क्या आप आम्बेडकरवादी हैं
बाबा साहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर अपने वाङ्गमय-13 में लिखते हैं कि आर्य कोई जाति नहीं है, न कभी भारत पर आर्य आक्रमण हुआ है और न ही ब्राह्मण कभी उत्तरी ध्रुव व यूरेशिया से आए हैं। आर्य एक भाषा है। इस भाषा को बोलने वाले लोग आर्य कहलाए। इस तरह ब्राह्मण और दलित सभी आर्य हैं, सभी मूलनिवासी हैं।
लेकिन, दलित न जाने कैसा आम्बेडकरवादी है कि बाबा साहब के बातों को नहीं मानता है और कहता है, नहीं! ब्राह्मण विदेशी हैं, उन्होंने भारत पर आक्रमण कर यहाँ के मूल निवासियों को गुलाम तथा हमारी औरतों को रखैल बनाया था।
बाबा साहब डॉ. आम्बेडकर होश संभालते ही 1916 में कोलम्बिया विश्वविद्यालय, अमेरिका में ‘भारत में जातिप्रथा’ नामक एक वृहद प्रपत्र लिखकर गोल्डन वाइजर के सम्मुख गोष्ठी में पढ़ा और आज तक वह आलेख मील का पत्थर साबित हुआ। 1936 में ‘जात-पात तोड़क मंडल’ लाहौर में अध्यक्षीय भाषण देने के लिए डॉ. आम्बेडकर ने एक पेपर लिखा था लेकिन उसके आयोजक, जो आर्य समाज के उग्र मौलिक शाखा के विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के हिन्दू सुधारवादी थे, ने भाषण की अग्रिम नकल माँगी और पढ़ने के बाद भाषण से ‘वेद’ शब्द निकालने का आग्रह किया लेकिन डॉ. आम्बेडकर ने वैसा करने से मना कर दिया इसलिए वह कार्यक्रम रद्द कर दिया गया। बाबा साहब ने इसको पुस्तक की शकल में प्रकाशित किया, बाँटा, लोगों को पढ़ाया, विमर्श किया। बिल्कुल संक्षिप्त में, इस पुस्तक का उद्देश्य था कि जातिप्रथा हमारे लिए अभिशाप है लेकिन मेरे अनेक तरह से चिंतन के बाद भी मुझे लगता है कि जातिप्रथा से लाभ लेने वाले सवर्ण कभी भी जातिप्रथा खत्म नहीं करने देंगे। जातिप्रथा एक अभेद्य दीवार है। इसके चारों तरह पक्के गारे की तरह ब्राह्मण जातियाँ, जो भारत की प्रबुद्ध जातियाँ भी हैं, घेरे बैठी हैं। इसके उपरान्त भी, यदि दलित जातियाँ जातिप्रथा को तोड़ना चाहती हैं तो धार्मिक अवधारणाओं की वाहक इनके धार्मिक पुस्तकों-वेद, पुराण, श्रुतियों और स्मृतियों में डायनामाइट लगा देना पड़ेगा।
लेकिन, दलित आज तक ‘जय भीम-जय भीम’ करता हुआ परछाई पीट रहा है। तथाकथित दलित बुद्धिजीवी अपने मुँह मिया मिट्ठू असली आम्बेडकरवादी कह कर सिर्फ संविधान और आरक्षण के सहारे जिंदा है। दलित वर्ग में कोई जुझारू हलचल नहीं है। अजीब सा संतुष्ट है। कहाँ तो तय यह हुआ था कि जातिप्रथा धार्मिक धारणाओं में है और धार्मिक धारणाएँ धार्मिक पुस्तकों में है इसलिए जातिप्रथा उन्मूलन के लिए आगे आने वाले युवकों को हर हाल में वेदों-पुराणों में डायनामाइट लगाना ही पड़ेगा लेकिन दलितों का यह शिक्षित, संभ्रांत और चिंतक वर्ग कहीं भी इस बात को लेकर आंदोलित (एजीटेट) नहीं है। एक संतुष्टि है, एक चुप्पी है बल्कि भिन्न प्रकार से सोचने वाले दलित साथियों के विरुद्ध फतवा जारी करने के लिए अनेक तथाकथित आम्बेडकरवादी साथी एक साथ आंदोलित हो उठते हैं। यह