स्त्री मुक्ति-संघर्ष कौन करेगा

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स्त्रियों के संघर्ष में सहभागिता देने वाले बहुत से प्रगतिशील पुरुष लिखते और बोलते तो बहुत ही वैज्ञानिक और क्रान्तिकारी तरह से हैं किन्तु उनका व्यवहार और चरित्र पारम्परिक चेतना के पुरुष से भी अधिक घिनौना होता है। ऐसे पुरुष हिप्पोक्रेट्स की श्रेणी में आते हैं।  इन तथाकथित पुरुषों को हिप्पोक्रेट्स कहकर पुरुषों के बीच में न जाना भी तो ठीक नहीं है। जो हिप्पोक्रेट्स लगते हैं और वस्तु समझने के आदी हैं लेकिन वैचारिक रूप से प्रोग्रेसिव हैं, ऐसे लोग दो तरह के लोग होते हैं-प्रथम, वे जो सब कुछ जानते हुए छल करते हैं, दूसरे, वे जो सब कुछ जानते हैं फिर भी व्यवस्था जनित मानसिकता के शिकार हैं। किसी क्रान्तिकारी सांगठनिक प्रैक्टिकल के अभाव में आदत से मजबूर हैं किन्तु ऐसे लोग सांगठनिक संघर्ष के दौरान अपनी सोच के अनुरूप आदतों में सुधार ला सकते हैं तथा किए जाने वाले बदलाव में शामिल हो सकते हैं। 
मैं स्वयं प्रोग्रेसिव हूँ लेकिन सामाजिक और पारिवारिक जीवन में न चाहते हुए भी बहुत सारी आदतें, संस्कृतियाँ, अचार-व्यवहार पुरुषप्रधानता वाली ही हैं। बस, प्रोग्रेसिव होने से इतना अंतर जरूर है कि मैं अपनी पत्नी, भएहु, बहु, बहन और बेटियों पर पारंपरिक मान्यताओं को नहीं लादता हूँ।
यह तो सत्य है कि अधिकतर पुरुष स्त्रियों को मात्र यौनिक देह ही समझेंगे और यह भी सही है कि इन्हीं पुरुषों के मध्य स्त्रियों को परिवर्तन की आँधी उठानी होगी। यह ख़याल बिल्कुल बेजा है कि स्त्रियों की लड़ाई पुरुष प्रारम्भ करेगा और यह अपेक्षा भी निरर्थक है कि पुरुष वर्ग स्त्रियों को देह समझना बन्द कर दे। नैतिकता भी बिना संघर्ष कदापि नहीं आने वाली है। स्त्रियों को अपनी लड़ाई लड़नी ही होगी। स्त्रियाँ जब लड़ाई प्रारम्भ करेंगी तो उनके साथ बहुत से पुरुष भी आएँगे। स्त्रियों के संघर्ष और संगठन में पुरुषों की सहभागिता परिवर्तन का शुभ संकेत है किंतु फिर भी, उन अनेक क्रान्तिकारी पुरुषों से भी स्त्रियाँ दैहिक और नैतिक स्तर पर शिकार होती रहेंगी क्योंकि कुछ ही दिन में सारे परिवर्तनकारी पुरुषों की नैतिकता उत्कृष्ट नहीं होने जा रही है। स्त्रियों को बहुत सचेत ढंग से परिवर्तन के संघर्ष को चलाना होगा। इस संघर्ष में न सिर्फ पुरुष स्त्रियों को छलेंगे बल्कि अनेक स्त्रियाँ भी कामतृष्णा से उत्प्रेरित होकर पुरुषों को अनैतिक बना सकती हैं। यह सारे करप्शन बहुत दिनों तक फेस करते हुए दिल पर पत्थर रखकर सुनहरे दिनों के लिए संघर्ष चलाना ही होगा।
मैं बहुत ढ़ेर सारी नारीवादी स्त्रियों से भी सवाल करता रहता हूँ और उनसे कहता भी रहता हूँ कि जिस तरह आप पुरुषों के विरुद्ध सवाल खड़ा करती हैं और स्त्री को जिस रूप में रखना चाहती हैं, उस रूप को आदर्श रूप में आप स्वयं क्यों नहीं प्रस्तुत करती हैं। आम स्त्री तो परम्परावादी है। उसे भाग्य, भगवान, तीज, त्योहार, गौरी, गणपति, जादू, टोना, नजर, भभूत, व्रत, एकादशी, करवाचौथ, भैयादूज, काली, ड्यूहार, संतोषी माई और दुर्गा माई से ही फुरसत नहीं है। बचीं थोड़ी वैचारिक बहस वाली लड़कियाँ और स्त्रियाँ। वे स्वयं कई खेमों में बंटी हैं-कोई प्रगतिशील चेतना वाली हैं, कोई जनवादी चेतना वाली हैं, कोई मार्क्सवादी हैं, कोई सवर्णवादी हैं, कोई दलितवादी हैं, कोई आम्बेडकरवादी हैं। ये सभी स्त्री के मुद्दों पर अलग-अलग हैं। बहुत सारी स्त्रियाँ बनाव, श्रृंगार, बिंदी, सिंदूर, काजल, लिपिस्टिक, क्रीम, पाउडर, नथ, झुलनी, झुमकी, करधन, पायल, पावजेब, हार, अंगूठी, लम्बे बाल, साड़ी, ब्लाउज इत्यादि को स्त्री गुलामी का प्रतीक और पुरुषों की दासता का एक खूबसूरत औजार समझती हैं। फिर भी, स्वयं यही नारीवादी स्त्रियाँ ही बड़े शौक से चार्मिंग स्त्री बनकर (एक तरह मार्केट की रंग-बिरंगी वस्तु बनकर) पुरुषों से कहती हैं कि स्त्रियों का इस तरह रहना अनुचित नहीं है बल्कि तुम्हारे (पुरुष की) नज़रों मे अश्लीलता है। जहाँ स्त्री को अपने अनेक क्रियाकलापों और संस्कृति भावभाव से पुरुषों को अपने साथ लाकर कन्विंस करना चाहिए था, वहीं अनाप-सनाप आरोप मढ़कर उन्हें अपनों से और अपने संघर्षों से दूर कर देती हैं तथा कालांतर में ढ़ेर सारी नारीवादी स्त्रियाँ उच्श्रृंखलता का शिकार हो कर स्वक्छन्द हो जाती हैं।
