नक्सलबाड़ी सशस्त्र किसान आंदोलन के 53वीं वर्षगांठ पर डीयू के छात्र संगठन ‘भगत सिंह छात्र एकता मंच’ के फेसबुक पेज से 26 मई 2020 को ‘नक्सलबाड़ी और वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति’ विषय पर स्वतंत्र पत्रकार व लेखक रूपेश कुमार सिंह द्वारा अपनी बात रखी गयी। आज सरकार की दमनकारी नीति द्वारा जिस तरह से नक्सलबाड़ी की विरासत को बचाने वाले असली वारिसों पर सुनियोजित हमला किया जा रहा है, आदिवासियों-मूलवासियों का जबरदस्त दमन हो रहा है, सर उठाने वालों को आंतरिक खतरा बताया जा रहा है, ऐसी स्थिति में ऐसे विचार-विमर्श बहुत मायने रखते हैं। आज की परिस्थिति में इसके महत्व को देखते हुए इसे यहां हूबहू प्रस्तुत किया जा रहा है।
प्रस्तुतिः
इलिका प्रिय
सारे साथियों को इंकलाबी सलाम,
साथियों, वरवर राव जो एक प्रसिद्ध क्रांतिकारी कवि हैं और आज राजकीय दमन के शिकार होकर मुंबई के जेल में रह रहे हैं। मैं, उनकी एक कविता है ‘‘नक्सलबाड़ी’’ उस कविता की कुछ पंक्तियों से आज की चर्चा शुरू करूंगा।
लकीर खींचकर जब खड़ें हो
तब मिट्टी से बचना संभव नहीं
नक्सलबाड़ी का तीर खींचकर जब खड़ें हो,
मर्यादा में रहकर बोलना संभव नहीं
आक्रोश भरी गीतों की धुन
वेदना के स्वर में संभव नहीं
खून से रंगी हाथों की बातें
जोर-जोर से चीख-चीखकर
छाती पीटकर कही जाती है।
दोस्तों, इसी कविता की अंतिम में कुछ पंक्तियां हैं-
जीवन का बुत बनाना
काम नहीं है शिल्पकार का
उसका काम है, पत्थर को जीवन देना
मत हिचको! ओ, शब्दों के जादूगर
जो जैसा है, वैसे कह दो
ताकि वह दिल को छू ले!
दोस्तों,
1967 में नक्सलबाड़ी आंदोलन ने जो बातें कही, वह दिल को छूने वाली बातें थी। 1967 का नक्सलबाड़ी आंदोलन ने, खास करके जो एक लम्बे समय हमारे देश के अंदर जो वामपंथ की धारा चली आ रही थी, उसमें खास करके जो संशोधनवाद अंदर तक घुस चुका था, उससे एक संबंध विच्छेद नक्सलबाड़ी आंदोलन ने किया।
संशोधनवाद के खिलाफ नक्सलबाड़ी आंदोलन
संशोधनवाद क्या था? व्यवस्था के खिलाफ लड़ना है, लेकिन उसी व्यवस्था से तालमेल करते हुए चलना है। इस संशोधनवाद के खिलाफ एक लकीर खींचने का काम नक्सलबाड़ी ने किया था। 25 मई 1967 को जो आंदोलन पश्चिम बंगाल के सिलीगुड़ी से, नक्सलबाड़ी के इलाके से शुरू हुआ, वह कोई अचानक की घटना नहीं थी। उसके पीछे एक लम्बे समय से कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के अंदर जो एक हलचल चल रही थी, एक वैचारिक बहस चल रही थी, उसका ही प्रस्फुटन था। आप जानते हैं कि कामरेड चारू मजूमदार ने जो उस समय सीपीएम में थे, जब 1964 में सीपीएम बना सीपीआई से अलग होकर। सीपीएम ने कहना शुरू किया था कि ‘‘गैरसंसदीय संघर्ष के मातहत ही संसदीय संघर्ष रहेगा, पार्लियामेंटरी स्ट्रगल जो है वह सेकेंडरी चीज है और जो नन-पार्लियामेंटरी स्ट्रगल है, वह हमारा असली एजेंडा रहेगा।’’
व्यवहार में सीपीएम भी पार्लियामेंटरी जो रास्ता था, संसदीय रास्ता था, उसी रास्ते पर चलना शुरू किया। इस कारण सीपीएम के अंदर जो क्रांतिकारी ताकतें थी, क्रांतिकारी लोग थे उनलोगों के अंदर हलचल शुरू हुई। हम देखते हैं कि किस तरह से फरवरी 1965 से ही कामरेड चारू मजूमदार यानी की 1967 से जो नक्सलबाड़ी का आंदोलन शुरू हुआ है, उससे दो साल पहले से 28 फरवरी 1965 से ही अपने जो प्रसिद्ध आठ दस्तावेज है उसमें से अपना पहला दस्तावेज फरवरी 1965 में ही लिखते हैं, उसी में वे लिखते हैं वर्तमान स्थिति में हमारे कर्तव्य। उसमें वे किस तरह से एक गुप्त पार्टी बने? किस तरह से कार्यकर्ताओं को तैयार किया जाए? किस तरह से एक पूरा सिस्टम बनाया जाए कि दो ग्रुप के बीच कैसे तालमेल हो? मतलब कि वे एक गुप्त चीजों को पार्टी के अंदर स्थापित करना चाह रहे थे। वे पार्टी को अंडरग्राउंड करके चीन की क्रांति में कामरेड माओ ने जो रास्ता दिया था, उस रास्ते को लेकर कामरेड चारू मजूमदार 1965 से आठ प्रसिद्ध दस्तावेज लिखे, जिसमें जो पहला दस्तावेज है, वह उन्होेंने 28 फरवरी 1965 को लिखा था, वर्तमान स्थिति में हमारे कर्तव्य
लगभग उसी समय काल में कामरेड कन्हाई चटर्जी के नेतृत्व में एक चिंता नाम की पत्रिका निकलती है, वे भी उस समय सीपीएम में ही रहते हैं। वह चिंता नाम की पत्रिका भी इन्हीं सारी चीजों को खास करके उस समय जो ग्रेड डिबेट, महान बहस, शुरू हो चुका था उसपर ही आधारित थी। इसके जरिये वे उसके बाद 1966 में जो चीन में सांस्कृतिक क्रांति की शुरूआत होती है, इन सारी चीजों को, इन सारे डिबेट को, वे लोग भारत की परिस्थिति में यहां के सीपीएम के अंदर, यहां के कम्युनिस्ट मूवमेंट के अंदर में लाते हैं।
किसान संघर्ष का प्रस्फुटन
1965 से लेकर 1967 तक कामरेड चारू मजूमदार का जो लास्ट दस्तावेज है- ‘‘संशोधनवाद के खिलाफ संघर्ष कर सशस्त्र पार्टी जन संघर्ष गठित करें।’’ यह अप्रैल 1967 में लिखी गयाी थी। आप जानते हैं कि मार्च 1967 से ही पूरे देश के नौ राज्यों में उस समय में जो कांग्रेस पार्टी थी, उसके खिलाफ गैर कांग्रेसी सरकार बनती है और बंगाल के अंदर भी बांग्ला कांग्रेस और सीपीएम के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चे की सरकार बनती है, जिसमें गृह मंत्री, भूमि सुधार मंत्री भी सीपीएम के ही होते हैं। गृह मंत्री ज्योति बसु थे और भूमि सुधार मंत्री हरेकृष्ण कोनार रहते हैंे। 1967 के मई महीने में कुछ लोगों का कहना है कि अप्रैल से ही पूरे दार्जिलिंग जिला के अंर्तगत जो नक्सलबाड़ी का इलाका था, फांसीदेवा का इलाका था, जो हाड़ीबाड़ी का इलाका था, उस इलाके में किसानों का संघर्ष फूट पड़ता है। किसान जमींदारों की जमीन पर कब्जा करने के लिए आगे बढ़ते हैं, उनकी फसल पर कब्जा करते हैं, जमींदारों के घर पर कब्जा करने के लिए, उनके फसलों को कब्जा करने के लिए आगे आते हैं। जमींदारों से उनकी बंदूकें छीनने लगते हैं। इस आंदोलन का ज्वार, मई महीने में और भी तीखे रूप से और भी तेजी से फैलता है और फिर आप जानते हैं कि 24 मई को किसान नेताओं को पकड़ने के लिए पुलिस आती है, उस पुलिस से वहां के लोग अपने पास जो संसाधन थे, तीर-धनुष उसके साथ भीड़ जाते हैं और उसमें एक दारोगा मारा जाता है। यह 24 मई की घटना होती है।
नक्सलबाड़ी का आंदोलन