वर्ग दुश्मन के विरुद्ध नहीं, अपने वर्ग के क्रान्तिकारियों के विरुद्ध है। यदि कोई यह कहे कि नहीं, दलित जातिप्रथा उन्मूलन के लिए दृढ़ संकल्प है तो इन 72 वर्षों में जातिप्रथा उन्मूलन को लेकर कोई क्रांतिकारी संगठन क्यों नहीं बनाया गया? अभी तक न कोई क्रांतिकारी सिद्धांत सुनिश्चित किया गया, न उद्देश्य की एकरूपता पर बात हुई, न चिंतन की एकरूपता पर कोई बात हुई, न कार्यपद्धति की एकरूपता पर बात हुई। जातिप्रथा उन्मूलन के उद्देय को लेकर अभी तक कोई चिंतक, लेखक, नेता पार्टी निर्माण के लिए कोई भी मसौदा (रोड मैप) नहीं तैयार किया गया। दलित वर्ग में बाबा साहब के मुख्य सपने-जातिप्रथा उन्मूलन-के लिए कोई योजना नहीं है। बाबा साहब के इस विषय-विचार पर भी दलित निष्क्रिय है। आखिर, इसे क्या कहा जाय कि दलित बाबा साहेब के इस विचार को भी नहीं स्वीकार कर रहा है? दलित बसपा में है। दलित भीम आर्मी में है। दलित इसी तरह कुछ अन्य संगठनों में भी हैं। ये सभी संगठन जातिप्रथा उन्मूलन नहीं चाहते हैं बल्कि ये सत्ता की राजनीति करना चाहते हैं। सत्ता की राजनीति कोई स्थायी राजनीति नहीं है कि दलित नेताओं द्वारा बना दिए गए कानून स्थाई हो जाएँगे बल्कि कोई भी बहुमत की सरकार अगले सत्र में उसको खत्म कर सकती है। क्या यह सोचना उचित होगा कि डायनामाइट लगाए जाने के डर से दलितों ने डॉ. आम्बेडकर के इस योजना को त्याग दिया है और सदियों-सदियों तक जाति प्रमाण-पत्र बनवाकर आरक्षण पर जीवित रहने वाला कायर प्राणी बन जाएगा?
13 अक्टूबर 1935 में बॉम्बे प्रेसिडेंसी, येओला के दलित वर्ग सम्मेलन में लगभग 10 हजार स्रोताओं के सम्मुख सपथ खाया कि “यह मेरा दुर्भाग्य था कि मैंने अछूत के कलंक के साथ जन्म लिया। हालाँकि, यह मेरी कोई गलती नहीं थी लेकिन मैं हिंदू बना रह कर मरूँगा नहीं क्योंकि यह मेरे वश में है।” बाबा साहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को अपने घोषणा के 21 वर्ष बाद बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। सभी दलित बाबा साहब के इस बात के कायल हैं कि बाबा साहब का बौद्ध धर्म ग्रहण करने का निर्णय वैज्ञानिक था। बौद्ध धर्म दुनिया का सबसे वैज्ञानिक और मानवतावादी धर्म है। सभी बाबा साहब के इस निर्णय और अनुसंधान की प्रसंशा करते हैं।
लेकिन, 99.99% दलित बौद्ध नहीं बनना चाहता है, क्यों? क्या उसे बाबा साहब के अध्ययन में खोट नज़र आता है? अथवा दलित हिंदुओं से डरता है? क्या ऐसा तो नहीं कि दलित घोर अवसरवादी हो गया है और यह दलील देता गया कि जब बाबा साहब वृद्धावस्था मेंबौद्ध धर्म ग्रहण किए थे, तो हम ही क्यों जवानी में बौद्ध धर्म ग्रहण कर अपने नीकशूक जीवन को नरक में डालें और स्वर्णोंक पंगा झेलें। आम्बेडकरवादी दलित यह भी दलील देता है कि हमारे प्रिय मसीहा मान्यवर कांशीराम और हमारी आयरन लेडी और कुशल शासक सुश्री बहन कुमारी मायावती भी तो बौद्ध धर्म नहीं स्वीकार की हैं। होता क्या है दलित इसी दलील के साथ मर जाता गया और अपने जीवन में कभी भी बौद्ध धर्म स्वीकार करके यह नहीं जता पाता है कि वह डॉ. आम्बेडकर का एक वफादार,नैतिक, शानदार, सच्चा आम्बेडकरवादी अनुयायी था। इस तरह आम्बेडकरवादी डॉ. आम्बेडकर के बौद्ध दर्शन पर भी खरा नहीं है।
