साथियों,
कोरोना महामारी अपने साथ बहुत सी तकलीफें ले आई और साथ में उसने हमारे समाज के उन अंधेरों को भी उजागर कर दिया, जिस पर लंबे समय से पर्दा पड़ा हुआ था। पूरे समाज के लिए हर तरह का सुख- संसाधन जुटाने वाले करोड़ों श्रमिकों की वास्तविक जिंदगी पूरे समाज के नजरों से एक तरह से ओझल थी। ये हाड़- मांस के बने श्रमिक,जो सपने भी देखते थे, जिनके इंसानी सुख-दुख थे, वे हमारे चारों ओर मौजूद होकर भी अदृश्य रहते थे। हमारे समाज, हमारी शिक्षा प्रणाली और हमारी सरकारों की दृष्टि कितनी विकृत और बीमार हो चुकी है कि हमारे अस्तित्व का हर पल जिन लोगों के श्रम का मोहताज है हम हर समय उन्हें सामाजिक जीवन के हाशिए की ओर धकियाते रहते हैं और इसे ही सभ्यता का नाम देते हैं ।सभ्यता के मुखोटे में चौतरफा असभ्यता, क्रूरता का राज है।
सभ्यता के इस मुखोटे को तार-तार करते हुए देशभर के करोड़ों कामगारों ने पिछले दिनों देश की हर सड़कों- पगडंडियों पर पैदल चलते सायकिलों, ऑटो, ट्रैक्टर, ट्रकों में सामानों की तरह लदकर भूखे-प्यासे पूरे समाज की निष्ठुरता को अपने बच्चों के साथ अपने कंधों पर लादे यात्रा करते अपनी- अपनी उपस्थिति और अपराजेयता का एहसास कराया। सवाल यह है कि यह एहसास, यह मानवीय त्रासदी हमारी सामूहिक चेतना को किस तरह प्रभावित करती है और हम किस तरह इसे अपने स्मृतियों में संजोकर एक नए सभ्य समाज बनाने के लिए संकल्पबद्ध होते हैं। इस त्रासदी को भुला देने की हर कोशिश हमारे समाज को और विकृत करेगी, विषाक्त करेगी और इसका खामियाजा कम से कम उन सभी को भुगतना पड़ेगा जिनकी आजीविका का जरिया उनका शारीरिक और बौद्धिक श्रम है, चाहे कम कमाए या अधिक। श्रम और श्रमिक की इंसानी जरूरतों और सम्मान को इतना नीचे गिराना पूरी मानवता का पतन है क्योंकि समाज का यह वह हिस्सा है जिस के हित और पूरे मानव जाति के वास्तविक हित एक हैं। इस हिस्से के हितों की अवहेलना करके किसी किस्म के विकास की बात करना, मनुष्यता की बात करना एक पाखंड है। हम सभी को अपने निजी और सामाजिक जीवन में मौजूद इस पाखंड के खिलाफ युद्ध में उतरना है।
कामगारों की वापसी की इस पूरी परिघटना का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि इस पूरी यात्रा के लिए सरकार, प्रशासन, न्यायपालिका, पुलिस आदि किसी के सामने प्रार्थना पत्र नहीं दिया। वह अपने अनुभव से जानते थे कि इन की हकीकत क्या है और आम नागरिकों के लिए कानून का क्या मायने है, वह सिर्फ यह चाहते थे कि ये लोग कोई अड़चन ना पैदा करें तो यही बड़ी बात होगी। लेकिन अड़चन पैदा किया गया और इससे बचने के चक्कर में तमाम कामगारों की जानें गई। हां इन कामगारों ने समाज पर भरोसा जरूर किया और पूरे रास्ते भर संवेदनशील नागरिकों, सामाजिक- धार्मिक संस्थाओं ने क्षमता भर मदद की। यह सामाजिक मदद भी हुक्मरानों को काफी नागवार लगी और तमाम लोगों के खिलाफ मुकदमे भी दर्ज कराए गए, कई समाजसेवियों को जेल भी भेजा गया। इससे तो ऐसा लगता है कि कामगारों की यह आजाद सोच और नागरिकों की उनसे बढ़ती सहानुभूति से उनके अहंकार को चोट पहुंची और वे कामगारों को सबक सिखाने पर उतर आए ताकि भविष्य में कोई बड़ी चुनौती ना पैदा हो। लेकिन एक तरह से देखा जाए तो कामगारों की ओर से चुनौती तो दे ही दी गई है, अब सवाल है कि अगला कदम क्या हो?