फिर भी, निराशा से काम नहीं चलेगा और न ही ये नारीवादी स्त्रियाँ ही कोई परिवर्तन करने जा रही हैं। बिडम्बना यह है कि अनेक नारीवादी स्त्रियों के अनेक स्त्री विषयक एनजीओ चल रहे हैं, जहाँ भोली-भोली स्त्रियों को फँसाकर उनकी मार्केटिंग की जाती है और उनसे सेक्स उद्योग करवाया जाता है। दूसरी किस्म की स्त्रियाँ परम्परावादी हैं वे मानती हैं कि ईश्वर ने उन्हें पुरुष भोग और सृष्टि उन्नयन के लिए बनाया है। वे मानती हैं कि उनका काम पति को ईश्वर मानकर उनकी सेवा करना ही धर्म है बल्कि ईश्वर रूपी पति को हर तरह से सजधज कर उनकी काम पिपासा को शान्त करना भी सेवा है। इनमें न पुरुष के प्रति कोई भेद है और न पुरुषप्रधानता जैसी कोई बात है। उनका मानना है कि स्त्री मात्र पुरुष के भोग के लिए ही पैदा की गई हैं। कुछ ज्याजातियाँ हो जाती हैं तो वह उनके परारब्ध का दोष है। अहिल्या जैसी अनेक स्त्रियों के साथ देवताओं ने भी सम्भोग किया था। यह सब प्रभु की लीला है। यह सब पाप-पुण्य का खेल गया।
सवर्ण मानसिकता की औरतों को दलित स्त्रियों का बलात्कार बलात्कार नहीं लगता है और न किसी स्त्री के साथ हुआ अन्याय लगता है और यदि बलात्कार किसी सवर्ण ने किया हो तो पूँछना ही क्या। उनकी निगाह में दलित, परिगणित, आदिवासी और मुस्लिम स्त्रियाँ स्त्री ही नहीं हैं और यदि हैं तो उनकी नहीं हैं। उनसे कोई मतलब नहीं। इसके उपरांत सवर्ण स्त्रियाँ दलित स्त्रियों से छुआछूत भी करती हैं। दलित स्त्रियाँ उनके लिए त्रिस्कृत हैं।
इसके विपरीत, उनकी प्रतिक्रिया में दलित स्त्रियाँ भी सवर्ण स्त्रियों के दर्द को दर्द नहीं समझती हैं। दलित स्त्रियाँ भी उनसे घृणा करती हैं। दलित स्त्रियों की घृणा स्वाभाविक है लेकिन स्त्री की इस लड़ाई में सवर्ण, दलित, परिगणित, आदिवासी तथा मुस्लिम स्त्री जैसी भावना खतरनाक भावना है। ऐसी भावना से स्त्री का संघर्ष कमजोर है। फिर भी है, फिर भी रहेगा क्योंकि वस्तुपरिस्थितियाँ पहले से ही ऐसी थीं और वर्तमान में तो राजसत्ता द्वारा इसको और भी बाँटा और विकट बनाया जा रहा है।
अब बचती हैं आप जैसी स्त्रियाँ और मेरे जैसे पुरुष किन्तु इसका भी अर्थ यह कदापि नहीं है कि हम कभी विचलित नहीं होंगे लेकिन और कोई विकल्प भी नहीं है। गिरते-पड़ते हमें साथ चलना होगा। संघर्ष के रास्ते में हमें चरित्रवान बनना होगा। अभियान में बलिदान भी देना होगा। इस दौरान किसी का किसी से प्रेम हो जाना अपराध की संज्ञा में रखना नैतिक नहीं है। हम सारा संघर्ष अनुचित प्रेम को रोकने और सही प्रेम को पल्लवित होने के लिए ही कर रहे हैं।
बहुत सारी स्त्रियाँ कहती हैं की कोई राह नज़र नहीं आता है। उन सभी स्त्रियों से कहना है कि इसलिए ही तो हमें मिलकर संघर्ष प्रारम्भ करना होगा। संघर्ष से पूर्व यह जो वैचारिक क्रान्ति में कुछ न कुछ एकमतता बन रही है, इसी आधार पर संघर्ष-एकता-संघर्ष पर चलते हुए व्यवस्था परिवर्तन की राह स्पष्ट होगी। बिना व्यवस्था बदले किसी भी सूरत में न हमारा शोषण रुकेगा और न स्त्रियों के प्रति पुरुषों की यौनिक भावना। पूँजीवाद विरोधी समाजवादी क्रान्ति ही एकमात्र रास्ता है।
आर डी आनंद

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