नहीं सपने कोई आयें,तो है बस नाम की नींद
जैसे रुग्ण देह उठा लाया हो, शाम की नींद।
किसकी इच्छा हुई पूरी यहाँ, सब अधूरे हैं
कौन सोया है इन क़ब्रो में, आराम की नींद।
कौन जगाये इन्हें, सुतुही से पय पिलाये भला
ये मूर्ति सोई है सदियों से जैसे आवाम की नींद।
ज़िस्म कोयला हुआ जाये, आँखें धुँआ-धुँआ
कई तो सुबह तक जगे हैं यहाँ, थाम के नींद।
सूरज डूबे नहीं बस बादलों में छुप जाये जरा
कई जम्हायेंगे यहाँ, लेंगे कई हराम की नींद।
कोई है यहाँ,जो इन सब से जुदा,बिल्कुल जुदा
लेना चाहता है पूरा, नहीं बस नाम की नींद।
~बच्चा लाल ‘उन्मेष’