मार्क्स ने एक विशेष बात कहीं है कि क्रान्ति का कोई सेट फार्मूला नहीं है। क्रान्ति आयातित-निर्यातित नहीं किया जा सकता है। कोई भी किसी दूसरे देश में क्रान्ति का तरीका नहीं बता सकता है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिवाद के आधार पर उस देश की भौतिक परिस्थिति, देश और काल का अध्ययन उसी देश के क्रांतिकारियों को करना पड़ेगा और उन्हीं को अपने वस्तुपरिस्थिति के अनुसार निर्णय लेना पड़ेगा कि क्रान्ति कैसे की जा सकती है। इतना ही है मार्क्सवाद है, यही है मार्क्सवाद। मार्क्सवाद एक विज्ञान है।
हमें आलोचना और आक्षेप में अंतर स्पष्ट रखना होगा। आक्षेप से बाल-बाल बचना है। आलोचना धड़ल्ले से लिखना है। आलोचना मूल आलेख का विकसित रूप है। किसी भी छद्म से बचिए। दलित बुद्धू वर्ग नहीं रहा कि कोई भी मनचला उसके टोले/मुहल्ले में लुंगी पहनकर आए और उसे फुसलाकर/प्रलोभितकर/भ्रमितकर चला जाएगा। दलित साहित्य का कैनवास बड़ा है। दलित वर्ग ब्राह्मण वर्ण के विरुद्ध एक सशक्त प्रतिक्रिया है। दलित शब्द ब्राह्मण वर्ण के वजूद को संतुलित रखने का अर्थ ग्रहण कर चुका है। दलित वर्ग ने अन्य जातियों के उत्पीड़ित वर्ग को स्वीकार करने से मना कर दिया है। दलित वर्ग में सिर्फ अनुसूचित जाति/जनजाति के लोग ही मान्य जातियाँ हैं। दलितों ने बहुत सतर्कता के साथ दलित साहित्य को परिभाषित करते समय दलित साहित्यकार कौन में सिर्फ जन्मनः दलित जातियों को ही स्वीकार किया है तथा दलित जातियों के लिखे को ही दलित साहित्य माना है इसलिए कोई गैर जाति दलित साहित्य में घुसपैठ नहीं कर सकती है। आम्बेडकरवादी साहित्य में यदि गैर दलित जातियों को लिखने से मना कर देंगे तो आम्बेडकर की साख भरभरा कर बहुत नीचे गिर जाएगी क्योंकि राजनीति में तो एससी/एसटी/ओबीसी/बौद्धिष्ट/आदि वासी/अल्पसंख्यकों को एक झंडे के नीचे आने का आह्वान करते हैं और यदि साहित्य में इनको मना करेंगे तो अंजाम दुर्भाग्यपूर्ण होगा।
इस तर्क से मेरा मत यह कदापि नहीं है कि मैं दलित साहित्य को समुचित और क्रान्तिकारी मान रहा हूँ और आम्बेडकरवादी साहित्य को कमजोर व कम क्रान्तिकारी कह रहा हूँ लेकिन यह जरूर कहना चाहूँगा कि यदि दलित साहित्य जातिप्रथा उन्मूलन और पूँजीवाद के विरुद्ध क्रान्ति का साहित्य न बन पाया तो यह भी कालांतर में “ब्राह्मणवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया का साहित्य” के रूप में एक “नव ब्राह्मण साहित्य” ही सिद्ध होगा।
