मानव समाज, आदिम साम्यवाद, ग़ुलामदारी और सामंतवाद से होता हुआ अपने वर्तमान पूँजीवादी दौर में दाख़िल हुआ है। आदिम साम्यवाद के बाद वर्ग संघर्ष सामाजिक विकास की धुरी, इंजन रहा है। जब मानव समाज अपने पूँजीवादी दौर में दाख़िल हुआ, तब राष्ट्र अस्तित्व में आते हैं, और अलग-अलग तरह के राष्ट्रीय उत्पीड़न, राष्ट्रीय आंदोलन भी अस्तित्व में आते हैं। पूँजीवाद के आगमन से राष्ट्रीय राज्यों (राष्ट्र आधारित राज्यों) का भी आगमन होता है। सबसे पहले पश्चिमी यूरोप में राष्ट्र राज्य बनने लगे, बाद में यह परिघटना संसार के अन्य क्षेत्रों में फैल गई। संसार में राष्ट्र राज्य बनने की प्रक्रिया अभी भी मुकम्मल नहीं हुई है। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। 1940 के दशक (1940-1949) में संसार में 106 देश थे, जो कि अब 195 हैं। पिछले 70 सालों में ही दुनिया में 70 नए देश अस्तित्व में आए हैं। लेकिन ये सारे नए बने देश राष्ट्र राज्य नहीं हैं। इनमें से कई बहु-राष्ट्रीय देश भी हैं। संसार में आज भी अनेकों राष्ट्र (विशेषकर बहु-राष्ट्रीय देशों में) अपनी आज़ादी, अपने अलग राष्ट्र राज्य के लिए जूझ रहे हैं। राष्ट्रीय मुक्ति की यह लड़ाई भी सीधी रेखा में नहीं चलती, यह कभी तेज़ तो कभी धीमी होती रहती है, परंतू ख़त्म नहीं होती। पश्चिमी यूरोप जो कि राष्ट्र राज्यों की पहली जन्म-भूमि है, में भी राष्ट्र राज्य बनने की प्रक्रिया अभी पूरी नहीं हुई है। यूनाइटेड किंगडम (यू.के.) में स्कॉटलैंड, उत्तरी आयरलैंड और वेल्ज़, स्पेन में कैटालोनिया, बेल्जियम में फ़्लैमिश आदि राष्ट्र अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ‘द गार्डियन’ अख़बार के मुताबिक़ उत्तरी-दक्षिणी, पूर्वी तथा पश्चिमी यूरोप में उपरोक्त के अलावा 19 और राष्ट्र हैं जो क्षेत्रीय ख़ुदमुख़्तियारी या आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। भारत में कश्मीर तथा उत्तर-पूर्व के कुछ राष्ट्र अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं। शेष भारत में भी राष्ट्रीय प्रश्न को हल हुआ नहीं समझा जा सकता। पाकिस्तान में कश्मीर, पश्तून, बलूच आदि राष्ट्र अपनी आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। चीन में उइगारों तथा बर्मा में रोहिंग्यों पर हो रहा और हो चुका दमन सबके सामने है। श्रीलंका में तमिलों के राष्ट्रीय आज़ादी के आंदोलन को फ़िलहाल वहाँ के शासकों ने कुचल दिया है, लेकिन इससे वहाँ के तमिलों में राष्ट्रीय आज़ादी की उमंगें ख़त्म नहीं हुईं /ना ही होंगी।
हम देख सकते हैं कि संसार के बड़े हिस्से में अभी भी राष्ट्रीय प्रश्न एक जीवित प्रश्न है। राष्ट्रीय आंदोलनों, राष्ट्रीय उत्पीड़न के प्रति मज़दूर वर्ग का क्या रवैया हो? बहुत शुरू में ही मार्क्सवाद के संस्थापकों को इस प्रश्न का सामना करना पड़ा। मार्क्सवाद के संस्थापकों कार्ल मार्क्स और फ़्रेडरिक एंगेल्स ने अपने दौर के राष्ट्रीय आंदोलनों के प्रति मज़दूर वर्ग का रुख़ स्पष्ट किया। कामरेड लेनिन, कामरेड स्तालिन और कामरेड माओ ने राष्ट्रीय मसले पर मार्क्स-एंगेल्स के चिंतन को और आगे बढ़ाया।
इस चिंतन की रौशनी में हम आज के बहु-राष्ट्रीय भारत, यहाँ के राष्ट्रीय मसले को समझ सकते हैं। भारत एक विविधता भरा देश है। यहाँ बसने वाले लोग सैकड़ों जातियों, धार्मिक संप्रदायों में बँटे हुए हैं। यह देश सैकड़ों राष्ट्रीयताओं का घर है। यहाँ बसने वाले लोग सैकड़ों ही भाषाएँ बोलते हैं। इनमें से सिर्फ़ 22 ही सूचीबद्ध हैं। इन 22 भाषाओं में शामिल डोगरी कोई अलग भाषा नहीं है, बल्कि पंजाबी की उप-भाषा है। 43 और भाषाओं को भारतीय संविधान की आठवीं सूची में शामिल करने की माँग समय-समय पर उठती रहती है। आने वाले दिनों में इन माँगों के और अधिक प्रबल होने की संभावना है।
भारत एक बहु-राष्ट्रीय देश है। भारत की हुक्मरान बुर्जुआजी इसे एक राष्ट्र बनाने पर उतारू है। आज़ादी के बाद पिछले लगभग 7 दशकों से वह इसी कोशिश में लगी हुई है। इसलिए भारत में मौजूद विभिन्न राष्ट्र उत्पीड़न की चक्की में पिस रहे हैं। संविधान में भारत को संघीय ढाँचा माना गया है, लेकिन भारतीय हुक्मरानों का ज़ोर हमेशा एकात्मक ढाँचे की ओर रहता है। कभी डंके की चोट पर और ज़्यादातर मामलों में चोर-मोरियों के ज़रिए भारत में बसने वाले विभिन्न राष्ट्रों पर हिंदी थोपी जाती है। अलग-अलग भाषाओं में शिक्षा पर रोक लगाई जाती है, इन भाषाओं के स्कूल बंद किए जाते हैं।
राष्ट्रीय प्रश्न भारतीय समाज का, भारतीय क्रांति का एक अहम प्रश्न है। इसका सामना किए बिना भारत में मज़दूर क्रांति सफल नहीं हो सकती। भारत का कम्युनिस्ट आंदोलन शुरू से ही इस प्रश्न से जूझता रहा है तथा आज भी जूझ रहा है।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी अपने क्रांतिकारी दौर में अलग होने सहित राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार की वकालत करती रही है (भले ही इसकी सोच में धर्म को राष्ट्र का आधार समझने जैसे भटकाव नज़र आते रहे हैं)। पर 1951 में संशोधनवाद का रास्तापकड़ने के बाद इसने राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत को तिलांजलि दे दी और भारतीय हुक्मरानों के देश की एकता और अखंडता के समूह गान में शामिल हो गई। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का जन्म ही एक संशोधनवादी पार्टी के रूप में हुआ था, इसलिए इससे राष्ट्रीय प्रश्न पर सही अवस्थिति अपनाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। यह भी भारत की एकता और अखंडता के बेसुरे राग अलाप रही है। जिसका मतलब है, अलग-अलग राष्ट्रीयताओं को जबरन भारत देश में बाँधकर रखना।
2014 से फासीवादी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की राजनीतिक शाखा भारतीय जनता पार्टी दिल्ली के सिंहासन पर विराजमान है। यह फासीवादी हुकूमत जहाँ भारत के मज़दूरों, ग़रीब किसानों, अन्य मेहनतकशों, औरतों, दलितों और आदिवासियों के लिए ख़तरनाक है, वहीं यह भारत में बसने वाले अलग-अलग राष्ट्रों के लिए भी ख़तरनाक है। संघ परिवार का कार्यक्रम है – एक भाषा (हिंदी), एक धर्म (हिंदू) और एक राष्ट्र (हिंदुस्तान)। यह लगभग पिछली एक सदी से भारत को एक हिंदू राष्ट्र बनाने में जुटी हुई है। 1980 के बाद यह फासीवादी रुझान भारत के राजनीतिक सामाजिक दृश्य पर एक बड़ा ख़तरा बनके उभरा है। यह फासीवादी रुझान हिंदुओं के अलावा बाक़ी सभी धार्मिक अल्प-संख्यकों की हस्ती मिटाने पर आमादा है। यह भारत में बसने वाले अलग-अलग राष्ट्रों को कुचल रहा है, ताकि भारत को एक राष्ट्र बनाया जा सके। 5 अगस्त 2019 को फासीवादी शासकों ने कश्मीर से धारा 370 और 35 ए हटाकर भारतीय संघ में कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया। तब से कश्मीर कर्फ़्यू तले है। कश्मीर आज संसार का वह क्षेत्र है, जहाँ सबसे अधिक सेना तैनात है।
2014 में संघी फासीवादियों के केंद्र सरकार पर क़ाबिज़ होने के बाद भारत में राष्ट्रीय उत्पीड़न और तीखा हुआ है। सैकड़ों तरीक़ों से भारत के अलग-अलग राष्ट्रों पर हिंदी थोपने की कोशिशों में तेज़ी आई है। कश्मीर फ़ौजी बूटों तले कुचला जा रहा है। नागा राष्ट्र की आज़ादी के लिए जूझ रही नागालैंड की राष्ट्रीय समाजवादी काउंसिल के साथ चल रही बातचीत बेनतीजा रही। दिल्ली के फासीवादी शासक नागा राष्ट्रवादियों की कोई माँग मानने को तैयार नहीं थे। इस बातचीत के टूटने के बाद दिल्ली के शासकों ने फिर से नागा जनता पर फ़ौजी चढ़ाई कर दी है। भारत के उत्तर-पूर्व में चल रहे अलग-अलग राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन अधिक अध्ययन की माँग करते हैं। इन आंदोलनों के बारे में काफ़ी कुछ इस अध्ययन के बाद ही लिखा जा सकता है। ‘प्रतिबद्ध’ के आगामी अंकों में हम पाठकों को उत्तर-पूर्व के राष्ट्रीय आंदोलनों के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध कराने की कोशिश करेंगे।
नक्सलबाड़ी के बाद अस्तित्व में आए कम्युनिस्ट क्रांतिकारी शिविर ने भी भारत के राष्ट्रीय प्रश्न के प्रति हालाँकि मुख्य तौर पर सही रुख़ अपनाया है। भारत को एक बहु-राष्ट्रीय देश माना, राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धांत को बुलंद किया है, लेकिन फिर भी इसमें कई विचलन देखने को मिलते हैं। इस शिविर के ज़्यादातर ग्रुप भारत में पूँजीवादी विकास से इनकार करते हैं। वे भारत को अर्ध सामंती-अर्ध औपनिवेशिक देश मानते हैं। भारत में राष्ट्रीय प्रश्न को वे भारत के अर्ध सामंती चरित्र से जोड़कर देखते हैं। जैसे कि पूँजीवादी बहु-राष्ट्रीय देशों में राष्ट्रीय प्रश्न हो ही ना। कुछ ग्रुप राष्ट्रीय उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाते-उठाते सांप्रदायिक रास्ते पर चले गए और बिखर गए, जैसे कि पंजाब में किसी वक़्त सक्रिय रहा ‘पैग़ाम’ ग्रुप पंजाबी राष्ट्र की आज़ादी की वकालत करते-करते खालिस्तानियों के हत्थे चढ़ गया। कुछ ग्रुप इस मामले में वर्ग अपचयनवादी अवस्थिति पर जा खड़े होते हैं, ये विशेषकर मुख्य भूमि भारत में राष्ट्रीय उत्पीड़न से ही इनकार करते हैं। कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राष्ट्रों की आज़ादी के बारे में ये कोई ठोंक-बजाकर स्टैंड नहीं लेते, बस कभी-कभार जुबानी जमा-ख़र्च तक सीमित रहते हैं। इनके लिए भारत में “मज़दूर मसला” ही एकमात्र मसला है।
