2010 का दशक भारत में छात्र आंदोलनों के एक नये आगाज़ का दशक है। दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत में भी छात्र आंदोलनों का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में कदम- कदम पर छात्रों व छात्र आंदोलनों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। अंग्रेजों के जाने के बाद के भी लगभग हर दशक ने भारत में छात्र आंदोलनों की गर्मी को महसूस किया है। भाषा आधारित राज्यों के गठन के लिए उड़ीसा व आंध्र प्रदेश (बाद में तेलंगाना) के छात्रों का आंदोलन हो, भाषाई वर्चस्व के खिलाफ 1965 में तमिलनाडु के छात्रों का आंदोलन रहा हो, 1967 के नवम्बर माह में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शुरू हुआ ‘अंग्रेजी हटाओ आन्दोलन’ हो, नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव में 60 के दशक के अंत में देशव्यापी छात्र आंदोलनों का उभार रहा हो, जिसने बिहार, बंगाल, आंध्र, उड़ीसा, पंजाब जैसे राज्यों की पूरी की पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया हो। सेंट स्टीफेंस और प्रेसीडेंसी जैसे कुलीन कॉलेजों के छात्र भी नक्सलबाड़ी आंदोलन में कूद पड़े थे। 1974 में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले जेपी आंदोलन का समय हो, जिसने अवसरवादी छात्र आंदोलनों और छात्र नेताओं को जन्म दिया। 1975 में आपातकाल लागू होने के बाद उसके विरोध में ढेर सारे छात्र आंदोलनों की शुरुआत हुई। जिसने अलग-अलग विचारों के छात्र संगठनों और छात्र नेताओं को जन्म दिया। 70- 80 के दशक में ही आंध्रप्रदेश राज्य में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ रेडिकल स्टूडेंडट्स यूनियन का क्रांतिकारी आन्दोलन शुरू हुआ। इस आंदोलन में सैकड़ों छात्र पुलिस और उसकी गुंडा वाहिनियों के नृशंस दमन का शिकार हुए। असमी पहचान को लेकर असम आंदोलन ने 80 के दशक में मिलिटेंट रूप ले लिया। जिसका नेतृत्व ऑल असम स्टूडेंडट्स यूनियन (आसू) ने किया था। 90 के दशक में आर्थिक सुधारों के नाम पर किये जा रहे निजीकरण, उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों के खिलाफ छात्रों का आंदोलन, जो मुखर ढंग से शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ शुरू हुआ था। इस तरह के ढेरों छात्र आंदोलन 1947 के बाद के भारत में हुए। पिछड़े वर्गों की स्थिति में सुधार के लिए मंडल आयोग की नीतियों को लागू करने के खिलाफ सवर्ण छात्रों का प्रतिक्रियावादी छात्र आंदोलन और देश की राजनीति को सांप्रदायिक दिशा देने के लिए शुरू किए गए रामजन्म भूमि आंदोलन में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) का प्रतिक्रियावादी छात्र आंदोलन भी इसमें शामिल हैं। इसके अलावा मंडल कमीशन की नीतियों के लागू होने के बाद से पिछड़े वर्ग के छात्रों का प्रतिनिधित्व भी शिक्षा और नौकरियों में तेजी से बढ़ा। जिसने भारत की राजनीति को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। सवर्ण जातीय वर्चस्व के खिलाफ पिछड़ी जातियों में जाति विरोधी और जातीय शक्तिकरण दोनों तरह के आंदोलनों का स्वर सुनाई दिया।
