वर्जनाओं को तोड़ना वर्चस्व का उल्लंघन हैः (सबसे बुरी लड़की-डॉ. नीलम का मूल्यांकन)

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*वर्जनाओं को तोड़ना वर्चस्व का उलंघन है*
(सबसे बुरी लड़की-डॉ. नीलम का मूल्यांकन)
-आर डी आनंद
डॉ. नीलम के कविता संग्रह “सबसे बुरी लड़की” पढ़ते हुए समझ में आया कि समकालीनता न सिर्फ अपने समकालीन संदर्भों में जानी जाती है बल्कि कई पुरातन चीजें भी समकालीन संदर्भों से जुड़ी हुई होती हैं। स्त्री और दलित की समस्याएं पुरातन होने के साथ नवीनतम भी हैं इसलिए इनसे जुड़ी कोई भी समस्या समकालीन ही है। सिमोन द बोउवार ने कहा था, “स्त्री पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है।” यह उक्ति यदि कल यथार्थ थी तो आज भी यथार्थ है। मातृसत्ता उन्मूलन के बाद स्त्रियाँ स्त्री बनाई जाती रही हैं। तब से अब तक अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए लगातार संघर्ष कर रही हैं। “स्त्री विमर्श के भीतर स्त्री न केवल स्वयं को परिभाषित करती है बल्कि स्वयं के साथ-साथ मौजूद सामाजिक संस्थाओं और उनकी सारगर्भिता तथा पुरुष को भी परिभाषित करती है। वास्तव में, स्त्री विमर्श का उद्देश्य पुरुष का विरोध नहीं है बल्कि उस पितृसत्तावादी मानसिकता का विरोध है जो अपनी सामंती वृत्तियों के चलते स्त्री को मानवीय गरिमा न देकर उसे अपनी सम्पत्ति समझता है। इस प्रकार वह अपने ऊपर लगाए तमाम पितृवादी दलील को खारिज करती है न कि वह समाज को तोड़ने का कार्य करती है। वास्तव में, स्त्री विमर्श की अवधारणा एक स्वस्थ समाज के निर्माण में सहायक ही सिद्ध होती है लेकिन इस निर्माण में यदि कुछ टूट-फुट की आवश्यकता होती है तो फिर वह उन वर्चस्ववादी, सामंती पितृसत्तावादी रूढ़िता पर प्रहार करती है। (संदर्भ: अस्मितामूलक विमर्श और हिंदी साहित्य-डॉ. रजत रानी मीनू, पृष्ठ 20)। यदि उक्त संदर्भों में उनकी पुस्तक के शीर्षक कविता को याद करें तो स्त्रियों की हर वह बात पुरुष सत्ता को बुरी लगती है जो वह अपने हक में अपने खुशियों के लिए गढ़ती है। घर के अंदर जब लड़की मनमानी करती है तो जिद्दी कहलाती है। जब वह समाज में मनमानी करती है तो दुष्ट कही जाती है। जब वह समाज के बने-बनाए ढाँचे में हस्तक्षेप करती है तो वह कुलटा कही जाती है। दरअसल, वह पुरुष वर्चस्व के नियमों का उलंघन करती है और बुरे होने का सर्टिफिकेट प्राप्त करती है। पुरुषवादी सत्ता ने स्त्रियों का हँसना, बोलना, चलना, हया, शर्म, पहनना, ओढ़ना सब कुछ सुनिश्चित कर रखा है। यहाँ तक कि वह कब सोकर उठेगी, क्या-क्या करेगी और सभी घरेलू कार्यों को निपटाने के उपरांत सबसे बाद विस्तर में जाएगी। पत्नियों के लिए और भी अधिक नियम हैं। सभी नियमों का पालन ही स्त्री का धर्म है। इसके उपरांत भी पुरुष सत्ता ने स्त्री के शिक्षा स्तर को भी सुनिश्चित कर रखा था। एक समय में तो स्त्री को शिक्षा देना ही वर्जित कर दिया गया था। इन्हीं वर्जनाओं के विरुद्ध कोई लड़की (स्त्री) जब व्यवहार करती है तो वह सबसे बुरी कही जाने लगती है। शायद इसी संदर्भ में डॉ. नीलम ने इस कविता का सृजन किया होगा।