भारत में राष्ट्रीय मसले के हल के लिए जहाँ राष्ट्रीय संकीर्णता, राष्ट्रीय शाविनिज़्म, राष्ट्रवादियों तथा सांप्रदायिकतावादियों (धार्मिक संप्रदायों को राष्ट्रों का कुनाम देने वाले) का पिछलग्गू होना ख़तरनाक है, वहीं राष्ट्रीय मसलों को नकारने वाली, राष्ट्रीय मसलों के प्रति दिल्ली के शासकों के सुर में सुर मिलाने, राष्ट्रीय भावनाओं के प्रति संवेदनाहीन रवैया रखने वाली वर्ग अपचयनवादी अवस्थिति भी ख़तरनाक है।
पूरी दुनिया में और ख़ासकर भारत में राष्ट्रीय मसले को समझने के लिए ज़रूरी है कि हम फिर से दुनिया के मज़दूर वर्ग के महान अध्यापकों के इस मसले के बाबत विचारों की ओर लौटें। इस लेख का मक़सद राष्ट्रीय मसले, इसके विभिन्न पहलुओं के बारे में मज़दूर वर्ग के महान अध्यापकों के विचारों की पुन: प्रस्तुति है। आज हमारे पास समाजवादी देश ख़ासकर सोवियत यूनियन का तजुर्बा भी है, जिसने राष्ट्रीय उत्पीड़न के ख़ात्मे के लिए मिसाली काम किया। यहाँ मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन और स्तालिन के राष्ट्रीय प्रश्न के प्रति विचारों ने अमली रूप ग्रहण किया है। इस लेख में हम इस समृद्ध तजुर्बे की भी चर्चा करेंगे। राष्ट्रीय प्रश्न पर मज़दूर वर्ग के महान अध्यापकों के विचारों और राष्ट्रीय मसला सुलझाने के सोवियत यूनियन के तजुर्बे की रौशनी में आज राष्ट्रीय प्रश्न पर उठ रहे और भविष्य में उठने वाले विचलनों को मात दी जा सकती है और भारत में राष्ट्रीय प्रश्न का कोई ठोस हल खोजा जा सकता है। इन प्रश्न को समझकर ही भारत में मज़दूर आंदोलन को आगे बढ़ाया जा सकता है। यह लेख लिखने के लिए हमने मुख्य रूप में मार्क्स, एंगेल्स, काउत्स्की, लेनिन और स्तालिन के विचारों को आधार बनाया है । इसके लिए हमें इन अध्यापकों की राष्ट्रीय प्रश्न के बाबत रचनाओं से उद्धरणों पर अधिक निर्भर होना पड़ा है। राष्ट्रीय मसले पर लिखे जा रहे लेखों की श्रृंखला का यह पहला लेख है। ‘प्रतिबद्ध’ के आगामी अंकों में इस मसले पर दो अन्य लेख – ‘भारत में राष्ट्रीय प्रश्न’ और ‘पंजाब में राष्ट्रीय मसला’ प्रकाशित करेंगे।
राष्ट्रों की उत्पत्ति
राष्ट्र हमेशा से मानव समाज का अंग नहीं रहे और ना ही भविष्य में सदा मानव समाज का राष्ट्रों में विभाजन क़ायम रहेगा। राष्ट्र सामाजिक विकास के एक ख़ास पड़ाव, पूँजीवादी अवस्था में अस्तित्व में आते हैं। मानव इतिहास में राष्ट्रों की उत्पत्ति, विकास और इनके भविष्य को सिर्फ़ ऐतिहासिक भौतिकवाद की रौशनी में ही समझा जा सकता है। ऐतिहासिक भौतिकवाद सिखाता है कि आदिम साम्यवादी समाज के बाद, जब से मानव समाज का वर्गों में विभाजन हुआ है, वर्ग संघर्ष मानव समाज के विकास का इंजन रहा है। इसलिए राष्ट्र भी वर्ग संघर्ष ख़ासकर बुर्जुआजी के सामंती और अन्य प्राक्-पूँजीवादी सामाजिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध संघर्ष की उपज हैं।
कामरेड लेनिन लिखते हैं,
“पूँजीवाद द्वारा उत्पादन शक्तियों का तेज़ विकास बड़े, राजनीतिक रूप से एकजुट और संयुक्त इलाक़ों की माँग करता है, क्योंकि सिर्फ़ यहाँ ही बुर्जुआजी अपने अटल प्रतिपक्ष, सर्वहारा, के साथ एकीकृत होती है और सभी पुराने मध्ययुगीन, जाति से उपजे, इलाक़ावार, तुच्छ राष्ट्रीय, धार्मिक और अन्य बंदिशों का सफाया कर देती है।” (लेनिन, ‘क्रिटिकल रीमार्क्स ऑन द नेशनल क्वेश्चन’, कलेक्टिड वर्क्स, अंग्रेजी, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, संस्करण, 1972, खण्ड 20, पन्ना 45, कलेक्टिड वर्क्स से हवालों का सभी जगह अनुवाद हमारा)
इसी के बारे में लेनिन और लिखते हैं,
“सारी दुनिया में सामंतवाद पर पूँजीवाद की अंतिम विजय के काल का राष्ट्रीय आंदोलनों से संबंध रहा है। इन आंदोलनों का आर्थिक आधार यह तथ्य है कि पण्य-उत्पादन की पूर्ण विजय प्राप्त करने के लिए पूँजीपति वर्ग के लिए अंदरूनी मंडियों पर क़ब्ज़ा करना, एक ही भाषा बोलनेवाले निवासियों के राजकीय दृष्टि से एकताबद्ध इलाक़ों का होना और इस भाषा के विकास तथा साहित्य में उसकी परिपुष्टि में सभी बाधाओं का हटाया जाना आवश्यक है। भाषा मनुष्य के पारस्परिक व्यवहार का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है। आधुनिक पूँजीवाद के उपयुक्त सचमुच स्वतंत्र तथा व्यापक वाणिज्यिक आदान-प्रदान के लिए, जनसंख्या के सभी अलग-अलग वर्गों के स्वतंत्र तथा विस्तृत ढंग से समूहबद्ध होने के लिए, और अंतत: मंडी और छोटे-बड़े हर मालिक, ख़रीदार तथा विक्रेता के बीच घनिष्ठ संबंधों की स्थापना के लिए एक ही भाषा तथा उसका अबाध विकास सबसे महत्वपूर्ण शर्तों में से एक है।
इसलिए हर राष्ट्रीय आंदोलन की प्रवृत्ति राष्ट्रीय राज्य बनने की दिशा में होती है, जिसके अंतर्गत आधुनिक पूँजीवाद की ये आवश्यकताएँ सबसे अच्छे ढंग से पूरी होती हैं। गूढ़तम आर्थिक तत्व इसी तक्ष्य की ओर ले जाते हैं और इसलिए पूरे पश्चिमी यूरोप में, बल्कि पूरे सभ्य जगत में, पूँजीवादी मंज़िल के लिए राष्ट्रीय राज्य की लाक्षणिक तथा सामान्य अवस्था है। (लेनिन, ‘जातियों* का आत्मनिर्णय का अधिकार’, प्रगति प्रकाशन, मास्को, 1981, पन्ना 6, शब्दों पर ज़ोर मूल में)
(*नोट – इस निबंध के हिंदी अनुवाद के लिए स्रोत के तौर पर ली गईं विभिन्न हिंदी प्रकाशनों की किताबों में ‘राष्ट्र’/‘राष्ट्रीय’/‘राष्ट्रीयता’ (Nation/National/Nationality) के लिए ‘जाति’/‘जातीय’/‘जातीयता’ शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। हमने इन किताबों से लिए गए हवालों में ‘राष्ट्र’/‘राष्ट्रीय’/‘राष्ट्रीयता’ शब्दों का इस्तेमाल किया है। किताबों/लेखों के नामों/शीर्षकों में हमने बदलाव नहीं किया है – अनुवादक)
कामरेड स्तालिन की रचना ‘मार्क्सवाद और राष्ट्रीय प्रश्न’ (Marxism and the National Question) को राष्ट्रीय प्रश्न पर लिखे गए मार्क्सवादी साहित्य में सबसे अहम स्थान हासिल है। अपनी इस रचना में स्तालिन राष्ट्रों की उत्पत्ति के बारे में लिखते हैं,
“एक राष्ट्र सिर्फ़ एक ऐतिहासिक प्रवर्ग ही नहीं है, बल्कि एक ख़ास दौर, उभर रहे पूँजीवाद के दौर से संबंधित ऐतिहासिक प्रवर्ग है। सामंतवाद के ख़ात्मे और पूँजीवाद के विकास की प्रक्रिया उसी समय ही लोगों के राष्ट्रों में जुड़ने की प्रक्रिया भी होती है। पश्चिमी यूरोप में ऐसे उदाहरण मिलते हैं। ब्रिटिश, फ़्रांसीसी, जर्मन, इतालवी और अन्य राष्ट्रों ने पूँजीवाद के विकास और इसकी सामंती बिखराव पर जीत के मौक़े पर रूप ग्रहण किया।” (जे.वी. स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और जातीयताओं का प्रश्न’, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, संस्करण 2016, पन्ना 23)
राष्ट्रकीअवधारणा
भले ही राष्ट्रों की अवधारणा की व्याख्या करने के लिए अन्य मार्क्सवादी अध्यापकों और विद्वानों ने भी लिखा है, परंतु राष्ट्र की एक सुगठित एवं परिपूर्ण व्याख्या कामरेड स्तालिन ने अपनी पुस्तिका ‘मार्क्सवाद एवं राष्ट्रीय प्रश्न’ में की है। राष्ट्र की मार्क्सवादी अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए हम स्तालिन की इस रचना को आधार बनाएँगे।
कामरेड स्तालिन के अनुसार राष्ट्र बुनियादी तौर पर एक समुदाय, लोगों का एक निश्चित समुदाय होता है। यह समुदाय नस्ली या क़बाइली नहीं होता, बल्कि ऐतिहासिक तौर पर बना लोगों का समुदाय होता है। सामाजिक विकास के एक ख़ास पड़ाव में पूँजीवादी विकास के पड़ाव में, अलग-अलग नस्लों तथा क़बीलों से मिलकर राष्ट्र अस्तित्व में आते हैं।
दूसरी ओर यह भी सच है कि साइरस और सिकंदर की सल्तनतें भले ही ऐतिहासिक तौर पर और अलग-अलग क़बीलों व नस्लों से मिलकर बनी थीं, लेकिन इन्हें राष्ट्र नहीं कहा जा सकता। ये राष्ट्र नहीं थे, बल्कि समूहों के आरज़ी और ढीले-ढाले तरीक़े से जुड़े हुए समूह थे, जो इस या उस विजेता की जीतों या हारों के अनुसार कभी इकट्ठा हो जाते, तो कभी अलग हो जाते थे। इसलिए राष्ट्र कोई आरज़ी या अल्पकालिक समूह नहीं, बल्कि लोगों का स्थिर समुदाय होता है। परंतु प्रत्येक स्थिर समुदाय भी राष्ट्र नहीं होता। जैसे कि रूस व ऑस्ट्रिया भले ही स्थिर समुदाय हैं, लेकिन ये राष्ट्र नहीं हैं। क्योंकि एक साझी भाषा के बिना एक राष्ट्रीय समुदाय की कल्पना भी नहीं की जा सकती। स्तालिन कहते हैं कि,