कामगारों की वर्गीय एकता में दरार डालने के लिए वापस लौटते लोगों को प्रवासी कहा गया। ठीक उसी तरह जैसे नागरिकों की एकता में दरार डालने के लिए सिर्फ हिंदू- मुस्लिम, दलित-सवर्ण ही काफी नहीं था और इससे आगे बढ़ते हुए नागरिक, अनागरिक, शरणार्थी, घुसपैठिया आदि का नया वर्गीकरण पूरे देश पर थोपा जा रहा है। इन नए तौर-तरीकों से आज का हर नागरिक देश की भ्रष्ट, नकारा और जालिम नौकरशाही के शिकंजे में आ गया है और इस तरह से हर तरह के जन आंदोलन आदि सभी इस हुकूमत के निशाने पर हैं। इसका एक सीधा सा अर्थ है कि राज्य-सत्ता के गलियारों में काफी कुछ इस हद तक बिगड़ चुका है कि वह जन आंदोलन का एक छोटा सा भी झटका नहीं झेल सकती है। दमन की खुली नीति उनकी ढाल है । महत्वपूर्ण बात यह है कि यह स्थिति सिर्फ कोरोना महामारी की वजह से नहीं है, चीजें इसके पहले ही काफी बिगड़ चुकी थी और बीमारी ने इसे वेंटिलेटर पर पहुंचा दिया है। ऐसी स्थिति में हमें अपने से और अपने समाज से उम्मीद करना सीखना होगा। नई राह निकालने के लिए आगे आना होगा।
इस सवाल को कई तरीके से लिया जा सकता है। एक तरीका तो ट्रेड यूनियनों का तरीका है जिसमें हम सरकार से अपने आर्थिक अधिकारों एवं अन्य सुविधाओं की मांग करते हैं। दूसरा तरीका यह हो सकता है कि हम समस्या को एक राजनीतिक सवाल के रूप में देखें। इससे यह बात निकलकर आएगी कि मौजूदा व्यवस्था में हमें अपने सामाजिक-आर्थिक जीवन को बेहतर बनाने की कितनी आजादी है? यदि हमारी राजनीतिक भूमिका को सिर्फ वोट डालने तक सीमित कर दिया गया है और इसके आगे सोचने-करने को बगावत के रूप में देखा जाता है तो निश्चित तौर पर यह लोकतंत्र किसी और के हित में हो सकता है लेकिन हमारे हित में नहीं। वास्तव में लोकतंत्र के वास्तविक स्तर को जानने का एक आसान तरीका यह है कि इसमें मौजूद पुलिस, अफसर शाही और न्यायपालिका का हम कामगारों के प्रति क्या नजरिया और आचरण है। किसी भी नागरिक के जीवन में लोकतंत्र इन्हीं संस्थाओं के मार्फत मूर्त रूप ग्रहण करता है। इन मापदंडों पर यदि हम देखें तो भ्रम के बादल छंट जाते हैं और एक राह दिखने लगती है।
निश्चित रूप से वेतन, काम के घंटों, सामाजिक सुरक्षा, स्थाई रोजगार आदि का सवाल बेहद जरूरी है, लेकिन जब सरकारें ना तो खुद कुछ कर पा रही हैं और ना ही हमें करने दे रही हैं तो आसान बात तो यही होगी कि हमें स्वयं अपने लिए, अपने वर्ग के लिए और पूरी मानवता के लिए करने की आजादी को मुद्दा बनाए। सरकारों को बदलने का प्रयोग हमने बहुत किया है और उसे आगे भी करना है क्योंकि इस लोकतंत्र में यही हमारे हाथ में है, लेकिन हमारे हाथों में और कुछ करने का भी अधिकार हो यह भी हमें सोचना होगा।
