देश की 50 करोड़ श्रमिक आबादी और करीब 15 करोड़ किसान परिवारों के जीवन का आज क्या अर्थ है, देश के लोकतंत्र में उनके लिए कितनी संवेदना और कितनी जगह है? तो, सबसे जरूरी काम है एक बड़े सामाजिक समूह के रूप में अपनी मजबूत उपस्थिति को स्थापित करना, जाति- धर्म- लिंग के कैदखानों से मुक्त होकर एक इंसानी पहचान के साथ सामने आना। क्योंकि संघर्ष तो इसी बात पर है की सत्ता हमें इंसान नहीं समझती और इसलिए हमारे इंसानी अधिकारों का दमन करने में उसे जरा भी हिचक नहीं होती। हड़ताल और संघर्ष में शामिल होकर ही हम यह घोषित करते हैं कि हम भी इंसान हैं और लोकतंत्र में हमारी आवाज को अनसुना नहीं किया जा सकता।
26 नवंबर 2020 को पूरे देश की श्रमिक कर्मचारी आवाम से एक दिन की हड़ताल का आवाहन किया गया है। 27 नवंबर को देशभर के किसान सरकार की नीतियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करेंगे। आंदोलन के मैदान में श्रमिकों किसानों की एकजुटता पूरे समाज में एक नई उम्मीद पैदा होगी। इस उम्मीद की लहर को पैदा करने में एक- एक श्रमिक की भूमिका है क्योंकि श्रमिकों के वर्गीय सवालों की लड़ाई धीरे धीरे बुनियादी सामाजिक बदलाव की लड़ाई का रूप लेने की ओर बढ़ रही है। सच्चे अर्थों में पूरी मानवता की मुक्ति की लड़ाई बनती जा रही है।
इसके बावजूद कुछ लोग यह पूछ सकते हैं कि इन हड़तालों से कोई नतीजा तो नहीं निकलता, तो फिर इसे करने का क्या औचित्य है? इसी से एक सवाल और निकलता है कि देश की 50 करोड़ श्रमिक आबादी और करीब 15 करोड़ किसान परिवारों के जीवन का आज क्या अर्थ है, देश के लोकतंत्र में उनके लिए कितनी संवेदना और कितनी जगह है? तो, सबसे जरूरी काम है एक बड़े सामाजिक समूह के रूप में अपनी मजबूत उपस्थिति को स्थापित करना, जाति- धर्म- लिंग के कैदखानों से मुक्त होकर एक इंसानी पहचान के साथ सामने आना। क्योंकि संघर्ष तो इसी बात पर है की सत्ता हमें इंसान नहीं समझती और इसलिए हमारे इंसानी अधिकारों का दमन करने में उसे जरा भी हिचक नहीं होती। हड़ताल और संघर्ष में शामिल होकर ही हम यह घोषित करते हैं कि हम भी इंसान हैं और लोकतंत्र में हमारी आवाज को अनसुना नहीं किया जा सकता।हड़ताल के इस महत्व को जानने की जरूरत है।
इस हड़ताल के सवाल हैं- नए श्रम कोड, कृषि बिल, सार्वजनिक क्षेत्र का निजीकरण, ठेका-संविदा स्कीम, मजदूरी सभी मेहनतकशों के लिए सामाजिक सुरक्षा, महामारी से प्रभावित श्रमिकों का कल्याण,हिंसा-नफरत-सामाजिक बंटवारे और तुच्छता की राजनीति, महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधाएं, प्रवासी मजदूर, लोकतंत्र और नागरिक अधिकार आदि।कुल मिलाकर मुद्दे संगठित श्रमिक आबादी के दायरे से आगे बढ़कर पूरी मेहनतकश जनता और पूरे समाज के सवालों से जुड़ती जा रही है। इसलिए सभी को किसी ना किसी तरीके से इस एक दिवसीय हड़ताल के साथ एकजुटता दिखानी चाहिए। यह सिलसिला यदि खुले दिल दिमाग से लेकर हम आगे बढ़ सके तो इसी के बीच से नई लोकतांत्रिक राजनीति रूप ग्रहण करेगी, नए सामाजिक आदर्श सामने आएंगे। हमारी लड़ाई को सामाजिक- आर्थिक जीवन के हर क्षेत्र में नए आदर्शो की जरूरत है, तभी हम पिछड़ी राजनीति के ऊपर वरीयता प्राप्त करेंगे।
आज की हुकूमत देसी- विदेशी कॉर्पोरेटों की किस तरह गुलामी कर रही है, यह किसी से छुपा नहीं है और किस तरह उसने हमारे ही बीच से गुलामों की एक फौज खड़ी कर ली है जो उसकी हर सही- गलत को जायज ठहराते हैं। हमें यह देखना चाहिए कि देश में मौजूद दूसरी राजनीति की क्या कमियां हैं, जो लोगों को एक मानव द्रोही राजनीति का समर्थक बना रही है। इस समस्या के समाधान की जिम्मेदारी सिर्फ पेशेवर राजनीति करने वालों की ही नहीं है, बल्कि उन सभी लोगों की है जो इंसानियत के पक्ष में हैं और श्रमिक- कर्मचारी आंदोलन की तो बड़ी जिम्मेदारी है। क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया में सबसे अधिक गंवाने वाला समूह देश का श्रमिक और मेहनतकश वर्ग है।
