पुरुषप्रधानता और पुरुष दोनों दो सत्ता हैं। एक व्यवस्था है दूसरे व्यवस्था की एक इकाई और ऐसी इकाई जिसके पास पत्नी है, बेटी है, बहन है, माँ है, दादी है। यह व्यक्ति पुरुषप्रधान व्यवस्था का इकाई होते हुए इन स्त्रियों का अत्यंत घनिष्ट और प्रिय है। यह पुरुष बेटी और बहन को हर हाल में शिक्षित करना चाहता है, नौकरी में आवश्यक भेजना चाहता है, वह दे सकने के सामर्थ्य नहीं रखता है नहीं तो बेटी को ऑफिस जाने के लिए हवाई जहाज खरीद दे। फिर भी जितना कर सकता है उतना कर के भेजता है। पुरुष के रूप में भी बाप ने कभी भी बेटी के जीन्स-टॉप पर तोहमत नहीं लगाया। उसके खुले वक्ष पर तंज नहीं कसा और न ही कोई वर्जनाएँ ही आरोपित किया। बेटी को जिम भेज रहा है। फिल्मों में भेज रहा है। पुरुष के साथ प्रतियोगिता में भेज रहा है। आधुनिक बना रहा है। बेटी के हर कौशल पर ख़ुशियाँ व्यक्त करता है। कोई भी पिता अपनी बेटी को बेटे से कम शिक्षा व रोजगार पर सहमत नहीं है।
उत्पादन के साधनों को पुरुषों ने अपने हाथों में केंद्रित कर लिया। स्त्रियों को चहारदीवारी के भीतर के घरेलू कार्य तक सीमित कर दिया गया। उनके शरीर को सम्भोग की वस्तु के रूप में प्रयोग किया और कालांतर में उनके अंगों-उपांगों को सजाकर प्रस्तुत करने की मानसिकता तैयार की गई। स्त्रियों ने भी अपने अंगों को असेट समझ लिया और अनेक जगहों-अवसरों पर वे अंगों को असेट के रूप में प्रयोग करती हुई पुरुषों को अपने आगे-पीछे नचाती हैं।
कोई भी स्त्री बिना पुरुष के सहयोग के न शिक्षा पाई है, न नौकरी में गई है, न आकाश में उड़ी है, न फिल्मों में गई है, न पीएचडी हुई है, न प्रोफेसर हुई है, न आईएएस हुई, न पीसीएस हुई। पुरुष पुरुषप्रधान समाज का हिस्सा जरूर है लेकिन उसके सपनों ने ही स्त्रियों को पंख दिया है। कोई पुरुष किसी स्त्री का बलात्कार करता है तो कोई पुरुष स्त्री की अस्मत की रक्षा के लिए अपनी जान भी देता है। सभी पुरुषों की जीभ स्त्री को देखकर नहीं लपलपाती हैं। जैविकीय आकर्षण स्त्री-पुरुष के वास्तविक संरचना का गुण-धर्म है लेकिन भौतिक जरूरतों के लिए नैतिक बंधन तोड़ देना अन्याय है, ऐसा अन्याय कुछ पुरुष करते हैं लेकिन इस आधार पर पुरुषप्रधान समाज के एक इकाई को दोषी ठहराया जाना उचित नहीं है क्योंकि बहुसंख्य स्त्रियाँ स्त्री का अर्थ पुरुष अंकशायनी ही मानती हैं तथा उन्हें स्त्री-पुरुष समानता बेईमानी लगती है। वे सोचती हैं कि सृष्टि में स्त्री पुरुष की मात्र सृष्टिपूरक रति हैं।
इस पुरुषप्रधान व्यवस्था के लिए सिर्फ पुरुष जिम्मेदार नहीं हैं बल्कि स्त्रियाँ भी जिम्मेदार हैं :
पुरुषप्रधान समाज एक सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था है जिसमें स्त्रियों को मातृसत्ता उन्मूलन के बाद दोयम दर्जे का व्यक्ति समझ लिया गया। उत्पादन के साधनों को पुरुषों ने अपने हाथों में केंद्रित कर लिया। स्त्रियों को चहारदीवारी के भीतर के घरेलू कार्य तक सीमित कर दिया गया। उनके शरीर को सम्भोग की वस्तु के रूप में प्रयोग किया और कालांतर में उनके अंगों-उपांगों को सजाकर प्रस्तुत करने की मानसिकता तैयार की गई। स्त्रियों ने भी अपने अंगों को असेट समझ लिया और अनेक जगहों-अवसरों पर वे अंगों को असेट के रूप में प्रयोग करती हुई पुरुषों को अपने आगे-पीछे नचाती हैं। हालांकि, फिर भी अंततः स्त्रियाँ पुरुष सत्ता के अधीन ही रहती हैं क्योंकि ऐसा स्त्री नेतृत्व में न होकर पुरुष नेतृत्व में ही होता है। स्त्रियाँ ऐसी स्थिति में भी पुरुष की माल (संपत्ति) ही रहती हैं। ऊँचे दामों के चलते उन सम्भ्रांत स्त्रियों को यह पता ही नहीं होता है कि उनसे यह कौन करवा रहा है, क्यों करवा रहा है तथा उसका प्रभाव समाज पर कैसा पड़ता है। यदि कुछ सम्भ्रांत स्त्रियाँ जानती भी हैं तो उन्हें इस बात की किंचिद परवाह नहीं होती है। एक तरह से जानबूझकर स्त्री स्त्री-शोषण में पुरुषों का साथ दे रही है।
आख़िर, ये पुरुष कौन हैं? क्या ये पति, पिता, भाई नहीं हैं? जी, बिल्कुल नहीं हैं। इनकी एक अलग सत्ता है। इनकी एक अलग समझ है। ये अलग व्यवस्था के संचालक हैं। पूँजी ही इनका सब कुछ है। पूँजी ही माँ है, बहन है, बीवी है, बेटी है। इनकी दृष्टि में स्त्री-देह संभोग की वस्तु है और उनके साथ कार्य करने वाली स्त्रियाँ भी अपने शरीर और अन्य स्त्रियों के शरीर का अन्य कोई अर्थ नहीं समझती हैं तथा उन पुरुषों का भरपूर सहयोग करती हैं। दोनों कारोबारी हैं। अधिकतम मुनाफ़ा ही उनका उद्देश्य है।
निश्चित, मनुष्य के रूप में इन मानसिकताओं के लिए हम जिम्मेदार हैं लेकिन पुरुष को आरोपित कर कोई भी स्त्री पुरुषप्रधानता के प्रणाली पर हमला करने में कमज़ोर हो जाती है। इसलिए, प्रणाली के दोषों को उजागिर करना और उस पर हमलावर होना हमारे साहित्य की मुकम्मल जिम्मेदारी है। इस तरह हमारी चेतना का दृष्टिकोण बिल्कुल साफ किया जाना जरूरी है।

आर डी आनंद