मैं बहुत बुरी लड़की हूँ
क्योकि मैं हँसती हूँ
सभ्य लड़कियाँ हँसती नहीं
उनकी आँखों में होती है
हया और शर्म
मेरी आँखों की हया मर गई है
क्योकि मैं खुलकर हँसती हूँ
मैं बहुत बुरी लड़की हूँ।
(सबसे बुरी लड़की, पेज 23)
डॉ. नीलम स्त्री के अस्तित्व को लेकर अपने संग्रह की पहली कविता “मेंहदी” में स्त्री पुरुष के वर्चस्ववादी विचारों को खुलकर कहती हैं। सच है स्त्री घर से लेकर बाहर तक पुरुष को एक सफल व्यक्ति बनाने में सहयोग करती है और कहीं भी स्त्री को पुरुष सहयोग करने में लाज नहीं आती अथवा उसको हेठी नहीं समझती है लेकिन पुरुष सत्ता का चिंतन स्त्री को दोयम दर्जे का निम्न प्राणी मानकर अपना हथियार, अपना संसाधन व अपना खिलौना भर मानकर अपनी सफलता के बाद उसके अस्तित्व को इनकार कर देता है। डॉ. नीलम ने स्त्री के उसी अस्तित्व को मेंहदी को प्रतीक मानकर लिखा है:
मेंहदी हूँ
डाल से
तोड़ ली जाती हूँ
अपने को मिटाकर
तेरे जीवन में
उत्साह उमंग
भरती हूँ मैं
तेरे जुल्मों को
चुप रह कर
सहती हूँ मैं
लेकिन फिर भी तेरे जीवन में
रंगत भरती हूँ मैं।
(मेंहदी, पेज 10)
डॉ. नीलम की कविताएँ “वैकेंसी”, “जिंदा गोश्त” और “बेबस योनि” पढ़कर मैं शर्मसार हो जाता हूँ इसलिए नहीं कि एक स्त्री ने ये क्या लिख दिया बल्कि इसलिए कि पुरुष वैज्ञानिक युग की आधुनिकता में भी उस स्त्री को वैकेंसी, गोश्त और बेबस योनि के रूप में न सिर्फ देखता है बल्कि फब्तियाँ भी कसता है जो स्त्री इस पुरुष की सर्वप्रिय माँ है, सबसे दुलारी बहन है, अतिप्रिय लाडली बेटी है और दिलरुबा-दिलोजान पत्नी भी है। पुरुष किस तरह दोहरी जिंदगी जी रहा है। पुरुष मानसिकता ही है जो स्त्री को बलात्कृत बनाता है, उनको निर्भया नहीं रहने देता है। वैसे दूषित पुरुष मानसिकता के लिए पुरुष स्वयं उतना जिम्मेदार नहीं है जितना देश और समाज की व्यवस्था जिम्मेदार है। पुरुष चिंतन में एक स्त्री सिर्फ माल है, वस्तु है, प्रसाधन है, योनि है, स्तन है, कामकेन्द्र है, रति है, संभोग है, कामदेह है। पुरुष की विवेक ग्रंथि में स्त्री व्यक्ति नहीं है, मनुष्य नहीं है, समरूप नहीं है। उसे लगता है वह सिर्फ खेलने के लिए बनी है तभी तो स्त्री को भोग्या कहा गया है। यह व्यवस्था जनित मानसिकता है। डॉ. नीलम ने अपनी कविता “वैकेंसी” में किस तरह पुरुष लम्पटता को उजागर किया है, आइए देखते हैं:
जैसे ही कोई वैकेंसी
गुजरती है उनकी निगाह से
उनकी सुप्त इन्द्रियाँ
सक्रिय हो उठती हैं
उनकी धमनियों में
रक्त का बहाव
तेज हो जाता है
नसें फड़फड़ाने लगती हैं
नथुने दहकने लगते हैं
उनकी समस्त नज़रों में
एक मानव देह
वस्तु में
तब्दील हो जाता है।
(वैकेन्सी, पेज 20)