इस घटना से खास करके जो तब तक हिंसा पर शासक वर्ग का एकाधिकार था, पुलिस का एकाधिकार था, उसको चुनौती मिलती है। एक दारोगा का मारा जाना एक बड़ी घटना के रूप में सामने आती है। तत्कालीन वहां के जो गृह मंत्री थे, ज्योति बसु सीपीएम के, वे फिर अगले ही दिन इसका बदला लेने के लिए बड़ी संख्या में फिर पुलिस को उस इलाके में भेजते हैं। फिर 25 मई को वहां पर गोली चलती है, जिसमें 11 लोग जिसमें 8 महिलाएं, 2 बच्चे और 1 पुरूष शामिल हैं, वे शहीद होते है। 25 मई को जब गोली चलती है तो उसमें 11 लोग शहीद होते हैं, और उसके बाद से ही पूरे देश के अंदर, कम्युनिस्ट पार्टियों के अंदर जो क्रांतिकारी लोग थे, क्रांतिकारी कम्युनिस्ट लोग थे, वे लोग बगावत का झंडा बुलंद करते हैं। वे जगह-जगह में सामंतो के खिलाफ में, जमींदारों के खिलाफ में, जोतदारों के खिलाफ में, साहूकारों के खिलाफ में लोगों को एकत्र करना शुरू करते हैं। यह नक्सलबाड़ी का आंदोलन पूरे देश में फैल जाता है। आप जानते हैं कि जब पूरे देश में नक्सलबाड़ी का आंदोलन फैल रहा होता है, उस समय मिडिल क्लास के जो छात्र थे, जो युवा थे, वे भी प्रेसीडेंसी जैसे काॅलेज के छात्र भी गांव का रूख करते हैं, वे लोग भी इस नक्सलबाड़ी आंदोलन के साथ एकाकार होते हैं। उसके बाद यह आंदोलन एक वृहद रूप पूरे देश के अंदर धारण करता है। आप जानते हैं कि उस समय जो सरकार थी चाहे वह केंद्र की सरकार थी, चाहे पश्चिम बंगाल में संयुक्त मोर्चे की सरकार थी, क्रांतिकारी आंदोलन को दबाने के लिए एड़ी-चोटी एक कर देेती हैं। वे लगातार उन क्रांतिकारियों के साथ बर्बर तरीके से पेश आती है। और लगातार लोगों की, किसानों की, छात्रों की हत्याएं शुरू हो जाती है। प्रसिद्ध कवि सरोज दत्त को भी गोली मार दिया जाता है 5 अगस्त 1967 को। इस आंदोलन को दबाने के लिए जबरदस्त रूप से एक क्रूर दमन, बर्बर दमन आप कह सकते हैं पुलिस अख्तियार करती है, और पूरे देश के अंदर नक्सलबाड़ी आंदोलन को दबाने का खेल शुरू होता है। लेकिन फिर भी नक्सलबाड़ी आंदोलन के नेता लोग एक कमिटी गठित करते हैं, एआईसीसीसीआर और उसके तहत आंदोलन को समेटने की, एक करने की कोशिश शुरू होती है।
एक पार्टी का गठन-भाकपा (माले)
ल्ेकिन यह जो एआईसीसीआर बनता है, उससे कुछ लोग जो उस समय का राजकीय दमन था और जो अचानक यह सारा कुछ हुआ था और बहुत सारे लोग साथ में आए थे, लोगों को एकत्रित करना थोड़ा-सा मुश्किल हो रहा था, जिस कारण से कुछ लोग शामिल नहीं हो पाए थे। उसमें खास करके ‘चिंता’ नाम की जो पत्रिका निकालते थे, जो बाद में ‘दक्षिण देश’ के रूप में तब्दील हुआ था, वे लोग उस कमिटी मे शामिल नहीं हो पाए थे। लेकिन एआईसीसीसीआर बनने के बाद ‘दक्षिण देश’ के लोगों का भी इस पूरे आंदोलन के साथ कुछ आलोचना के साथ उनकी भी भागीदारी थी, उनकी भी सहमति थी। हम बाद में देखते हैं, आगे कामरेड्स एक पार्टी की जरूरत महसूस करते हैं। 22 अप्रैल 1969 को भाकपा (माले) का गठन होता है, जिसके पहले महासचिव कामरेड चारू मजूमदार होते हैं। जो नक्सलबाड़ी आंदोलन के सर्जक थे। उन्होंने सुप्रसिद्ध आठ दस्तावेज लिखे। नक्सलबाड़ी की जो राजनीतिक सैद्धांतिक धुरी जिसे कह सकते हैं उसे तैयार किया। उसमें खास करके चीन की जो महान सांस्कृतिक क्रांति थी, उसका भी एक महत्वपूर्ण योगदान था, नक्सलबाड़ी आंदोलन के राजनीतिक-वैचारिक-सैद्धांतिक धुरी के रूप में।
दोस्तों, तो जब पार्टी गठन होता है 22 अप्रैल को और 1 मई को शहीद मीनार मैदान में एक बड़ी रैली होती है, उसमें नक्सलबाड़ी के नेता कामरेड कानू सान्याल ऐलान करते हैं कि पार्टी का गठन हो गया है। कुछ लोगों का कहना था कि यह पार्टी गठन इतनी हड़बड़ी में हुआ कि बहुत लोगों को इसमें बुलाया नहीं जा सका। और नेतृत्व का कहना था कि जो परिस्थिति थी, उसमें एक पार्टी गठन बहुत ही जरूरी था। इसलिए हमलोग बाद में लोगों को पार्टी का कार्यक्रम भेजते, पार्टी के बारे में सूचित करते।
एमसीसी का गठन
उस समय जब पार्टी गठन हुआ, तो ‘दक्षिण देश’ के लोगों को खास करके उसमें शामिल नहीं किया जा सका था, नहीं बुलाया गया था। लेकिन फिर भी दक्षिण देश के लोगोें का भी कहना था कि पार्टी तो भारत में गठित हो गयी है और यही भाकपा (माले) जो कामरेड चारू मजूमदार के नेतृत्व में गठित हुई है, यही भारत में क्रांति को लीड करेगी। लेकिन इसकी हमारे पास कुछ आलोचना है, इसलिए उनके द्वारा 1969 में ही 22 अप्रैल 1969 में भाकपा माले गठन होता है, उसके बाद 20 अक्टूबर 1969 को एमसीसी गठन होता है- माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर का। इन्होंने इसे एमसीसी नाम दिया, एक सेंटर, कम्युनिस्ट का एक केंद्र नाम दिया न कि पार्टी क्योंकि इनका मानना था कि एक पार्टी बन चुकी है। कामरेड कन्हाई चटर्जी का साफ मानना था कि एक पार्टी भारत में क्रांति के लिए बन चुकी है और देर-सबेर हमलोग भी उसमें एक होंगे, कुछ आलोचनाएं है, कुछ चीजों को सुधारना चाहते हैं। खास करके उस समय कुछ चीजें जो बाद में सुधारी भी गयी है, मैं बाद में बात में आउंगा, तो उसमें रखूंगा। तो उनलोगों का मानना था कि इसे सुधारना चाहिए खास करके संयुक्त मोर्चा के सवाल पर, खास करके जनसंगठनों के सवाल पर जो लाइन पार्टी ने लिया था, उस चीज को ये लोग सुधारना चाहते थे। खास करके एमसीसी का जो कहना था, कि हमलोग एक प्रोस्पेक्टिव एरिया लेकर उस एरिया से कामकाज शुरू करें और एक संगठित रूप से सेना बनाएं, एक संगठित रूप से क्षेत्र का चुनाव करके वहां पर क्रांति को शुरू किया जाए। इसको एक माॅडल के रूप में देने के लिए एमसीसी के लोगों ने कुछ इलाके को चिन्हित भी किया। उस समय बिहार के छोटानागपुर का जो इलाका था, खासकर धनबाद, गिरिडीह, हजारीबाग, बोकारो का, उसी तरह असम का इलाका और बंगाल के हावड़ा के साइड में इलाका था, तो इस तीन जगह का प्रोस्पेक्टिव एरिया के रूप में एमसीसी ने चुनाव किया और वे अपना प्रयोग वहां पर करने के लिए गये।
नक्सलबाड़ी के आंदोलन का बिखराव