बाबा साहब डॉ. भीमराव आम्बेडकर अंतरजातीय भोज और विवाह को भी उपयुक्त मानते थे। ऐसा करने से जातिप्रथा में दरार तो पड़ती ही।
लेकिन, दुर्भाग्य से, दलित वर्ग अंतरजातीय विवाह के लिए अभी भी अपने को नहीं तैयार कर पाया है। चमार चमार में, कोरी कोरी में, धोबी धोबी में, खटिक खटिक में, पासी पासी में, भंगी भंगी में ही विवाह प्रबंधन करता है। यहाँ तक कि दलित गैर-उपजाति, अन्य जाति व अन्य धर्म में विवाह प्रबंध नहीं करते हैं बल्कि चमार-कोरी का लड़का किसी वाल्मीकि जाति की लड़की से प्यार कर ले और शादी करके घर लाना चाहे तब तो माँ-बाप वैसा स्वीकार करने से अच्छा आत्महत्या करना पसंद करेंगे। अनेक मुस्लिम अभिनेताओं की बीवियाँ ब्राह्मण लड़कियाँ हैं। अनेक मुस्लिम नेताओं की पत्नियाँ ब्राह्मण लड़कियाँ हैं। अनेक दलित संभ्रांतों की पत्नियाँ ब्राह्मण लड़कियाँ हैं। इस तथ्य का मूल्यांकन कैसे किया जाय? दलित बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया है कि ब्राह्मणों ने अपने छलछद्म से गैर जाति व धर्म के कमाऊ लोगों को अपना दामाद बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। दलित कहता है कि ब्राह्मण बड़े धूर्त और चालाक हैं। दलित मानता है कि किसी भी सम्पन्न दलित को ब्राह्मण लड़कियों से शादी नहीं करनी चाहिए क्योंकि भविष्य में सारा धन उस ब्राह्मण लड़की के हाथों में केंद्रित हो जाता है और किसी स्वजातीय लड़की का हित मारा जाता है। यहाँ दलित ऐसे सम्पन्न दलित से भी अपेक्षा करता है कि वह अपनी स्वजाति न छोड़े क्योंकि गैर उपजाति की लड़की वह न मैनेज करता है औरन दूसरों को मैनेज करने देता है। दलित दूसरों की नकल नहीं करना चाहता गया। इस तरह घूम फिर कर वह स्वजाति के नरक से निकलना नहीं चाहता है। यह बात मैं ब्राह्मण जाति के पक्ष में नहीं कहने जा रहा हूँ लेकिन यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि ब्राह्मणों ने अपनी लड़कियों के लिए स्वजाति में उपजातियों के दरवाजे हमेशा खोले रखे तथा गैर जाति और धर्म के योग्य और संपन्न लड़कों से अंतरजातीय विवाह भी खूब किया है। मैं इसे उनकी चालाकी और हुशियारी मानने को तैयार हूँ तो फिर वही चालाकी और हुशियारी दलित स्वयं क्यों नहीं करता है। ऐसी हुशियारी में आखिर गलती क्या है। किसी योग्य और संपन्न चमार, धोबी, पासी व भंगी से बेटी की शादी करके अमुक दलित की लड़की भी तो उसके सम्पत्ति को अपने वर्चस्व में कैद कर सकने में सक्षम हो जाएगी। लेकिन नहीं, दलितोंमें व्याप्त जातीय जड़ता उसे कहीं का नहीं छोडती है औरन डॉ. आम्बेडकर की बात ही मानने देती है। कोई भी दलित ईमानदारी और फ़क्र से कहे कि वह इस बात पर आम्बेडकर साहब की बात मानता है?