जिस तरह से ब्राह्मण एक वर्ण है और जाति भी, उसी तरह दलित भी शूद्र जातियों का एक समूह है। प्रकारांतर, दलित वर्ण-व्यवस्था का चौथा वर्ण ही है। यदि दलित किसी भी तरह से दलित या दलितवाद को मजबूत करता है तो वह वर्ण व्यवस्था के चौथे वर्ण को ही मजबूत करेगा जबकि डॉ. आम्बेडकर वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था को तोड़ कर समता, स्वतंत्रता और बन्धुत्व स्थापित करना चाहते थे। वे चाहते थे कि एक व्यक्ति का एक मूल्य हो। सभी मनुष्य मनुष्य हैं इसलिए उनका एक मूल्य रहे। मार्क्सवाद एक दर्शन है। मार्क्सवादी उस दर्शन के अनुयायी हैं। दर्शन क्रान्तिकारी है लेकिन भारतीय मार्क्सवादी सांस्कृतिक आंदोलन न सम्पन्न कर पाए, जिससे भारतीय मार्क्सवादियों में अभी भी जातीय श्रेष्ठता का अहम बना हुआ है। हम वर्गीय एकता बनाने में इसीलिए असफल हैं।
मैं तो जानता हूँ लेकिन जिन्हें जानना और जनाना चाहिए वे उस स्तर पर ईमानदार और क्रान्तिकारी नहीं हैं। क्रान्तिकारी पार्टियों के नेता सांस्कृतिक और वैचारिक क्रान्ति की गति तीव्र नहीं कर पा रहे हैं तथा अनेक कम्युनिस्ट पार्टियों में जाति की संस्कृति अभी भी हावी है। भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता अभी भी सर्वप्रथम हिन्दू हैं, ब्राह्मण हैं, क्षत्रिय हैं, बाद में वे कम्युनिस्ट हैं। वह भी सड़क और पार्क तक, घर पहुँचते-पहुँचते वे फिर से पंडित जी/बाबू साहब हो जाते हैं। निचली जातियों से आए कम्युनिस्ट कैडर अभी भी कम पढ़े/लिखे/भूमिहीन/गरीब हैं। कम्युनिस्ट दर्शन से अधिक वे कम्युनिस्ट के भाव को मानते हैं। दर्शन की अच्छी जानकारी और उच्च शिक्षा के अभाव में वे बहस में भाग नहीं लेते हैं, सिर्फ मान लेते हैं। निचली जातियों के कम्युनिस्ट साथियों में अभी नेतृत्व की क्षमता ही विकसित नहीं हुआ है। निचली जातियों के लोग हर जगह सहज भी अपने को ठगा हुआ महसूस करता है। यदि कम्युनिस्ट का नेतृत्व वर्ग सुशिक्षित, चरित्रवान, ईमानदार और सांस्कृतिक रूप से उच्च स्तर सम्पन्न हो जाय तो निचली जतियों के लोगों में विश्वास जगने लगेगा। यदि ऐसा संभव हो जाय तो वर्गीय एकता में कोई देर नहीं लगेगी। सबसे बड़ी और बुरी बात यह है कि दलित जातियों में सवर्ण कम्युनिस्टों के प्रति विश्वास भाव नहीं है। इसकी वजह कम्युनिस्ट पार्टियों के अनेक सवर्णों के सांस्कृतिक विकास का न होना है। बहुत से सवर्ण कम्युनिस्टों के जातीय व्यवहार की वजह से दलित मार्क्सवाद में भी नहीं विश्वास रखता है। विश्वास के अभाव में दलित क्रान्ति के दर्शन को नहीं पढ़ता है। दलित सवर्ण कम्युनिस्टों की प्रतिक्रिया में ही मार्क्सवाद से महरूम है।
यह तो सत्य है कि निचली जातियों में ब्राह्मण जातियों के विपरीत अंतर्द्वंद्व है। ब्राह्मण तो उपजातियों में शादी/ब्याह करते ही हैं लेकिन दलित अपनी उपजातियों में शादी/ब्याह बिल्कुल नहीं करते हैं। यही दलितों के मध्य जीवित ब्राह्मणवाद है। दलित आम्बेडकर/आम्बेडकर तथा जयभीम/जयभीम रटता हुआ सिर्फ ब्राह्मणवाद/ब्राह्मणवाद तथा ब्राह्मण/ब्राह्मण को कोसता हुआ ब्राह्मणवादी बना रहता है। दलित कहीं भी टस से मस नहीं होता है।
