रेव पार्टियों में सांप के जहर से नशे का चलन और विघटित चेतना

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एक खबर के मुताबिक दिल्ली की रेव पार्टियों में सांप के जहर से नशे का चलन तेजी से बढ़ता जा रहा है। ज्यादातर लोग साँप का नाम आते ही सिहर जाते हैं, मैंने भी पहली दफा जाना कि नशे के लिए साँप के जहर का भी इस्तेमाल किया जाता है।
अभी हाल ही में दीपिका पादुकोण का एक बयान आया था कि वह शुरू में रणवीर सिंह के साथ ही नहीं और भी लोगों के साथ रिश्ते में थीं, माने पहले फेज में कोई कमिटमेंट नहीं था।
इस बयान पर फेसबुक पर एक नारीवादी स्त्री बैकअप में ब्वाय फ्रेंड रखने और भावनात्मक रूप से नहीं जुड़ने की हिमायत करती नजर आई, क्योंकि भावनात्मक रिश्ते में वह सदमे को झेल चुकी थी। स्त्रियों के सेक्स होर्मोन एस्ट्रोजेन पर ही वह फोकस्ड थी।
ये तीनों ही सूचनाएं एक नजर में अलग-अलग मालूम पड़ती हैं, लेकिन इनमें आर्गेनिक (सावयविक) रिश्ता है। वह भला कैसे? आइए, समझने की कोशिश करते हैं। आत्मिक-सांस्कृतिक संपदा ही मनुष्यों को पशुओं से जुदा करती है। सोचने-समझने वाला मनुष्य अग्रगामी चेतना के हिसाब से अपने लिए कुछ जीवन-मूल्यों को निर्धारित करता है और तदनुसार अपने आचरण को अनुकूलित करता है।
वेश्यागमन को सामाजिक स्वीकार्यता क्यों नहीं है? वह इसलिए कि स्त्री भी मनुष्य है और वह क्रय-विक्रय की वस्तु नहीं है। वेश्यावृत्ति में स्त्री-देह का वस्तुकरण होता है, इसीलिए व्यापक समाज इसका निषेध करता है। बिना भावनात्मक बंधन के मानवीय सरोकार विकसित नहीं होते हैं। वर्ना तो पूरा खेल टेस्टोसटेरोन और एस्ट्रोजन का होकर रह जाता है।
अगर जैविक आनंद ही जीवन की धुरी बन जाए तो फिर उसकी तार्किक परिणिति साँप के जहर से बेहिसाब खुशी हासिल करने में होगी ही। नेचुरल साइंस और फिलोसोफी के बीच द्वंद्वात्मक रिश्ता होता है। विज्ञान सदैव आगे की ओर गति करता है और उसी अनुपात में मनुष्यता भी पहले से अधिक उदात्त होती जाती है और हम सोचने-समझने वाले मनुष्य बनते जाते हैं।
मुक्तिबोध जनसंग ऊष्मा की बात करते हैं। अर्थात उत्पादक श्रम में हिस्सेदारी करने वाले मनुष्यों का संग-साथ हमें बेहतर मनुष्य बनाता है, अलगाव की पीड़ा से मुक्त करता है।
दीपिका पादुकोण जिस क्लास से ताल्लुक रखती हैं, क्या वहाँ पर जनसंग ऊष्मा के ताप से द्रवित होने की कोई गुंजाइश है। इसका उत्तर स्पष्ट रूप से नहीं में है। तो, सामाजिक सरोकारों से रहित कोई भी व्यक्ति आनंद कैसे खोजेगा? निम्न शारीरिकता और हिंसा में। अघाया-बौराया उच्च-वर्ग यही कर रहा है और इसी वर्ग में रेव पार्टियाँ होती हैं, भाँति-भाँति के मादक-द्रव्यों का सेवन किया जाता है।
आत्मिक-सांस्कृतिक संपदा का सृजन कैसे होता है? सभ्यता के क्रमिक विकास में मनुष्यता ने विविध किस्म की रचनात्मकताएं हासिल की हैं। चित्रकला, संगीत-साहित्य आदि। मानववाद के बिना तर्क-विज्ञान खोखला होता है। सभी कुछ के केंद्र में मनुष्य को रखकर सोचने पर ही हम बेहतरी की ओर अग्रसर होते हैं।