डॉ. नीलम ने अनेक उन्हीं बातों को अपनी कविता में विमर्श का विषय बनाया है जो अक्सर चर्चा का विषय रही हैं। “बेबस योनि” में पुरुष के दोहरे चरित्र को विषय बनाया है। यह बहुत ही शाहस का कारण है, जब वे पुरुष के बरक्स खड़ी होकर साहित्य सृजन करते हुए पुरुष चरित्र को परिभाषित करते हुए लिखती हैं कि पुरुष जो हमारा हमसफर भी है, भाई भी है, पिता भी है, पति भी है, वह कहीं न कहीं हम स्त्रियों से दिन में सीता-सावित्री के रूप में व्यवहार करने की बात करता है तो वही पुरुष रात में रंभा, उर्वशी, मेनका और वेश्या की तरह व्यवहार करने की चाह रखता है। बाहर स्त्री को दुर्गा, चंडी और काली के रूप में पूजता है लेकिन घर में एक वास्तविक स्त्री को सिर्फ सहवास की मूर्ति मानता है। यदि स्त्री ऐसा न करे तो उसे घर से बाहर खदेड़ दिया जाता है। उनकी कविता में यह नग्न सच्चाई उभरकर पटल पर आती है कि पुरुष स्त्री को एक बेबस योनि के रूप में ही देखता है व देखना चाहता है। मूर्ति रूप में स्त्रियों की भले पूजा करें लेकिन सचमुच की स्त्री के लिए लक्ष्मणरेखा है व स्त्री को सात ताले में रखा जाता है। अजीब दास्ताँ है, स्त्री योनि की सुचिता का रक्षक पुरुष है व स्त्री का मालिक पुरुष है। बिडम्बना ही है स्त्री होकर भी स्त्री कुछ नहीं।
वाह रे रीति
कैसी ये रीति
दुर्गा, चंडी, काली के रूप में
पूजी तो जाये
लेकिन इनका न हो
घर में वास
वास हो तो सिर्फ सहवास
वरना हो निर्वास! निर्वास!
घर में चाहिए
बिना शर्त
बेबस योनि और रसोई।
(बेबस योनि-दो, पेज 16)
डॉ. नीलम की कविता “हमें उपहार नहीं चाहिए” एक अच्छी कविता है। दरअसल, यह एक नई चेतना की कविता है। यह स्त्री के वास्तविक अस्तित्व के वैचारिक उन्नयन की क्रान्तिकारी कविता है। यह कविता स्त्री अस्मिता का धरातल है। इस कविता में स्त्री के अंदर व्याप्त पुरुष संस्कृति के विरुद्ध स्त्री के वास्तविक रूप का प्राकट्य है। इस कविता में पुरुष धारणाओं, संस्कृतियों, मान्यताओं का सीधा नकार और विरोध है। इस कविता से स्पष्ट होता है कि स्त्री को पुरुष के आरोपों से मुक्ति चाहिए, बंधनों से मुक्ति चाहिए, वर्जनाओं से मुक्ति चाहिए। इस कविता में स्त्री का पूरा वह संविधान है जिसकी संरचना में उसकी दुनिया स्वतंत्र है, वह वहाँ पुरुषों की किसी भी तरह गुलाम नहीं है। यह कविता पुरुष वर्चस्व का प्रतिकार करती है। “हमें उपहार नहीं चाहिए। हमें साड़ी और फ्रॉक नहीं चाहिए।” यह बिम्ब प्रधान कविता है। “उपहार” यहाँ उसकी गुलामी का काँटा है। वह गुलामी के काँटे को न सिर्फ नकारती है बल्कि उसके स्वरूप को पहचानती भी है। “साड़ी” और “फ्रॉक” भी गुलामी की जंजीर हैं। वह जंजीरों से मुक्त होना चाहती है। यहाँ कविता में बिना किसी विशेष प्रयास के बिम्बों का समावेश हो उठा है। कविता कला से पूर्ण हो उठी है। स्त्री इस कविता के माध्यम से रसोई छोड़ रही है। वह सायकिल चलाएगी। वह आकाश में उड़ेगी। उसे चूड़ी-बिंदिया नहीं चाहिए। उसे पुरुषों के रीति-रिवाज नहीं चाहिए। वह अपने रीति-रिवाज खुद बनाएगी। उसे रसोई के उपकरण नहीं शिक्षा के संसाधन चाहिए। इस कविता की हर पंक्तियाँ गौर के काबिल है:
हमें उपहार नहीं चाहिए
साड़ी और फ्रॉक नहीं चाहिए
हमें एक लम्बी उड़ान चाहिए।
गुड़िया और बार्बी डॉल ले लो
दे दो
कार और हवाई जहाज हमको।
सिर्फ कथक ही नहीं
सीखना है बैट और बॉल भी हमको।