2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद भारत में विश्वविद्यालय और प्रदेश स्तर पर ढेर सारे जनवादी छात्र संगठनों और उनकी पहलकदमी से छोटे- छोटे लेकिन महत्वपूर्ण छात्र आंदोलनों की एक नई शुरुआत हुई। 2014 में एक छात्रा के साथ छेड़खानी के खिलाफ पश्चिम बंगाल की पूरी जाधवपुर यूनिवर्सिटी सड़क पर उतर आयी। 2015 में बी ग्रेड फिल्मों के अभिनेता और भाजपा नेता गजेंद्र चौहान को फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (FTII), पुणे का चेयरमैन बनाये जाने के खिलाफ छात्रों का लम्बा आंदोलन चला। 2016 में हैदराबाद यूनिवर्सिटी के एक अम्बेडकरवादी छात्र रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या ने पूरे देश के छात्रों को आंदोलित किया। उच्चतर शिक्षण संस्थानों में जड़ जमाये बैठे मनुवादी सोच और ‘सवर्ण’ वर्चस्व के खिलाफ पूरे देश के छात्र सड़क पर उतरे। अफज़ल गुरु के अन्यायपूर्ण ‘न्यायिक’ हत्या के खिलाफ 2015-2016 में जेएनयू के छात्रों ने आवाज उठाया। इस आवाज को राष्ट्रीय स्वयंसेवी संघ के अनुषांगिक छात्र संगठन एबीवीपी व भारतीय जनता पार्टी द्वारा साम्प्रदायिक और देशविरोधी रूप देने की कोशिश हुई। जेएनयू के छात्रों ने डेमोक्रेटिक कैंपस, डेमोक्रेटिक देश और सुरक्षित भविष्य के नारे के साथ आंदोलन किया। 2017 में जनवादी अधिकारों के लिए चल रहे छात्र आंदोलनों के देशव्यापी माहौल में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में एक छात्रा के साथ हुए छेड़खानी ने बड़े पैमाने पर बीएचयू की छात्राओं और न्यायपसन्द छात्रों को आंदोलित किया। सितंबर 2017 में बीएचयू में छात्राओं का ऐतिहासिक आंदोलन हुआ जिसमें सैकड़ों छात्र, छात्राओं के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हुए। नरेंद्र मोदी की फासीवादी सरकार ने इन छात्र आंदोलनों को ‘एन्टी नेशनल’ कहकर बदनाम किया और इन आंदोलनों का तानाशाही पूर्ण ढंग से दमन किया। 2016 और 2017 में हजारों की तादाद में देश के तमाम विश्वविद्यालयों के छात्र सड़क पर उतरे।
2014-2015 से भारत लगातार छात्र आंदोलनों की धमक को सुन रहा है। अभी हाल में गरीब विरोधी व मुस्लिम विरोधी, फासीवादी ‘नागरिकता संशोधन कानून’ (CAA) और नेशनल रजिस्टर फ़ॉर सिटीज़नशन्स (NRC) के खिलाफ देश के तमाम विश्विद्यालयों और कॉलेजों के छात्रों ने बर्बर दमन झेलते हुए भी महीनों तक आंदोलन किया। फासीवादी नरेंद्र मोदी सरकार ने जनता के सारे नागरिक अधिकारों को कुचलकर उस आंदोलन को खत्म करने की कोशिश की। आधी रात को जामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्रों पर निर्दयतापूर्वक हमला किया गया। ढेर सारे छात्र बुरी तरह घायल हुए और कुछ की मौत भी हो गयी। जेएनयू को ‘संघी’ गुंडों द्वारा बंधक बना लिया गया। छात्रावासों में घुस- घुसकर छात्राओं व छात्रों को पीटा गया। पुलिस न केवल तमाशा देखती रही बल्कि उल्टे पीड़ित छात्रों को ही आरोपी बना दिया।
