इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसंबी प्राक इतिहासकारों के बारे में कहते हैं कि प्राकृतिक इतिहासकार का मूल दायित्व विलुप्त समाजों का अधिकाधिक संधान करना है क्योंकि अपनी परिभाषा के अनुसार प्राप्त इतिहासकार लिखित दस्तावेजों की बजाय एक अलग तरह की सामग्री का उपयोग करता है।
कबीर और आदि विद्रोही योगियों को समझने के लिए और साथ ही उनकी तल्ख़ी को भोथरा बनाने वाली आलोचनाओं को देखना हो तो रांगेय राघव के उपन्यास ‘जब आवेगी काल घटा’ से गुज़रना चाहिए।
यह उपन्यास चर्पटनाथ को केंद्रित करके लिखा गया है।




रांगेय राघव से पहला परिचय ‘गदल’ कहानी की मार्फ़त हुआ। ऐसी प्रेम कहानी तब नहीं पढ़ी थी। उसकी अनुगूंज आज भी बनी हुई है।
हिन्दी आलोचना और इतिहास ने रांगेय राघव को ऐतिहासिक उपन्यासकार के खाँचे में डालकर छोड़ दिया है जबकि उनका काम प्रचुर और ठोस है। प्रगतिशील आलोचना भी उनका नाम कम लेती है।
रांगेय राघव ने गोरखनाथ के जीवन और साहित्य पर बहुत सामग्री एकत्र की थी। उनके समय और समाज की साज़िशों को पकड़ा था। बंगाल के अकाल पर उन्होंने ‘तूफ़ान के बीच’ रिपोर्ताज और उपन्यास ‘विषादमठ’ लिखा। (‘विषादमठ’ बंकिम के ‘आनन्दमठ’ के जवाब में लिखा गया उपन्यास है।)
हड़ताल, लाठीचार्ज, गोलीकांड जैसे विषयों पर वे लगातार मुखर होकर रिपोर्ताज लिखते रहे। हिन्दी रिपोर्ताज की रूपरेखा ही उन्होंने बदल दी।अकाल पर सिर्फ़ लिखा ही नहीं बल्कि डॉक्टर समूह के साथ घूम घूमकर बचाव कार्य किया। इस अकाल से सीधे साक्षात्कार के बाद रांगेय की प्रतिभा तेज सान पर चढ़ गई। फिर उन्होंने अवसर मिलने पर भी न कोई स्थिर नौकरी की न सुरक्षित जीवन जिया।लगातार लिखते रहे और ज़मीनी दुनिया में काम करते रहे। कम उम्र में कैंसर जैसी बीमारी में जूझते हुए भी वे अंतिम समय तक लिखते रहे। कविता, खण्डकाव्य, कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना, विमर्श, रिपोर्ट्स, निबंध, अनुवाद! गोया उनको चैन ही नहीं था।पुराने-पुराने रचनाकारों की खोज और उन पर जीवनीपरक उपन्यास लिखकर उन्होंने बहुत बड़ा काम किया है।
गोवा के मुक्ति आंदोलन पर उनका नाटक ‘आख़िरी धब्बा’ इप्टा द्वारा कई बार खेला गया।
अकाल को अवसर बनाने वाले महाजन, सूदखोर और साम्राज्यवादियों के ख़िलाफ़ उन्होंने लिखा-“आज मै रोऊंगा नहीं क्योंकि रोकर नहीं बचेगा बंगाल। सुलगानी होगी उनमें खूनियों के प्रति नफ़रत की आग जो तहस नहस कर दे। डाकूओं और ठगों का यह गिरोह जो ख़ून से भीगे दाँत लेकर हँस रहा है और जिसकी कड़ी उंगलियों में फंसी माँ की गर्दन अभी छटपटा रही है।”
जब वह सर्वहारा पर लिखते हैं तब उनके पास एक मार्क्सवादी विचार प्रक्रिया है। मृगतृष्णा नाम की उनकी एक लंबी कहानी है जिसकी चर्चा लगभग नहीं होती है। इसमें उन्होंने मनुष्य का प्रकृति के साथ स्वाभाविक सम्बन्ध को रचनात्मक तरीके से दिखाया है। प्रकृति का मनुष्य के साथ वैज्ञानिक और स्वाभाविक रिश्ता है, वे उसी रूप में उसे व्यख्यायित करना चाहते थे। वे मानव सभ्यता के इतिहास पर काम कर रहे थे और 10 खंडों में उसे व्यवस्थित करने की तैयारी थी। उसके कुछ खण्ड शायद प्रकाशित भी हुए हैं।
इतिहास और विचारधारा जो दुनिया की व्याख्या भर न हो; यह काम राहुल सांकृत्यायन ने अलग तरीके से किया और दूसरे ढंग से रांगेय राघव ने अपनी रचनाओं में किया है।
रांगेय राघव प्राचीन भारत की जड़ें खोद रहे थे। उस पर जो कुहासा डाला गया था/है उसे साफ करने में बहुत श्रम कर रहे थे और लोकतांत्रिक और समता आधारित भारत के नए धरातल को निर्मित कर रहे थे।
डॉ. वंदना चौबे
डॉ. वंदना चौबे