नक्सलबाड़ी का आंदोलन जो शुरू हुआ था 1967 में, 1969 में जब पार्टी बनी और उसके बाद सत्ता का जो दमन हुआ, और जो कुछ कमियां थी आंदोलन में, कुछ नेताओं में, उसके कारण और एक कम्युनिकेशन गैप का भी सवाल था, खास करके कामरेड चारू मजूमदार की उम्र भी थी और उनके इर्द-गिर्द जो लोग थे, उन लोगों द्वारा बहुत सारे लोगों से उनको मिलने न देना, बहुत सारी चीजों की जानकारी का इनको अभाव भी था, इस कारण पूरे देश का जो आंदोलन पूरे देश के क्रांतिकारियों की जो संगठित रूप से एक नेतृत्व के नीचे आकर जो मूवमेंट को आगे बढ़ाने का रोल था, उसमें कमी रही। जिसका परिणाम हुआ कि धीरे-धीरे तत्कालीन जो सीपीआई (एमएल) थी, उसके अंदर भी संशोधनवादी लोग, दक्षिणपंथी, अवसरवादी लोग घुसने लगे, सत्यनारायण सिंह से लेकर बहुत सारे लोगों ने उसी समय पार्टी लाइन के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी। आप जानते हैं कि सत्ता का दमन किस तरह से था और पूरे के पूरे देश में, जहां पर लोग मिलते थे, उन्हें जेल में डालने के बजाय लोगों को लाइन में खड़ा करके गोली मार दी जाती थी। हजारों-हजार छात्रों को, देश केे होनहार बेटे-बेटियों को उस समय की सत्ता ने खत्म कर दिया। उनकी हत्या कर दी। लेकिन फिर भी आंदोलन अपने ताप पर था लेकिन जब दक्षिणपंथी, अवसरवादियों की गद्दारी, जो लोग गद्दार निकले और उस समय में जो वामपंथी संकीर्णता आ रही थी, इसके कारण भी मूवमेंट थोड़ा-सा रूका और उसके बाद जब मूवमेंट को संभालने का खास करके जब चारू मजूमदार को सारी बातें पता चलनी शुरू हुई, विशेषकर श्रीकाकुलम से होकर और जगहों से कुछ लोगों ने उनसे मुलाकात की, इन चीजों को जब वे ठीक करना चाह रहे थे, इन चीजों को जब वे सही करने के रास्ते पर थे, जब उनका लेख में जो था, आप उसमें पढेंगे जनता का हित ही पार्टी का हित है उनका अंतिम लेख जो आया है। उसके कुछ दिन बाद ही वे गिरफ्तार होते हैं, वह भी गद्दारी के कारण और उसके बाद 28 जुलाई 1972 को कोलकाता के लालबाजार थाने के लाॅकअप में उनकी हत्या होती है। उनकी हत्या ही थी वह क्योंकि उनको जो बीमारी थी, उन्हें दवाई मुहैया नहीं कराई गयी और उन्हें घुट-घुट कर मरने को छोड़ दिया गया। तो दोस्तों, 28 जुलाई 1972 को कामरेड चारू मजूमदार के शहादत के बाद नक्सलबाड़ी आंदोलन भी एक तरफ से कहा जाए तो बिखराव का शिकार हो गया। बहुत सारे लोग अलग-अलग गुट बनाकर सामने खड़े हुए। कुछ लोग थे जो कि नक्सलबाड़ी की जो मूल भावना थी, उसकी जो मूल धारा थी, उस चीज को लेकर भी आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन उस समय कहा जाता है कि लगभग दो दर्जन टुकड़े में भाकपा (माले) का बंटवारा हो गया।
दर्जनों पार्टियों के उभार के बीच नक्सलबाड़ी की मूलधारा
हम जानते हैं कि विभिन्न-विभिन्न नेताओं के नाम पर भाकपा (माले) कानू सान्याल, भाकपा (माले) रेड स्टार, यानी की ढेर सारी पार्टियां बन गयी, लेकिन उसके बाद भी नक्सलबाड़ी ने जो रास्ता दिखाया था, खास करके नक्सलबाड़ी ने जो कम्युनिस्ट आंदोलन में भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में जो विभाजन रेखा खींच दी थी, तो उसने जो रास्ता दिखाया था कि भारत के अंदर जब भी क्रांति होगी, तो वह आम्र्स स्ट्रगल के जरिये ही होगी। जब भी क्रांति होगी, क्रांति सफल होगी, तो वह चीन के रास्ते ही होगी। भारत का जो मूल कैरेक्टर है वह एक अर्द्ध औपनिवेशिक-अर्द्ध सामंती है, इसलिए यहां पर इलाकावार सत्ता दखल के जरिये ही आगे बढ़ना होगा। तो वह जो मूल भावना थी, नक्सलबाड़ी आंदोलन की जो मूल आत्मा थी, वह चीज बहुत सारे लोगों में अंदर तक समा गया था और उस चीज को लेकर लोग आगे बढ़ गये थे। उसमें बहुत सारे लोगों की हत्या हुई थी, बहुत सारे लोग जेल के अंदर बंद भी हुए, लेकिन फिर धीरे-धीरे लोगों ने चीजों को समझना शुरू किया। और बहुत सारे खास करके 1974 में आप जानते हैं कि भाकपा (माले) लिबरेशन का गठन हुआ था, सीपीआई (एमएल) लिबरेशन का, जिसके महासचिव कामरेड जौहर थे और उस पार्टी ने भी खास करके भोजपुर के इलाके में बहुत ही अच्छा काम किया। लेकिन जब कामरेड जौहर की शहादत हुई और उसके बाद उसमें उसके महासचिव विनोद मिश्र बने और वेे अपने साथ पूरी संशोधनवाद की लाइन लेकर आए और फिर उस धारा को खत्म कर दिया। मतलब कि जिस चीज को विभाजन रेखा खींचकर नक्सलबाड़ी आंदोलन ने अलग किया था, उसने फिर से पुरानी धारा में ही सीपीआई (एमएल) लिबरेशन को लौटा दिया। लेकिन दूसरी तरफ खास करके आंध्र प्रदेश के इलाके में सीपीआई (एमएल) पीडब्लू, बिहार-झारखंड के इलाके में सीपीआई (एमएल) पीयू, सीपीआई (एमएल) सेकेंड सीसी, आरसीसीआई (एम), आरसीसीआई (एमएलएम) और एक तरफ जो भाकपा (माले) में शामिल नहीं हुआ था, एमसीसी था।
एमसीसी का जो प्रोस्पेक्टीव एरिया लेकर कामकाज का जो काम था, वह लगातार आगे बढ़ रहा था। वह लगातार आदिवासियों खास करके बिहार-झारखंड के इलाके में, जो उस समय बिहार था अभी झारखंड है उत्तरी छोटानागपुर के इलाके में, आदिवासियों के बीच अपने काम काज को काफी मजबूती देना शुरू किया था। क्योंकि मैं झारखंड में रहता हूं, मैं जब उस इलाके में अभी भी जाता हूूं, तो जो उस समय के लोग हैं 70 साल के, 80 साल के, वे बताते हैं कि किस तरह उस समय कामरेड कन्हाई चटर्जी खुद ही 1969-70 में इस इलाके में आए थे और लोगों के बीच घूम-घूमकर उन्होंने आदिवासियों को संगठित करने का काम किया। लगातार यहां के जंगलों में रहते थे, लोगों से बात-चीत करते थे। वे किस तरह से यहां पर उसी समय नारा दिये थे कि ‘‘किसानों के हाथ में जमीन दो। जमीन जोतने वालों के हाथ में और राजनीतिक हुकूमत क्रांतिकारी किसान कमिटी के हाथ में।’’ यानी कि उसी समय से यहां पर खास करके उत्तरी छोटानागपुर के इलाके में यह शुरू हो चुका था कि क्रांतिकारी किसान कमिटी के हाथ में राजनीतिक हुकूमत आनी चाहिए। और गांव गांव में क्रांतिकारी किसान कमिटी बनना शुरू भी हो गया। नक्सलबाड़ी की मूल आत्मा को, मूल धारा को लेकर जो आगे बढ़ रहे थे सीपीआई (एमएल) पीडब्लू, पीयू, एमसीसी इन सारे लोगों में भी 80 के दशक से ही जानकार बताते हैं कि 80 के दशक से ही एकता के लिए प्रयास शुरू हुआ। ये तमाम जो पार्टियां हैं नक्सलबाड़ी की धारा पर, नक्सलबाड़ी की मूल धारा पर अब भी आगे बढ़ रही है, इन लोगों के बीच में एकता होनी चाहिए। इनलोगों के बीच में यूनिटी होनी चाहिए, इसके लिए वे लोग लगातार बैठकें करने लगे। यह 80 के दशक में ही शुरू हुआ था। जिसका परिणाम 21 सितंबर 2004 को निकला। और ढेर सारी पार्टियां इससे पहले ही खास करके सीपीआई (एमएल) पीडब्लू, और सीपीआई (एमएल) पीयू का विलय हो चुका था, इधर एमसीसी के साथ में सीपीआई (एमएल) सेकेंड सीसी, आरसीसीआई (एम), आरसीसीआई (एमएलएम), इस तरह की पांच पार्टियों का विलय होकरके एमसीसीआई गठित हो चुका था। 21 सितंबर 2004 को जो पार्टी बनी उसमें कह सकते है हम कि जो सात-आठ ग्रुप थे उस समय, वह सभी मिलकर बना था। उस समय दो ही पार्टी का विलय हुआ था, सीपीआई (एमएल) पीडब्लू और एमसीसीआई। पर इन दोनों पार्टियों में पहले ही सीपीआई (एमएल) पीडब्लू में सीपीआई (एमएल) पीयू आए थे, एमसीसीआई के साथ सीपीआई (एमएल) सेकेंड सीसी, आरसीसीआई (एम), आरसीसीआई (एमएलएम) और भी एक पार्टी थी, जो शामिल हुई थी। इस तरह से यह छः-सात पार्टियों का सम्मिलित एक रूप था। नक्सलबाड़ी की धारा में 1972 के बाद बिखराव का एक दौर आया था, लेकिन हम कह सकते हैं 21वीं शताब्दी में फिर से यूनिटी का दौर आया और फिर से लोग जुड़ें और नक्सलबाड़ी की मूल धारा को लोगों ने फिर से आगे बढ़ाने का काम शुरू किया। उसका एक सम्मिलित रूप कहा जाए तो 21 सितंबर 2004 को सीपीआई (माओइस्ट) के रूप में सामने आया।
आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा
दोस्तों,
इस बीच में ढेर सारे दमन हुए, ढेर रिप्रेशन हुए, ढेर सारे खून बहे, ढेर सारे लोगों ने तो शहादतें दी, लेकिन अंततः एक पार्टी फिर से यूनाइट हुई। जो नक्सलबाड़ी आंदोलन 1967 में शुरू हुआ था, वह नक्सलबाड़ी आंदोलन के बारे में जो शासक वर्ग लगातार यह घोषित कर रहा था, कि नक्सलबाड़ी आंदोलन खत्म हो गया, नक्सलबाड़ी समाप्त हो गया। वह फिर से शासक वर्ग के बीच में भूत के रूप में सामने आया, जैसे ही 21 सितंबर 2004 को पार्टी गठन होता है, आप जानते हैं कि उस समय सेंट्रल में यूपीए की सरकार थी और मनमोहन सिंह यहां के प्रधानमंत्री थे। 21 सितंबर को पार्टी गठन होते ही इन्होंने तुरंत ही नवंबर 2004 में ही कहना शुरू किया कि यह जो कश्मीर का आतंकवादी है, उत्तरपूर्व के जो लोग है, उससे भी खतरनाक यह सीपीआई (माओइस्ट) है। और आगे चलकर इन्होंने जो मुख्यमंत्रियों की बैठक चल रही थी, उसमें इन्होंने कह दिया कि सीपीआई (माओवादी) आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा है। यानी कि पूरे देश के अंदर फिर से नक्सलवाद का भूत एक तरह से सामने आ गया। आज आप देख रहे हैं कि किस तरह से पूरे देश के अंदर जो भी सच बोलेने वाली आवाज है, असहमति की आवाज है, उस आवाज को आज लोग नक्सलवाद, तो अर्बन नक्सल कहना शुरू कर देते है। यानी की आज पूरे देश के अंदर एक चीजें स्थापित हो गयी है, कि जो भी सच बोलता है, जो भी अन्याय के खिलाफ खड़ा होता है, जो भी अपने हक अधिकार की बात करता है, वह नक्सली है। यानी कि नक्सली ही सच बोलता है। वही अपने अधिकार की आवाज को उठाता है वही हक अधिकार की लड़ाई को लड़ता है। वही वे लोग है ये चीजें भी एक तरह से यह सरकार ने ही लोगों के बीच में स्थापित करने का काम किया है।
दोस्तों, एक बात साफ है कि नक्सलबाड़ी का आंदोलन जो शुरू हुआ था, वह सिर्फ किसानों का आंदोलन नहीं था, बल्कि वह एक पूरा जो सामंतवाद विरोधी, साम्राज्यवाद विरोधी जनता थी, उसके मुक्ति का संघर्ष था, उनकी मुक्ति का रास्ता था और इसमें लोगों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। यह आंदोलन आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक अधिकारों यानी हुकूमत कायम करने के लक्ष्य से, हम कह सकते है कि अर्द्ध सामंती-अर्द्ध औपनिवेशिक व्यवस्था को पूरी तरह से उखाड़ फेंकने का संघर्ष था। यह आंदोलन पिछले 53 सालों से लगातार आगे की ओर बढ़ रहा है। इसे हम कह सकते हैं कि हर साल कुछ इलाके में लोग पीछे जाते हैं, तो कुछ नये इलाके खोल दिए जाते हैं। युद्ध के मोर्चा में एक युद्ध का क्षेत्र अगर कमजोर होता है, तो दूसरे क्षेत्र का मजबूत होता है। एक युद्ध का मोर्चा यदि खत्म होता है, तो युद्ध का एक नया मोर्चा खोल दिया जाता है।
जनविरोधी सरकार का दमन
दोस्तों,
अगर हम नक्सलबाड़ी को और आज की जो वर्तमान परिस्थिति है, खास करके आप जानते हैं कि आज पूरे देश के अंदर, पिछले छः साल से जो ब्राह्मणीय-हिन्दुत्व-फासीवादी भाजपा की सरकार है और जो आज हमारे देश के सबसे बड़े नेता प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बने हुए है, वे कौन है? मुस्लिमों के नरसंहार के एक आरोपी, मुस्लिमों के कत्लेआम के आरोपी, आज हमारे देश के प्राइम मिनिस्टर है और इन्होंने पूरे देश के अंदर हम कह सकते हैं कि अघोषित रूप से आपातकाल ही लगा दिया है। आज पूरे देश में असहमति की आवाज को दबाया जा रहा है। असहमति की आवाज को खत्म करने की कोशिश हो रही है, असहमति की आवाज को जेल के अंदर ठुंसा जा रहा है। असहति की आवाज को फर्जी मुठभेड़ में खत्म किया जा रहा है, मार दिया जा रहा है। आज आप देखिए, आज पिछले 60-62 दिनों से पूरा देश लाॅकडाउन का शिकार है, लाॅकडाउन के अंदर लोग घर में रहने को मजबूर है। सरकार लोगों को घरों में रहने को बोल रही है। दूसरी तरफ सरकार बड़े पैमाने पर जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखी है। बड़े पैमाने पर हम कह सकते हैं, आज देखिए क्या स्थिति है देश की, सड़क पर मजदूर है, उनकी चिंता इनको नहीं है। लोग भूख से मर रहे हैं, लोग गाड़ियों से दबकर मर जा रहे हैं, लेकिन इनको इसकी फिक्र नहीं है। इनको फिक्र है कि कोयला का निजीकरण कर दो, इनको फिक्र है आज ही मैं पढ़ रहा था, उत्तर प्रदेश के जो मुख्यमंत्री है योगी ने कहा है कि जो भी कोरोना काल में कोरोना के खिलाफ में सरकार की नीतियों से असहमत है, उस असहमति की आवाज की पूरी फाइल हमारे पास लाओ, उसपर हम मुकदमा करेंगे। तो यह इस कोरोना के बहाने भी असहमति की आवाज को कुचल देना चाह रहे हैं। कश्मीर में एक लम्बे समय से कश्मीर की आवाज को फौज के बूटों तले रौंदा गया है, पूरे जो राष्ट्रीयता का संघर्ष चल रहा है असम से लेकर नागालैंड, अरूणाचल प्रदेश इन तमाम जगहों पर लगातार ही फौजी बूटो के तले असहमति की आवाज को कुचला गया है। और आज पूरे देश के अंदर वही चीजें चल रही है। आप देखिए दिल्ली के अंदर किस तरह से जो भी एंटी सीएए, एंटी एनआरसी, एंटी एनपीआर एक्टिविस्ट थे, किस तरह से लगातार उनकी गिरफ्तारियां हो रही है और खास करके जो मुस्लिम अल्पसंख्यक है, वे इनके टारगेट पर हैं।
सिर्फ मुस्लिम अल्पसंख्यक ही नहीं बल्कि जो भी लोगों ने पिछले दिनों जितनी भी लड़कियों की गिरफ्तारी हुई है, आज से तीन दिन पहले आप देखिए कि क्या हो रहा है, पूरे देश के अंदर, इन्होंने एक तरह से अघोषित आपातकाल लागू कर दिया है। कोई भी इनकी नीतियों के खिलाफ आवाज नहीं उठा सकते हैं। जो भी लोग आवाज उठाएंगे, उन्हें ये कुचल देंगे। उन्हें ये जेल के सींखचों में बंद कर देंगे। आप देख रहे है वरवर राव को, इन्हें और इनके साथ 11 लोगों को जेल में ठुंस दिया गया है, इनका जुर्म क्या था? ये सिर्फ और सिर्फ जनता की बात को अपनी कलम से धार दे रहे थे। ये लगातार इन सरकार की आंख में आंख डालकर यह कह रहे थे, आपकी जो ये नीतियां हैं जनविरोधी है। आपकी जो ये नीतियां हैं, जनता को मौत के मुंह में धकेल रही है। और उसका परिणाम आज देख लीजिए, तो आज की स्थिति हम कह सकते हैं कि पूरे तौर से पूरे देश में ब्राह्मणीय-हिन्दुत्व-फासीवाद है और उसका कहर जारी है, पूरे देश को इन्होंने यातनागृह में तब्दील कर दिया है।