2016 से ही नरेंद्र मोदी की शिक्षा विरोधी नीतियों के खिलाफ पूरे देश के छात्र आंदोलित हैं। भाजपा सरकार सार्वजनिक शिक्षा को नष्ट कर देने की हर मुमकिन कोशिश कर रही है। जेएनयू को तो लगभग नष्ट कर देने पर ही ये फासिस्ट आमादा हैं। जेएनयू में 90% रिसर्च की सीटों की कटौती की गयी है और फीस में बेतहाशा वृद्धि की गयी है। 2014-15 के बाद भारत में छात्र आंदोलनों में एक नए दौर की शुरुआत हुई है। विपक्ष तो संसद में पहले भी नहीं था। लेकिन नक्सलबाड़ी के बाद इतने बड़े पैमाने पर संसदीय व्यवस्था से जनता व छात्रों का मोहभंग पहली बार हुआ है। सच कहें तो अगर आदिवासी इलाकों को छोड़ दिया जाए तो शहरों- कस्बों में छात्र ही विपक्ष की भूमिका अदा कर रहे हैं। सत्ता का असली विपक्ष संसद में नहीं बल्कि सड़क पर मौजूद है।
ये सारे छात्र आंदोलन शिक्षा के अधिकार, विभिन्नता में एकता, असहमति दर्ज कराने और प्रोटेस्ट करने के नागरिक अधिकारों, डॉ. आंबेडकर के जातिविहीन समाज के सपनों, लैंगिक भेदभाव विरोधी और जल- जंगल- जमीन के साम्राज्यवादी लूट के खिलाफ हो रहे हैं। ये आंदोलन जनता और युवाओं को गहराई से यह एहसास करा रहे हैं कि 1947 की आज़ादी एक नकली आज़ादी थी और देश में लोकतंत्र व संविधान का शासन एक ढकोसला मात्र है।
अपनी तमाम उपलब्धियों और सकारात्मकताओं के बावजूद इन छात्र आंदोलनों की एक बड़ी कमी है, व्यवस्था विरोधी क्रांतिकारी दिशा का अभाव। मुद्दा आधारित छात्र आंदोलनों की जगह व्यवस्था विरोधी क्रांतिकारी छात्र आंदोलनों को लेना होगा। समस्या को अलग- अलग देखने और अलग- अलग लड़ने के उत्तर आधुनिक सोच के खिलाफ समस्या को संपूर्णता में देखना होगा व सामूहिक तौर पर एकजुट होकर तीखा संघर्ष चलाना होगा। जब सबका दुश्मन एक है तो संघर्ष अलग- अलग क्यों? छात्र आंदोलनों से जातिवाद- अवसरवाद व छद्म राष्ट्रवाद के दलदल से बाहर निकालना होगा। सपा- बसपा- सीपीआई-सीपीएम जैसे दलाल और अवसरवादी पार्टियां व उनके छात्र संगठन और छात्र आंदोलनों में जड़ जमाये अवसरवादी व जातिवादी तत्व छात्र आंदोलनों को क्रांतिकारी दिशा लेने में सबसे बड़े बाधक हैं। भाजपा व कांग्रेस के अलावा इनके खिलाफ भी तीखा वैचारिक संघर्ष छेड़ना होगा। कुल मिलाकर कहें तो नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय जिस तरह छात्रों ने अपने सुविधासंपन्न जीवन की लालसा और कॅरियरवादी सोच को लात मारकर मजदूरों, किसानों, आदिवासियों और दलितों के संघर्ष से अपने आप को एकरूप कर लिया था, वैसे ही फिर से करने की जरूरत है। छात्र आंदोलन जब तक गाँव चलो, बस्ती चलो का आह्वान नहीं करेंगे तब तक इस व्यवस्था का बदलना मुश्किल है। जरूरत है देश की मेहनतकश जनता के संघर्षों से कंधा मिलाने का, छात्र आंदोलनों को क्रांतिकारी दिशा देने का, अपने अवसरवादी सोच को लेकर आत्म आलोचना करने का और मेहनतकश जनता से खुद को एकरूप करने का।
नौजवानों को यह एहसास करने की जरूरत है कि जाति, धर्म और लैंगिक भेदभाव पर आधारित सोच हमारे आंदोलनों को जोड़ने का नहीं बल्कि तोड़ने का काम करते हैं। सिर्फ और सिर्फ वर्गीय एकता, वैज्ञानिक सोच और समान विचारधारा पर आधारित क्रांतिकारी छात्र आंदोलन ही आज़ादी व बराबरी पर आधारित समाज का निर्माण कर सकते हैं। इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं है। भगत सिंह ने कहा था कि, “नौजवानों को चाहिए कि वो फैक्ट्रियों, कारखानों, मलिन बस्तियों, झुग्गी-झोपड़ियों और खेतों- खलिहानों में जायें। यानी वहाँ जाएं जहाँ मेहनतकश जनता रहती है। जनता को क्रांतिकारी विचारों से लैश करें।”
रितेश विद्यार्थी
संयोजक
इंकलाबी छात्र मोर्चा, इलाहाबाद