बाबा साहब ने कहा है कि संसदीय व्यवस्था की जान लोकतंत्र है लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि “किसी ऐसे व्यक्ति की बहुत आवश्यकता है जिसमें भारतीयों से यह कहने के लिए पर्याप्त साहस हो कि संसदीय लोकतंत्र से बचिए। यह सर्वोत्तम पद्धति नहीं है जैसा कि वह दिखाई देती है।” (वाङ्गमय खण्ड-18, पेज 96) फिर भी हम इसी संसदीय लोकतंत्र को बेहतर मानकर आम्बेडकर का सपना देख रहे हैं।
लेकिन, दुर्भाग्य देखिए। दलितों की किसी भी पार्टी में लोकतंत्र नहीं है जबकि सबसे अधिक लोकतंत्र का सवाल दलित ही उठाता है। सभी दलित राजनीतिक पार्टियाँ अध्यक्षीय लोकतंत्र का अनुसरण करती हैं। यहाँ तक कि भाजपा में भी लोकतंत्र है। यह बाबा साहब के लोकतंत्र की तौहीन है कि उन्हीं की कौमें उनकी संविधि की ऐसी की तैसी कर दें। दलित राजनीतिक पार्टियाँ तानाशाही शासन पद्धति में यकीन रखती हैं लेकिन जब हमारे जैसे लोग सर्वहारा की तानाशाही की बात करने लगते हैं तो इस कौम को बाबा साहब के लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की याद आने लगती है और दलित रेडिकल चेंज के लिए स्वयं को तैयार नहीं कर पाता है।
बाबा साहब ने कम्युनिज्म को लेकर बहुत जगह पर अंतर्विरोधी बातें कही और लिखी हैं। उन्हीं अंतर्विरोधी बातों के चलते दलित कम्युनिज्म के विरुद्ध व्यवहार करता हुआ डॉ. आम्बेडकर के उद्धरणों को प्रस्तुत करने लगता है और किसी क्रांतिकारी के लिए एक दलित प्रतिक्रियावादी को बाबा साहब के विभिन्न उद्धरणों के काल और परिस्थिति को समझाने में बहुत समय का नुकसान हो जाता है। बाबा साहब ने खंड 17 के पृष्ठ 406 पर लिखा है कि “मैं कम्युनिज्म में बिल्कुल विश्वास नहीं रखता हूँ।” फिर ‘बुद्ध अथवा मार्क्स’ में बाबा साहब बुद्ध और मार्क्स के दर्शन का लब्बोलुबाब एक ही बताया है। उन्होंने कहा है मैं अच्छी से अच्छी व्यवस्था के लिए भी हिंसा और तानाशाही बिल्कुल नहीं चाहता हूँ बल्कि मैं स्वतंत्रता और करुणा पसन्द करता हूँ इसलिए मैं बुद्ध को चुनूँगा। आप सभी को भी इन्हीं दोनों में से किसी एक को चुनना पड़ेगा। इसी कारण संविधान का ड्राफ्ट बनाते समय उन्होंने संविधान के ड्राफ्ट में लिखा कि मैं ‘राजकीय समाजवाद’ चाहता हूँ। संक्षिप्त में,
1) सम्पत्ति का मालिकाना खत्म कर दिया जाएगा।
2) उत्पादन का उद्देश्य लोकहित होगा, मुनाफा कमाना नहीं।
3) जमीन, कृषि, उद्योग, खाद, बीज, बैंक, बीमा इत्यादि का राष्ट्रीकरण कर दिया जाएगा।
4) धर्म को बिल्कुल निजी और घर के अंदर तक केंद्रित कर दिया जाएगा।
5) जाति को लिखना प्रतिबंधित कर दिया जाएगा।
लेकिन, दलित इतने सुंदर संविधान निर्माण के लिए कोई पहल नहीं कर रहा है। आप आत्मालोचना करते हुए सोचिए कि वर्तमान में आप डॉ. आम्बेडकर की क्या-क्या बात मान रहे हैं? अगर नहीं मान रहे हैं तो क्यों नहीं मान रहे हैं? अगर बाबा साहब की बात नहीं मान रहे हैं तो क्यों बड़के आम्बेडकरवादी बनकर दूसरों को गुमराह करते हैं?