सड़ांध व्यवस्था की पहचान है जनता की बदहाली
मजदूर सड़कों पर मरने पर बेबस हैं। ट्रेनें दिल्ली से चलती है, तो वे झारखंड के रांची पहुंचने के बजाय दस दिनों तक पूरा घुमता है, लोग ट्रेन में मर रहे हैं, अपने बच्चों को सड़क पर जन्म दे रहे हैं, एक मां अपने बच्चे को रास्ते में जन्म देती है और फिर उस नवजात बच्चे को लेकर 400-500 किलोमीटर पैदल चलती है। सोचिए यह देश आज किस मुहाने पर खड़ा है। आज इस देश में लोगों की क्या स्थिति कर दी गयी है? आज कोई भी सच बोलने वाले लोग हैं, जो इनके दमन के खिलाफत, इन चीजों के खिलाफत करेंगे, तो वे इन चीजों को खत्म कर देना चाहते हैं। दोस्तों! नक्सलबाड़ी आंदोलन ने हमें यह सिखाया था कि हम सच को सच बोलें, नक्सलबाड़ी आंदोलन ने कहा था कि यह जो पूरी व्यवस्था है वह सड़ चुकी है। यह जो अर्द्ध-सामंती, अर्द्ध-औपनिवेशिक सिस्टम है हमारे देश में, यह सड़ चुका है। और इसका इलाज मात्र और मात्र एक ही है, इस पूरी व्यवस्था को उखाड़ फेंको।
नक्सलबाड़ी आंदोलन जनता की उर्जा है
आप जानते है, इस नक्सलबाड़ी आंदोलन का प्रभाव तमाम चीजों पर है, चाहे वो साहित्य हो, चाहे दलित आंदोलन हो, चाहे वो मजदूर आंदोलन हो, चाहे छात्र आंदोलन हो सभी क्षेत्र में इसका व्यापक प्रभाव पड़ा। अगर आप देखेंगे अगर मैं साहित्य की चर्चा करूं तो नक्सलबाड़ी आंदोलन ने पूरी साहित्य की धारा को बदल दिया। वह साहित्य जो कल तक भूख से गिड़गिड़ाते लोगों के बारे में लिख रहे थे, उसने भूख के खिलाफ तनी हुई मुट्ठी को दिखाना शुरू किया। उस समय गरीबों के हाथों में कलम पकड़ा दी। एक हाथ में नक्सलबाड़ी आंदोलन ने बम पकड़ाया, दूसरे हाथ में कलम पकड़ाया। तुम कविता भी लिखो। लोगों में धारणाएं टूट गयी कि सिर्फ पढ़े लिखंे लोग, सिर्फ काॅलेज में डिग्री प्राप्त लोग ही कविता लिख सकते हैं। नक्सलबाड़ी आंदोलन ने इस धारा को जोड़ दी कि गांव के गरीब, मजदूर, किसान वे भी कविता लिख सकते हैं। वे भी अपनी चीजों को अपने दुख दर्द को, अपने संघर्ष को, अपनी लड़ाई को, कविता के माध्यम से, कहानी के माध्यम से प्रस्तुत कर सकते हैं। आप देखेंगे नक्सलबाड़ी के दौर में बहुत सारी कविताएं बहुत सारी कहानियां लिखी गयी। और उसमें बहुत सारे कवि भी जो थे, चाहे वो आंध्र प्रदेश हो, बंगाल हो, बिहार हो, झारखंड हो, या उत्तर प्रदेश हो, तमाम जगहों के चाहे हिन्दी भाषी हो, तेलगु भाषी हो, मराठी हो, तमाम भाषी कवियों ने, लेखकों ने उन लोगोें की लेखनी में भी गजब का धार आयी। और वे लोग भी लगातार नक्सलबाड़ी आंदोलन से प्रेरित दिखे। कह सकते हैं इस नक्सलबाड़ी आंदोलन ने पूरी की पूरी जो लेखनी की धारा थी, जो लिखने की धारा थी, जो साहित्य की धारा थी, उस धारा को बदल दिया। उसी तरह दलित आंदोलन को भी आप देखेंगे कि उसके बाद दलित पैंथर का आंदोलन शुरू हुआ, तो किस तरह दलित पैंथर का आंदोलन चुनाव के बहिष्कार तक गया। किस तरह उसने कहना शुरू किया, दलित पैंथर के आंदोलन ने कहा कि हमें ब्राहमणों के इलाके में सिर्फ एक गली नहीं चाहिए, बल्कि मुझे पूरी दुनिया चाहिए। मुझे पूरी दुनिया पर राज चाहिए।
आप जानते हैं कि मैं झारखंड के इलाके में और इसके पहले बिहार के इलाके में भी काम किया हूं। तब मैं जब घुमता था, झारखंड के इलाके में पत्रकारिता के सिलसिले में गांव में जाता हूं, तो यहां के जो आदिवासी लोग है, जब वे लोग बोलते हैं, जो पुराने लोग है वे लोग बताते हैं कि किस तरह से पिछले दिनों, वे बोल रहे थे जब यहां पर नक्सलबाड़ी आंदोलन के लोग खास करकेे एमसीसी के लोग नहीं आए थे तो किस तरह से यहां दमन था। वे कहते थे कि पूरा का पूरा जो जंगल था, उसपर जंगल विभाग के अधिकारियों का राज था। वे हमारी बहन बेटियों के साथ कुछ भी करते थे, कभी भी उठाकर ले जाते थे यहां के जमींदार-साहूकार। हमारे बगल में जमीन थी, बगल में जंगल था, पर ना तो हम लकड़ी काट सकते थे, ना तो हम जमीन पर खेती कर सकते थे। वे हमलोगों को आदमी ही नहीं समझते थे। आदिवासी इलाके में तो लोगों का यही कहना है कि हम लोगों को जो गैर-आदिवासी थे, जमींदार थे, साहूकार थे, प्रशासन के लोग थे, वे हमलोगों को इंसान भी नहीं समझते थे। नक्सलबाड़ी आंदोलन के वारिसों ने जब क्रांतिकारी आंदोलन इस पूरे इलाके में आया, आदिवासी इलाके में आंदोलन फूट पड़ा, तो आप देखेंगे लोगांे का कहना था कि किस तरह चीजें बदल गयी। जंगलों पर ग्रामीणों का, आदिवासियों का, मूलवासियों का अधिकार वापस आया। किस तरह से जमींदार और साहूकार इलाके छोड़ छोड़कर भागने लगे। झारखंड के इलाकों में, बिहार के इलाकों में हजारों-हजार एकड़ जमीन, लाखों एकड़ जमीन, लोगों ने कब्जा किया और गरीबों के बीच बांट दिया गया। गांव-गांव मे क्रांतिकारी किसान कमिटी के लोग तमाम चीजों का फैसला करने लगे। आप जाएंगे अगर झारखंड के उत्तरी छोटानागपुर इलाके में, तो जो पुराने लोग हैं, वे बताएंगे कि यहां हमलोग कभी पुलिस थाना नहीं जाते थे, बिहार के गया, औरंगाबाद के ग्रामीण इलाकों में जाइये, जमुई, नवादा के इलाके में जाइए, या फिर बांका के इलाके में या झारखंड के इलाके में पूरा कोल्हान से लेकर चाईबासा पलामू यहां के इलाके में तो वे लोग कहते हुए मिलेंगे, आज से 25 साल पहले, 20 साल पहले यहां तक कि 12-13 साल पहले तक खास करके 2007 में जो आॅपरेशन ग्रीन हंट शुरू हुआ उससे पहले भी हमलोग पुलिस के यहां नहीं जाते थे। हमलोग थाने नहीं जाते थे, हमलोगों का फैसला क्रांतिकारी किसान कमिटी किया करती थी। नारा था राजनीतिक हुकूमत क्रांतिकारी किसान कमिटी के हाथ में दो। वह राजनीतिक हुकूमत भी लोगों ने बहुत जगहों में पाया था। उसके बाद जो आदिवासियों की जिंदगी में, दलितों की जिंदगी में बदलाव आए, खास करके जो इंसान के रूप में समाज में उनको जगह मिली, आदिवासी इलाके से जो बाहर निकलते हैं वे लोग कहते हैं कि अब कोई भी हमको रे, बे करके बोलने का हिम्मत नहीं करता है। अब लोग दादा ही बोलते हैं। यानी उनकी सांस्कृतिक रूप से भी और उनकी जो इज्जत का सवाल था, मान-मर्यादा का सवाल था, वह चीजें भी नक्सलबाड़ी आंदोलन ने उनको वापस दिलाई।
जातिवाद पर भी जीत
