बलिया के सुखपुरा थाने से स्टेट के विरुद्ध साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार ग्रामीणों के पक्ष में बोलने से आखिर क्यों कतरा रहे हैं ‘लाल बंदर’

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वाराणसीः बलिया के सुखपुरा थाने (9454403009) के बसंतपुर गाँव से प्रतिबंधित संगठन भाकपा (माओवादी) से कथित रूप से जुड़े पाँच लोगों को एटीएस ने गिरफ्तार किया है। हमारा मोर्चा इन पाँचों की पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में पता लगाने का प्रयास कर रहा है, खबर को शीघ्र ही अपडेट किया जाएगा।
नक्सली बताकर 15 अगस्त के दिन गिरफ्तारी करना आम बात है। दरअसल, लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियों में भी तो संविधान-सम्मत ढंग से काम करने वाले लोग ही बैठे होते हैं। नक्सलियों की ब्रांडिंग इस रूप में की गई है कि वे संविधान-लोकतंत्र को नहीं मानते, जबकि सच तो यह है कि संविधान-लोकतंत्र को नहीं मानने वाले बहुतेरे कम्युनिस्ट ग्रुप हैं और वे लोग खुलेआम फेसबुक पर बरजोरी सत्ता-दखल को लेकर बहस भी चलाए रहते हैं, गूगल-मीट पर घंटों विमर्श भी करते हैं।
तो वजह क्या है कि विधि प्रवर्तन एजेंसियों का ध्यान सिर्फ भाकपा (माओवादी) के कार्यकर्ताओं पर ही जाता है। एक तो यह कि वे लोग दंडकारण्य के दुर्गम इलाकों में स्टेट के खिलाफ जंग छेड़े हुए हैं और कानून-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न किए हुए हैं, और दूसरी लेकिन सबसे अहम वजह यह है कि उनके खिलाफ नैरेटिव सेट किया जा चुका है। इसी नैरेटिव की देन है कि अर्बन नक्सल जैसा शब्द-युग्म गढ़ा जा चुका है।
RCLI के संस्थापक सचिव शशिप्रकाश का कहना है कि चूँकि मार्क्सवाद विज्ञान है और गति विज्ञान का प्राणतत्व होती है और विज्ञान सदैव आगे की ओर गति करता है तो माओ के अवदानों को खारिज कर कोई मार्क्सवादी हो ही नहीं सकता। तो व्यवहार में जो मार्क्सवाद के प्रैक्टिसनर हैं, वे सब के सब माओवादी अर्थात नक्सली हैं।
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि राज्य मशीनरी सिर्फ भाकपा (माओवादी) से जुड़े लोगों पर ही क्यों मेहरबानी दिखाती है, मैदान में सक्रिय दूसरे वाम समूहों-संगठनों की क्यों अनदेखी करती रहती है? ताकत की दम पर सत्ता के मौजूदा ढाँचे को वे भी तो चकनाचूर करना चाहते हैं।
यहाँ समझ और लाइन का सवाल आ जाता है। माओवादियों का मानना है कि इस देश में सच्चा लोकतंत्र नहीं आया है और जमीनों को किसानों में बाँटे जाने का काम ठीक प्रकार से संपन्न नहीं हुआ है तो वे गाँवों से शहरों को घेरने की रणनीति पर काम करते हैं और इलाकावार दखल की बात मानते हैं। इसके उलट समाजवादी क्रांति की मंजिल को मानने वाले लोग देशव्यापी स्तर पर बगावत की तैयारी में लगे हुए हैं।
प्रगतिशील लेखक संघ के उत्तर प्रदेश के महासचिव संजय श्रीवास्तव कहते हैं कि एंटोनियो ग्राम्शी के अनुसार पहले विचारधारा के क्षेत्र में काम करके वर्चस्व हासिल किया जाता है, फिर लोग जब कनविंस्ड हो जाते हैं तो ताकत की दम पर प्रभुत्व यानि कि सत्ता कायम कर ली जाती है। जाहिर है कि चूँकि वह सीपीआई से भी जुड़े हुए हैं जो कि संसदीय जनतंत्र और संविधान में आस्था रखती है तो निजी संपत्ति की सिद्धांत रूप में मुखालफत करने के बावजूद हथियारबंद संघर्ष के पक्ष में लाला संजय श्रीवास्तव नहीं हैं।
बलिया के सुखपुरा थाने के प्रभारी को हमारा मोर्चा की ओर से फोन किया जा चुका है, उन्हें मामले की जानकारी नहीं थी। पता करके बताने को बोला है। बलिया के दूसरे तमाम वाम संगठनों से भी डिटेल भेजने के लिए अनुरोध किया जा चुका है।
हमारा मोर्चा के संपादक माननीय श्री अद्वय शुक्ल जी एक बार लंका गेट पर किसी विरोध-प्रदर्शन को कवर करने गए हुए थे। वहाँ पर मौजूद एक दरोगा से उन्होंने पूछा कि 10 ठो मनमौजी विद्यार्थियों के प्रोग्राम को सफल बनाने के लिए 25 ठो पुलिस वाले काहे आ जाते हैं तो उस दरोगा ने बताया था कि थनवै पर बैठकर का करें, इस बहाने थोड़ा मनोरंजन तो हो जाता है। पुलिस को भी पता है कि जनता अभी निजी संपत्ति के पक्ष में है और संविधान-लोकतंत्र का नैरेटिव उसे रास आता है तो लोड लेने की जरूरत नहीं। अब सरकारी खजाने से सैलरी ले रहे हैं तो उसकी भूमिका तो अदा करनी होगी।
दिशा छात्र संगठन के अमित पाठक का कहना है कि सुंदर समाज बने, इस भावना के वशीभूत होकर जो ग्रामीण भाकपा (माओवादी) के आनुषंगिक संगठनों से जुड़ते हैं, वे तो बस भावना से क्रांतिकारी होती हैं, उन्हें क्रांति के विज्ञान की जानकारी ही नहीं होती। स्टेट मशीनरी बाकी जनता में दहशत पैदा करने के लिए उन्हें जेलों में सड़ा देती है।
इन लाल बंदरों में एक-दूसरे की धोती खींचने की लंबी परंपरा रही है। माओवादियों से दरपर्दा जुड़े लोग शेष सभी कम्युनिस्टों की तुलना एनजीओ वालों से करते हैं।
नख-दंतविहीन पालतू प्रगतिशीलता से खफा जाने-माने युवा नेता दिगंत शुक्ला कहते हैं कि इस देश के वाम समर्थक नक्सली की हेडिंग पढ़कर वैसे ही भड़कते हैं, जैसे कि लाल कपड़े से सांड़ भड़कता है। तभी तो नक्सली होने जैसे वाहियात आरोप में गिरफ्तार किए गए भोले-भाले ग्रामीणों से कोई सार्वजनिक रूप से हमदर्दी नहीं जाहिर करता।
बताते चलें कि देश के लिए कोई नहीं मर रहा, न तो सरकारी अफसर और न ही कोई और। निजी संपत्ति बड़ी ही पवित्र चीज है और संविधान मूलतः और मुख्यतः इसी की रक्षा को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। स्टेट मशीनरी के सभी पुर्जों को दौलत-हैसियत चाहिए फिर देशप्रेम की आड़ लेनी पड़े तो गुरेज क्या है?

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