कम्युनिस्ट सेंटर फॉर साइंटिफिक सोशलिज्म द्वारा संचालित अध्ययन चक्र में असंगठित मज़दूर यूनियन से सम्बद्ध बनारस के भी मज़दूरों ने हिस्सा लेना प्रारंभ किया है। स्टडी सर्किल में हिस्सा लेने वाले मज़दूरों की इच्छा यह समझने की है कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी फूट दर फूट और बिखराव का शिकार क्यों होती रही है? मंशा पार्टी का इतिहास समझने की है। प्रयोजनात्मक एप्रोच अपनाते हुए प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक ने इस मसले पर बात शुरू करने की गरज़ से कुछ कच्चा-पक्का चिंतन किया है, जिसे बाकी विद्वान साथियों से इनपुट लेकर अपडेट कर दिया जाएगा। प्रैगमेटिक एप्रोच की बात यहाँ इसलिए की जा रही है कि मार्क्सवाद हमारे कर्मों का मार्गदर्शक सिद्धांत है तो सिद्धांत की जानकारी व्यवहार में उतरने के लिए की जाती है।
अभी तक कम्युनिस्ट पार्टी विषयक मेरी समझ यह रही है कि वर्ग-संघर्ष को आगे बढ़ाने और उत्पादक शक्तियोंं के पैरों में पड़ी बेड़ियों को तोड़ने के लिए बोल्शेविकों ने यूनिट सिस्टम की स्थापना की, शुरुआत की। यूनिट सिस्टम के माध्यम से मार्क्सवाद की बुनियादी कृतियों का अध्ययन किया जाता है, बहस की आजादी लेकिन कार्रवाई की एकता कायम की जाती है, आलोचना-आत्मालोचना के जरिए सत्ता पर कब्जा करने और मज़दूर-वर्ग की तानाशाही कायम करने के साझे ध्येय की प्राप्ति की दिशा में नए मानव का निर्माण किया जाता है, यूनिट के प्रत्येक सदस्य को जीवित कोशिका अगर माना जाए तो सही लाइन और गलत लाइन के बीच संघर्ष भी इसी यूनिट की व्यवस्था के जरिए किया जाता है। यूनिट की नियमित अंतराल पर बैठकें होती हैं, जिसका मिनट लिखित रूप में बनाए रखा जाता है। गंभीर मुद्दों पर यूनिट अपने किसी भी सदस्य से लिखित आत्मालोचना की भी मांग करती है।
कम्युनिस्ट नामधारी कोई भी पार्टी सही मायनों में बोल्शेविक उसूलों पर अमल करती है या नहीं करती, इसका एक अहम पैमाना यह भी है कि पार्टी के अंदर यूनिट सिस्टम काम कर रहा है कि नहीं। जहाँ पर यूनिट सिस्टम क्रियाशील नहीं होता है वह पार्टी चवन्नी-छाप बुर्जुआ पार्टी ही होती है और उसके एजेंडे में हिंसक-क्रांति के जरिए सत्ता दखल हो ही नहीं सकता। भाकपा-माकपा इसका क्लासिकल उदाहरण है। देश की इन दो वाम नामधारी बड़ी पार्टियों ने हिंसक-क्रांति को अपने एजेंडे से कब का निकाल दिया है और अब पूंजीपति वर्ग की दूसरी सुरक्षा पंक्ति के रूप में काम कर रही हैं। यहाँ देखने और जानने वाली बात सिर्फ यह पता लगाना है कि सीपीआई ने यूनिट सिस्टम को कब तिलांजलि दी और इस तरह से हम उसके क्रांतिकारी से सुधारवादी-संशोधनवादी बनने के साल-महीने का पता लगा सकते हैं।
माकपा चूँकि अपने जन्म से ही संशोधनवादी पार्टी रही है तो मेरा ख्याल है कि वहाँ पर कभी यूनिट सिस्टम रहा ही नहीं होगा। अब रही बात भाकपा-माले (लिबरेशन) की तो नब्बे के दशक में अपने खुले संशोधनवादी स्वरूप में आने से पहले वहाँ यूनिट सिस्टम जरूर फंक्शनल रहा होगा। मज़दूर-किसान एकता मंच, चंदौली से सम्बद्ध साथी रितेश विद्यार्थी ने वादा किया है कि वह इस विषय में लिबरेशन से जुड़े पुराने लोगों से पता करने की कोशिश करेंगे कि वहाँ पर ठीक-ठीक कब यूनिट सिस्टम को तिलांजलि दी गई। लिबरेशन के पहली पीढ़ी के संशोधनवादी विनोद मिश्रा ने ख्रुश्चोवी लाइन अपनाने से पहले पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के समझौतापरस्त हो चुके होने की तस्दीक तो अवश्य की होगी।