सरकारें तो निर्वासित श्रमिकों के लिए कुछ नहीं कर पायीं, यह हम सभी ने देखा। अपने अनुभवों से हम यह भी जानते हैं कि वह भविष्य में भी कुछ नहीं करेंगी । लेकिन यदि देश के श्रमिक संगठनों, नागरिक संगठनों को इसकी जिम्मेदारी दी गई होती तो क्या इन निर्वासित लोगों को इतनी तकलीफें और अपमान झेलनी पड़ती? यह कौन सा तरीका है कि यदि मदद करना चाहते हैं तो सरकारी राहत कोष में दान दें ताकि वह कमीशनबाजी की भूलभुलैया से गुजरते हुए काफी समय बाद आधे- अधूरे रूप में पीड़ित तक पहुंचे। यहां पर कहने का अर्थ यह है कि आज हम विकास या विनाश की जिस मंजिल पर हैं, वहां पर हमें श्रमिक संगठनों, नागरिक संगठनों, मानवाधिकार संगठनों, नारी संगठनों, पर्यावरण संगठनों, किसान संगठनों आदि के लिए नई सामाजिक-राजनीतिक भूमिका के अधिकारों की मांग के साथ मैदान में आना पड़ेगा। यह लोकतंत्र की दिशा में कदम बढ़ाना होगा ।
व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई का सामान्य अर्थ है हर नागरिक के लिए सोचने, व्यक्त करने और अमल करने की आजादी की लड़ाई। लेकिन इसके लिए हमें पहले स्वयं नागरिक बनना होगा, अपने संकीर्ण दायरे से आगे बढ़कर पूरी श्रमिक जनता के साथ और फिर पूरी मानवता के साथ आत्मिक तौर पर जुड़ाव पैदा करना होता है। मानव जाति के विभिन्न समूहों के बीच स्वार्थी राजसत्ता द्वारा जो दुश्मनी पैदा की जाती है, हमें उसके प्रभाव से मुक्त करके एकता और सद्भाव की बात करनी होगी।
स्वयं कुछ करने की बात करने का अर्थ है याचक की भावना से मुक्त होना, स्वयं का स्वयं से हुए अलगाव को खत्म करने की दिशा में आगे बढ़ना, वस्तुओं की गुलामी से आजाद होना और भौतिक संपदा की जगह स्वयं मनुष्य को अपने जीवन का लक्ष्य बनाना ।इस बात को समझना कि हमारी पराधीनता का कारण जितना मनुष्य नहीं उससे अधिक वस्तुओं की सत्ता है, वस्तु-पूजा है, पैसे की पूजा है। हमें अपनी क्रियाशीलता को पूंजी की गुलामी से आजाद करके स्वयं को और इसके जरिए पूरी मानवता को आजाद करने का जरिया बनाना होगा। मनुष्य की क्रियाशीलता की यही प्राकृतिक भूमिका है।
मनुष्य का एक जगह से दूसरी जगह आप्रवास (माइग्रेशन) उसकी इसी क्रियाशीलता की अभिव्यक्ति है और इसी के बल पर बड़ी-बड़ी सभ्यताएं निर्मित हुई हैं और आज वह समुद्र की गहराई , आसमान की ऊंचाई को नापने लायक बना है। यही क्रियाशीलता जब मजदूरी में बदल दी जाती है, तो उसकी वही हालत होती है जो हम आजकल उसके दारुण निर्वासन और चरम बेबसी के रूप में देख रहे हैं। वह हर उस जगह से बेरहमी से निष्कासित कर दिया जाता है जहां पर उसका खून पसीना बहा होता है। मनुष्य का मजदूर में बदलना ही उसके जीवन का सबसे बड़ा श्राप बन जाता है। इसलिए, मुख्य सवाल इस श्राप से मुक्ति पाने का है, पुनः मनुष्य का दर्जा हासिल करने का है। एक आजाद मनुष्य की क्रियाशीलता के रूप में उसका श्रम उसे उस गरिमा और सम्मान का हकदार बनाएगा जिसकी तलाश में वह सदियों से भटक रहा है, ठोकरें खा रहा है। हमें यह याद रखना चाहिए कि लाखों रुपए के वेतन के एवज में काम करने के बावजूद भी, तमाम सुख-सुविधाओं के बावजूद भी हम गुलाम ही कहलाएंगे। इसलिए इस मुक्ति संघर्ष में हर तरह के श्रमिकों को एक साथ आना होगा।