दलित न मार्क्सवादी है और न कम्युनिज्म ही चाहता है बल्कि कम्युनिस्टों को ब्राह्मणवादी मानता रहता है और अन्य दलित को भी मना करता है कि मार्क्सवाद दलितों के किसी काम का नहीं है क्योंकि वह वर्ग की बात करता है और भारत में वर्ग बना ही नहीं है जबकि मार्क्स वर्ग की बात करता है। दलित यह भी कहता है कि यदि मार्क्स भारत में पैदा हुआ होता तो सबसे पहले वह जातिप्रथा को खत्म करने की बात करता। दलित जातिप्रथा खत्म करने की तो बात करता है लेकिन कोई ऐसा कार्य नहीं करता है जिससे यह पता चले कि जतिवाद खत्म हो रहा है या खत्म हो सकता है।
कम्युनिस्ट यदि ईमानदारी से स्वयं को डिकास्ट करता हुआ दलितों के मध्य नहीं जाता है तो भारत में वर्गीय एकता एक स्वप्न ही बना रहेगा।
एक दलित साथी ने फेसबुक पर अपने अपने विचार को बहुत ही मनमोहक ढंग से रखा है। विमर्श की सुविधा के लिए मैं आप के मुख्य अंश को अग्रवत उध्दृत कर दे रहा हूँ। “भारत में शूद्र, जो न तो शिक्षा से लैस हैं, न ही अस्त्र-शस्त्र से और न ही पैसा आदि संसाधनों से। उस समय सबसे खराब स्थिति यह थी कि शूद्रों की नब्बे प्रतिशत आबादी भूखी, कुपोषित तथा शारीरिक क्षीणता की शिकार थी। मार्क्स जिस और जैसी क्रांति की बात करते हैं, स्थितियाँ दलितों व शूद्रों के विपरीत और असहाय थी। उस समय एक मरी हुई कौम ज़ालिमों से मुखालफ़त की हालत में नहीं थी। मार्क्स ने ऐसे हालातों में रहने वाले लोगों के लिए कोई भी दिशा निर्देश सामने नहीं रखा। ऐसे हालातों में, डा. अंबेडकर तार्किक सिद्ध होते हैं क्योंकि वे बुद्ध के रास्ते स्थाई समाधान देख रहे थे। मार्क्सवाद में समाज को उद्वेलित करने के लिए अनगिनत स्रोत हैं लेकिन वही एकमात्र विकल्प नहीं कहा जा सकता है। अंबेडकरवाद की सफलता में मार्क्सवाद सहायक हो सकता है। अंबेडकरवाद मार्क्सवाद से आगे निकल चुका है। आज पूँजीवाद की बुराइयों से निजात पाने के लिए अंबेडकरवाद ही उत्कृष्ट विकल्प है। मार्क्सवाद में विश्व शांति की गारण्टी नहीं है, समता और बंधुता की गारंटी नहीं है, प्रेम और करुणा की गारंटी नहीं है।”
सचमुच, मार्क्स पूँजीवादी व्यवस्था को क्रान्ति के द्वारा उलट कर समाजवादी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं, वह भी क्रान्ति के द्वारा, जिसमें खून अनिवार्य रूप से बहेगा ही तथा समाजवादी व्यवस्था को सर्वहारा की तानाशाही द्वारा टिकाए रखना चाहते हैं। मार्क्स ने एक विशेष बात कहीं है कि क्रान्ति का कोई सेट फार्मूला नहीं है। क्रान्ति आयातित-निर्यातित नहीं किया जा सकता है। कोई भी किसी दूसरे देश में क्रान्ति का तरीका नहीं बता सकता है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद और ऐतिहासिक भौतिवाद के आधार पर उस देश की भौतिक परिस्थिति, देश और काल का अध्ययन उसी देश के क्रांतिकारियों को करना पड़ेगा और उन्हीं को अपने वस्तुपरिस्थिति के अनुसार निर्णय लेना पड़ेगा कि क्रान्ति कैसे की जा सकती है। इतना ही है मार्क्सवाद है, यही है मार्क्सवाद। मार्क्सवाद एक विज्ञान है।