“यहाँ हमारा अभिप्राय लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा से है, किसी सरकारी भाषा से नहीं।” (स्तालिन, उपरोक्त, पन्ना 23, शब्दों पर ज़ोर हमारा) (स्तालिन के इस कथन का भारत के संदर्भ में विशेष महत्व है। यहाँ लोग अनेकों भाषाएँ बोलते हैं, लेकिन भारत के संविधान में केवल 22 भाषाओं को मान्यता प्राप्त है। दिल्ली के शासकों ने तो तथाकथित हिंदी पट्टी में लोगों द्वारा बोली जाने वाली अनेकों भाषाओं को हिंदी की उप-भाषाएँ घोषित करके मौत की सज़ा सुना दी है।)
इसलिए साझी भाषा राष्ट्र के लक्षणों में से एक है। यह हो सकता है कि कई राष्ट्रों की एक भाषा हो। परंतु यह नहीं हो सकता कि एक राष्ट्र कई भाषाएँ बोलता हो। (और यह भी संभव नहीं कि कोई भाषा राष्ट्रों से ऊपर हो या कोई ऐसी भाषा हो जो किसी भी राष्ट्र की ना हो। जैसा कि भारत में हिंदी को लेकर दावा किया जाता है।) अमरीकी और अंग्रेज़ एक ही भाषा बोलते हैं, लेकिन फिर भी एक राष्ट्र नहीं हैं। इसकी वज़ह यह है कि वे साझे इलाक़े में नहीं बसते। इसलिए साझा इलाक़ा होना राष्ट्र के लक्षणों में से एक है।
“लेकिन बात सिर्फ़ इतनी-सी ही नहीं है। साझा क्षेत्र ख़ुद एक राष्ट्र क़ायम नहीं करता। इसके लिए एक अंदरूनी आर्थिक बंधन की ज़रूरत होती है जो राष्ट्र के विभिन्न हिस्सों को एकरूपता देते हैं। … अंत: एक साझा आर्थिक जीवन, आर्थिक जुड़ाव भी राष्ट्र के चारित्रिक गुणों में से एक है।” (स्तालिन, उपरोक्त, पन्ना 18)
राष्ट्र की चौथी ख़ासियत के बारे में कामरेड स्तालिन लिखते हैं,
“लेकिन बात अब भी पूरी नहीं हुई है। उपर्युक्त बातों के अलावा, एक राष्ट्र के तौर पर जुटने वाले लोगों के ख़ास आध्यात्मिक स्वरूप को भी ध्यान में रखना चाहिए। राष्ट्र न सिर्फ़ ज़िंदगी के हालात के मुआमले में एक-दूसरे से अलग होते हैं, बल्कि आध्यात्मिक स्वरूप में भी एक-दूसरे से अलग होते हैं। यही वह अंतर है जो राष्ट्रीय संस्कृति के रूप में सामने आता है। इंग्लैंड, अमरीका और आयरलैंड में एक ही भाषा बोली जाती है, लेकिन इसके बावजूद वे एक-दूसरे से भिन्न राष्ट्र हैं। इन्होंने एक ख़ास मनोवैज्ञानिक स्वरूप विकसित किया है जो अस्तित्व की अलग-थलग परिस्थितियों से पैदा हुआ है। यह सिलसिला पीढ़ियों से चला आ रहा है।
मनोवैज्ञानिक स्वरूप को दूसरे शब्दों में ‘राष्ट्रीय चरित्र’ कहा जाता है। यह सही है कि इसे लोग देख न पाएँ, इसे समझ न पाएँ, लेकिन यह राष्ट्रीय चरित्र एक अनोखी संस्कृति के रूप में सामने आता है, जो किसी राष्ट्र के लिए साझी होती है। यह आपको फ़ौरन नज़र आ जाएगी और आप इसे अनदेखा नहीं कर सकते। यहाँ यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि राष्ट्रीय चरित्र कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसमें बदलाव मुमकिन नहीं। यह ज़िंदगी के हालात के मुताबिक़ बदलता रहता है। लेकिन यह हर पल हमारे साथ होता है, इसलिए राष्ट्र के ढाँचे पर इसका असर पड़ता है। अत: एक साझा मनोवैज्ञानिक स्वरूप जो साझी संस्कृति में नज़र आता है, वह भी राष्ट्र के चारित्रिक गुणों में से एक है।” (स्तालिन, उपरोक्त, पन्ना 18-19)
आगे कामरेड स्तालिन राष्ट्र के सभी लक्षणों को इकट्ठा करके राष्ट्र की एक सुगठित परिभाषा देते हैं,
“राष्ट्र ऐतिहासिक रूप से गठित, लोगों का एक स्थिर समुदाय है जो एक साझी भाषा, साझा क्षेत्र, साझा आर्थिक जीवन और एक साझी संस्कृति में अभिव्यक्त होने वाले मनोवैज्ञानिक स्वरूप के आधार पर क़ायम हुई है।” (स्तालिन, उपरोक्त, पन्ना 19)
स्तालिन यह भी कहते हैं कि कोई समुदाय तभी राष्ट्र बनता है, यदि वह उपरोक्त चारों शर्तों को पूरा करे। यदि उपरोक्त में से केवल एक शर्त या लक्षण भी अनुपस्थित हो तो कोई भी समुदाय राष्ट्र नहीं कहला सकता। एक अन्य स्थान पर कामरेड स्तालिन कहते हैं कि पूँजीवाद की आमद से पहले राष्ट्र अस्तित्व में नहीं आ सकते थे। सामंतवाद में जब देश अलग-अलग आज़ाद रियासतों में बिखरे हुए थे, वह ना सिर्फ़ राष्ट्रीय बंधनों से दूर थे, बल्कि ऐसे बंधनों की आवश्यकता को भी रद्द करते थे। सामंती रियासतों में ना तो राष्ट्रीय बाज़ार थे और ना ही आर्थिक और या सांस्कृतिक केंद्र थे। वहाँ ऐसे कोई कारक नहीं थे जो आर्थिक बिखराव को समाप्त कर सकते और बिखरे हुए हिस्सों को एक राष्ट्रीय समुच्चय में इकट्ठा कर सकते हैं।
“लेकिन यह भी सच है कि राष्ट्र के तत्व – भाषा, इलाक़ा, साझी संस्कृति आदि आसमान से नहीं गिरे बल्कि धीरे-धीरे, यहाँ तक कि पूर्व पूँजीवादी दौर में अस्तित्व में आए। लेकिन ये अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में थे जो कि अनुकूल परिस्थितियों में, भविष्य में राष्ट्र बनने की संभावना रखते थे।” (स्तालिन, ‘द नेशनल क्वेश्चन एंड लेनिनिज़्म’, फ़ॉरेन लेंगुएजिज़ पब्लिशिंग हाउस, मास्को, 1954, अंग्रेज़ी से अनुवाद हमारा)
बहु-राष्ट्रीयराज्य
ऊपर दिए गए हवाले में लेनिन लिखते हैं, “पूरे पश्चिमी यूरोप में, बल्कि पूरे सभ्य जगत में, पूँजीवादी मंज़िल के लिए राष्ट्रीय राज्य की लाक्षणिक तथा सामान्य अवस्था है।” परंतु कुछ विशेष परिस्थितियों में दुनिया में अनेकों बहु-राष्ट्रीय देश भी अस्तित्व में आए, आज भी ऐसे देशों का अस्तित्व है। इसके साथ ही यह भी सच है कि इनमें से कई बहु-राष्ट्रीय देश बिखरकर कई राष्ट्रीय राज्य भी बनते रहे हैं। जैसा कि 20वीं सदी के दूसरे दशक में बहु-राष्ट्रीय ऑस्ट्रिया-हंगरी सल्तनत का बिखराव। 1917 की समाजवादी क्रांति से पहले रूस भी एक बहु-राष्ट्रीय देश था। जहाँ अनेकों राष्ट्रीयताएँ ज़ारशाही के बर्बर उत्पीड़न का शिकार थीं। इसीलिए रूस को रूस के क्रांतिकारी ‘राष्ट्रों की जेल’ भी कहा करते थे। अक्टूबर 1917 में रूस की विजयी समाजवादी क्रांति के बाद 1922 में राष्ट्रों के स्वैच्छिक संघ के रूप में सोवियत यूनियन अस्तित्व में आया। समाजवादी सोवियत यूनियन में एक प्रक्रिया में राष्ट्रीय उत्पीड़न ख़त्म हुआ। परंतु 1956 में संशोधनवादी ख्रुश्चेव गुट सोवियत यूनियन की सत्ता पर क़ाबिज़ हुआ। समाजवादी सोवियत यूनियन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना हुई। पूँजीवाद की पुनर्स्थापना के बाद सोवियत यूनियन में राष्ट्रीय उत्पीड़न फिर से शुरू हुआ। राष्ट्रीय झगड़े बढ़ने लगे। 1922 में राष्ट्रों की स्वेच्छा के आधार पर बना सोवियत संघ, अब स्वैच्छिक नहीं रह गया था। कई राष्ट्रों ने आज़ादी की राह पकड़ी, लेकिन फ़ौजी दमन के ज़रिए उनकी आज़ादी का अधिकार छीन लिया गया। 1980 के अंत और 1990 की शुरुआत में जब सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत यूनियन का आंतरिक संकट बहुत तीखा हुआ तो 1991 में सोवियत यूनियन का विघटन हो गया। इसके परिणामस्वरूप 15 देश अस्तित्व में आए। इसी तरह संशोधनवादी यूगोस्लाविया बिखरकर 7 देशों में विभाजित हो गया। चेकोस्लोवाकिया का भी यही हश्र हुआ। आज भी दुनिया में बहु-राष्ट्रीय देश मौजूद हैं। परंतु इन देशों में राष्ट्रों की आज़ादी की आवाज़ें उठ रही हैं। परंतु हुकूमती डंडे के ज़ोर पर ये बहु-राष्ट्रीय राज्य क़ायम हैं। जैसा कि स्पेन में कैटेलन जनता आज़ादी के लिए लड़ रही है। परंतु स्पेनी हुक्मरान फ़ौजी दमन के द्वारा कैटेलन जनता की आज़ादी की माँग को कुचल रहे हैं। तीसरी दुनिया के बहु-राष्ट्रीय देशों में जहाँ देर से पूँजीवादी विकास हुआ और कमज़ोर, लंगडा-लूला पूँजीवादी विकास हुआ, जहाँ बुर्जुआ जनवाद का दायरा बहुत सीमित है, में राष्ट्रीय उत्पीड़न अधिक वहशी है।
कामरेड स्तालिन बहु-राष्ट्रीय राज्यों की परिघटना की व्याख्या करते हुए लिखते हैं, “लेकिन राष्ट्रों में उभरने वाले ये लोग (यहाँ स्तालिन का इशारा पश्चिमी यूरोप के देशों की तरफ़ है – लेखक) बावक़्त आज़ाद राष्ट्रीय राज्यों में भी बदल गए थे…।
पूर्वी यूरोप में हालात कुछ दूसरे तरह के थे। जहाँ पश्चिमी राष्ट्रीयताएँ राज्यों में तब्दील हो रही थीं, वहीं पूर्व में बहुराष्ट्रीय राज्य वजूद में आ रहे थे जिनमें बेशुमार राष्ट्रीयताएँ शामिल थीं। ऑस्ट्रिया-हंगरी और रूस ऐसे ही बहुराष्ट्रीय राज्य हैं।…
राज्यों के गठन का यह तरीक़ा सिर्फ़ उन्हीं स्थानों पर संभव हो सकता था, जहाँ सामंतवाद को पूरी तरह नेस्तनाबूद न किया जा सका हो, जहाँ पूँजीवाद की स्थिति कमज़ोर हो, जहाँ राष्ट्रीयताओं को पीछे धकेल दिया गया हो, वे आर्थिक रूप से इतनी मज़बूत न हो पाई हों कि ख़ुद को राज्य के तौर पर एकता में बाँध सकें।” (स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और जातीयताओं का प्रश्न’, उपरोक्त, पन्ना 23-24)
स्तालिन के इस हवाले से कोई यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि बहु-राष्ट्रीय राज्य वहाँ बनते हैं या वे होते हैं जहाँ अभी सामंतवाद का अंत ना हुआ हो। ऐसा भ्रम ना पैदा हो सके इसलिए स्पष्ट कर दें कि स्तालिन ऐसे राज्यों के अस्तित्व में आने के समय और कारणों की चर्चा कर रहे हैं। किसी राज्य का बहु-राष्ट्रीय स्वरूप यहाँ पूँजीवादी विकास की राह में रुकावट नहीं बनता।
स्तालिन लिखते हैं,