तीन महीने के लॉकडाउन ने देश के श्रमिकों, कामगारों, बेरोजगारों, किसानों के जीवन में क्या तबाही पैदा की है इसे आज शब्दों में नहीं बयान किया जा सकता है। तबाही का यह सिलसिला पिछले कई वर्षों से लगातार बढ़ता जा रहा था और हर बात को महामारी के मत्थे नहीं मढ़ा जा सकता।हां, महामारी ने सरकारों को उस आर्थिक संरचना को पूरी तरह भंग करने का अवसर दे दिया जिसमें श्रमिकों के हितों-अधिकारों पर बात करने की जगह बची थी। यह बात करने का अधिकार भी वे खत्म करना चाहते थे। यही नहीं इस अधिकार को पूरे नागरिक जीवन से भी खत्म करना चाहते थे। क्योंकि अब उनकी अर्थनीति में अब श्रम करने वालों को मनुष्य और नागरिक समझने की सोच ही नहीं बची, तो मानव अधिकारों की बातों का कोई अर्थ नहीं रह गया है। सच तो यह है कि हम खुद को कुछ भी समझे, वह हमें मनुष्य मानते ही नहीं, और इस प्रक्रिया में उनका भी अमानवीयकरण अपने चरम पर पहुंच चुका है। हमें इस अमानवीयकृत दुनिया में अपनी आजादी की राह निकालनी है, उनकी बर्बरता से जूझते हुए आगे बढ़ना है।
एक समय ऐसा भी था कि कोई भी कारखाना लगाने के साथ श्रमिकों के रहने के लिए मकान भी बनवाना जरूरी था, हर परिवार के लिए अलग-अलग। और भी तमाम आवश्यकताओं के लिए पूरी व्यवस्था करनी पड़ती थी, श्रमिकों की नौकरी से जुड़े सभी सवालों पर स्पष्ट नियम बनाने और लागू करने पड़ते थे आदि। पूंजीवादी विकास के साथ यह सारी चीजें खत्म होती गई और श्रमिक मनुष्य के स्तर से पूरी तरह गिराकर एक कमोडिटी (गुलाम) बना दिया गया। हम उन भयावह परिस्थितियों की कल्पना करें कि कैसे एक छोटे से कमरे में दसियों श्रमिक एक साथ रहते हैं, पचासों श्रमिकों के बीच एक साझा और बेहद शर्मनाक किस्म का शौचालय होता है। चारों तरफ बदबूदार नालियों और कूड़े का जाल बिछा होता है, जो बरसात में कहर बनकर तमाम श्रमिकों के बच्चों का जीवन लील जाता है। असंगठित और अनौपचारिक कहे जाने वाले क्षेत्रों में कहीं पर 12 घंटे से कम की ड्यूटी नहीं है और संगठित क्षेत्र में ओवरटाइम के नाम पर यही काम के घंटे हैं। मजदूरी इतनी कम है कि हर व्यक्ति बाध्य है अपनी क्षमता से अधिक समय तक काम करने को,सामाजिकता के लिए समय ही नहीं बचा किसी के पास। इस महामारी के दौरान सत्ता के मनमानी तरीके से लिए गए फैसलों ने इतना काम तो जरूर किया कि करोड़ों श्रमिकों की नारकीय और उपेक्षित जिंदगी को पूरी दुनिया के सामने नंगे रूप में ला दिया। हम जानते हैं कि इस दृश्य से विकास के उन्मादी प्रवक्ताओं को जरा भी शर्मिंदगी नहीं महसूस होगी, फिर भी यह सच्चाई जो अब सामने आ गई है वह पूरे श्रमिक वर्ग को उद्वेलित अवश्य करेगी विकास का यह नया मॉडल अब किसी काम का नहीं रहा इसे सभी समझ चुके हैं, चाहे किसी पाले में खड़े हो।
