मनुष्य जाति से ताल्लुक रखने वाला समस्त स्त्रियों-पुरुषों, इतना तो आप सभी मानेंगे ही कि विज्ञान-टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में हुई अभूतपूर्व प्रगति ने पृथ्वी के संपूर्ण विनाश का भी खतरा उत्पन्न कर दिया है। नाभिकीय हथियारों के जखीरे शक्ति-संतुलन का काम जरूर कर रहे हैं, लेकिन मुनाफे की अंधी हवस कब पागलपन में तब्दील हो जाए, कहा नहीं जा सकता। इजराइल-फिलिस्तीन में बारूद की गंध बिखरी पड़ी है, दोनों ओर से मनुष्य मर रहे हैं जो कि मनुष्यता का साझा नुकसान है।
अधिकतर शिक्षित व साधनसंपन्न मध्यवर्ग से आने वाले अफसरों को हमें क्यों संबोधित नहीं करना चाहिए। विराट शासकीय मशीनरी के एक बड़े हिस्से को अपने पक्ष में विन-ओवर किए बिना व्यवस्था परिवर्तन कैसे होगा? अशिक्षित-कुपोषित जनता खासकर सबसे अरक्षित सेक्शन यानि कि दलित-आदिवासी स्त्रियाँ क्या अकेले अपनी दम पर अपनी व मनुष्यता की मुक्ति की लड़ाई लड़ सकती हैं?
चंदौली में नक्सलियों की एक खुली जुटान में मैंने देखा कि एक पुलिस वाले भाई साहब एक बुजुर्ग औरत के बैठने की व्यवस्था कर रहे थे और आयोजकों को लानत भेज रहे थे। गरज़ यह कि चीजों को ब्लैक एंड वाइट में नहीं देखा जाना चाहिए।
आठ घंटे की नौकरी बजाने वाला, भाँति-भाँति के अंतरविरोधों से युक्त इस दुनिया में अपने बने रहने के लिए संघर्ष करने वाला पुलिसिया निरपवाद रूप से अ-मनुष्य ही है, इस समझ से प्रस्थान करने वालों को क्या कहा जाए?
पहली लड़ाई विचारधारा के क्षेत्र में लड़ी जाती है और यह लड़ाई यथास्थितिवादियों ने जीत रखी है। निजी संपत्ति के खिलाफ कोई जनमत नहीं है। लेकिन, स्त्री के विरुद्ध हुए अपराध के मुद्दे पर कल भाकपा-माले की जनसभा को लेकर पुलिस वालों का रुख पर्याप्त हमदर्दी भरा रहा।
हमारे इलाके में निर्माण मज़दूरों के सबसे निचले संस्तर को 400 रुपये मिलते हैं और वह भी रोज नहीं। नैतिकता वर्ग-निरपेक्ष तो होती नहीं। अगर आप मज़दूर-वर्ग के इस संस्तर के प्रतिनिधि और प्रवक्ता हैं तो आपकी जिंदगी की धुरी इन्हीं के हितों के इर्दगिर्द होनी चाहिए।
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कामता प्रसाद