“लेकिन पूर्वी राज्यों में भी पूँजीवाद विकसित होने लगा था। कारोबार और संचार के साधनों का विकास हो रहा था। बड़े शहर उभरने लगे थे। राष्ट्र आर्थिक रूप से संगठित होने लगे थे।” (उपरोक्त, पन्ना 24)
कार्ल काउत्स्की दुनिया का एक बड़ा मार्क्सवादी विचारक हुआ है। परंतु बाद में वह भटककर संशोधनवाद के ग़लत रास्ते पर चल पड़ा। परंतु जब वह मार्क्सवादी होता था, तो उसने भी राष्ट्रीय प्रश्न पर लिखा। इस मसले पर उसकी एक महत्वपूर्ण रचना है, ‘राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता’ (Nationality and Internationality) (1907/08)। कामरेड लेनिन भी राष्ट्रीय मसले पर काउत्स्की की इस रचना का हवाला देते हैं। बहु-राष्ट्रीय राज्यों के बारे में काउत्स्की लिखता है,
“राष्ट्रीय राज्य, राज्य का वह रूप है जो मौजूदा संबंधों के अनुसार है, वह रूप जिसमें यह अपने कार्य सबसे अधिक आसानी से पूरा कर सकता है। फिर भी हर राज्य इस रूप तक पहुँचने के लिए नवाज़ा हुआ नहीं है। जैसे कई सामंती या यहाँ तक कि आदिम साम्यवादी काम करने के ढंग उत्पादन के आधुनिक ढंग तक विस्तार हासिल कर लेते हैं, इसी तरह एक वक़्त जब राज्य अपने कई राष्ट्रीय अंगों से मिलकर बनते थे, बिना अपनी ताक़त गँवाए या असाधारण आंतरिक टकरावों या अंतरविरोधों के, बचे रहते हैं। यहाँ तक कि राष्ट्रीय राज्यों में अभी भी बहु-राष्ट्रीय राज्यों के अवशेष (Remains) हैं। इनके साथ-साथ हालाँकि ऐसे राज्य भी हैं जो पूरी तरह से राष्ट्रीयताओं के राज्य हैं।
ये ऐसे राज्य हैं जिनकी आंतरिक संरचना, चाहे जिस भी कारण से हो, पिछड़ी हुई या असाधारण बनी रहती है। (काउत्स्की का यह कथन भारत, पाकिस्तान या तीसरी दुनिया के अन्य ऐसे देशों के लिए ख़ास तौर पर उपयुक्त है। – लेखक) तुर्की या रूस के मामले में यह साफ़ देखा जा सकता है, लेकिन यह आर्थिक रूप से विकसित दो देशों, बेल्जियम और स्विट्ज़रलैंड के लिए भी सही है” (कार्ल काउत्स्की, ‘नेशनेलिटी एंड इंटरनेशनेलिटी’, भाग 2, क्रिटीक, भाग 38, नंबर 1, पन्ना 149, फ़रवरी 2010, अंग्रेज़ी से अनुवाद हमारा)
स्तालिन भी रूस के और ऑस्ट्रिया के राष्ट्रीय मसले में फ़र्क़ करते हैं। उनका कहना है,
“अन्त में, जो भी फ़ौरी काम इस समय रूस और ऑस्ट्रिया के सामने मौजूद हैं, वे बिल्कुल भिन्न हैं और इसलिए राष्ट्रीय सवाल के हल के लिए भिन्न तरीक़े अपनाने पर बाध्य करते हैं। ऑस्ट्रिया में संसदीय प्रणाली विद्यमान है, और मौजूदा समय में कोई भी काम बिना संसद के संभव नहीं है। लेकिन ऑस्ट्रिया में संसदीय और विधायी काम में राष्ट्रीय पार्टियों के बीच गंभीर संघर्ष के कारण ठप हो जाते हैं। इससे ऑस्ट्रिया के समय-समय पर उभरने वाले उस राजनीतिक संकट के बारे में पता चलता है जिससे ऑस्ट्रिया लंबे समय से जूझ रहा है। इसलिए, ऑस्ट्रिया में राष्ट्रीय सवाल राजनीतिक गतिविधियों में हलचल पैदा करता है। यह बहुत अहम सवाल है। इसलिए इसमें हैरत की कोई बात नहीं है कि ऑस्ट्रियाई सामाजिक-जनवादी राजनीतिज्ञ राष्ट्रीय टकराव को हल करने के लिए कोई न कोई रास्ता निकालना चाहें।…
रूस में ऐसी बात नहीं है। पहली बात तो यह कि “रूस में कोई संसद नहीं है, इसके लिए ईश्वर को धन्यवाद।” दूसरी बात जो बहुत अहम भी है, यह है कि रूस में राष्ट्रीय नहीं बल्कि कृषि का सवाल केंद्र में है। इसलिए रूसी समस्या का भविष्य और राष्ट्रों की “मुक्ति” की समस्या भी कृषि के सवाल के हल … से जुड़ी हुई है। (स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और जातीयताओं का प्रश्न’, उपरोक्त, पन्ना 34, शब्दों पर ज़ोर हमारा)
ऑस्ट्रिया में राष्ट्रीय प्रश्न ऐसे रूप में था कि यहाँ ना तो कोई राष्ट्र किसी दूसरे का उपनिवेश ही था और ना ही यहाँ सामंती संबंध, या कृषि प्रश्न था।
काउत्स्की का कहना है कि कई बहु-राष्ट्रीय राज्यों में एक राष्ट्र का स्पष्ट दबदबा होता है और यह भी संभव है कि किसी बहु-राष्ट्रीय देश में किसी एक राष्ट्र का स्पष्ट दबदबा ना हो। उसका कहना है,
“अपनी बारी में रूस में चीज़ें ऑस्ट्रिया से भिन्न भी हैं और थोड़ी सरल भी हैं। रूस अनेकों राष्ट्रीयताओं वाला एक बड़ा केंद्रीकृत राज्य है, परंतु इसका मुख्य केंद्र (Core) बड़ी आबादी वाले रूसियों से बनता है और अन्य राष्ट्रीयताएँ इस सल्तनत के हाशिए पर बसी हुई हैं।
यूरोपीय रूस की आबादी में 8 करोड़ 40 लाख रूसी, 80 लाख पोल, 50 लाख यहूदी, 30 लाख लिथुआनियाई, लगभग इतने ही फिन, 20 लाख जर्मन और 10 लाख रोमानियाई और आर्मेनियाई हैं। रूस इन राष्ट्रों को बिना किसी समस्या के ख़ुदमुख़्तियारी दे सकता है। वास्तव में, ये राष्ट्र, जिस हद तक जुड़े हुए प्रदेशों में रहते हैं, मुख्य देश के अस्तित्व के लिए किसी भी तरह ख़तरा खड़ा किए बिना, इससे अलग भी किए जा सकते हैं।
परंतु ऑस्ट्रिया में स्थिति भिन्न है। यह अपने राष्ट्रों की बड़ी संख्या – कुल 9 या 11, यदि चेक के साथ ही स्लोवाकों को और क्रोएटों के साथ ही सर्बों को शामिल कर लें – के कारण स्विट्ज़रलैंड और बेल्जियम से भिन्न है।… ऑस्ट्रिया की स्थिति रूस से भी भिन्न है कि यहाँ कोई भी राष्ट्र संख्या पक्ष से दूसरे राष्ट्रों से विचारणीय लाभ की हालत में नहीं है और कि कोई भी राष्ट्र सल्तनत का केंद्र नहीं बनता। (इस मामले में बहु-राष्ट्रीय भारत की स्थिति ऑस्ट्रिया जैसी है। – लेखक) यहाँ जर्मनों की कुल संख्या 1 करोड़ 10 लाख, हंगेरियन (मग्यार) 90 लाख, चेक (स्लोवाकों सहित) 80 लाख, पोल और रुबेनियन 40-40 लाख, स्लोवेनियाई 10 लाख हैं। बाद वाले राष्ट्र परिधि पर बसते हैं, लेकिन तीन बड़े राष्ट्र – जर्मन, मग्यार और चेकोस्लोवाकियाई, सल्तनत के केंद्र में फैले हुए हैं। वियाना के क़रीब ब्रातिस्लावा में ये आपस में टकराती हैं। यूरोप का कोई भी बहु-राष्ट्रीय राज्य, इसमें शायद यूरोपीय तुर्की एक अपवाद है, राष्ट्रीयताओं के संबंध में इतनी मुश्किल स्थिति में नहीं है। यह अनूठे बहुराष्ट्रीय राज्य की नुमाइंदगी नहीं करता, क्योंकि यहाँ कोई भी अनूठे बहु-राष्ट्रीय राज्य नहीं हैं – प्रत्येक बहुराष्ट्रीय राज्य अपने आप में एक अलग मामला है”। (कार्ल काउत्स्की, ‘नेशनेलिटी एंड इंटरनेशनेलिटी’, उपरोक्त, पन्ना 150-151)
इस बात की पुष्टि लेनिन भी करते हैं। रूस और ऑस्ट्रिया में राष्ट्रीय मसले की तुलना करते हुए लेनिन लिखते हैं कि पहले ऑस्ट्रिया में,
“पहली बात यह है कि हम पूँजीवादी-जनवादी क्रांति के पूरी होने का बुनियादी सवाल उठाते हैं। ऑस्ट्रिया में यह क्रांति 1848 में आरंभ हुई और 1867 में पूरी हुई। तब से, लगभग पचास वर्ष से वहाँ जिस चीज़ का प्रभुत्व रहा है, वह कुल मिलाकर पूर्णत: स्थापित पूँजीवादी संविधान है जिसके आधार पर मज़दूरों की एक क़ानूनी पार्टी क़ानूनी ढंग से काम कर रही है।
इसलिए ऑस्ट्रिया के विकास की अंतर्निहित परिस्थितियों में (अर्थात ऑस्ट्रिया में आम तौर पर, और उसकी अलग-अलग राष्ट्रों में ख़ास तौर पर, पूँजीवाद के विकास के दृष्टिकोण से) कोई ऐसे कारक नहीं हैं, जिनकी वजह से ऐसी छलाँग मारना संभव हो, जिसका एक परिणाम राष्ट्रीय रूप से स्वतंत्र राज्यों की स्थापना हो।…
दूसरे, जिस प्रश्न पर हम विचार कर रहे हैं, उसकी दृष्टि से ऑस्ट्रिया की राष्ट्रीयताओं तथा रूस की राष्ट्रीयताओं के सर्वथा भिन्न पारस्परिक संबंध बहुत महत्व रखते हैं। केवल यही बात नहीं है कि ऑस्ट्रिया बहुत समय तक एक ऐसा राज्य रहा, जिसमें जर्मन लोगों की प्रधानता रही, बल्कि बात यह भी थी कि ऑस्ट्रियाई जर्मन समूचे तौर पर जर्मन राष्ट्र में भी अगुआई का दावा करते थे। शायद रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग (जिन्हें देखने में तो पिटी-पिटाई बातों, घिसी-पिटी चीज़ों और अमूर्त बातों से बहुत चिढ़ है…) यह याद करने की कृपा करेंगी कि 1866 के युद्ध ने इस “दावे” की धज्जियाँ उड़ा दीं। ऑस्ट्रिया में जिस जर्मन राष्ट्र की प्रधानता थी, उसने अपने को उस स्वतंत्र जर्मन राज्य के घेरे से बाहर (ज़ोर मूल में – लेखक) पाया, जिसका निर्माण अंतत: 1871 में संपन्न हुआ। दूसरी ओर हंगरीवालों की एक स्वतंत्र राष्ट्रीय राज्य बनाने की कोशिश बहुत पहले, 1849 में रूसी भूदास सेना के हमलों की वजह से निष्फल हो चुकी थी।
इस प्रकार एक विचित्र परिस्थिति पैदा हो गई : हंगरीवालों की तरफ़ से, और फिर चेकों की तरफ़ से भी, ऑस्ट्रिया से अलग होने की नहीं, बल्कि इसके विपरीत, ठीक राष्ट्रीय स्वतंत्रता को बनाए रखने के उद्देश्य से, जो अधिक ख़ूँख़ार तथा शक्तिशाली पड़ोसियों द्वारा पूरी तरह कुचली जा सकती थी, उसकी अखंडता को बनाए रखने की कोशिश की गई। इस विचित्र परिस्थिति के कारण ऑस्ट्रिया ने एक द्विकेंद्रीय (दोहरे) राज्य का रूप धारण कर लिया और इस समय वह एक त्रिकेंद्रीय (तेहरे) राज्य (जर्मन, हंगेरियाई तथा स्लाव) में रूपांतरित हो रहा है।
क्या रूस में इस प्रकार की कोई बात है? क्या हमारे देश में बदतर राष्ट्रीय उत्पीड़न के ख़तरे से बचने के लिए ग़ैर-रूसियों की तरफ़ से रूसियों के साथ एकता स्थापित करने की कोई कोशिश हुई?