देश की बहुत बड़ी आबादी जो तरह-तरह के सामाजिक जरूरतों के कामों के जरिए दो वक्त की रोटी कमाती थी, वह पूरी तरह तबाह हो गयी। ठेला, गुमटी, खोमचा और फेरी लगाकर समान बेचने वाले, छोटे-छोटे स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक, ओला-उबर के ड्राइवर, सेल्समैन ,सुरक्षा गार्ड ,तरह-तरह के सेवा कार्य से जुड़े लोग, रेलवे, बस स्टेशनों के सहारे कुछ करके पेट पालने वाले लोग, ऑटो चलाने वाले, रिक्शा और बैटरी रिक्शा वाले आदि की एक लंबी सूची है। इनके श्रम के बिना कोई समाज नहीं चल सकता। यह करोड़ों की संख्या में तबाह हुए हैं। शिक्षित बेरोजगारों को तो आज कोई मुफ्त में भी नहीं पूछ रहा है।
इस हाल में सरकार के पास दो तरह की राहत कार्यक्रम है। अमीरों के लिए टैक्स छूट, कर्ज माफी, सब्सिडी और बेलआउट पैकेज लेकिन कामगारों, श्रमिकों, किसानों जैसे लोगों के एक हिस्से के लिए कैश ट्रांसफर द्वारा थोड़े से रुपयों का दान और मुफ्त राशन कार्यक्रम। पूरी योजना में इस बात की जरा भी कोशिश नहीं की गई कि लोगों के वेतन या कमाई जिससे उनका परिवार चलता था उसके एक हिस्से की ही सही भरपाई की जाए, इस दौरान कम से कम किया जा सकता था। इस मेहनतकश जनता से जो लगातार सरकारी वसूली होती रहती है उसमें थोड़ी राहत दे दी जाए।टैक्सी वालों से फिक्स्ड रोड टैक्स,निजी काम वालों से फिक्स्ड बिजली चार्ज, किसानों से बिजली -खाद- बीज के नाम पर की जाने वाली वसूली या फिर शहरों में काम करने वाले श्रमिकों को मकान किराए का भुगतान। हम सभी जानते हैं कि तमाम तरह के टैक्स चाहे वह किसी नाम से जाने जाएं, उनका प्राथमिक सोर्स श्रमिकों, कर्मचारियों, किसानों, पेशेवरों आदि का उत्पादक श्रम ही होता है। जो श्रम मुनाफे का जरिया है, वही हर तरह के टैक्स का भी। इसलिए जब भी अर्थव्यवस्था संकट में पड़ती है,तो उसका बोझ भी इसी समूहों पर डालने की कोशिश होती है। इस आपदा के दौर भी बुनियादी तौर पर यही हो रहा है। बेहतर तो यही होता कि यदि पूंजीपतियों- कारपोरेटों को टैक्स, ब्याज में छूट और बेल आउट पैकेज दिया जा रहा है तो ऐसा श्रमिकों- किसानों के लिए क्यों नहीं हो सकता। या तो, सरकार यह घोषित करे कि वह श्रमिकों-किसानों को बराबर का नागरिक नहीं मानती, संविधान में चाहे जो भी लिखा हो। पहले तो आप अपनी गलत नीतियों से लोगों को भीख मांगने वाले के स्तर पर लाइएं फिर उन्हें कुछ किलो अनाज और भोजन बांट कर वाह-वाही लूटिये,यह कब तक चलेगा? इसलिए मुख्य सवाल है देश की मेहनतकश जनता से होने वाली वसूली रोकना और उन्हें काम करने का अवसर उपलब्ध कराना।
इस कठिन स्थिति में हमें कुछ फैसले करने होंगे। करोड़ों श्रमिकों की इस दीन-हीन और जिल्लत भरी यात्रा को देखने के बाद भी क्या हमारे दिल दिमाग में अभी भी यह उम्मीद बाकी है कि विकास के इस आर्थिक मॉडल में हमारे लिए कुछ जगह बची हुई है? सच तो यह है कि यह पूरी परिघटना यह संकेत करती है कि देर सबेर यही देश की पूरी श्रमिक जनता और गांव के गरीबों का भविष्य है। हमारा देश इस लक्ष्य की पूर्ति में एक विपक्ष विहीन, प्रश्न विहीन लोकतंत्र की ओर धकेला जा रहा है। पूरा सरकारी तंत्र सर्वसत्तावाद के सेवा में लगाया जा चुका है। हर दिन विरोध की आवाज का गला घोटने के नए-नए कीर्तिमान बनाए जा रहे हैं। इस प्रक्रिया में देश की बहुसंख्यक मेहनतकश जनता और उसके देश का सब