(१). फूलों का दुःख
” ये फूलों के खिलने का मौसम है
तरह-तरह के रंग उनमें खिल रहे हैं
फैल रही हैं तरह-तरह की खुशबुएँ
मगर फूल दुखी है कि तरह-तरह के इत्रों में सराबोर
नौजवान
तरह-तरह की साजिशें सूँघ रहे हैं।”
(२). हम तेरे वारिस हैं बापू
” बापू !
तुम्हारे देश में पैदा होने का
फ़र्ज़ निभा दिया
तुमने पत्थरों में देशभक्ति जगा दी
हमने देशभक्ति को पथरा दिया
तुमने बीसवीं सदी की राजनीति में
करुणा की नींव रखी तो हमने उसकी
ईंट से ईंट बजा दी
तुम गिराते रहे हो दीवारें
हमने उनको फिर से बनाया
और उनपर तुम्हारी हँसती हुई तस्वीर सजा दी।”
(३). धूप तिजोरी में नहीं रहती
“पाँच दिन हो गए दिल्ली में धूप निकले
बादलों को आसमान घेरे बिना बरसे
आज धूप की बड़ी याद आ रही है
जैसी बाहर वैसी भीतर
उजली की उजली
धूप होती है तो होती है
नहीं तो नहीं
होती है तो सब जगह
नहीं तो कहीं नहीं
होती है तो सबके लिए
नहीं तो किसी के लिए नहीं
हमेशा खिलती और मिलती रहती है धूप
सूरज छिप जाने के बाद भी
एक बार धूप ने बतियाते हुए कहा था-
कहीं भी रह लेती हूँ मैं
गर्मजोशी से मिलते दोस्तों के हाथों में
बेवजह दौड़ते बच्चों के लाल पड़ गए गालों में
फ़ौजियों की चाल में कवियों के सपनों में
फ़कीरों की दुआओं में माँ के दुलार में
लगातार आगे बढ़ती बातचीत में तेज़ होती बहस में
मट्ठी का करारापन और चाय की भाप बन चुकी लपट में
मोहब्बत की कशिश में
छप्पर का रूप लेते तिनकों में
रिक्शेवाले की पसलियों को सर्द हवाओं से बचाते स्वैटर में
धूप ने बताया-कहीं भी रह लेती हूँ मैं
बस! तिजोरी में नहीं रहती।”
(४). परम्परा
” आवाज का मतलब
सिर्फ़ चिल्लाना या मिमियाना नहीं होता
ख़ामोशी का मतलब
सिर्फ सहमत होना या सहम जाना नहीं होता
साँसों का मतलब
सिर्फ़ शरीर को ज़िंदा रखना नहीं है
जीभ का मतलब
सिर्फ़ गालियाँ देना और मिठाइयां चखना नहीं है
पांव नहीं है सिर्फ़ मुलायम गलीचों पर बढाने के लिए
और हाथ नहीं हैं
चंद नपुंसक सुविधाओं में उलझ जाने के लिए
आवाज़ वो
जो द्वार पे सहमें खड़े सुदामा ने सुनी थी
खामोशी वो जो तप करते हुए
पार्वती ने बुनी थी
साँसें वो जो रावण से लोहा लेते जटायु ने ली थी
और जीभ वो
जिसने शबरी के जूठे बेरों में सच्चाई चखी थी
पाँव हरिश्चन्द्र के जो भाषा के लिए
श्मशान तक बढ़ गए थे
और हाथ एकलव्य के
जो गुरुकुल गए बिना भी धनुर्विद्या के महामंत्र पढ़ गए थे
यों तो समय की नदी में घटनाओं के सिलसिले
बहते रहते हैं
पर जो आज को हौसला दे
परम्परा
उसी को कहते हैं।”
(५). बड़े आदमी
“बड़ी रौशनी के रहते
बड़े आदमियों के हाथों में
संस्कृति का बड़प्पन सुरक्षित रहता है
बड़े आदमी अँधेरों में खुलते हैं
तमाम नाखूनों और दाँतों के साथ
बड़े आदमियों के नाखून भी बड़े होते हैं दाँतों की तरह
बफे आदमियों में इतने नाख़ून होते हैं
जितने रोम होते हैं शरीर में
बड़े आदमियों के शरीर में बड़े रोम होते हैं
और हर रोम अस्ल में या तो एक दाँत होता है
या एक नाख़ून
बड़े आदमियों को बड़ी दया करने का शौक होता है
बड़े आदमियों को बड़ा सच बोलने का शौक होता है
बड़े आदमियों को बड़ी ईमानदारी दिखाने का शौक होता है
बड़े आदमियों को बड़ी कुर्बानियाँ देने का शौक़ होता है
बड़े आदमियों को बड़ी सादगी बरतने का शौक़ होता है
बड़े आदमी धीरे धीरे गला रेतते हैं
और चेहरे पर बड़ी ख़ामोशी रखते हैं
बड़े आदमी शाकाहारी हँसी से पहले
दाँतों की बड़ी दरारें साफ़ करते हैं
बड़े आदमी तब तक नहीं गिरत
जब तक धरती पर पड़ी कोई बड़ी चीज न देख लें
बड़े आदमी अकसर इतने छोटे होते हैं साथी
कि बड़ों से बड़ा होता है कोई भी
छोटे से छोटा।”
(६). दैत्य अँधेरा
” दैत्य अँधेरे का
पसरा
धरे टाँग पे टाँग।
मुर्गे पूछ रहे हैं-
‘आका!बोलो कब दें बाँग ? ”
कवि विनय विश्वास का परिचय –
दिल्ली में जन्में कवि विनय विश्वास के अब तक दो कविता संग्रह -” पत्थरों का क्या है ” (2004) और “धूप तिजोरी में नहीं रहती ” (2019) और दो आलोचनात्मक पुस्तकें -” आज की कविता ” (2009) और ” ऐन्द्रिकता और मुक्तिबोध “(2018) प्रकाशित हो चुकी हैं।साहित्यिक कृति सम्मान और परंपरा ऋतुराज सम्मान से सम्मानित कवि विनय विश्वास हिंदी विभाग, कॉलेज ऑफ वोकेशनल स्टडीज, दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।हिंदी के प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में इनकी अनेक कविताएँ प्रकाशित ।
मो.-9868267531