राष्ट्रीयताओं के प्रश्न के बारे में रूस की विशिष्ट परिस्थितियाँ उन परिस्थितियों से बिल्कुल उल्टी हैं, जो हम ऑस्ट्रिया में पाते हैं। रूस एक ऐसा राज्य है, जिसका राष्ट्रीय दृष्टि से केवल एक ही समरूप केंद्र है – रूस। (लेनिन, ‘जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार’, उपरोक्त, पन्ना 19-20, शब्दों पर ज़ोर हमारा)
आगे काउत्स्की लिखता है कि ऑस्ट्रिया में अमीर राष्ट्र भी बसते हैं और ग़रीब भी। उसका कहना है,
“ज़्यादातर पूँजीपति जर्मनों में से हैं – जो कि ऑस्ट्रिया में पैदा किए जाते, यहाँ तक कि जो अधिशेष मूल्य दूसरे राष्ट्रों द्वारा पैदा किया जाता है, को झपट लेते हैं।” (उपरोक्त, पन्ना 155)
ऑस्ट्रियाई अर्थव्यवस्था में जर्मन पूँजीपतियों के दबदबे की तरह ही, भारत की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में गुजराती और मारवाड़ी पूँजीपतियों का दबदबा है। फोर्ब्स अमीरों की सूची 2019 के अनुसार, भारत के 100 सबसे अमीरों में से 80 प्रतिशत गुजराती हैं। यदि इनमें मारवाड़ी भी जोड़ लिए जाएँ, तो यह प्रतिशत और ऊपर चला जाता है।
बहु-राष्ट्रीय ऑस्ट्रिया के भविष्य के बारे में काउत्स्की कहता है,
“ऑस्ट्रिया के शक्ति संबंधों को देखते हुए, इसका पतन नज़र नहीं आता। परंतु यह भी उतना ही सच है कि इसके राष्ट्रीय संबंध अरक्षणीय बन चुके हैं; वे समस्त सामाजिक और राजनीतिक विकास को बाधित कर रहे हैं।” (उपरोक्त)
काउत्स्की द्वारा यह लेख लिखे जाने के क़रीब 10 साल बाद ऑस्ट्रिया-हंगरी सल्तनत का पतन हो गया और वह अलग-अलग राष्ट्रीय राज्यों और बहु-राष्ट्रीय राज्यों में विभाजित हो गई।
दो तरह के राष्ट्र
कामरेड स्तालिन राष्ट्रों को दो क़िस्मों में बाँटते हैं – बुर्जुआ राष्ट्र और समाजवादी राष्ट्र। स्तालिन लिखते हैं,
“ऐसे राष्ट्र बुर्जुआ राष्ट्र कहलाते हैं। उदाहरण के तौर पर फ़्रांसीसी, ब्रिटिश, इतालवी, उत्तरी-अमरीकी और ऐसे अन्य राष्ट्र। इसी तरह हमारे देश में सर्वहारा अधिनायकत्व और सोवियत व्यवस्था की स्थापना से पहले रूसी, यूक्रेनी, तातार, आर्मेनियाई, जॉर्जियाई और रूस में अन्य राष्ट्र बुर्जुआ राष्ट्र ही थे। स्वाभाविक रूप से, ऐसे राष्ट्रों का भाग्य पूँजीवाद के भाग्य से जुड़ा हुआ है; पूँजीवाद के पतन के साथ, ऐसे राष्ट्र भी लाज़िमी ही परिदृश्य से विदा हो जाते हैं।… बुर्जुआजी और इसकी राष्ट्रवादी पार्टियाँ इस दौर में ऐसे राष्ट्रों की मुख्य अगुआ ताक़त होती हैं।…
लेकिन यहाँ अन्य राष्ट्र भी हैं। ये नए, सोवियत राष्ट्र हैं, जिन्होंने रूस में पूँजीवाद को उखाड़ फेंकने, बुर्जुआजी और इसके राष्ट्रवादी दलों के ख़ात्मे के बाद, सोवियत व्यवस्था की स्थापना के बाद, पुराने बुर्जुआ राष्ट्रों के आधार पर विकसित हुई हैं तथा आकार ग्रहण किया है।
मज़दूर वर्ग और इसकी अंतरराष्ट्रीय पार्टी वह ताक़त है जो इन नए राष्ट्रों को मजबूत करती है और उनका नेतृत्व करती है। पूँजीवाद के अवशेषों के ख़ात्मे के लिए राष्ट्रों के भीतर मज़दूर वर्ग और मेहनतकश किसानी का गँठजोड़ क़ायम किया जाता है ताकि विजयी तौर पर समाजवाद का निर्माण हो सके; राष्ट्रीय उत्पीड़न के अवशेषों के ख़ात्मे के लिए ताकि राष्ट्रों और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों में बराबरी हो सके और वे आज़ादी से विकास कर सकें; राष्ट्रवाद के ख़ात्मे के लिए ताकि लोगों में दोस्ती हो सके और अंतरराष्ट्रीयवाद मज़बूती के साथ स्थापित हो सके; क़ब्ज़ों की नीति और क़ब्ज़ों के लिए युद्धों के विरुद्ध संघर्ष में, साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष में, सभी दबे-कुचले और ग़ैर-बराबर राष्ट्रों का संयुक्त मोर्चा क़ायम किया जाता है – इन राष्ट्रों का इस तरह का आत्मिक, और सामाजिक व राजनीतिक रंग-रूप होता है।
ऐसे राष्ट्र समाजवादी राष्ट्र कहलाते हैं।” (स्तालिन, ‘लेनिनिज़्म एंड नेशनल क्वेश्चन’, कॉमरेड मेश्कोव, कोवलचुक व अन्य को जवाब, 18 मार्च 1929, अंग्रेज़ी से अनुवाद हमारा)
वर्ग बनाम राष्ट्र
वर्ग व राष्ट्र सामाजिक विकास के अलग-अलग पड़ावों में उत्पन्न हुए। हालाँकि राष्ट्र मानव समाज के वर्गों में विभाजन के बहुत बाद में अस्तित्व में आए, लेकिन राष्ट्रों का ख़ात्मा, वर्गों के ख़ात्मे के साथ अटूट रूप में जुड़ा हुआ है। आज संसार अनेकों राष्ट्रों में विभाजित है और आगे ये राष्ट्र वर्गों में विभाजित हैं। विभिन्न देशों, राष्ट्रों की वर्ग सरंचना, यहाँ की उत्पादन शक्तियों के विकास के स्तर के अनुसार अलग-अलग है।
राष्ट्र व वर्ग सामाजिक विकास के वस्तुगत अमल के आधार पर अस्तित्व में आए, उनका उभार एवं विकास उत्पादन शक्तियों और उत्पादन संबंधों द्वारा ही निर्धारित होता है। मार्क्स और एंगेल्स ने दर्शाया कि वर्गों का अस्तित्व सामाजिक उत्पादन के विकास के कुछ निश्चित दौरों से बँधा हुआ है। उत्पादन शक्तियों की वृद्धि ने, जिसके कारण अधिशेष उपज और श्रम का सामाजिक विभाजन अस्तित्व में आया तथा उत्पादन के साधनों का निजी स्वामित्व स्थापित हुआ, वर्गों की रचना की राह साफ़ की। आदिम साम्यवाद के पतन के कारण मानव समाज के वर्गों में विभाजन का उदय हुआ।
वर्गों को परिभाषित करते हुए लेनिन लिखते हैं,
“वर्ग लोगों के बड़े समूह हैं, ऐतिहासिक रूप से निर्धारित सामाजिक उत्पादन की प्रणाली में हासिल अपने स्थान, उत्पादन के साधनों के साथ अपने संबंधों (ज़्यादातर मामलों में क़ानून द्वारा सूत्रबद्ध और निर्धारित होते हैं), श्रम के सामाजिक संगठन में अपनी भूमिका और नतीजतन सामाजिक धन में अपने हिस्से के आयामों और इसे हासिल करने के ढंग द्वारा एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। वर्ग लोगों के समूह हैं जिनमें से एक, सामाजिक अर्थव्यवस्था में अपने अलग स्थान के कारण दूसरे का श्रम हड़प सकता है।” (लेनिन, ‘ए ग्रेट बिगिनिंग’, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 29, पन्ना 421)
शुरू में राष्ट्र उभर रही बुर्जुआजी के नेतृत्व में अन्य मेहनतकश जनता के सामंतवाद के विरुद्ध संघर्ष के कारण अस्तित्व में आए। सामाजिक उत्पादन के विकास ने भी इसमें अपनी भूमिका निभाई। सामाजिक उत्पादन के विकास ने लोगों में आर्थिक संबंध मज़बूत किए, आबादी की सघनता में वृद्धि करके उसे सामाजिक समुदायों के बड़े रूप में एकजुट होने के क़ाबिल बनाया। इनके उत्थान के परिणामस्वरूप सामंती फूट का ख़ात्मा हुआ। एक बोली बोलने वाले एक राष्ट्र में एकजुट लोगों की आबादी वाले इलाक़े राजनीतिक तौर पर एकजुट हुए, देश के अलग-अलग हिस्सों में आर्थिक संबंध परिपक्व हुए, एक राष्ट्रीय बाज़ार अस्तित्व में आया। राष्ट्रों का जन्म हुआ। राष्ट्रों का गठन एक बोली बोलने वाली आबादी वाले इलाक़ों के एकीकरण की आर्थिक आवश्यकता के प्रभाव के तहत हुआ।
वर्गों और लोगों में जो साझा है, वह यह है कि वे लोगों के भिन्न रूप में क़ायम समुदाय हैं। उनकी जड़ें समाज के भौतिक जीवन में हैं और इसके साथ ही यह तथ्य चेतना में भी झलकता है। वर्गीय समूह मुख्य रूप से अपनी आर्थिक हैसियत के कारण भिन्न होते हैं। परंतु वर्ग केवल आर्थिक संरचना नहीं होता, बल्कि सामाजिक संगठन भी होता है। किसी एक वर्ग के लोग अपने रहन-सहन के ढंग और परिस्थितियों के अनुसार कम या ज़्यादा ख़ास वर्ग चेतना तथा वर्गीय मनोविज्ञान की ख़ासियतों को जन्म देते हैं। मार्क्स का कहना है,
“संपत्ति के विभिन्न रूपों के आधार पर और, अस्तित्व की सामाजिक परिस्थितियों के भिन्न तथा विशेष तरीके़ से बनी भावनाओं, भ्रमों, सोचने के तरीक़ों और जीवन के प्रति विचारों की एक पूरी अधिरचना खड़ी होती है। समूचा वर्ग इन्हें अपने भौतिक आधारों और संबंधित सामाजिक संबंधों में से निर्मित करता है।” (कार्ल मार्क्स, फ्रे़डरिक एंगेल्स, चुनिंदा रचनाएँ, भाग पहला, पन्ना 421, अंग्रेज़ी से अनुवाद हमारा)
राष्ट्र भी वर्गों की तरह समाज की भौतिक जीवन परिस्थितियों के एक निश्चित समूह से संबंधित हैं। एक राष्ट्र के विशेष भौतिक तत्व, साझा इलाक़ा और आर्थिक जीवन का एक समुदाय होता है। जो कि राष्ट्रों के सभी हिस्सों को एक समुच्चय में बाँधता है। एक राष्ट्र को उसके आत्मिक जीवन के ख़ास लक्षणों, ख़ास राष्ट्रीय विलक्षणताओं, एक भाषा या बोली तथा राष्ट्रीय चेतना के ज़रिए से भी प्रकट किया जा सकता है।