कुछ दांव पर लगा है। हम देख रहे हैं कि किस तेजी के साथ देश को बेचने का काम चल रहा है। रेल, कोयला, तेल, रक्षा-उत्पादन, बीमा, बैंक आदि की एक लंबी सूची है, जो देश की आत्मनिर्भरता के संकल्प और शक्ति का आधार है। यह एक सामाजिक, आर्थिक, वैचारिक, शैक्षिक बदलाव का एक कंपलीट पैकेज है। इसलिए हमारी लड़ाई भी एक वैकल्पिक कंप्लीट सोच और कार्यक्रम की मांग करती है। इसके लिए हमें अपने काम करने के क्षेत्र के हितों के दायरे से आगे बढ़कर पूरे श्रमिक वर्ग के एकीकृत हितों से जुड़ना और सोचना होगा। वर्गीय सोच हमारी पहली जरूरत है और हमें इंसानी सोच की दिशा में आगे बढ़ना है।
इस संदर्भ में हमें उन मांगों पर अधिक जोर देना होगा जो पूरी श्रमिक जनता के आम हितों से जुड़ी हैं और हमारी सोच को एक नई मानवीय दुनिया के गठन की ओर ले जाती है। जिस पुरानी दुनिया की संरचना को मौजूदा सत्ता द्वारा नष्ट किया जा रहा है, उसमें हममें से मुश्किल से 5-10 प्रतिशत लोगों को थोड़ी बेहतर आर्थिक सुविधाएं प्राप्त थी। श्रमिक आबादी के 90% से अधिक लोगों के लिए पहले भी अघोषित गुलामी थी और आज भी है। उदाहरण के लिए निजीकरण के विरोध का नारा हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हो सकता है, लेकिन पूरी श्रमिक जनता के लिए उसका कोई महत्व नहीं हो सकता। लड़ाई हमें पूरी मेहनतकश जनता के बल पर लड़नी है, इसलिए हमें सबके लिए एक सम्मानजनक मानवीय जिंदगी की बात से शुरुआत करनी होगी अर्थात श्रमिक आंदोलन को सरकारी श्रमिको के नजरिए से देखने की जगह पूरे वर्ग की नजर से देखना होगा । मौजूदा राजसत्ता के साथ देश की पूरी श्रमिक आबादी के साथ जो करार था आज उसकी जगह पर एक नए करार की मांग के साथ हमे सामने आना होगा। पुराने सामाजिक-आर्थिक संबंधों को खारिज करते हुए हमें एक नए सामाजिक समझौते की बात शुरू करनी होगी जिसमें पूरी श्रमिक जनता अपना बेहतर भविष्य देख सकें।
आज की बहुसंख्य श्रमिक आबादी जिस अमानवीय परिस्थितियों में रहने को मजबूर है, जिस अमानवीय आय पर गुजर-बसर करती है, जिस तरह शिक्षा और स्वास्थ सुविधाओं से दूर है आदि, हमें इसे मुद्दा बनाना होगा। हर मेहनतकश की मानवीय गरिमा के साथ जीने की आकांक्षा स्वर देना होगा। हमें श्रमिक जनता के बड़े हिस्से की सामान्य जरूरतों के प्रति सरकार की पूर्ण उपेक्षा की नीति के खिलाफ सबसे पहले बोलना होगा तभी हमारे लिए किसी वर्गीय या राजनीतिक कार्रवाई की बात करना संभव होगा। अपने वर्ग में मौजूद हर तरह की असमानता का फायदा उठाने की दृष्टि हमें हमेशा पूंजीवादी राजनीति का पिछलग्गू बनाए रखेगी और हमारी वर्गीय एकता को तोड़ती रहेगी। असल में इन बुनियादी सवालों को दोयम दर्जे का बनाए रखना ही यह साबित करता है कि देश के श्रमिक आंदोलन में आम श्रमिक जनता की कोई भागीदारी नहीं है और सबसे अधिक सुविधा-प्राप्त श्रमिक कर्मचारियों का उसमें वर्चस्व है। ऐसे में यह बड़ी आबादी यदि पूंजीवादी पार्टियों के पाले में चली जाती है तो उसमें इन का क्या दोष है?
