों ने भारत को सोने की चिड़िया नाम दिया। उन्होंने इसे सोने का शेर नहीं कहा।
चूंकि सारा धन पंडे पुजारियों ने अपनी चालाकियों से छीनकर मंदिरों में भर लिया था और जनकल्याण में उसे खर्च भी नहीं करते थे। अधिकांश जनता भूख और अत्यधिक श्रम से त्रस्त थी। 80 फीसद आबादी में लड़ने की न ताकत थी न हिम्मत। ले देकर 5 फीसद क्षत्रियों पर ही लड़ने की नैतिक जिम्मेदारी थी। वे बेचारे भी दाल-बाटी-चूरमा खाकर कितना लड़ते। जितना हो सका जान की बाजी लगाकर लड़े। धन जितना शासकों के पास था, उससे अधिक मंदिरों में था।
लुटेरों को एक एक घर को लूटकर धन इकट्ठा नहीं करना था। वह सब उन्हें एक मंदिर से ही मिलना था। लोगों के घरों में तो महिलाओं और बच्चों के अलावा कुछ नहीं था। इसलिए जब 5000 लुटेरों के साथ गजनवी ने सोमनाथ लूटा तो देश की लाखों की आबादी से कोई संगठित विरोध दर्ज नहीं है। लेकिन गजनवी इतना क्रूर था कि जो मंदिर में सिर झुकाए खड़े थे उनकी भी गर्दनें काट दीं।
अगर हम सोने की चिड़िया की जगह समानता पर आधारित समाज होते तो निस्संदेह इतने शक्तिशाली होते कि किसी लुटेरे की हिम्मत इधर झांकने की नहीं पड़ती। अगर वह लूटने आता भी तो उसे घर घर जाकर लूट करनी पड़ती और बहुत पिटता। अपनी लूट के खिलाफ सब संगठित होते।
आज भी सारा धन एक जगह भर देने की आदत है। सोमनाथ जैसी ही एक बड़ी लूट देश के साथ हाल ही में हुई है। एलआईसी, सरकारी बैंकों और जनता का सारा पैसा सरकार की बेवकूफियों से एक अडानी में भर दिया गया और विदेशी निवेशकों ने एक बार में ही उसे लूट लिया। सबसे ऊंची शेयर कीमतों पर विदेशी निवेशकों ने अपना पैसा दसियों गुना करके निकाला।
अडानी की लुटाई कोई सोमनाथ से छोटी लूट नहीं है। अब लुटेरे तलवार लेकर नहीं आते, वे विदेशी निवेश लेकर आते हैं।