डॉ. धर्मवीर ने मख्खलि गोशाल का अध्ययन किया। अध्ययन के उपरांत उन्हें लगा कि दलित नाहक बुद्ध की तरफ मुड़ गया बल्कि डॉ. आम्बेडकर ने बेकार ही बौद्ध धर्म पर मेहनत किया और दलितों को उस तरफ मोड़ दिया। डॉ. धर्मवीर के अनुसार बुद्ध धर्म एक पराया धर्म है और किसी भी तरह हिन्दू धर्म से अलग नहीं है बल्कि बौद्ध धर्म का प्रवर्तक गौतम बुद्ध एक क्षत्रिय हैं। उन्होंने अपनी पुस्तक “थेरीगाथा की भिक्षुणियाँ” में लिखा है कि बुद्ध पुनर्जन्म, पाप, पूण्य, कर्म और मोख्ख को मानते हैं। वे डॉ. आम्बेडकर के हवाले से यह भी कहते हैं कि असित मुनि की दिव्यदृष्टि सिद्धार्थ का जन्म होते देख रही थी अर्थात डॉ. आम्बेडकर भी दिव्य दृष्टि में विश्वास रखते हैं, नहीं तो गौतम बुद्ध के इस सिद्धांत का खंडन न कर दिए होते। डॉ. धर्मवीर और उनके प्रबुद्ध अनुयायी दलितों की समस्याओं का कारण जारकर्म में फँसी स्त्रियों को मानते हैं। उन्हें लगता है दलित पुरुष अपनी स्त्रियों द्वारा किए गए जारकर्म से उत्पन्न सवर्णों के बच्चों को पाल रहे हैं। वे इस सिद्धांत पर जोर देते हैं कि मख्खलि गोशाल के सिद्धांतों का अनुसरण करते हुए दलितों को आजीवक धर्म ग्रहण कर लेना चाहिए तथा दलित स्त्रियों को किसी भी तरह से जारकर्म से मुक्त कराया जाना चाहिए।
दुर्भाग्य यह है कि इसके प्रतिपादक डॉ. धर्मवीर स्मृतिशेष हो गए तथा उनके प्रबुद्ध अनुयायी अपने ज्ञान के नशे में आम्बेडकर व बुद्ध के अनुयायियों को बेवकूफ़ समझते हैं, नीचा दिखाने की जद्दोजहद करते हैं, छीटाकशी करते हैं, कटाक्ष लिखते हैं, जो इन साथियों से तर्क करते हैं अथवा आम्बेडकर का पक्ष लेते हैं, उनको डिमोरलाइज करते हैं व अपने तर्कों से घेरते हैं जबकि अच्छा यह होता कि वे साथी मख्खलि गोशाल, डॉ. धर्मवीर और आजीवक परम्परा के वास्तविक तत्वों को बताते, समझाते, प्रचार करते और आजीवक धर्म के अनुयायियों की संख्या बढ़ाते। ऐसे में आजीवक का प्रभामंडल विस्तार लेता, आपसी प्रेम पैदा होता, लोग एक दूसरे से जुड़ते लेकिन जितने भी साथी आजीवक सिद्धांतों के अनुयायी हैं सब के सब आम्बेडकरवादियों से कट्टर दुश्मन की तरह भिड़कर प्रतिवाद करते हैं। अजीब बात है, भारत में बुद्ध की जनता दलित है, आम्बेडकर की जनता दलित है, डॉ. धर्मवीर की जनता दलित है, मेश्राम की जनता दलित है, दयाराम की जनता दलित है, विजय मानकर की जनता दलित है, हरिश्चन्द्र की जनता दलित है, राजाराम की जनता दलित है, दारापुरी की जनता दलित है, मायावती की जनता दलित है, चंद्रशेखर की जनता दलित है, दलित साहित्य की जनता दलित है, आम्बेडकर साहित्य की जनता दलित है। जब इन सब की जनता दलित है और सभी दलितों का भला चाहते हैं, तो आखिर एक बुद्धिजीवी दूसरे बुद्धिजीवी से लड़ता क्यों है, टाँग क्यों खींचता है? क्या दलित चिंतक/बुद्धिजीवी/नेता/कार्यकर्
लोग आजीवकों को एक सिरे से कोसने लगे हैं। लोग आजीवक को समझ नहीं रहे हैं अथवा आजीवक समझा नहीं पा रहे हैं? क्या आजीवक दलितों से यह अपेक्षा करते हैं कि वे आजीवक परम्परा को स्वयं ही समझने लेंगे? यदि आजीवक चाहते हैं कि लोग बुद्धिज्म छोड़कर आजीवक हो जाँय, तो आजीवकों को बहुत ही धैर्य और प्रेम से लोगों के मध्य कार्य करना होगा। लोग आजीवकों के वैचारिक बहस से चिढ़ेंगे लेकिन आजीवकों को कहीं भी व्यंगात्मक शैली अथवा चिढ़ाने का कार्य कदापि नहीं करना चाहिए। दलित समाज पिछड़ा समाज है। वह बौद्धिक रूप से अभी बहुत पीछे है। यह प्रतिक्रियावादी हो चुका है। उसकी प्रतिक्रिया में घी डालने का कार्य प्रतिपल किया जा रहा है। यदि उस प्रतिक्रिया के विरुद्ध आजीवक स्वयं एक नई प्रतिक्रिया करेंगे, तो