समाज या एक राष्ट्र का वर्गों में विभाजन और मानवता के राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं आदि में विभाजन की विभिन्न ऐतिहासिक जड़ें हैं। फिर भी राष्ट्रों और वर्गों के बीच संबंधों को एक-दूसरे से अलग करके नहीं समझा जा सकता। राष्ट्रों की संरचना, राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन के विकास तथा राष्ट्रीय राज्यों के बनने की प्रक्रिया को वर्गों को ध्यान में रखे बिना नहीं समझा जा सकता।
एक बुर्जुआ समाज में एक राष्ट्र के भीतर वर्गों के बढ़ रहे वैर-विरोध और इसके साथ ही मेहनतकश जनता का मज़दूर वर्ग और इसके हिरावल दस्ते के इर्द-गिर्द इकट्ठा होना, समाजवादी क्रांति की राह को साफ़ करते हैं, जिसके ज़रिए बुर्जुआ राष्ट्र समाजवादी राष्ट्रों में बदलते हैं। एक राष्ट्र का परस्पर विरोधी वर्गों में तीखा विभाजन और उनके बीच तीखे टकराव का अर्थ यह नहीं की एक राष्ट्र का अस्तित्व ही नहीं रहा।
एक राष्ट्र के अंदर तीखे संघर्ष में जुटे परस्पर विरोधी वर्गों के अस्तित्व का अर्थ यह नहीं होता कि एक राष्ट्र का लोगों के एक स्थिर समुदाय के रूप में अस्तित्व नहीं रहा। वर्गों के बीच विरोध भले ही कितने भी तीखे क्यों ना हों, राष्ट्र लुप्त नहीं हो जाता। जिस तरह प्रत्येक वर्ग की अपनी वर्ग विचारधारा और मनोविज्ञान होता है, उसी तरह एक राष्ट्र का साझा राष्ट्रीय मनोविज्ञान भी होता है।
राष्ट्रीय उत्पीड़न – राष्ट्रीय आंदोलन – राष्ट्रीय राज्य
राष्ट्रीय उत्पीड़न और राष्ट्रीय आंदोलन को समझने के लिए ज़रूरी है कि पहले राष्ट्रीय मसले के अलग-अलग दौरों और क़िस्मों को समझा जाए। पूँजीवाद के उभार के साथ राष्ट्र अस्तित्व में आते हैं, ये साम्राज्यवाद के युग में भी रहते हैं और समाजवाद के युग में भी। अब तक राष्ट्रीय आंदोलन या राष्ट्रीय मसले के भी यही तीन दौर रहे हैं। पहले दौर में राष्ट्रीय मसले की दो क़िस्में रही हैं, जिनकी चर्चा थोड़ा आगे चलकर करेंगे। राष्ट्रीय मसले के दौरों और क़िस्मों को समझना, राष्ट्रीय मसले को ऐतिहासिक चौखटे में रखकर समझने के लिए ज़रूरी है। राष्ट्रीय मसला भी कोई अपरिवर्तनीय चीज़ नहीं है। अलग-अलग दौरों के अनुसार इसका चरित्र, इसके कार्य बदलते रहते हैं। कामरेड स्तालिन कुछ साथियों की राष्ट्रीय मसले पर ग़लत समझ की आलोचना करते हुए लिखते हैं,
“राष्ट्रीय प्रश्न से संबंधित आपकी ग़लतियों में एक यह है कि आप इसे समाज के राजनीतिक एवं सामाजिक विकास के आम प्रश्न के अंग के रूप में नहीं लेते, बल्कि इस तरह लेते हैं जैसे यह कोई स्थिर और अपने आप में कोई चीज़ हो, जिसका चरित्र व दिशा इतिहास के पथ पर अपरिवर्तनीय रहता हो। इसलिए आप वह देखने में असफल रहते हैं जिसे हर मार्क्सवादी देखता है, यानी कि राष्ट्रीय प्रश्न का हमेशा एक ही और वही चरित्र नहीं रहता, कि क्रांति के विकास के विभिन्न दौरों में राष्ट्रीय आंदोलन का चरित्र और कार्य बदलते रहते हैं।…
…रूसी मार्क्सवादियों ने हमेशा इस प्रस्थापना को अपना प्रस्थान बिंदु बनाया है कि राष्ट्रीय प्रश्न क्रांति के विकास के आम प्रश्न का अंग है, कि क्रांति के विभिन्न पड़ावों पर राष्ट्रीय प्रश्न के विभिन्न लक्ष्य होते हैं, जो कि दिए गए प्रत्येक ऐतिहासिक पल में क्रांति के चरित्र के अनुरूप होते हैं। और कि इसके अनुसार ही राष्ट्रीय प्रश्न पर पार्टी की नीति बदलती है।” (स्तालिन, ‘नेशनल क्वेश्चन एंड लेनिनिज़्म’, कॉमरेड मेश्कोव, कोवलचुक व अन्य को जवाब, 18 मार्च 1929, अंग्रेज़ी से अनुवाद हमारा)
ख़ास ऐतिहासिक दौर में क्रांति के कार्यभारों और चरित्र के संबंध में राष्ट्रीय प्रश्न की क़िस्मों का प्रश्न, राष्ट्रीय प्रश्न के लक्ष्यों तथा चरित्र की क़िस्मों का प्रश्न है। राष्ट्रीय प्रश्न के दौरों एवं क़िस्मों को समझने का प्रश्न दरअसल राष्ट्रीय मसले में शामिल वर्ग अंतरविरोधों, वर्गीय शक्तियों, शामिल राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं और देशों की क़िस्मों को समझना है। यह समझना है कि ये अलग-अलग पहलू कैसे राष्ट्रीय प्रश्न के कार्यभारों को प्रभावित करते हैं। राष्ट्रीय प्रश्न के अलग-अलग दौरों को गड्ड-मड्ड करने के ग़लत परिणाम निकलते हैं। इन्हें गड्ड-मड्ड करने से राष्ट्रीय प्रश्न पर बेहद ग़लत समझदारी ही पैदा होती है। यह भी एक वज़ह है कि अक्सर लोग राष्ट्रीय प्रश्न के अलग-अलग पहलुओं पर मेंढकी उछल-कूद करते रहते हैं।
कामरेड स्तालिन के अनुसार,
“राष्ट्रीय समस्या से संबंधित सीधा पार्टी के ठोस फ़ौरी कार्यभारों की तरफ़ आने से पहले, हमें लाज़िमी ही निश्चित आधार तैयार कर लेना चाहिए, जिसके बग़ैर राष्ट्रीय समस्या का समाधान असंभव है। यह आधार राष्ट्रों के उभार, राष्ट्रीय उत्पीड़न की उत्पत्ति, ऐतिहासिक विकास के दौरान राष्ट्रीय उत्पीड़न द्वारा अपनाए गए रूपों, और विकास के अलग-अलग दौरों में राष्ट्रीय मसले के हल के रूपों से संबंधित है।
यहाँ तीन ऐसे दौर हैं।
पहला दौर पश्चिम में सामंतवाद के टूटने और पूँजीवाद की विजय का है। लोगों का राष्ट्रों में एकत्रित होना इस दौर में घटित हुआ। यहाँ मेरा मतलब ग्रेट ब्रिटेन (आयरलैंड के बिना), फ़्रांस व इटली जैसे देशों से है। पश्चिम में ग्रेट ब्रिटेन, फ़्रांस, इटली और आंशिक रूप में जर्मनी में सामंतवाद के टूटने व लोगों के राष्ट्रों में संघटन (constitution) का समय, केंद्रीकृत राज्यों के उभार के दौर से मेल खाता है, जिसका नतीजा यह निकला कि राष्ट्रों ने विकास करके राजकीय रूप हासिल कर लिया।
इन राज्यों के भीतर किसी विचारणीय आकार का कोई और राष्ट्रीय समूह नहीं था, इसलिए यहाँ कोई राष्ट्रीय उत्पीड़न जैसी चीज़ नहीं थी। इसके विपरीत, पूर्वी यूरोप में राष्ट्रीयताओं के निर्माण तथा सामंती फूट के ख़ात्मे का समय, केंद्रीकृत राज्य बनने की प्रक्रिया से मेल नहीं खाता था। यहाँ मेरा मलतब, हंगरी, ऑस्ट्रिया और रूस से है। इन देशों में अभी पूँजीवादी विकास शुरू नहीं हुआ था, शायद यह सिर्फ़ प्रारंभिक अवस्था में था, परंतु तुर्क, मंगोल और अन्य पूर्वी लोगों के हमलों से बचाव के लिए केंद्रीकृत राज्यों की ज़रूरत थी जो कि बिना किसी देरी के हमलावरों के हमलों से निपट सके। इस तरह पूर्वी यूरोप में केंद्रीकृत राज्यों के निर्माण की प्रक्रिया लोगों के राष्ट्रों में संघटन से तेज़ी से आगे बढ़ी, मिले-जुले राज्य उभरे, जो कई राष्ट्रीयताओं, जिन्होंने अभी ख़ुद को राष्ट्रों में इकट्ठा नहीं किया था, परंतु जो पहले एक ही राज्य के अंदर इकट्ठा हो गई थीं, से मिलकर बने।
इस तरह पहला दौर पूँजीवाद की भोर के समय राष्ट्रीयताओं के जन्म का दौर है : पश्चिमी यूरोप में हम शुद्ध रूप में राष्ट्रीय राज्य देखते हैं, जो राष्ट्रीय उत्पीड़न से अनजान थे, जबकि पूर्व में हम बहु-राष्ट्रीय राज्यों का जन्म देखते हैं जहाँ एक ज़्यादा विकसित राष्ट्र बाक़ी कम विकसित राष्ट्रों में अग्रणी होता है, बाक़ी राष्ट्र राजनीतिक तौर पर और फिर आर्थिक तौर पर इन हावी राष्ट्रों के अधीन होते हैं। पूर्व के ये राष्ट्र राष्ट्रीय उत्पीड़न के जन्म स्थान थे, जिसने राष्ट्रीय झगड़ों, राष्ट्रीय आंदोलनों, राष्ट्रीय समस्याओं और इस समस्या के समाधान के अलग-अलग ढंगों को जन्म दिया।
राष्ट्रीय उत्पीड़न और इसके विरुद्ध लड़ने के तरीक़ों के विकास का दूसरा दौर साम्राज्यवाद के प्रकट होने के साथ मेल खाता है, जब बाज़ारों, कच्चे तेल, ईंधन और सस्ती श्रम शक्ति की तलाश, पूँजी के निर्यात के लिए प्रतिस्पर्धा एवं महान रेल व समुद्री मार्गों को हथियाने के लिए पूँजीवाद राष्ट्रीय राज्य की सीमाओं को तोड़ता है और अपने पास व दूर वाले पड़ोसियों की क़ीमत पर अपने इलाक़े का विस्तार करता है। इस दूसरे दौर में, पश्चिम के पुराने राष्ट्रीय राज्य जैसा कि ग्रेट ब्रिटेन, इटली एवं फ़्रांस अब राष्ट्रीय राज्य नहीं रहे, दूसरे शब्दों में नए इलाक़ों पर क़ब्ज़े से ये बहु-राष्ट्रीय, उपनिवेशों के मालिक राज्य बन गए, इस तरह राष्ट्रीय और उपनिवेशवादी उत्पीड़न, जो कि पूर्वी यूरोप में पहले से ही विद्यमान था, का अखाड़ा बन गए। पूर्वी यूरोप में यह दौर ग़ुलाम राष्ट्रों (चेक, पोल, यूक्रेनी) के जोश और जागृति का दौर है, जो कि साम्राज्यवादी युद्ध के परिणामस्वरूप, पुराने बहु-राष्ट्रीय बुर्जुआ राज्यों के बिखराव और नए राष्ट्रीय राज्यों, जिन्हें कि तथाकथित महान शक्तियों द्वारा बंधन में रखा गया, के निर्माण की ओर ले गया।