ले लो
मेरी चूड़ी-बिंदिया
दे दो
अपने रीति-रिवाज मुझको
तीज और करवाचौथ ले लो।
ले लो
अपने सारे जेवर कपड़े
दे दो
अपनी आजादी हमको।
ले लो
कलछी हमसे
दे दो
कलम और ऑफिस की फाइल हमको।
(हमें उपहार नहीं चाहिए, पेज 12-13)
ब्राह्मणवाद का रूपांतरित स्वरूप ही मनुवाद है। मनुवाद एक कुचक्र है। मनुवाद एक चक्रव्यूह है। मनुवाद एक मकड़जाल है। मनुवाद एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें वर्ण-व्यवस्था को पुख्ता रखने के लिए उसका संविधान नियमबद्ध कर दिया गया है। वैसे तो यह व्यवस्था स्त्री और शूद्र को दास मानता है तथा इन्हें शिक्षा से वंचित रखने का प्रावधान करता है लेकिन शूद्र स्त्रियों को और भी बुरा मानता है। शूद्र स्त्री जैसे मनुष्य हों ही न। वैसे भी शूद्र जाति को मनुवाद पशु से बदतर और त्रिस्कृत योनि मानता है। इसके उपरांत भी बिना इस वर्ग के उसका काम नहीं चलता है। दरअसल, ब्राह्मणवाद उत्पादन के साधनों पर कब्ज़ा बनाए रखकर उत्पादन को अपने नियंत्रण में रखना चाहता है। इसके लिए वह शूद्रों से कार्य लेता है। किसी भी व्यक्ति व समुदाय से तभी कार्य लिया जा सकता है जब वह वर्ग साधन विहीन हो इसलिए शूद्र जातियों से भूमि और अन्य संसाधन एनकेनप्रकारेण छीन लिए गए। नित नए अविष्कार और नए प्रयोग पर ही ब्राह्मणवाद जीवित है। डॉ. नीलम एक होनहार स्कॉलर हैं। उनका प्रमस्तिष्क ब्राह्मणवादी संजलों का अध्ययन करता रहता है। उन्होंने अपनी कविता “मकड़जाल” में ब्राह्मणवाद के चालाकियों और उनके द्वारा बनाए जाने वाले मकड़जालों की तरफ संकेत किया है। वे लिखती हैं:
मकड़ों की तरह
तुम बुनते हो जाल
बहुत प्यार से
अपना भोजन
एक-एक करके
फँसते जाते हैं सब
इतना बारीक बुनते हो जाल
कि तुम्हारे रेशे से
निकलना होता है मिश्किल
जितना निकलने का करते हैं प्रयास
उतना ही उलझते जाते हैं सब।
(मकड़जाल, पेज 24)
डॉ. नीलम की कविता “तुम्हारी चालाकियाँ” ब्राह्मणवाद और ब्राह्मणवादियों की चालाकियों से सम्बन्धित कविता है। समय बदलता है। परिस्थितियाँ बदलती हैं। विचार बदलते हैं। तैयारियाँ बदलती हैं। पद्धति बदलती है। रणनीति बदलती है। रणकौशल बदलते हैं। ऐसे ही ब्राह्मणवादियों की शैतानियत बदलती है। जो कभी भृकुटि तानने से सिद्ध हो जाता था, उसे अब खूबसूरत व्यवहार से हासिल करते हैं। जिसे कल सीधा बनकर हासिल करते थे, उसे आज उनके मायावी हिकामतों से हासिल होता है। तिलिस्म कल भी सफल था, तिलिस्म आज भी सफल है क्योंकि जनमानस कल भी अशिक्षित था, बहुसंख्य दलित और स्त्रियाँ आज भी अशिक्षित हैं। लेकिन, समय बदला है, सचमुच बदला है। जेएनयू दलितों और स्त्रियों के लिए असंभव था लेकिन दलित जातियों की बहुत सी नीलम वहाँ की स्कॉलर हुई हैं। उन्हें ब्राह्मणवादियों के हर विचारों, हर हरकतों, हर द्वंद्व, हर छंद, उनके साम, दाम, दण्ड, भेद से वाकिफ हुए/हुई हैं। साहित्य दलित वैचारिकी, दलित आंदोलन व दलित बुद्धिजीविता विस्तार का साधन हुआ है। कविताएँ लिखी जा रही हैं। कहानियाँ लिखी जा रही है। कविताओं और कहानियों की क्षमताओं