सवाल तो यह भी उठता है कि आखिर कब तक हम श्रमिक वर्ग की स्वतंत्र सक्रियता को 1926 के ट्रेड यूनियन एक्ट के दायरे में बांधे रहेंगे, जोड़-तोड़ करके पंजीकरण कराने के लिए मजबूर बने रहेंगे और छोटे-छोटे सवालों को लेकर कोर्ट कचहरी का चक्कर काटते रहेंगे? एक वर्ग के रूप में संगठित होने का एक आधुनिक लोकतंत्र में क्या अर्थ और भूमिका होगी? यदि संगठित होने से हमें कोई राजनीतिक अधिकार नहीं मिलता या उसे गैरकानूनी माना जाता है, तो सबसे पहले इस बाधा को तोड़ने की बात करनी होगी। एक वर्ग के रूप में संगठित होने का अर्थ ही है उस वर्ग के समस्त आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक आदि सवालों पर बोलने का पूर्ण अधिकार। उस वर्ग के हर तरह के उत्थान के लिए काम करने की पूरी आजादी। हमें अपने संगठन और पहल-कदमी को सत्ता के नियंत्रण से मुक्त करना है ताकि सामाजिक जीवन के हर पहलू पर हम अपने वर्ग के हितों के हिसाब से सोच सके और बोल सके।
हमें यह याद रखना चाहिए कि आज के युग में श्रमिक वर्ग ही एकमात्र ऐसा वर्ग है जिसके सभी प्रकार के हित पूरे समाज के हितों के कहीं भी खिलाफ नहीं है लेकिन बाकी शोषित-पीड़ित वर्गों के संदर्भ में ऐसा नहीं है इसलिए शुरुआत श्रमिको की ओर से ही होगी। पूंजीवादी राज-सत्ता की हमेशा यह कोशिश रहती है कि श्रमिक वर्ग और समाज के हितों को इस रूप में ही रखने की इजाजत दी जाए कि उनके बीच विरोधाभास प्रकट रूप से दिखती रहे, और पूरे समाज की सहानुभूति से श्रमिक वर्ग को वंचित रखा जाए। हमें अपनी बातों को ठीक इस तरह से रखना होगा कि यह साफ दिखे कि श्रमिकों की मुक्ति के सवाल में सभी शोषित-वंचित वर्गों की मुक्ति निहित है, पूरे समाज की प्रगति निहित है।
यही वो रास्ता है जिस पर चलकर श्रमिक जनता के सवालों को ठोस जनसमर्थन और नई मान्यता मिलेगी क्योंकि अब यह पूरी मानवता की मुक्ति का सवाल बन जाता है। मौजूदा निजाम में आज हर ईमानदार और मेहनती व्यक्ति बदलाव चाहता है ताकि वह एक नेक और अर्थपूर्ण जिंदगी जी सकें। इस निजाम ने नेकी और सच्चाई के साथ जीने का हर रास्ता बंद कर दिया है और यह पूरे समाज की पराजय है। इस स्थिति को श्रमिक शक्ति के बल पर ही पलटा जाएगा और श्रमिक वर्ग एक शक्ति तभी बनेगा जब वह अपनी संवेदना को व्यापक बनाएगा, वस्तुओं और पैसों की सत्ता के ऊपर इंसानियत की वरीयता कायम करने की ओर कदम बढ़ाएगा।
यहां पर हमें यह ध्यान रखना होगा की तमाम तरह के सामाजिक-रचनात्मक कार्य भी हमारे आंदोलनात्मक कार्य का अनिवार्य हिस्सा हैं। धरना-प्रदर्शन ही पर्याप्त नहीं है, हमें इसे निरंतर चलने वाले सामाजिक और रचनात्मक कार्यों से जोड़ते हुए आगे बढ़ना है। यह काम इसलिए भी जरूरी है कि अंततः हमारा मकसद एक नई दुनिया और नए मनुष्य का निर्माण है । इसके लिए बहुआयामी कार्यों में हमें लगने की सोच बनानी होगी।आंदोलन की एक रेखीय परिभाषा से मुक्ति पानी होगी। इसी से सामाजिक बदलाव के काम में सभी की भूमिका बनेगी और सब मिलकर एक बेहतर भविष्य का निर्माण करेंगे।
-ओ पी सिन्हा, नरेश कुमार, होमेंद्र मिश्रा,राधे श्याम यादव,ऑल इंडिया वर्कर्स काउंसिल, लखनऊ। जुलाई 2020