तीसरा दौर सोवियत दौर है, जो कि पूँजीवाद की तबाही और राष्ट्रीय उत्पीड़न के ख़ात्मे का दौर है।…
ये राष्ट्रीय समस्या के विकास के ऐतिहासिक तौर पर जाने गए तीन दौर हैं”। (स्तालिन, रूस की कम्युनिस्ट पार्टी कांग्रेस में पेश रिपोर्ट, 10 मार्च, 1921, ‘मार्क्सिज़्म एंड द नेशनल एंड कोलॉनियल क्वेश्चन’, अंग्रेजी, कनिष्का पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली, संस्करण 1991, पन्ना 111-113, इस पुस्तक से लिए गए सभी उद्धरणों का अनुवाद हमारा)
राष्ट्रीय मसले के उपरोक्त तीन दौरों में से पहले दौर की दो क़िस्में रही हैं जिनमें से बाद वाली में (बहु-राष्ट्रीय राज्यों में) राष्ट्रीय उत्पीड़न का जन्म हुआ। इन तीनों दौरों में से पहला (दूसरी क़िस्म) और दूसरा दौर राष्ट्रीय उत्पीड़न और राष्ट्रीय आंदोलनों के गवाह बने जबकि तीसरा दौर (समाजवादी क्रांतियों का दौर) राष्ट्रीय उत्पीड़न के ख़ात्मे का गवाह बना।
कामरेड स्तालिन ने अपनी उपरोक्त रचना में ही लिखा है कि राष्ट्रीय उत्पीड़न के उपरोक्त दौरों में एक समानता है कि इनमें उत्पीड़न और इसके विरुद्ध संघर्ष जारी रहा और उनमें भिन्नता भी है। भिन्नता यह है कि पहले दौर में राष्ट्रीय समस्या अलग-अलग बहु-राष्ट्रीय राज्यों की सीमा का अतिक्रमण नहीं करती थी, यह इन राज्यों की आंतरिक समस्या थी। दूसरे दौर में यह किसी ख़ास राज्य की समस्या से बदलकर कई राज्यों को प्रभावित करने वाली, उपनिवेशों की आम समस्या में बदल गई और समूचे संसार की सतह पर फैल गई। “राष्ट्रीय उत्पीड़न आंतरिक प्रश्न से अंतरराज्यीय प्रश्न बन गया था।” (स्तालिन, ‘मार्क्सिज़्म एंड द नेशनल एंड कोलॉनियल क्वेश्चन’, उपरोक्त, पन्ना 100)
19वीं-20वीं शताब्दियाँ उपनिवेशवादी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्षों की गवाह रही हैं। 20वीं सदी में कई स्थानों पर यह संघर्ष कम्युनिस्टों के नेतृत्व में लड़े गए और कई स्थानों पर बुर्जुआ राष्ट्रवादियों के नेतृत्व में। दूसरे विश्व युद्ध के बाद एक लंबी प्रक्रिया में विश्व में उपनिवेशवादी व्यवस्था ख़त्म हुई। इसमें मुख्य भूमिका आंतरिक कारक, यानि औपनिवेशिक, अर्ध औपनिवेशिक देशों के लोगों के साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की थी। इसके साथ ही दूसरे विश्व युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का कमज़ोर होना, समाजवादी खेमे का उभार, जिसने उपनिवेशों, अर्ध उपनिवेशों के मुक्ति संग्रामों की बेगरज़ मदद की, आदि कारकों ने भी अपनी भूमिका निभाई। कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय उत्पीड़न का दूसरा रूप आज मुख्य तौर पर ख़त्म हो चुका है परंतु पहला रूप अभी बचा हुआ है। यूरोप में भी और उत्तर औपनिवेशिक देशों, जहाँ दूसरे विश्व युद्ध के बाद सामंती उत्पादन संबंधों का पूँजीवादी उत्पादन संबंधों में रूपांतरण हुआ, इनमें से कई बहु-राष्ट्रीय राज्यों के रूप में उभरे, यहाँ जारी राष्ट्रीय उत्पीड़न, ऊपर ज़िक्र में आई राष्ट्रीय उत्पीड़न की पहली क़िस्म से मिलता-जुलता है।
आइए अब इस प्रश्न की ओर लौटते हैं कि राष्ट्रीय उत्पीड़न क्या है?
ऊपर चर्चा में आए प्रारंभ में पूर्वी यूरोप में अस्तित्व में आए बहु-राष्ट्रीय राज्यों के संबंध में स्तालिन लिखते हैं,
“लेकिन पूर्वी राज्यों में भी पूँजीवाद विकसित होने लगा था। कारोबार और संचार के साधनों का विकास हो रहा था। बड़े शहर उभरने लगे थे। राष्ट्र आर्थिक रूप से संगठित होने लगे थे। राष्ट्रीयताओं के शांत जीवन में पूँजीवाद ने खलल पैदा कर दी थी, और उन्हें पीछे धकेल दिया था। अब वही पूँजीवाद राष्ट्रीयताओं को बेदार कर रहा था, और सक्रिय होने के लिए बाध्य कर रहा था। प्रेस और थियेटर का विकास, रीख़स्रात* (ऑस्ट्रिया) और दूमा** (रूस) की गतिविधियाँ ‘राष्ट्रीय भावनाओं’ को मज़बूत बना रही थीं। बुद्धिजीवी वर्ग भी उभर आया था। वह ‘राष्ट्रीय विचारों’ से ओतप्रोत था, और उसी दिशा में सक्रिय था। … (*रीखस्रात- ऑस्ट्रियनों की संसद, **दूमा- रूस की संसद – लेखक)
लेकिन जिन राष्ट्रों को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया था और जो अब आज़ाद जीवन जीने के लिए बेदार हो गई थीं, उनके अंदर ख़ुद को आज़ाद राष्ट्रीय राज्यों के तौर पर गठित करने की क़ुव्वत नहीं थी। जब वे इस रास्ते पर चलीं तो उन्हें दबदबे वाले राष्ट्रों के शासक वर्ग का सामना करना पड़ा। ये वे ताक़तें थीं जिन्होंने काफ़ी पहले ही सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया था। इन राष्ट्रों ने बहुत देर कर दी थी।
इस तरीक़े से चेक, पोल आदि ने ऑस्ट्रिया में ख़ुद को राष्ट्रों में संगठित किया; क्रोएटों ने हंगरी, लेट्ट, लिथुआनियाइयों, यूक्रेनियों, जॉर्जियाइयों, आर्मेनियनों आदि ने रूस में ख़ुद को राष्ट्र के रूप में संगठित किया। पश्चिमी यूरोप (आयरलैंड) में जो कुछ एक अपवाद था, वही पूर्वी यूरोप में नियम बन गया।…
संघर्ष शुरू हुआ, और बढ़ता गया। यह संघर्ष राष्ट्रों के बीच नहीं था। यह संघर्ष दबदबे वाले राष्ट्रों के शासक वर्ग और उन राष्ट्रों के बीच था जिन्हें पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया था। यह संघर्ष आमतौर पर पीड़ित राष्ट्रों के शहरी निम्न पूँजीवादी वर्ग ने दबदबे वाले राष्ट्रों के बड़े पूँजीवाद वर्ग (चेक और जर्मन) केख़िलाफ़, या पीड़ित राष्ट्र के ग्रामीण पूँजीवादी वर्ग ने दबदबे वाले राष्ट्र (पोलैंड में यूक्रेनी) के ज़मींदारों के ख़िलाफ़, या पीड़ित राष्ट्रों के मुकम्मल ‘राष्ट्रीय’ पूँजीवादी वर्ग ने दबदबे वाले राष्ट्र (रूस में पोलैंड, लिथुआनिया और यूक्रेन) के कुलीन वर्ग के ख़िलाफ़ छेड़ा।
नेतृत्वकारी भूमिका पूँजीवादी वर्ग ने निभाई।
युवा पूँजीवाद की सबसे बड़ी समस्या बाज़ार की समस्या है। उसका उद्देश्य यह है कि वह अपना माल बेचे और भिन्न राष्ट्रीयता के पूँजीवादियों की प्रतिस्पर्धा में विजय हासिल करे। इसलिए इसकी इच्छा यही होती है कि वह अपने ‘घरेलू बाज़ार’ को अपने लिए बचाकर रखे। …
… संघर्ष आर्थिक दायरे से निकलकर राजनीतिक दायरे में पहुँच जाता है। आवागमन की आज़ादी पर प्रतिबंध, भाषा पर दमन, मताधिकार पर प्रतिबंध, स्कूलों को बंद करना, धार्मिक प्रतिबंध आदि ‘प्रतिस्पर्धी’ के सिर थोप दिए जाते हैं। यक़ीनन, ये उपाय न केवल प्रभावशाली राष्ट्र के पूँजीवादी वर्गों के हितों को ध्यान में रखकर किए जाते हैं, बल्कि शासक नौकरशाही के विशेष राष्ट्रीय उद्देश्यों को आगे बढ़ाने के लिए भी किए जाते हैं…
पीड़ित राष्ट्रों के पूँजीपति वर्ग का हर स्तर पर दमन होता है, और वह स्वाभाविक रूप से आंदोलित हो जाता है।” (स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और जातीयताओं का प्रश्न’, उपरोक्त, पन्ना 24-26)
स्तालिन के उपरोक्त हवाले में एक बात ध्यान खिंचती है कि उपरोक्त बहु-राष्ट्रीय देशों में उत्पीड़ित राष्ट्र उन अर्थों में हावी राष्ट्र के उपनिवेश या अर्ध-उपनिवेश नहीं थे जिन अर्थों में तीसरी दुनिया के देश साम्राज्यवादी देशों के उपनिवेश या अर्ध-उपनिवेश बने। उपरोक्त बहु-राष्ट्रीय राज्य पहले ही देश के रूप में अपना वजूद रखते थे, यहाँ बाद में हुए पूँजीवादी विकास की बदौलत अलग-अलग राष्ट्र अस्तित्व में आए और यहाँ राष्ट्रीय झगड़े अस्तित्व में आए, इनमें से पीड़ित राष्ट्रों में अपना-अलग राष्ट्रीय राज्य बनाने की आकांक्षाएँ पैदा हुईं।
आगे स्तालिन लिखते हैं,
“यक़ीनन, राष्ट्रीय आंदोलन की विषय-वस्तु हर जगह एक-सी नहीं होती। यह आंदोलन द्वारा उठाई गई नाना प्रकार की माँगों पर निर्भर करती है। आयरलैंड में आंदोलन का खेतिहर स्वरूप है; बोहेमिया में उसमें ‘भाषा’ का पुट है; एक स्थान पर नागरिक समानता और धार्मिक आज़ादी की माँग है तो दूसरी जगह राष्ट्रों के ‘अपने’ पदाधिकारियों या उसके अपने डायट की।” (स्तालिन, उपरोक्त, पन्ना 26)