का मूल्यांकन हो रहा है। दलित साहित्य के चौतरफा कमजोरियों की समीक्षा हो रही है। दिनोंरात उन कमजोरियों को दूर करने का बौद्धिक प्रयास हो रहा है। अगली पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से इतर और आगे चिंतन व लेखन कर रही है। वर्चस्ववादी समाज के सापेक्ष एक आंदोलन खड़ा हो रहा है। जुझारू क्रांतिवीर तैयार हो रहे हैं। आंदोलन का निर्माण हो रहा है। युद्ध की हिम्मत पैदा हो रही है। समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के लिए श्रेष्ठ होने की झूठी ईश्वरवादी संकल्पना को विज्ञान के सामने पर्दाफाश किया जा रहा है। विज्ञान की सच्चाई धर्म और ईश्वर पर भारी पड़ रहा है। मुफ्तखोर, जालसाज, धोखेबाज़, अकर्मण्य, अश्रमेण, हरामखोर, मांगकर खानेवालों की पूरी जमात को विधिक प्रक्रिया के द्वारा दंडित किए जाने के लिए समाज में बिल्कुल नए सिरे से जागरूकता पैदा की जा रही है। ऐसी अनेक कविताएँ और कहानियाँ लिखी जा रही हैं जो ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के पोल को खोलेगी और उनके हर दांव को पहचानने का चिन्ह बताएगी। उदाहरण के लिए डॉ. नीलम की ये चंद पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:
खूबसूरत धोखे को देख रहे हैं
तुम्हारे मायावी
रूप को
पहचान रहे हैं
तुम्हारे हर तिलिस्म को
जान रहे हैं।
(तुम्हारी चालाकियाँ, पेज 28)
समाज परिवर्तित होता है तो बहुत खुशी होती है लेकिन जब परिवर्तन बदतर हो तो चिंता होने लगती है। देश आजाद हुआ तो लगा देशवासियों में मानवता, भाईचारा, समता, न्याय का विकास होगा और जनमानस को रोजी-रोटी मुहैय्या होगी लेकिन सब कुछ उल्टा-पुल्टा हो रहा है। उत्पादन निश्चित बढ़ा है। संसाधन का विकास भी हुआ है। ज्ञान-विज्ञान में बढ़ोत्तरी हुई है। टेक्नोलॉजी में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ है। पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय, लिफ़ाफ़ा, रजिस्ट्री, बैरन संदेश गायब हैं। चिट्ठी गायब है। नए बच्चे खत, पत्र और चिट्ठी के रूप को जानते ही नहीं हैं। मोबाइल हर हाथों में सुलभ हुई है। फ़िल्म हर व्यक्ति को सुलभ हुआ है। संदेश के लिए किसी का भी मुँह ताकना नहीं पड़ता है। संसाधनों का इतना विकास हो गया है कि यदि मनुष्य में धर्म, जाति, सम्प्रदाय में श्रेष्ठताबोध न होता तो वह उत्पादन को हर हाथ हर मुँह के लिए आयोजित करता। फिर कोई भी छल-छद्म की जरूरत न पड़ती लेकिन मनुष्य में धार्मिक व जातीय हीनताबोध ने श्रेष्ठ होने की एक सनक पैदा कर रखी है जिसकी वजह से हमारे देश का ब्राह्मण वर्ग अन्य जातियों को नीच समझने के चक्कर में हर वह उद्यम करते हैं जिससे मनुष्यता खतरे में रहती है और सामूहिक विकास अवरुद्ध जो जाता है। वह अपने जैसे मनुष्य के रास्ते को अवरुद्ध करता रहता है। उसका सम्पूर्ण मस्तिष्क अन्य के विकास को अवरुद्ध करने में ही खप जाता है। डॉ. नीलम ने “अदम्य चाहत”, “मुखौटा”, “दोमुहे साँप”और “झूठ रंग” में उन्हीं परिस्थितियों को लिखा है।
शिकार के लिए
बदल लिए हैं पैंतरे
