रिपोर्टरों की कॉपियों को अर्थ देने वालों पर लिखी गई है ‘तिनका-तिनका यादें’

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जैसे टीवी में एंकर को पत्रकार मान लिया जाता है जो उतना ही बोलता है जो उसके सामने लगे हुए टेलीप्रॉम्पटर में लिखा होता है। बस हाव-भाव और नाटकीयता उसकी होती है। ठीक इसी तरह अख़बारों के युग में रिपोर्टर को ही पत्रकार मान लिया जाता था, जो वह लिखता था जो पुलिस या प्रशासन के अधिकारी उसे बता देते थे। लेकिन उसकी कॉपी में value add का काम डेस्क का था। डेस्क में सब एडिटर सिर्फ़ कॉमा, फ़ुल स्टॉप नहीं ठीक करता था, अक्सर वह ही रिपोर्टर की कॉपी के मूल तत्त्व को निकाल कर ऊपर लाता और आई कैचिंग शीर्षक लगाता तथा बिना किसी ईर्ष्या द्वेष के वह रिपोर्टर की कॉपी में बाई लाइन भी देता था। अख़बार डेस्क के सब एडिटर, चीफ सब और न्यूज़ एडिटर की मशक़्क़त से अव्वल बनता। मगर डेस्क के लोग सदैव पीछे रहते। उनको कोई नहीं मानता था, कि ये भी पत्रकार हैं।
ऐसे ही गुज़रे जमाने में हिंदी अख़बारों की डेस्क के वरिष्ठ पत्रकार श्री Ram Dhani Dwivedi ने एक पुस्तक लिखी है, “तिनका-तिनका यादें”। यह किताब एक पत्रकार की पैनी कलम और तीक्ष्ण नज़र का कमाल है। इसमें कुछ अध्याय ऐसे हैं जो हिंदी के उन विद्वानों से मिलाते हैं, जिनका हम सिर्फ़ नाम सुनते आए हैं। डॉ. उदय नारायण तिवारी के तो अद्भुत प्रसंग हैं। जब वे राहुल सांकृत्यायन के बारे में बताते हैं तो यह बताना नहीं भूलते कि राहुल जी हिंदी खड़ी बोली में भोजपुरी के शब्द भरे जाने के हिमायती थे ताकि जब हिंदी देश की राष्ट्रभाषा बने तो उसमें रवानगी रहे।
मुझे निजी तौर पर एक प्रसंग याद है, जो राहुल जी ने मेरे पिताजी को कहा था, कि आप खड़ी बोली में कविता करें तो भी अपने गाँव की अवधी बोली के शब्द जोड़ते रहें। राहुल जी मेरठ और बागपत जा कर यहाँ के गाँवों की बूढ़ी महिलाओं से मिलते और उनके लोक गीतों को लिखते जाते। ख़ैर, यह क्षेपक तो मैंने इसलिए जोड़ दिया है, क्योंकि हिंदी खड़ी बोली जिसे राष्ट्र भाषा का दर्जा मिला है, उसे अकेला न छोड़ें।
रामधनी जी की पुस्तक में सुप्रसिद्ध विज्ञान लेखक शुकदेव जी के संस्मरण भी हैं। तमाम अब विस्मृत पत्रकारों के भी। यह पुस्तक पढ़ी जानी चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल की फेसबुक वॉल से साभार

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