वह उन्हें गलत दिशा में मोड़ने का कार्य होगा। वह एक अन्य प्रतिक्रिया में फंसा रहेगा। आजीवकों को बहुत सचेत रुप से दलित समाज और बुद्धिजीवियों के समग्र विकास के लिए एक वैज्ञानिक रास्ता बनाना होगा। आजीवक साथियों! आप दलितों को जोड़ने और मार्ग दर्शक का कार्य करिए, नहीं तो आप उनके नफ़रत का हिस्सा बन जाएंगे और आप का वांक्षित दर्शन बेकार सिद्ध हो जाएगा। सबसे बड़ी छति यह होगी कि दलित प्रतिक्रियावादी दर्शन में पड़ा हुआ चालाक लोगों का शिकार होता रहेगा और इसके जिम्मेदार आप जैसे सचेत लोग होंगे।
महत्वपूर्ण बात यह है कि आजीवक साथियों को धर्म और जारकर्म के सिद्धांत के अतिरिक्त दलित जनता की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान की तरफ भी ध्यान देना होगा। मूल समस्या उत्पादन का उद्देश्य मुनाफा कामना और उत्पादन के संसाधनों पर इस देश के सवर्ण जातियों के चंद लोगों का कब्ज़ा है। वर्तमान में भारतीय जनता को जातियों और छोटे-छोटे स्वर्थों में इस कदर विभक्त कर दिया गया है कि जनता यही नहीं समझ पा रही है कि उसकी वास्तविक लड़ाई क्या है इसलिए क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है कि जनता को सही रास्ता दिखाए एवं क्रांतिकारी सिद्धांत की पहचान कराए तथा पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध शोषित जनता को एकता के लिए तैयार करें। यदि पूँजीवाद समाप्त कर लिया गया, तो जारकर्म भी समाप्त हो जाएगा क्योंकि संपत्ति और संसाधनों का व्यक्तिगत मालिकाना ही लोगों को अहमी और दुष्कर्मी बनाता है। सरकार नामक संस्था पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी होती है इसलिए उनके पास शक्ति और न्याय भी उपलब्ध है। वे किसी भी कार्य के लिए मनमानी कर सकते हैं। जारकर्म भी उनकी शक्ति और न्याय की अन्यायी प्रक्रिया के कारण ही अस्तित्व में है। जहाँ तक धर्म की बात है, दुनिया में अनेक धर्म हैं और सभी धर्म अपने को मानवतावादी कहते हुए सबसे अच्छा सिद्ध करते है। सब के ईश्वर हैं। सब की पवित्र पुस्तकें हैं। यदि आजीवक भी एक धर्म के रूप में अस्तित्वमें आ गया तो इसकी भी कुछ जनता हो जाएगी और समाज में ये भी एक पहचान लिए स्वधन्य रहेंगे। जैसे सभी धर्म आपस में लड़ते हैं वैसे एक धर्म और लड़ने के लिए तैयार हो जाएगा। धर्म झगड़े की जड़ है। इन सब का निस्तारण पूँजीवाद विरोधी समाजवादी क्रांति में है। इंक़लाब ज़िन्दाबाद।
हमें आजीवकों से ऐसे जवाब की जरूरत है जिससे उनसे नजदीकियों का संबंध विकसित हो, यदि किसी के जवाब के तरीके से दूरियाँ बढ़ती हैं तो समझ लीजिएगा कि उसके जवाब, ज्ञान और तरीके में अभाव है। हमें अपने प्रवर्तक, उपदेशक, चिंतक, क्रांतिकारी के भाषा-शैली में तार्किकता के साथ भरपूर प्यार और अपनत्व भी चाहिए। जवाब दुश्मन की तरह किया गया आक्रमण नहीं होना चाहिए।
निश्चित आजीवकों के लेख की तासीर सब तक पहुँचेगी और उम्मीद है उनमें बंधुत्व का भाव विकसित होगा। बिना बंधुत्व भाव के किसी भी दर्शन को समझाया नहीं जा सकता है और फिर आम्बेडकर और बुद्ध की निंदा करके कोई भी दार्शनिक दलित समाज को किसी भी अन्य दर्शन, परिवर्तन व क्रांति के साथ कतई नहीं जोड़ सकता है। आजीवक यदि मख्खलि गोशाल के दर्शन को डॉ. धर्मवीर के अनुसार आगे बढ़ाना चाहते हैं, तो उन्हें अपने व्यवहार में कटुटाबोध निकाल देना होगा। बिना मित्रताभाव के किसी को कुछ नहीं समझाया जा सकता है। ज्ञान के घमंड में दुर्जनतापूर्ण अभिव्यक्ति तिरस्कार पैदा करता है। डॉ. धर्मवीर जी अब नहीं हैं इसलिए उनकी बुराई की जरूरत नहीं है, जरूरत है उनके अनुयायियों की भाषा-शैली और व्यवहार कैसा हो?