अब लोमड़ी ने,
वह बदलती है रणनीति
हर पल नई चाल
समय देख ओढ़ती है
बहुरंगी चोला
हर पल घाट लगाए
बैठी रहती है वह।
(अदम्य चाहत, पेज 37)
डॉ. नीलम के कविताओं का अध्ययन करते समय उसमें पुरुष सत्ता बराबर अवलोकित होता है, साथ ही उनकी कविताओं में ब्राह्मणवादी पितृसत्ता भी दिखता है। ब्राह्मणवाद के पर्याय के रूप में मनुवाद का भी इस्तेमाल किया जाता है। पितृसत्ता एक विश्वव्यापी अवधारणा है। “पितृसत्ता की विचारधारा यह है कि पुरुष स्त्रियों से अधिक श्रेष्ठ है तथा महिलाओं पर पुरुषों का नियंत्रण होना चाहिए। यहाँ महिलाओं को पुरुषों की सम्पत्ति के रूप में देखा जाता है। पितृसत्ता में स्त्रियों के जीवन के जिन पहलुओं पर पुरुषों का नियंत्रण रहता है, उसमें सबसे महत्वपूर्ण पक्ष उसके प्रजनन क्षमता पर नियंत्रण। इसके लिए उसकी यौनिकता पर नियंत्रण जरूरी है। स्त्री की यौनिकता पर नियंत्रण के अलावा उसकी उत्पादकता और श्रम शक्ति पर भी नियंत्रण पुरूष का हो जाता है। एंगेल्स ने इस पूरी प्रक्रिया के संदर्भ में कहा कि “यह स्त्री की विश्व स्तर की ऐतिहासिक हार थी। पुरुष घर का स्वामी बन गया, स्त्री महज पुरुष की इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम भर रह गई।” (संदर्भ: डॉ. सिद्धार्थ फारवर्ड प्रेस के आलेख से)। भौतिक साधनों और तकनीकी प्रगति के मामले में भारत एक आधुनिक देश दिखता जरूर है लेकिन मानसिक तौर पर अधिकांश ब्राह्मणवादी आज भी मध्यकालीन मानसिकता में जीते हैं।
डॉ. नीलम की कविताओं में शासन सत्ता के बदलते चरित्र का भी अवलोकन किया जा सकता है। डॉ. नीलम ने न सिर्फ स्त्री जीवन की दशाओं, पुरुषप्रधानता, उनकी ओछी मानसिकता, दोहरे चरित्र, वर्जनाओं, स्त्री उत्पीड़न, मनुवादी अधिनायकत्व, धार्मिक चक्रव्यूह सम्बन्धित कविताएँ ही लिखी है बल्कि शासन के दुशासन और लोकतंत्र से राजतंत्र में परिवर्तन को भी कविताओं में रेखांकित किया है। दलित समाज में यह बेचैनी बहुत जोरों पर है कि यदि ऐसे रहा तो वर्तमान संविधान खत्म कर दिया जाएगा और वर्चस्ववादियाँ द्वारा मनु के संविधान को दलितों पर लाद दिया जाएगा। संग्रह में “मेरे देश की संसद फिर रोई”, “आया राजतंत्र”, “राम राज्य”, “नींबू-मिर्च”, “छप्पन भोग” जैसी कविताओं में ब्राह्मणवादी शासन व्यवस्था की बू आती है। डॉ. नीलम का कविता के हवाले से मानना है कि लोकतंत्र की जगह पुनः राजतंत्र स्थापित हो गया है। उन्हें शक है कि इतिहास पुनः न दोहराया जाय। उनका मानना है कि यदि राजतंत्र रहा तो वंचित जन फिर गूँगे-बहरे बना दिए जाएंगे। उनकी चेतना रौंद दी जाएगी। संतप्त आवाज़ मौन हो जाएगी। सामाजिक न्याय का फिर उपहास होने लगा है। संसद नंगी कर दी गई है। राजा पुनः हुक्म देने लगा है। वह हिटलर की तरह बंदूक और तलवार से शासन चलाना आरंभ कर दिया है। लोकतंत्र शर्मसार हो उठा है। उनकी कविता “आया राजतंत्र” में शासन सत्ता और उसके वजीरों की मनमानी दिखाई गई है। वह मनमानी कल्पना नहीं है, समाज का भोगा हुआ सच है। उस कविता की कुछ लाइनें देखिए:
सुनो-सुनो!