यदि आप बाबा साहब डॉ. आम्बेडकर को दिल से प्यार करते हैं तो उनका उद्देश्य, सपना और विचार बिल्कुल ठीक से समझना और जानना पड़ेगा। आखिर क्या है बाबा साहब का सपना?
बाबा साहब का उद्देश्य ही उनका सपना है। वह सपना है जातिप्रथा उन्मूलन। जातिप्रथा को भारतीय परिप्रेक्ष्य में ब्राह्मणवाद कहा जाता है क्योंकि जातिप्रथा के जनक ब्राह्मण हैं। यह है सामाजिक विसंगति। दूसरा सपना है पूँजीवादी व्यवस्था का उन्मूलन। पूँजीवाद की वजह से मालिक और मजदूर अस्तित्व में बराबर बने रहते हैं। मालिक सारी संपत्तियों और संसाधनों को अपने हाथ में केंद्रित रखता है जिससे वह मज़दूरों को मजदूरी पर काम करने के लिए बाध्य करता है तथा उत्पादन से उत्पन्न पूँजी का वितरण मजदूरों में नहीं करता है जिसकी वजह से मालिक निरंतर धनाड्य होता चला जाता गया तथा मज़दूर सम्पत्ति और संसाधनों से महरूम होता चला जाता है।देश के कल कारखाने चंद हाथों में केंद्रित होते हैं तथा जमीन सवर्णों के हाथों में केंद्रित होता है। अधिकतर मज़दूर दलित हैं। दलितों के पास न उद्योग है और न जमीनें। दोनों स्तर पर विपन्न होने के कारण दलितों को खेत मजदूर होने को मज़बूर होना पड़ता है।
इसलिए, बाबा साहब ने कहा कि मेरा सपना है:
1) जातिप्रथा उन्मूलन।
2) पूँजीवाद उन्मूलन।
जातिप्रथा उन्मूलन तब तक संभव नहीं है जब तक जमीनों का राष्ट्रीयकरण न कर दिया जाय क्योंकि दलितों की भूमिहीनता ही दलितों के जीहुजूरी और सवर्णों के सम्मुख समर्पण को बाध्य करता है। जमीनों का राष्ट्रीयकरण तब संभव है जब हमारे देश की व्यवस्था समाजवादी हो जाय और देश की व्यवस्था समाजवादी तब हो सकेगा जब देश के संविधान में समाजवाद अपरिवर्तनीय रूप से पिरोहित कर दिया जाय। यह ऐसा सपना है जो पूँजीवाद के रहते पूरा नहीं किया जा सकता है क्योंकि पूँजीवाद अपने विरुद्ध खड़े हुए किसी भी व्यक्ति, संस्था व देश को परास्त करने के लिए देश से सामंतों, सवर्णों और जमीदारों के उन हिस्सों को लगा देता है जो उद्दंड और दुःसाहसी होते हैं। इसके उपरांत पूँजीवाद के पास सत्ता, सरकार, पुलिस, मिलिट्री, विधायिका भी है। जब भी देश के दलित अपने हक की माँग करेंगे, वे सवर्णों और दुष्टों का प्रयोग कर धराशायी कर देंगे इसलिए दलितों को क्रांतिकारी होना पड़ेगा तथा जितना भी संभव हो अन्य जातियों के शोषितों को भी साथ लेने के लिए कन्विंस करना पड़ेगा। व्यक्तिगत सम्पत्ति और संसाधनों का राष्टीयकरण करने के लिए पूँजीवाद और ब्राह्मणवाद विरोधी समाजवादी क्रांति करनी होगी।