यह सत्य है कि मेरी बातें उनसे खूब होती रही हैं और बहुत प्यार से होती रही हैं लेकिन उनके अनुयायिओं में प्यार नहीं है, अहमन्यता है। अहमन्यता ही धर्म का मूल है। धर्म कोई भी हो झगड़े की जड़ है। मनुष्य को धर्म की नहीं वैज्ञानिक शिक्षा की जरूरत है तथा संसाधनों पर सामूहिक मालिकाना की जरूरत है। धर्मवीर इस पूँजीवादी व्यवस्था में सुधार की वकालत करते हैं, मूलभूत परिवर्तन की नहीं।
यदि सभी आजीवक ऐसा मानते हैं और चाहते हैं कि धर्म की जरूरत दलित कौम को है तो उन्हें धर्म सिखाने के लिए सहिष्णुता, प्यार और विनम्रता के साथ बंधुत्व की भाषा-शैली में आजीवक धर्म के सिद्धांत सिखाने होंगे। अहमन्यता, तीसमारखाँ, आक्रामकता, उग्रता, उद्दंडता की भाषा-शैली और व्यवहार को त्यागना पड़ेगा। आजीवक साथियों के उग्र व्यवहार से दलित कौम को आजीवक कैसे बनाया जा सकेगा। उस पर डॉ.आम्बेडकर और बुद्ध को धकियाते हुए तो बहुत कठिन है। हमें सम्पूर्ण क्रांति की जरूरत है। सुधार से कुछ नहीं होगा।आक्रामक और कट्टर साथियों को बंधुत्व सीखना होगा, नहीं तो उनमें और ब्राह्मणवादी लोगों में क्या अंतर रह जाएगा।
आजीवकों का लेख क्रांतिकारियों के समझने के लिए बहुत सुंदर होगा। क्रान्तिकारी यह समझने में समर्थ होंगे कि किस तरह दलित वर्ग को आजादी आंदोलन के समय से इनके मेधाओं को गिरफ्त में लेकर गुमराह करते रहे हैं। इन दलित बुद्धिजीवियों को बहुत ही नाज़ रहता है कि वह बहुत बड़ा प्रज्ञावान (इंटेलेकटुअल) है। इनकी बुद्धि की मीमांसा करेंगे तो तरस आएगा कि ये कैसे स्वयं समाज को अनजाने में ध्वस्त करते हैं तथा वर्ग एकता से दूर रखने में बम्पर सहयोग करते हैं। यह बात डॉ. आम्बेडकर, मा. कांशीराम, सुश्री मायावती, मा. मेश्राम पर भी लागू होता है। यह सत्य है कि दलित समाज को जातिप्रथा और पूँजीवाद के विरुद्ध क्रांति के लिए आम्बेडकर से आगे निकलकर चिंतन करना होगा, ऐसा डॉ. आम्बेडकर ने स्वयं “राज्य और अल्पसंख्यक” में संकेत किया है किन्तु जिस तरह से आजीवक साथी हमलावर होते हैं वह अशोभनीय और अभद्र तरीका है। किसी भी मनीषी और चिंतक की मीमांसा व आलोचना लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक और नैतिक तरीके से होना चाहिए।
- आर डी आनंद
एल-1316, आवास विकास कॉलोनी,
बेनीगंज, फैज़ाबाद
सम्पर्क : 9451203713