मार्क्सवादी हलकों में डिक्लास-डिकास्ट होने को फैशन की तरह से उपयोग में लाया जाता है। एक-दूसरे को ताना देने और अपने से कमतर बताने की प्रवृत्ति यहाँ पर भी आम है। अरे भइया आप कितने मानववादी हैं, कितनी समझ और संवेदना है, दूसरे मनुष्यों के प्रति आपका नजरिया इसी से ही तो तय होगा। कोई मानववादी मनुष्य जो बुद्धिसंगत ज्ञान से भी लैस है सांप्रदायिक, जातिवादी, स्त्रीद्वेषी, ब्राह्मणवादी, पितृसत्तावादी, शातिर और लंपट भला कैसे हो सकता है? इसके बरअक्स, अगर आप में समझ और संवेदना का अभाव है तो डिक्लास-डिकास्ट को तकियाकलाम की तरह से इस्तेमाल करने के बावजूद व्यवहार में आप अपने आचरण में नितांत व्यक्तिवादी ही रहेंगे और सूक्ष्म ढंग से क्लास-सोसायटी की समस्त विकृतियाँ आपके व्यवहार में परिलक्षित होंगी ही।
किसान जब अपने खेतों पर काम करता है, तब वह उत्पादक गतिविधि होती है, काम नहीं। लेकिन जब वह खेत मजदूर के रूप में श्रम करता है तो वह नीरस-उबाऊ श्रम होता है, जो आत्मा तक को शिथिल कर देता है। मनुष्यों को गतिविधि करना पसंद होता है, काम करना नहीं। लेकिन, समस्त इच्छाशक्ति को संजोकर श्रम से हासिल धन से गुजर-बसर करना, अपने सम्मान-स्वाभिमान की रक्षा करना आज की दुनिया में मनुष्य का परम कर्तव्य है।
हम अपने आसपास ऐसे मनुष्यों को बड़ी आसानी से देख सकते हैं जिनमें श्रम करके अपना गुजर-बसर करने की जरूरी इच्छाशक्ति का घोर अभाव होता है और ऐसे जन मानव-जीवन को अपमानित करते हैं। भाँति-भाँति के सामाजिक कार्यकर्ताओं का बहुलांश इसी श्रेणी में आता है, जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में लखैरा कहा जाता है। मज़दूर आंदोलन से जुड़े वे सामाजिक कार्यकर्ता इसके अपवाद समझे जाते हैं जो अपने ध्येय की खातिर सबसे श्रमसाध्य-कष्टसाध्य मेहनत करने वाले मजदूरों को पैमाना बनाकर अपनी व्यस्तता-खर्च तय करते हैं।
कहना न होगा कि चार सौ की दिहाड़ी वाले देहाती समाज में कोई सामाजिक कार्यकर्ता अगर पाँच सौ की शराब का शौक पालेगा तो वह विकृत दिमाग का पतित इंसान ही बनेगा।
मज़दूरों की भारी आबादी भी तरह-तरह के नशों की आदी है। मज़दूरी इतनी कम है कि वे पशुवत जीवन जीने को विवश हैं। चेतना के विघटन के कारण इनके बीच से इस समस्या को लेकर आवाज भी नहीं उठती, और बाहर से प्रभाव डालने वाली ताकतें नदारद हैं। समृद्धि के शिखर और अभावों के पाताल में निम्न शारीरिकता-हिंसा के जरिए मनोरंजन करने की प्रवृत्ति आम है।
कामता प्रसाद

2 COMMENTS

  1. आपने समाज की सही नस पकड़ी है। लोग अब भावनाओं को उतनी तवज्जो देते भी नहीं। बाज़ारवादी सोच हर जगह घुस चुकी है। रिश्तों में भी।
    “अपने को क्या” कहकर हम छोड़ देते हैं बहुत कुछ पर समाज तो हम सब से है सो जहां जितना कर सको, ज़रूर करें।

    • शुक्रिया गीता जी, लेकिन आपकी कविता तो आती ही रह गई कि मैं भी कमेंट कर सकूँ।

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