देशवासियों!
हमारे लोकतंत्र में
बोलना माना है,
हँसना मना है,
सवाल करना मना है;
बोलोगे तो-
मार दिए जाओगे,
हँसोगे तो-
गाड़ दिए जाओगे,
पूछोगे तो-
जल दिए जाओगे,
ये है
आज का लोकतंत्र।
(आया लोकतंत्र, पेज 35)
ऐसी कविता सिर्फ डॉ. नीलम ने ही नहीं लिखा है, ऐसी बातें सिर्फ डॉ. नीलम के जहन में ही नहीं है, देश का हर बुद्धिजीवी,जो समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व चाहता है, न्याय चाहता है, लोकतंत्र चाहता है, समाजवाद चाहता है-वह जानता है कि यह शासन लोकतांत्रिक शासन नहीं है बल्कि यह शासन तानाशाही की तरफ बढ़ता हुआ हैवानियत का शासन है। आज हर शहरी बुद्धिजीवी को अर्बन नक्सल कहा जा रहा है, कम्युनिस्टों को आतंकवादी कहा जा रहा है, मार्क्सवाद को एक कट्टर सिद्धांत बता कर हर मार्क्सवादी व कम्युनिस्ट को देहद्रोही कहा जा रहा है। मॉब लिंचिंग इनका किसी भी व्यक्ति की हत्या का एक नया हथियार है। जय भीम को जय मीम के साथ जोड़कर दलितों को तथाकथित इस्लामिक आतंकवादियों के साथ जोड़ने का कुत्सित प्रयास कर रहे हैं। डॉ. नीलम ने “राम राज्य” कविता में स्पष्ट कहा है:
रामराज्य के नाम पर
करते है ये मनमानी
खून बहाते ये पानी जैसा
औरत को अब भी
ये न समझे इंसान
दलितों का करते ये संहार
राम के नाम पर
अल्पसंख्यकों को
भेजते पाकिस्तान
देखो-देखो
अब फिर आया रामराज्य।
(रामराज्य, पेज 82-83)
वैसे तो “नींबू-मिर्च” और “छप्पन भोग” जैसी कविताएँ और भी होनी चाहिए थीं क्योंकि ये कविताएँ ब्राह्मणवादियों के विज्ञान विरोधी परम्परावादी सिद्धांत को बताती हैं। ये कविताएँ व्यंग भी हैं। ये कविताएँ संकेत करती हैं कि ऐसी सत्ता हमें मध्यकालीन युग में ले जाने की पूरी कोशिश कर रही है। ये धर्म के साथ विज्ञान का मिश्रण कर हमारे मनोविज्ञान के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं तथा स्वयं हर उत्पादों का लुत्फ लेकर हमें हर दुखों-मुशीबतों का कारण हमारे प्रारब्ध एवं पूर्वजन्म के पापों को कारण बताया रहे हैं।
समय आया मनुवाद का
अब नींबू-मिर्च से
होगा दुश्मन देश परास्त
अब तो एक श्राप पर
औंधे मुँह लटकेगा पाकिस्तान
अमेरिका भी अब होगा परास्त
गुरुआलय का
करके विध्वंस
विष गुरु होगा
मेरा देश
बना अब देखो मेरा देश
अलौकिक शक्तियों का महादेश।
(नींबू-मिर्च, पेज 87-88)