हमने मार्क्सवादी विज्ञान के द्वारा यह सीखा है कि वर्ग-संघर्ष में वर्गीय एकता नितांत आवश्यक है लेकिन भारत में श्रमिक वर्ग जातियों में विभक्त है। जाति भारत की गंभीर समस्या है लेकिन एकमात्र समस्या नहीं है। किसी भी क्रान्ति से पूर्व उस देश में एक क्रान्तिकारी पार्टी की जरूरत है, एक ऐसी पार्टी जिसमें व्यक्ति अपनी जातीय अस्मिता को त्याग कर शामिल हो और क्रान्ति के लिए बलिदानी संकल्प के साथ कार्य करे। भारत में ऐसा क्रान्तिकारी संगठन बनाना और चलाना अत्यंत कठिन लेकिन अनिवार्य है। बिना ऐसा संगठन विकसित हुए क्रान्ति नहीं हो सकती है। उसी तरह, डॉ. आम्बेडकर साहब भी कहते हैं कि जाति के भूत को मारे बिना भारत में कम्युनिस्ट क्रान्ति नहीं कर सकता है।
बाबा साहब के जाति के भूत को मारने वाली बात को जड़सूत्र की तरह समझना यह होता है कि भारत से पहले जाति खत्म कर लो तब वर्ग बनेगा और तब वर्ग-संघर्ष होगा यानी तब समाजवादी क्रान्ति होगी लेकिन नहीं, यहीं पर बाबा साहब की बात को विज्ञान के रूप में समझने की जरूरत है। वह यह कि कभी भी कोई भी परिवर्तन सम्पूर्ण नहीं हुआ करता है। जातिप्रथा सम्पूर्ण एकाएक कभी नहीं खत्म होगी। जातिप्रथा पहले उन लोगों में खत्म होगी जो जातिप्रथा को खत्म करना चाहते हैं अर्थात यह सांगठनिक प्रारम्भ है। फिर उन लोगों की जातियाँ खत्म होंगी जिन्हें प्रथम लोग समझाकर क्रान्ति के लिए संगठन में भर्ती करेंगे। इसके बाद, कुछ जागरूक और कुछ प्रगतिशील लोग अपनी जातियों को छोड़कर क्रान्ति के लिए हमारा साथ देंगे। तदोपरान्त, क्रान्ति के दौरान बहुत से सर्वहारा, उत्पीड़ित, मजदूर, मजलूम, गरीब, भूमिहीन, दलित, आदिवादी अपनी जाति को नजरअंदाज करते हुए क्रान्ति में कूदेंगे। क्रान्ति सम्पन्न होने के बाद भी बहुसंख्यक अपनी जाति अपना धर्म ढोते रहेंगे। क्रान्ति के दौरान और क्रान्ति के बाद भी सांस्कृतिक क्रान्ति जारी रहेगी। हम सरकारी नियम और संविधान के द्वारा जाति/धर्म को बहुत व्यक्तिगत स्तर पर केंद्रित कर उसे हतोत्साहित करते रहेंगे। मीडिया के द्वारा तथा मीडिया के अतिरिक्त भी हम सांस्कृतिक क्रान्ति के द्वारा ही जातिप्रथा को खत्म कर पाने में सफल हो पाएँगे। यह न कोई जादूगरी का काम है और न एक क्षण में सम्पन्न होने वाला काम है। जाति से निजात पाने के लिए क्रान्ति के अतिरिक्त कोई चारा नहीं है।