यह हुकूमत जब से सत्ता में आई है उसका एक ही एजेंडा है देश के मेहनतकश नागरिकों से छीनना। उसने देश के बहुसंख्यक लोगों से उनकी सामाजिक- आर्थिक सुरक्षा छीन ली, स्वरोजगार के अवसर छीन लिए, नियमित नौकरी का अधिकार छीन लिया, सस्ती शिक्षा- चिकित्सा का अधिकार छीन लिया, सच कहने का अधिकार छीन लिया, मिलजुल कर रहने का अधिकार छीन लिया, न्याय पाने का अधिकार छीन लिया, किसानों से उनकी उपज और जमीन छीनने को कानूनी रूप दे दिया, खुदरा भ्रष्टाचार को थोक भ्रष्टाचार में बदल दियाऔर खुदरा व्यापार को कॉर्पोरेटों की झोली में डाल दिया आदि। इस सबसे भी मन नहीं भरा तो देश के सभी नागरिकों की नागरिकता को ही संदिग्ध बना दिया और विकास के नाम पर पूरे देश में डिटेंशन सेंटर बनाना शुरु कर दिया।
मौजूदा हुकूमत कोई आसमान से नहीं उतरी है, यह हम सबके बीच से पैदा हुई है, यह स्वयं हमारी सोच और आचरण की कमजोरियों से ताकत ग्रहण करती है। यह समाज के वैचारिक गतिरोध और विशेष तौर पर श्रमिक- किसान आंदोलन के समाजवादी आदर्शों से भटक जाने की सजा है। यदि हम इस निजाम को बदलना चाहते हैं तो हम स्वयं को भी बदलने का साहस करना पड़ेगा, पूंजीवादी विकास के मोहपाश से अपनी सोच को आजाद करना पड़ेगा। इंसानियत की बुनियाद पर खड़े होने का संकल्प करना होगा।
सांप्रदायिक पूंजीवाद का विकल्प आज धर्मनिरपेक्ष पूंजीवाद या जातिवादी पूंजीवाद नहीं हो सकता। धर्मनिरपेक्षता का अर्थ धार्मिक समुदायों के पिछड़े और रूढ़िवादी सामाजिक- राजनीतिक प्रवृत्तियों के प्रति निरपेक्षता नहीं हो सकती और धार्मिक होने का मायने सिर्फ अपने सत्य को एकमात्र और अंतिम सत्य मानना नहीं हो सकता। हमें यह समझना होगा कि एक धार्मिक समुदाय का कट्टरपंथ दूसरे समुदायों के कट्टरपंथ के लिए खाद पानी का काम करता है। हमें हर जातीय- धार्मिक समुदाय के भीतर पैदा हुई नई उदारवादी-मानवीय-तर्कपूर्ण और समाज को आगे ले जाने वाली प्रवृत्तियों के प्रति सहानुभूति पूर्ण और सहयोगी रुख अपनाना होगा ताकि समाज को आगे ले जाने वाली युवा ताकते सामने आ सके। बहुसंख्यकवाद की प्रवृत्ति जितना अपने देश के लिए घातक है,उतनी ही पूरी दुनिया के हर देश के लिए घातक है। इस तरह की तमाम प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष एक वैचारिक संघर्ष भी है समाज को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने का संघर्ष भी है।
आज सवाल यह नहीं है कि हमारी 26 नवंबर की अखिल भारतीय हड़ताल कितनी अच्छी होती है, वह तो हमें करनी ही है, मुख्य बात है कि हम इस में भागीदारी करते हुए इससे आगे की लड़ाई के लिए खुद को और अपने श्रमिक- नागरिक साथियों को कितना तैयार और एकजुट कर लेते हैं। लड़ाई सरकार की श्रमिक और जनविरोधी नीतियों के प्रति है,यह लड़ाई दो विचारों की भी है और स्वयं को एक नई वैचारिक जमीन पर खड़ा करने की है, लड़ाई अपने साथ के भटक गए लोगों को वापस लाने की भी है। इसके लिए जरूरी है कि इंसान के तौर पर हम सभी बराबर हैं जो एक सभ्य समाज के लिए एक बुनियादी बात है कि वह अमली तौर पर स्वीकार करें कि हर इंसान की इंसानी जरूरतों का एक जैसा महत्व है। जो हुकूमत इन जरूरतों में भेदभाव को बढ़ावा देती है, वह अमानवीय और अनैतिक है। मानवजाति का भविष्य हुकूमतशाही में नहीं बल्कि सार्वजनिक जीवन में आम नागरिकों की सीधी और स्वतंत्र भागीदारी में है। यही श्रमिक- किसान आंदोलनों की वास्तविक मुद्दा और लक्ष्य भी है। एक वर्ग के तौर पर श्रमिक वर्ग का हित वही है जो पूरी मानवता का है।