आप जानते हैं कि किस तरह से भोजपुर के इलाके में वहां पर जो सवर्णों का खास करके भूमिहार, राजपूतों का उस इलाके में महिलाओं के प्रति जो नजरिया था, लोग बोलते हैं कि नक्सलबाड़ी आंदोलन से पहले, नक्सलबाड़ी आंदोलन मतलब जबतक नक्सलबाड़ी के लोग वहां नहीं पहुंचे थे, उससे पहले दलितों की बहन-बेटियां एक तरह से कहा जाए तो सवर्णों के उपभोग की वस्तु होती थी, उन्हें अधिकार था, उनका उपभोग करने का। आप कह सकते हैं कई सारे जगहों पर यह बातें थी कि लोग जब नयी शादी करके आते थे तो पहली रात सवर्णों के, सामंतों-जमींदारों के घर बिताना पड़ता था। लेकिन उस चीज को फिर से खत्म करने का काम किया, अगर दलितों में मान-सम्मान इज्जत, मान-मर्यादा आया, तो वह नक्सलबाड़ी आंदोलन के कारण आया। वह नक्सलबाड़ी आंदोलन के वारिसों के कारण आया। आज भी पूरे देश के अंदर जातिवाद के खिलाफ जाति की जो समस्या है, उसे किसी ने एड्रेस किया है, छूआछूत के खिलाफ अगर किसी ने सबसे बड़ी लड़ाई लड़ी है, तो वो नक्सलबाड़ी आंदोलन के वारिस ही है। अगर आदिवासियों के लिए, दलितों के लिए अगर जमीन पर उनका हक-अधिकार का काम किया तो नक्सलबाड़ी आंदोलन ने। उस समय लाखों लाख एकड़ जो जमीन कब्जा हुए, नक्सलबाड़ी आंदोलन के वारिसों के द्वारा तो वे जमीनें कहां गई? वो जमीनें गरीबों में बांट दिया गया। और सामंतों-जमींदारों को उनके इलाके से खदेड़ दिया गया। आज भी जब आप इलाके में घुमेंगे, खास करके जहां मैं अभी इलाके में घुमा हूं, झारखंड के इलाकों में तो बहुत जगह आपको सुनने को मिलेगा कि पार्टी की जमीन है। इन लोगों को पार्टी ने जमीन दिया है।
फिर वही आंदोलन के दौर की संभावना
तो मेरे कहने का मतलब यही है कि नक्सलबाड़ी आंदोलन के जो सच्चे क्रांतिकारी वारिस है, वे आज की परिस्थिति में भी तमाम चीजों को हैंडल कर रहे हैं। आज की वर्तमान परिस्थिति में जिस तरह से आप देख रहे हैं कि किस तरह से आज जो प्रवासी श्रमिक है, वे अपने घरों को लौट रहे हैं। जब मैं सीपीआई एमएल (लिबरेशन) में था, आज से आठ साल, नौ साल पहले और जब भागलपुर के नौगछिया इलाके में काम करता था, तो लोग बोलते थे कि यहां पर मैंने अपने बेटे को बाहर भेज दिया कमाई करने के लिए। क्यों? क्योंकि उसके अंदर जो जोश था, जो जज्बा था जो इज्जत-मान-मर्यादा को लेकर समझ थी, वह उनको मुसीबत में डाल देती है। वे उनको यहां के जो सामंत है, जमींदार है, उन लोगों से लड़ा देती। इसलिए हम इस लड़ाई से बचने के लिए, उनको भेज दिये । तो बहुत सारे लोगों ने उस समय अपने बेटों को कि गांव में अब कौन लड़ेगा? उसकी जिंदगी बचाने के लिए उसे बाहर भेज दिया था। अब वे लोग फिर से लौट कर वापस आ रहे है। बिहार में जब नितीश कुमार की सरकार बनी थी 2005 में, उसी समय या कुछ दिन बाद इन्होंने डी बंदोपाध्याय कि अध्यक्षता में एक कमिटी गठन किया था, जिसने रिपोर्ट दी थी कि बिहार के अंदर 21 लाख एकड़ जमीन, गैर मजरूआ और भूदान की जो जमीन है और जो सीलिंग से अतिरिक्त जमीन है, वह 21 लाख एकड़ जमीन है।
दोस्तों!
मुझे जो लग रहा है, अब जब प्रवासी लौटकर, घुमकर घर आएंगे, आप जानते हैं कि आज जो हमारे समाज में दलितों की स्थिति है, दलितों के पास जमीन नहीं है। नक्सलबाड़ी आंदोलन की शुरूआत व धुरी कृषि क्रांति थी। मुझे लग रहा है कि अब जब फिर से ये वापस आएंगे, बिहार में झारखंड में, तो वे क्या करेंगे? उनके बगल में जमींदारों की जमीनें पड़ी रहेगी, सरकारी जमीनें पड़ी रहेगी, गैर मजरूआ जमीनें पड़ी रहेगी और वे भूखे मरेंगें? मुझे लगता है ऐसा नहीं होगा। वे लोग फिर से जो जमीनें है, सरकारी जमीनेें, सीलिंग से अतिरिक्त जमीनें है, उन जमीनों को कब्जा करने के लिए आगे बढ़ेंगे। उन जमीनों में फिर से एक जमीन की लड़ाई मुझे लग रहा है, शुरू होने वाली है, पूरे देश के अंदर में, खास करके जहां पर क्रांतिकारी कम्युनिस्ट है। बिहार, झारखंड के इलाके में और छत्तीसगढ़ से लेकर और कई जगहों पर जहां जमीनें हैं, हमको लगता है जो जहां से घुमकर लोग आ रहे हैं, लौट कर आ रहे हैं, तो फिर से इस जनता की लड़ाई की ओर बढ़ेंगे। जो संगठन है, क्रांतिकारी जनसंगठन है, उन लोगो को भी मुझे लगता है, उन तमाम मजदूरों को गोलबंद करना चाहिए, उनको जमीन की लड़ाई से उन्हें फिर से जोड़ने का प्रयास होना चाहिए। ताकि वो फिर से अपने हक-अधिकार को जान सके। खास करके झारखंड जैसे जगह में, छत्तीसगढ़ जैसे जगह में, उड़ीसा जैसे जगह में जहां की जमीन के अंदर ढेर सारे खनिज पदार्थ हैं, यहां पर फिर से मुझे लग रहा है कि जब लोग वापस आएंगे, और तो और उनकी जमीनें जिस तरह से मल्टी नेशनल कम्पनियों को सरकारें दे रही है, सीआरपीएफ को लगाया जा रहा है, तो फिर से एक बार इन लोगों को पीछे धकेलने के लिए, इन लोगों को खदेड़ने की लड़ाई शुरू होगी और मुझे लगता है नक्सलबाड़ी के जो वारिस हैं, फिर से एक नयी क्रांतिकारी उर्जा के साथ एक नयी क्रांतिकारी ताकत के साथ उनको एक बहुत ज्यादा ताकत मिलने वाली है, और वे फिर से एक जो तमाम माइग्रंेट लेबर है, या तमाम जो लोग वापस आ रहे हैं फिर से उन्हें जमीन के संघर्ष के साथ जोड़ना चाहिए और जोड़ने की लड़ाई मुझे लगता है उनके डिस्कोर्स में आनी चाहिए और आई भी है।
सरकार के आॅपरेशनों का सच
दोस्तों,
आज पूरे देश के अंदर की जो वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति है अगर उसकी बात करें, अगर कहें तो मेरा एक लाइन में कहना यही है, देश यातना गृह में तब्दील हुआ है, पूरे देश के अंदर जो भी असहमति की आवाज है, उसको कुचली जा रही है कोरोना काल में भी आप जानते हैं किस तरह से तमाम श्रम कानूनों में पूरा फेर-बदल किया गया, फेर-बदल नहीं पूरा खत्म ही कर दिया गया। हड़ताल करने का अधिकार ही छीन लिया गया है। जनता का जो जनवादी अधिकार है, जनवादी अधिकार जो मिलना चाहिए, उसपर लगातार हमले हो रहे हैं। और दूसरी तरफ जो मिनरल्स हैं, उसको पाने के लिए भी लगातार लड़ाई चल रही है। दोस्तों, 24 मई को मैं अखबार पढ़ रहा था झारखंड के अंदर यहां पर आॅपरेशन ग्रीन हंट के तीसरे चरण के तहत पूरे देश के अंदर आॅपरेशन समाधान केंद्र सरकार की देख रेख में चलाया जा रहा है। जब गृह मंत्री राजनाथ सिंह थे उस समय से यह योजना तैयार हुई अभी तो गृह मंत्री बदलकर अमित शाह है। राजनाथ सिंह, अमित शाह, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जो आॅपरेशन समाधान चलाया जा रहा है, ये आॅपरेशन समाधान क्या है? आॅपरेशन ग्रीन हंट क्या था? आॅपरेशन ग्रीन हंट यह नाम ही है कि हरियाली का शिकार करो, आॅपरेशन समाधान मतलब कि जो भी मल्टीनेशनल कम्पनियों को जो प्रोब्लम्स है, इनके समस्याओं का समाधान करो और उनके समस्याओं के समाधान के लिए जो लोग इनके रास्ते में रूकावट बनते हैं, उनको खत्म कर दो। तो दोस्तों, मैं आज से दो दिन पहले अखबार पढ़ रहा था, उसमें बातें आई है कि अभी जो पूरे पांच राज्य है, झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल। इन पांच राज्य में आने वाले दिनों में एक बड़ा आॅपरेशन चलाया जाएगा। यह बड़ा आॅपरेशन नक्सलबाड़ी के वारिसों के खिलाफ चलाया जाएगा, यह बड़ा आॅपरेशन देश के उन आदिवासियों-मूलवासियों के खिलाफ चलाया जाएगा, जिनके जमीन के अंदर मिनरल्स हैं, जिनके जमीन के अंदर तमाम चीजें भरे पड़े हैं, लेकिन फिर भी वह भूखे रहने को विवश है। फिर भी वह भूख से मरने को विवश है। वे भूख से मर रहे हैं लेकिन उनके जमीन के अंदर सोना है, चांदी है, कोयला है सारा कुछ भरा हुआ है और यह सरकार, पांच राज्यों की सरकार एक हाईटेक आॅपरेशन चलाएगी। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि ये जो हाईटेक आॅपरेशन चलाया जाएगा, इसमें ये पूरे ताकत के साथ बीएसएफ को यूज करेंगे। ये आईटी बीपी को यूज करेंगे, ये आईआरबी को यूज करेंगे, सीआरपीएफ तो यूज हो ही रहा है। जो राज्य की पुलिस है, वह तो यूज हो ही रही है। इन्होंने घोषणा किया है कि सेटेलाइट से पूरी माॅनिटरिंग की जाएगी और जो भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी का सेटेलाइट है, उसकी मदद ली जाएगी। आईबी के लिए जो खुफिया जानकारी जुटाने वाली संस्था है, नेशनल टेक्निकल रिसोर्स आॅर्गेनाइजेशन है, पूरे इस आॅपरेशन पर नजर रखेगी और फौज को सपेार्ट करेगी। मतलब एक तरफ कोरोना काल में पूरे देश में लाॅकडाउन लगाकर रखा है कि लोग घर से निकलो मत, लेकिन दूसरी तरफ मल्टीनेशनल कम्पनियों को आप मिनरल्स देने के लिए, प्राकृतिक संपदाओं के दोहन की छूट देनेे के लिए, आप आदिवासियों, मूलवासियों को खदेड़ने के लिए, आप उनको जंगलों में भेज रहे हैं, बड़ा आॅपरेशन चला रहे हैं। आप कह रहे हैं कि आप पूरा का पूरा खत्म कर देंगे, पूरा का पूरा नक्सलबाड़ी के वारिसों को खत्म कर देंगे।
जनता की जमीनी हकीकत
दोस्तों, खैर अखबार की इन बातोें पर मैं ज्यादा सोचता नहीं हूं। क्योंकि लगातार अखबारों में छपते रहता है और लगातार ऐसी कोशिशें भी हुई है, अखबार में आज छपी है लेकिन लगातार झारखंड के इलाके में, छत्तीसगढ़ के इलाके में, उड़ीसा के इलाके में, बिहार के जंगली इलाके में लगातार इन्होंने हमले किये हैं। एरोप्लेन से फाइटरों को उतारा गया है, बोर्डर पर जो तोप के गोले दागे जाते थे, वे गोले भी जंगलों में इन्होंने बरसाए है। यहां पर भी लगातार ड्रोन के जरिये मोनिटरिंग हुई है। लेकिन फिर भी ये नक्सलबाड़ी के वारिसों का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाए। जरूर कुछ नुकसान तो होता ही है। लेकिन यह लड़ाई जैसा माओ ने कहा था कोई भी लड़ाई सिर्फ हथियार से नहीं जीता जा सकता है। किसी भी लड़ाई में, किसी भी युद्ध में जनता निर्णायक ताकत होती है। और जिसके पास जनता का सपोर्ट है, जनता की ताकत है, वे इस लड़ाई से भी लड़ेंगे और खास करके मेरा तो साफ मानना है कि ये पूरी की पूरी लड़ाई जो ये कह रहे हैं कि आॅपरेशन समाधान के जरिये हम सारी चीजों को खत्म कर देंगे, नक्सलवादियों को खत्म कर देंगे, दरअसल नक्सल तो बहाना है, असली निशाना जल-जंगल-जमीन की लूट है।
दोस्तों,
अभी मैं पढ़़ रहा था कि किस तरह से 21 मई को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में वहां पर एक 15 वर्षीय युवक जिसका नाम रिशुराम इस्ताम है, उसको पुलिस ने मार दिया और कहा कि ये जो है, आठ लाख का इनामी नक्सली है। लोग बोल रहे हैं कि वे राशन का सामान खरीदने गये थे और जो दंतेवाड़ा जिला में नेलगुड़ा घाट है, वहां पर नाव पर चढ़ने की तैयारी कर रहे थे, पुलिस आती है, उन्हें पकड़ कर ले जाती है और जंगल में जाकर उन्हें गोली मार देती है। और कहती हैं कि यह आठ लाख का इनामी नक्सली है।
सच्ची विरासत आगे बढ़ेगी
दोस्तों,
मैं कहना चाहता हूं, वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति में जो यह एक पूरा का पूरा अघोषित अपातकाल है कि यह आने वाले दिनों में और भी विकराल रूप धारण करेगा। जनता पर हमले और बढ़ेंगे, लेकिन जनता भी इससे लड़ने के लिए तैयार है। वे कितना दिन बर्दाश्त करेंगे? वे कब तक बर्दाश्त करेंगे? मजदूरों की सहनशीलता पार हो गयी है, अब जरूरत है तमाम जो मजदूर संगठन है, खास करके जो क्रांतिकारी मजदूर संगठन है, क्रांतिकारी छात्र संगठन है, जो युवा संगठन है और जो भी लोग क्रांतिकारी सोच रखते हैं, जो भी लोग चाहते हैं कि नक्सलबाड़ी की धारा, नक्सलबाड़ी आंदोलन का जो बीज है, वह खत्म न हो, जो चाहते हैं कि नक्सलबाड़ी किसी परिस्थिति में आगे बढ़ता रहे, चाहते हैं कि शोषणविहिन समाज की स्थापना हो, उन लोगों को भी इस आंदोलन से जुड़ना होगा। उन लोगों को भी अब मजदूर-किसानों के साथ जिस तरह से नक्सलबाड़ी आंदोलन के समय लोग जो थे, काॅलेज और विश्वविद्यालयों को छोड़कर आ रहे थे। फिर से कहने का मतलब यह नहीं है कि यह बंद हो गया है। आज भी बहुत सारे काॅलेज के स्टूडंेंट चाहे मेडिकल काॅलेज के स्टूडेंट हो, चाहे इंजीनियरिंग काॅलेज के स्टूडेंट हो, वे अभी भी नक्सलबाड़ी की जो क्रांतिकारी विरासत है, नक्सलबाड़ी की सच्ची जो धारा है, उसके साथ आज भी आ रहे हैं, पर उनकी संख्या कम है। मैं कहना चाहता हूं, अब इस संख्या को बढ़ाना होगा, हमें जनसंगठन का जो उद्देश्य है कि किस तरह से हम देश में जो सच्ची लड़ाई चल रही है। व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई चल रही है उस लड़ाई को कैसे हम धार दें? कैसे हम उस चीज को लेकर आगे बढ़ें? कैसे हम दलितों पर जो उत्पीड़न हो रहा है, उसके खिलाफ मेें इस उत्पीड़न को हमेशा के लिए समाप्त करने के लिए कैसे हम एक प्रेममयी दुनिया बनाए? कैसे एक वर्गविहिन दुनिया बनाएंगे? और हमारे देश में जो टास्क है, न्यू डेमोक्रेटिक रिवोल्युशन का, नवजनवादी क्रांति का, कैसे उस नवजनवादी क्रांति को हम पूरा करें? ये हमें लगता है कि आने वाले समय में पूरे देश की जो स्थिति बन रही है, मुझे लग रहा है कि नक्सलबाड़ी आंदोलन की सच्ची विरासत और आगे बढ़ेगी और भी लोगों को अपने अंदर समेटेगी। खास करके उन तमाम चीजों को एड्रेस करते हुए, पूरे देश की जो स्थिति बनी है, जातीय उत्पीड़न से लेकर फिर से ब्राह्मणीय-फासिवाद का जो दमन चला है, मनुवाद फिर से हावी हुआ है, जिस तरह से लोग फिर