अर्थात डॉ. आम्बेडकर का सपना है:
राजकीय समाजवाद।
क्योंकि, अन्य सभी सपने तभी पूरे होंगे जब समाजवाद स्थापित हो जाएगा। दलित समाज बाबा साहब बाबा साहब और जय भीम जय भीम चिल्लाता रहे और ब्राह्मणों के विरुद्ध घोर कट्टर रहे तो भी आखिर क्या फायदा होगा। हम सिर्फ उसके सम्मुख एक अलग राष्ट्र के रूप में खड़े रहेंगे अर्थात हमारे संघर्ष की अपरिणति स्थित बनी रहेगी जबकि दलितों का कर्तव्य है कि वह युद्ध करके युद्ध की स्थित खत्म कर ले और सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा सर्वहारा की तानशाही द्वारा परास्त राष्ट्र को उसके शोषणमूलक व्यवस्था को पुनः पनपने न दे। यही नहीं संविधि और सर्वहारा की तानाशाही के सहारे जातिप्रथा, ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद से उत्पन्न सभी विकृतियों को बलपूर्वक दबाया जाना चाहिए।
लेकिन, इस अवस्था के लिए समाजवाद चाहिए किन्तु संसदीय लोकतंत्र के रहते संविधि द्वारा संविधान में समाजवाद फिक्स नहीं किया जा सकता है। बाबा साहब क्रांति द्वारा समाजवाद लाने के बिल्कुल पक्ष में नहीं हैं। वे बहुत स्पष्ट कहते हैं, समाजवाद चाहे जितना भी बढ़िया क्यों न हो मैं खून-खराबे के द्वारा लाए जाने के पक्ष में कदापि नहीं हूँ। समाजवाद की स्थापना के लिए स्वतंत्रता को तिलांजलि देकर सर्वहारा की तानाशाही स्थापित नहीं किया जा सकता है क्योंकि स्वतंत्रता एक बहुत बड़ी उपलब्धि है।
बाबा साहब का अंतिम निर्णय है:
संसदीय लोकतंत्र सहित राजकीय समाजवाद।
संसदीय लोकतंत्र सहित राजकीय समाजवाद का सपना पूँजीवाद के अस्तित्व में रहते कभी नहीं पूरा हो सकता है इसलिए पूँजीवादी विरोधी समाजवादी क्रांति ही एक रास्ता है। डॉ. आम्बेडकर क्रांति और सर्वहारा की तानाशाही को लेकर बहुत बड़े असमंजस में हैं। हमें उनके असमंजस से निकलना पड़ेगा। दलितों को अपने पूर्ण संज्ञान और ईमानदारी से समाजवाद की प्राप्ति के लिए अपनाए जाने वाले रास्ते पर विमर्श कर सुनिश्चित होगा। भारत इतना उलझा हुआ देश है कि बिना क्रांति के वर्तमान व्यवस्था में बहुमत द्वारा संविधि में कोई ठोस व स्थाई परिवर्तन नहीं किया जा सकता है और न ही स्वतंत्रता के अनुधिक विचारधारा से पारंपरिक अवस्थाओं के स्थान पर विज्ञान को ही लागू किया जा सकेगा इसलिए सर्वहारा की तानाशाही की जरूरत पड़ेगी।
आर डी आनंद
15.10.2021
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