इसके समानांतर, बाबा साहब डॉ. आम्बेडकर साहब ने जातिप्रथा उन्मूलन पुस्तक लिखते समय इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि “जातिप्रथा एक अभेद्य दीवार है। फिर भी, मेरे अनुयायी यदि इसे तोडना चाहते हैं तो वेदों-पुराणों में डायनामाइट लगाना पड़ेगा।” डॉ. आम्बेडकर साहब ने संविधान के लिए जो ड्राफ्ट तैयार किया था और वह ड्राफ्ट संविधान के लिए पंडित जवाहरलाल नेहरू, डॉ. राजेंद्र प्रसाद, गाँधी और अन्य कमेटियों के सदस्यों ने मानने से मना कर दिया था जिसे डॉ. आम्बेडकर ने “राज्य और अल्पसंख्यक” नामक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित कर संविधान सभा सदस्यों एवं बाहरी लोगों को तत्काल पढ़ने के लिए वितरित कर दिया था। उस ड्राफ्ट में “राजकीय समाजवाद” को लागू किए जाने की सिफारिश किया गया है। उस संविधान में संपत्ति के व्यक्तिगत अधिकार को खत्म कर देने की जोरदार अपील है। उत्पादन के सभी साधनों को व्यक्तिगत हाथों से छीनकर राष्ट्रीकरण कर दिए जाने की भी सिफारिश है। निजी संपत्ति नहीं होगी।
डॉ. आम्बेडकर ने समाजवाद को राज्य के द्वारा संविधान में स्थापित किए जाने की सलाह दी है। ऐसा उन्होंने इसलिए कहा है क्योंकि कम्युनिस्ट इसे क्रान्ति के द्वारा स्थापित करना चाहते हैं। क्रान्ति में खून बहेगा इसलिए वे क्रान्ति नहीं चाहते हैं। दूसरी बात, वे सर्वहारा की तानाशाही भी नहीं चाहते हैं क्योंकि वहाँ व्यक्ति की स्वतंत्रता खत्म हो जाएगी।
डॉ. आम्बेडकर साहब कहते हैं कि मार्क्स के समाजवाद में खून है इसलिए मैं उनके माध्यम से समाजवाद लाने के पक्ष में नहीं हूँ। मैं इसे राज्य द्वारा लाए जाने के पक्ष में हूँ। मैं बुद्ध का अहिंसा मार्ग अपनाना चाहता हूँ।
इस संदर्भ में, आगे बढ़ते हुए डॉ. आम्बेडकर साहब कहते हैं कि राजकीय समाजवाद में एक अड़चन यह है कि यह संविधान में स्थाई तौर पर विहित नहीं किया जा सकता है। हमारी व्यवस्था संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली की है। यह बहुसंख्यक की नीति पर आधारित है। कोई भी बहुतमत दल कितना अच्छा कानून क्यों न बना दे, पाँच वर्ष बाद दूसरा बहुमत दल बहुसंख्यक नीति के आधार पर उसे बदल देगा।
अन्त में, उन्होंने कहा कि मुझे बुद्ध दर्शन पसंद आया। मैंने उसे अपना लिया। आप के सामने बुद्ध और मार्क्स दोनों हैं। आप को इन्हीं दोनों में से किसी एक को अपनाना ही पड़ेगा, और कोई रास्ता नहीं है।
यहाँ तक मैंने इस रूप में आम्बेडकर और मार्क्स को समझा है। अब आप उन बिंदुओं पर फोकस करें कि आप डॉ. आम्बेडकर और बुद्ध का कौन रास्ता बताना चाहते हैं जिससे जातिप्रथा और पूँजीवाद उन्मूलन संभव हो सके। वह कौन सी प्रणाली है जिसे आप आम्बेडकरवादी व्यवस्था कह कर स्थापित करना चाहते हैं?
(श्री देवोस साँची, श्री परमानंद सिंह यादव और श्री देवचन्द्र भारती प्रखर को समर्पित)

आर डी आनंद