बस भाकपा-माले (लिबरेशन) के मौजूदा घोर अवसरवाद की झलक प्रस्तुत करने की गरज़ से एक उदाहरण देते हैं। पिछले हफ्ते बाराणसी के जिला सचिव अमरनाथ राजभर का फोन आया और पार्टी बैठक में शामिल होने का आग्रह किया। उसी साँस में अमरनाथ राजभर यह भी कह गए कि कोलकाता में खेत मज़दूरों का सम्मेलन हो रहा है तो अपने गाँव में खेत मज़दूरों से तीन-तीन रुपये की रसीद कटवा दीजिए।
चूँकि मैं अक्सर फोन को स्पीकर पर रखकर बात करता हूँ तो उनकी बात को सुन रहे असंगठित मज़दूर यूनियन के सदस्य श्याम आसरे राजभर का चेहरा मारे नफरत और गुस्से के विद्रूप हो उठा। कहने लगे यह आदमी कम्युनिस्ट है, इसे तो संवेदनशील नागरिक भी नहीं माना जा सकता। गाँव के खेत मज़दूरों की हालत कितनी खराब है, इस आदमी ने उनसे कोई मानवीय सरोकार नहीं प्रकट किया, बस उन्हें कच्चे माल के तौर पर यूज़ करने की फिराक में है। खेत मज़दूर के तौर पर काम करने वाली औरतों को अधिकतम अढ़ाई सौ रुपये मज़दूरी मिलती है, पूरा गाँव का गाँव अल्कोहलिक हो चुका है। बेकारी-बेघरी की समस्या विकराल है। कोई मानवीय सरोकार नहीं, कोई अपनापन नहीं बस चवन्नी छाप बुर्जुआ नेताओं की तरह पर्ची कटवाकर कागजी संगठन बनाने की हड़बड़ी नजर आती है। मैंने साथी श्याम आसरे को समझाया कि अमरनाथ राजभर दरअसल टुटपुंजिया बुर्जुआ नेता ही हैं और लोकल पैमाने की चुनावी राजनीति के खिलाड़ी हैं। बुढ़ापे में इनकी सक्रियता का राज मज़दूरों के प्रति किसी तरह की संवेदना नहीं वरन निजी महत्वाकांक्षा है।
लिबरेशन पर ज्यादा शब्द इसलिए खर्च कर दिए कि इन पंक्तियों को लिखना शुरू करने से पहले तक मैं उसका प्राथमिक सदस्य रहा हूँ और पूरे भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि लिबरेशन से जुड़े किसी भी पार्टी सदस्य ने पूर्व जिला सचिव मनीष शर्मा के अल्कोहलिक होने को मुद्दा नहीं बनाया। बना भी नहीं सकते थे क्योंकि यूनिट सिस्टम फंक्शनल ही नहीं था। जिस तरह से पूँजी-पोषित पार्टियों में वर्चस्व जमाने के लिए विभिन्न गुट सक्रिय रहते हैं, उसी तर्ज पर मनीष शर्मा का पार्टी से निष्कासन बनारस के किसी गुट के वर्चस्व के हक़ में रहा होगा। जब पार्टी का ही क्रांति से, मज़दूर राज से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं तो किसी महान और उदात्त ध्येय को लेकर एक्शन लिए जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
अगर यूनिट सिस्टम फंक्शनल रहा होता तो मनीष शर्मा के शारीरिक श्रम के प्रति बीमार नजरिए, सुरुचिपूर्ण जीवन को लेकर उनकी बेरुखी और सर्वोपरि तौर पर आत्मसम्मान को लाल-नीले के बेमेल ब्याह के लिए बेच खाने के उनके रुख की आलोचना अवश्य हुई होती। पॉलिटिक्स जब केंद्र में नहीं होती तो गलीज़ साइको-एनालिसिस का चक्र भी शुरू हो जाता है और मुझे वह नहीं शुरू करना।
बस प्रसंगवश, यूनिट सिस्टम के प्राणाधार अवयव आलोचना को हथियार के रूप में भी उपयोग में लाया जा सकता है लेकिन फिर इस तरीके से जो मानव एजेंट तैयार होगा वह जांबी तो हो सकता है, क्रांति के ध्येय को आगे बढ़ाने वाला एक्टिविस्ट नहीं। मार्क्सवाद के नाम पर भिक्षावृत्ति करने वाले और क्रांति के सौदागरों से जुड़ा एक एक्टिविस्ट पंजाब में आत्महत्या तक कर चुका है। उसकी हत्या आलोचना के इसी हथियार से हुई है। इस त्रासद घटना को घटे कई साल हो चुके है लेकिन वाम हलकों में अभी उसकी दुःखद याद शेष बची है और बची रहनी चाहिए।
मैं किस प्वाइंट्स से भारतीय वामपंथ के इतिहास को समझना चाहूँगा, इसे मैंने लिपिबद्ध कर दिया है। लिबरेशन से सम्बद्ध वरिष्ठ ट्रेड-यूनियन नेता वी. के. सिंह और रितेश विद्यार्थी को उनका वर्जन प्राप्त करने के लिए लिंक भेज दिया गया है। बाकी साथी कम्युनिस्ट पार्टी विषयक अपनी समझ को साझा करेंगे और बताएंगे कि वे किस नुक्ते-नज़र से वाम आंदोलन का इतिहास जानना चाहते हैं तो उसे भी आलेख में शामिल कर दिया जाएगा।
अद्वय शुक्ल