से जात-पात व तमाम चीजों को, दलितों के उत्पीड़न को बढ़ाया है नक्सलबाड़ी के आंदोलन के कुछ कमजोर हो जाने के कारण, तो मुझे लगता है कि फिर से इस आंदोलन को एक जबरदस्त धार देनी चाहिए। इसे फिर से आगे बढ़ाने की जरूरत है। और जैसे कि आप जानते हैं नक्सलबाड़ी आंदोलन का नाम लेने वाली, चारू मजूमदार का नाम जपने वाली हमारे देश के अंदर पार्टियांे की कमी नहीं है। हमारे देश के अंदर बहुत सारी पार्टियां है, इनकी पहचान करनी है हमें। आप जानते हैं कि हमारे देश में ऐसी बहुत सारी पार्टियां है, बहुत सारे ऐसे छात्र संगठन है, बहुत सारे ऐसे युवा संगठन है, ऐसे मजदूर संगठन है, जो नाम तो लेते हैं कामरेड चारू मजूमदार का, नाम तो लेते हैं नक्सलबाड़ी आंदोलन का, पर वे कामरेड चारू मजूमदार के जो विचार थे, उस विचार के साथ गद्दारी कर रहे हैं। उस विचार की पीठ पर छुरा भोंकने का काम कर रहे हैं। उस पूरे आंदोलन की पीठ में छुरा भोंकने का काम कर रहे हैं, आप जानते हैं आज दिल्ली में इन पार्टियों की आलिशान बिल्डिंगें बन रही है और उसमें काॅमरेड चारू मजूमदार की मूर्तियां लगाई जा रही है। मैं कहना चाहता हूं दोस्तों! कामरेड चारू मजूमदार को किसी बड़ी सी बिल्डिंग में बैठने की जरूरत नहीं है।
कामरेड चारू मजूमदार गांव के गरीबों के, गांव के मजदूरों के, गांव के किसानों के बीच में रहे हैं, उनको उन्हीं के बीच में रहने दीजिए महाशय, उनको आॅफिसों में जगह मत दीजिए, उनको गांव के गरीबों, किसानों के बीच रहने दीजिए। आप जानते हैं इस तरह की धारा है, जो लोगों को बरगला रही है नक्सलबाड़ी के नाम पर, कामरेड चारू मजूमदार के नाम पर, उनलोगों का भांडा फूट चुका है। आप जानते हैं कि जब इनके छात्र छात्र राजनीति में रहते हैं, तब वे बहुत लम्बी-लम्बी हांकते हैं। और खासकर के दिल्ली के लाल किला के पास नारा लगाते हैं, ‘‘लाल किला पर लाल ंझंडा फहराएंगे! कश्मीर से कन्याकुमारी, नक्सलबाड़ी-नक्सलबाड़ी’’ का नारा लगाते हैं, और जब उनका छात्र जीवन खत्म होता है, कोई प्रियंका गांधी का सेकेट्री बन जाते हैं, तो कोई कांग्रेस पार्टी में शोभा बढ़ाते हैं, तो कोई भाजपा में शोभा बढ़ाते हैं तो कोई राजद जैसी पार्टियों में, तो कोई टीएमसी जैसी पार्टियों में। मतलब कि छात्र राजनीति में रहते हुए, उनका बहुत नारा लगता है, इंकलाब जिंदाबाद, नक्सलबाड़ी लाल सलाम! लेकिन जैसेे ही वे जानते हैं, असली परीक्षा देने की घड़ी आती है, उनके विचार को गांव में उतारने की बारी आती है, तो वे चल देते हैं प्रियंका गांधी का सचिव बनने, वे चल देते हैं राजद, टीएमसी व भाजपा जैसी पार्टिंयों में भी। बहुत सारे उदाहरण पड़े हैं कि कई भाजपा जैसी पार्टियों में इनलोगों के नेता गये हैं। बात साफ है और इसमें से सबसे अधिक जिसने नक्सलबाड़ी की धारा को नुकसान पहुंचाने का काम किया है, वह सीपीआई (एमएल) लिबरेशन ने किया है। उनके तमाम जन-संगठन चाहे, आइसा हो या इनौस हो या फिर मजदूर संगठन हो या किसान संगठन हो, उसने सबसे अधिक इसके पीठ में छूरा भांेकने का काम किया है।
और भी बहुत सारी पार्टियां हैं सीपीआई (एमएल) रेडस्टार से लेकर बहुत सारी पार्टियां लेकिन उसकी उतनी पकड़ नहीं है। यह खास करके पूरा का पूरा नक्सलबाड़ी का स्लोगन देकर ‘नक्सलबाड़ी लाल सलाम’ युवाओं को गुमराह करने का काम कर रही है। मेरे जैसा युवा भी, मैं भी एक समय में इन पार्टिंयो के चक्कर मेे फंस चुका हूं। काफी समय मैंने भी इस पार्टी में बिताया है, खास करके 2003 से लेकर 20012 तक यानी 9 साल तक। पर जब गांव में जाकर जमीनी काम करने की बारी आई, गांव में काम करने के लिए गया तो इनकी असलियत सामने आती है। ये पार्टियां और पार्टियों के समान ही है, उनसे कहीं से भी अलग नहीं है। सब पार्टियां धरना प्रदर्शन करती है, ये भी करती है। हां और पार्टिंया कुछ ज्यादा भ्रष्ट है और आप कुछ इमानदार है। लेकिन इमानदार किसके लिए? आप इमानदार है इस व्यवस्था के लिए, आप इमानदार मजूदरों, किसानों, छात्रों के लिए नहीं है। आप ईमानदार है, इस व्यवस्था के लिए और आप इस व्यवस्था को बचाने की कोशिश करते हैं, अपनी हल्की-सी इमानदारी से और कोई बात नहीं है।
दोस्तो,ं आज पूरा का पूरा नक्सलबाड़ी के आंदोलन ने जो लकीर खींची थी, वह लकीर आज भी कायम है। एक तरफ नक्सलबाड़ी की क्रांतिकारी विरासत है, जो कि लड़ रही है लोगों के बीच में, जिनके तमाम लीडर पोलित ब्यूरो से लेकर सीसी तक लोगों के बीच रह रहे हैं। लोगेां के बीच गर्मी हो, बरसात हो, ठंड हो उनके बीच गुजारते हैं और एक तरफ संशोधनवादी वामपंथ की जो धाराएं हैं सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई (एमएल) लिबरेशन और ऐसी धाराएं हैं, जिसके लीडर पोलित ब्यूरो से लेकर महासचिव तक जो कि शहरों में एसी बिल्डिंगों में रहते हैं, आराम से रहते हैं और लम्बी लम्बी हांकते हैं। आज भी वह विभाजन रेखा जो वामपंथ में नक्सलबाड़ी आंदोलन ने खींची थी, आज भी विभाजन रेखा स्पष्ट है।
एक तरफ नक्सलबाड़ी का सच्चा क्रांतिकारी वारिस है, जो कि लगातार लड़ रहा है, जो कि लगातार इलाकावार सत्ता दखल के जरिये जनताना सरकार के जरिये लोगों का राज ला रही है, रिवोल्युशनरी पीपुल्स कमेटी, क्रांतिकारी जनकमेटी के जरिये लोगों का राज बना रही है, सरकार बना रही है, और एक तरफ वो वामपंथी पार्टियां हैं, जो कि इसी व्यवस्था में रह कर इसी व्यवस्था के खिलाफ लड़ने का दावा करती है। दोस्तों, नक्सलबाड़ी आंदोलन ने इस 53 सालों में तमाम चीजों को फिर से पूरा का पूरा साफ कर दिया है। दोस्तों मैं इसी बात के साथ अपनी बात को खत्म करूंगा कि आज नक्सलबाड़ी आंदोलन की सच्ची विरासत को बहुत सारे बुद्धिजीवियों, छात्रों, नौजवानों और बहुत सारे संगठनों की जरूरत है। बहुत सारे लोगांे की जरूरत है। आइए आप लोग भी शामिल होइये ऐसी लड़ाई में और नक्सलबाड़ी की क्रांतिकारी धारा पर नक्सलबाड़ी पर, अगर हम चर्चा कर रहे हैं तो आप जरूर चाहते हैं, हम जरूर चाहते हैं कि नक्सलबाड़ी की धारा आगे बढ़े और पूरे देश में नवजनवादी क्रांति की जो लड़ाई चल रही है तत्कालिक लड़ाई, उस लड़ाई में सफलता मिले, एक गैर बराबरी वाला समाज होे, दोस्तों इस बात को मैं इसी उम्मीद व विश्वास के साथ कि हमलोग नक्सलबाड़ी की जो क्रांतिकारी विरासत है, सच्ची क्रांतिकारी विरासत है, उसको आगे बढ़ाएंगे। आप आगे बढ़ाएंगे और हम सबलोग मिलकर आगे बढ़ाएंगे और एक नयी दुनिया बनाएंगे। इसी विश्वास के साथ मैं अपनी बात खत्म करता हूं। शुक्रिया! लाल सलाम!