आरक्षण को लेकर अक्सर चर्चा होती है कि दलितों के आरक्षण की वजह से बहुत से प्रतिभा सम्पन्न सवर्ण विद्यार्थी नौकरियों से वंचित हो जाते हैं। यहाँ दो सवाल हैं-एक आरक्षण, दूसरा प्रतिभा। हमेशा यह सवाल उठता है कि दलित में प्रतिभा नहीं होती है और वह नौकरियों में रख लिया जाता है जिससे काम के गुणवत्ता पर असर पड़ता है। अनेक उदाहरण प्रतिपक्षी गिनाता भी रहता है। दूसरे पक्ष से कहा जाता है कि आरक्षण कोई भीख नहीं है बल्कि यह पूना पैक्ट में पृथक निर्वाचन के अधिकार को छीनकर हमें आरक्षण दिया गया है। चाहो तो आरक्षण ले लो लेकिन पूना पैक्ट रीओपन कर पृथक निवार्चन का अधिकार हमें दे दो। चलो यह न करो तो हमें सामान्य बना दो। जातिवाद खत्म कर दो, हमें आरक्षण नहीं चाहिए। जब सभी मनुष्य समान स्टेटस में हो जाएंगे तो हम नौकरियों में सामान्य स्थिति में ही भागीदारी करेंगे। जमीनें बराबर-बराबर बाँट दो। दलितों को भी पुजारी बना दो। सब को शिक्षा सब को काम। झगड़ा खत्म। इस सम्बन्ध में कविता की कुछ पंक्तियाँ पढ़ी जानी चाहिए।
हटा दो हटा दो
आरक्षण हटा दो
लेकिन सबसे पहले
सब को सामान्य बना दो।
डॉ. नीलम की “नीला परचम”, “आरक्षण”, “नई दुनिया के रचयिता”, “ऐसे थे वो”, “तुम्हारी उम्मीदों पर खरे उतरेंगे” और “फिजाओं में अब भी हो” कविताएँ इतना तो संकेत करती हैं कि ये कविताएँ किसी दलित ने लिखी है। इन कविताओं से यह भी अहसास होने लगता है कि वह ब्राह्मणवाद विरोधी व्यक्ति है और लोकतंत्र का पक्षधर है। “नीला परचम” का अर्थ है शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की भावना जो मान्य रूप से बौद्धिष्ट साथियों में है तथा भारत में यह संकेत दलितों के पक्ष में जाता है। “आरक्षण” की बात जब भी की जाती है, राजनैतिक शब्दावली में दलितों के प्रतिभा से जुड़ा सवाल मुँह बाए खड़ा रहता है। ऐसी स्थिति में जातिप्रथा उन्मूलन का सवाल बिल्कुल मुखर रहता है। “नई दुनिया के रचयिता” का सीधा अर्थ डॉ. बाबा साहब भीम राव आम्बेडकर, जो दलितों के सब कुछ हैं। जिस साहित्य को डॉ. नीलम लिख रही हैं अथवा जिस साहित्य की मैं समीक्षा लिख रहा हूँ, वह साहित्य डॉ. आम्बेडकर के सिद्धांतों पर आधारित है। जब दलित साहित्य की अवधारणों की बात शुरू की जाती है, डॉ. आम्बेडकर हर शब्दों में आधार शब्द की तरह उपस्थित होते हैं। वैचारिकी तो डॉ. आम्बेडकर, उद्देश्य तो डॉ. आम्बेडकर, आधार भी आम्बेडकर, विस्तार भी आम्बेडकर, प्रारम्भ भी आम्बेडकर और अंत भी आम्बेडकर। “ऐसे थे वो”, आखिर कौन? बी आर आम्बेडकर। बहुत स्पष्ट है कि किसी दलित साहित्यकार के दिमांग में हमेशा आम्बेडकर की शक्लोसूरत मौजूद रहती है। एक दलित सिद्धांतकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं क्रान्तिकारी हमेशा अपने मशीहा के समक्ष यही कहते हैं कि वे “तुम्हारी उम्मीदों पर खरे उतरेंगे”। और अंत में, एक दलित यह महसूस करता रहता है कि बाबा साहब आप “फिजाओं में अब भी हो”।
आर डी आनंद
9451203713

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