स्तालिन के उपरोक्त हवाले से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय आंदोलन का भूमि चरित्र हो भी सकता है और नहीं भी। दरअसल इस आंदोलन की माँगों में विविधता रहती है।
20वीं सदी में तीसरी दुनिया के औपनिवेशिक और अर्ध-औपनिवेशिक देशों के राष्ट्रीय आंदोलन सामंतवाद विरोधी (कृषि) और उपनिवेशवाद एवं साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन थे। परंतु यह शर्त उपरोक्त तरह के बहु-राष्ट्रीय देशों पर लागू नहीं होती।
स्तालिन अपनी उपरोक्त पुस्तिका में ही कहते हैं कि यदि राष्ट्रीय आंदोलन में मज़दूर (बुर्जुआजी के साथ अविकसित दुश्मनी के कारण, वर्ग चेतना की कमी, संगठन की कमी आदि कारणों के चलते) और किसान (ज़मीन के चलते) इसमें शामिल होते हैं तो राष्ट्रीय आंदोलन जन-चरित्र अख़्तियार कर लेता है। बोहेमिया (आज का चेक गणराज्य) में राष्ट्रीय आंदोलन ने भाषाई चरित्र अख़्तियार किया परंतु उस समय यह जन-आंदोलन नहीं बना। परंतु हम जानते हैं कि 1918 में ऑस्ट्रो-हंगरी सल्तनत से अलग होने के पहले चेक स्लोवाकिया गणराज्य बना और फिर 1993 के शुरू में चेक गणराज्य एक अलग राष्ट्रीय राज्य बना।
एक अन्य लेख में कामरेड स्तालिन राष्ट्रीय उत्पीड़न को इस तरह परिभाषित करते हैं,
“राष्ट्रीय उत्पीड़न क्या है? राष्ट्रीय उत्पीड़न पराधीन जनता के शोषण और लूट की वह निज़ाम है, पराधीन जनता के सार्वभौमिक अधिकारों पर ज़बरदस्ती प्रतिबंध लगाने का वह उपाय है जिसे साम्राज्यवादी हलकों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है। इन सबको मिलाकर जो नीति बनती है, उसे ही राष्ट्रीय उत्पीड़न की नीति कहते हैं।
पहला सवाल यह है कि किस वर्ग के समर्थन के आधार पर कोई सरकार विशेष राष्ट्रीय उत्पीड़न की नीति अपनाती है? इसके पहले कि इस सवाल का जवाब दिया जाए, यह जानना ज़रूरी है कि भिन्न राज्यों में क्यों भिन्न तरह के राष्ट्रीय उत्पीड़न होते हैं, क्यों एक राज्य में ज़्यादा सख़्त राष्ट्रीय उत्पीड़न होता है, और दूसरे राज्य में कम। मिसाल के तौर पर ग्रेट ब्रिटेन और ऑस्ट्रिया-हंगरी में राष्ट्रीय उत्पीड़न ने कभी नस्लकुशी की सूरत अख़्तियार नहीं की, लेकिन वह पराधीन जनता के राष्ट्रीय अधिकारों पर प्रतिबंध के तौर पर मौजूद रहा। दूसरी तरफ़ रूस में उसने प्राय: नस्लकुशी और क़त्लेआम की सूरत अख़्तियार की। कुछ राज्यों में राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ कोई ख़ास कार्रवाई नहीं की जाती। मिसाल के तौर पर, स्विट्ज़रलैंड में राष्ट्रीय उत्पीड़न बिल्कुल नहीं है जहाँ फ्रांसीसी, इतालवी और जर्मन आज़ादी से ज़िंदगी बसर करते हैं।
हम भिन्न-भिन्न राज्यों में राष्ट्रीयताओं के प्रति भिन्न-भिन्न रवैयों को कैसे समझ सकते हैं?
इन राज्यों में मौजूद जनवाद के स्तर से हम यह अंतर समझ सकते हैं। जब पुराने दिनों में रूस में ज़मींदार कुलीनवर्ग (Land aristocracy) का राजसत्ता पर नियन्त्रण था, तब राष्ट्रीय उत्पीड़न ने सिर उठाया था। तब उसने क़त्लेआम और नस्लकुशी की भयानक सूरत अख़्तियार कर ली थी। ग्रेट ब्रिटेन में एक निश्चित हद तक जनवाद क़ायम है, और वहाँ राजनीतिक आज़ादी है। इसलिए वहाँ राष्ट्रीय उत्पीड़न कम जघन्य है। स्विट्ज़लैंड में लगभग एक जनवादी समाज मौजूद है, और वहाँ छोटे राष्ट्रों को कमोबेश पूरी आज़ादी है। संक्षेप में, कोई देश जितना अधिक जनवादी होगा, वहाँ उतना ही राष्ट्रीय उत्पीड़न कम होगा; इसी तरह जो देश जितना कम जनवादी होगा, वहाँ उतना ही राष्ट्रीय उत्पीड़न अधिक होगा। चूँकि जनवाद से हमारा तात्पर्य है कि वहाँ एक निश्चित वर्ग राज्यसत्ता को नियंत्रित करता है, इसलिए हम कह सकते हैं कि जनता अधिक ज़मींदार कुली नवर्ग (जैसा कि ज़ारशाही रूस में था) राज्य शक्ति के निकट होगा, उत्पीड़न उतना ही सख़्त होगा, और उतने ही भयानक रूप में होगा।
बहरहाल, राष्ट्रीय उत्पीड़न सिर्फ़ ज़मींदार कुलीन वर्ग ही नहीं करता। यह उत्पीड़न करने वाली कुछ और भी शक्तियाँ हैं। मिसाल के तौर पर साम्राज्यवादी समूह जो उपनिवेशों में लोगों को ग़ुलाम बनाने के तरीक़े अपने देश में भी चलाते हैं। इस तरह वे ज़मींदार कुलीन वर्ग के स्वाभाविक मित्र बन जाते हैं।” (स्तालिन, ‘रिपोर्ट ऑन द नेशनल क्वेश्चन’, 29 अप्रैल 1917, अंग्रेज़ी से अनुवाद हमारा)
स्तालिन के उपरोक्त हवाले से स्पष्ट है कि राष्ट्रीय उत्पीड़न भिन्न-भिन्न प्रकार के राज्यों में हो सकता है। ज़रूरी नहीं कि यह उन्हीं राज्यों में हो, जिनमें भूमिपति कुलीन शाही (सामंती वर्ग) सत्ता में हो।
अपनी एक अन्य रचना में स्तालिन जब उत्पीड़ित राष्ट्र को परिभाषित करते हैं तो इसमें उस राष्ट्र की बुर्जुआजी को शामिल नहीं करते। सिर्फ़ जनता को राष्ट्रीय उत्पीड़न का शिकार कहते हैं,
“अक्टूबर क्रांति और आगे बढ़ी और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं को सर्वहारा के इर्द-गिर्द लामबंद करने की कोशिश की। यह पहले ही कहा जा चुका है कि इन राष्ट्रीयताओं के दस में से नौ हिस्से किसान और क़स्बों के मेहनतकश छोटे व्यापारियों (tradesfolk) के बनते हैं।
लेकिन इससे “उत्पीड़ित राष्ट्रीयता” की अवधारणा समाप्त नहीं हो जाती। उत्पीड़ित राष्ट्रीयताएँ आम तौर पर सिर्फ़ किसान और शहरी मेहनतकश व्यापारियों के रूप में ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीयताओं के रूप में यानी किसी ख़ास राज्य के मेहनतकशों के रूप में, भाषा, संस्कृति, जीवन शैली, रीति-रिवाजों और आदतों के रूप में, भी उत्पीड़ित होती हैं। दोहरा उत्पीड़न उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं की मेहनतकश जनता का क्रांतिकारीकरण करने का प्रयास करता है और उन्हें उत्पीड़न की मुख्य शक्ति पूँजी के विरुद्ध संघर्ष करने की ओर धकेलता है।” (स्तालिन, ‘मार्क्सिज़्म एंड द नेशनल एंड कोलॉनियल क्वेश्चन’, उपरोक्त, पन्ना 213)
बहु-राष्ट्रीय राज्यों की नियति के बारे में कामरेड स्तालिन लिखते हैं,
““राष्ट्रीय राज्य, जैसे फ़्रांस और इटली, जो पहले अपनी राष्ट्रीय शक्तियों पर निर्भर थे, उन्होंने राष्ट्रीय उत्पीड़न के बारे में सुना नहीं था। इसके विपरीत, बहु-राष्ट्रीय राज्य जो एक राष्ट्र की या शासक वर्ग की बालादस्ती में रहते थे, वहाँ राष्ट्रीय उत्पीड़न और राष्ट्रीय आंदोलन होते रहते थे। शासक राष्ट्र और पराधीन राष्ट्रों के हितों के बीच अंतरविरोध इतने ज़्यादा हैं कि जब तक उन्हें हल नहीं किया जाएगा, बहुराष्ट्रीय राज्यों के स्थिर अस्तित्व की स्थापना असंभव है। बहुराष्ट्रीय पूँजीवादी राज्य की त्रासदी यह है कि वह निजी संपत्ति और वर्गीय विषमता को क़ायम रखते हुए इन अंतरविरोधों पर विजय हासिल करने का प्रयास करता है। वह राष्ट्रों को ‘एक स्तर’ पर लाने व राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की ‘रक्षा’ करने की भी कोशिश करता है। वह इस तरह की जितनी कोशिश करता है वे सब नाकाम हो जाती हैं। इससे राष्ट्रीय टकराव में भी तेज़ी आती है।” (स्तालिन, उपरोक्त, पन्ना 100, शब्दों पर ज़ोर हमारा)
इतिहास ने बहु-राष्ट्रीय बुर्जुआ राज्यों की नियति के बारे में स्तालिन के इस मूल्यांकन को सही सिद्ध किया। ऑस्ट्रो-हंगरी सल्तनत का बिखराव, सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत यूनियन का बिखराव इस रुझान की प्रसिद्ध मिसालें हैं। आज भी दुनिया में जिन बहु-राष्ट्रीय बुर्जुआ राज्यों का अस्तित्व है, इनके आगे दो ही रास्ते हैं। या तो समाजवादी क्रांति के ज़रिए यहाँ राष्ट्रों की स्वैच्छिक यूनियन अस्तित्व में आए, नहीं तो दूसरा रास्ता इनके बिखराव का ही है।
बहु-राष्ट्रीय राज्यों की नियति और राष्ट्रीय राज्यों की उत्पत्ति के बारे में कार्ल काउत्स्की के विचार भी ध्यान चाहते हैं। इससे संबंधी काउत्स्की के विचारों का सार इस प्रकार है –
काउत्स्की का कहना है कि व्यापारी और बुद्धिजीवी अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक समुदाय के मध्यस्थ बनते हैं। उसी समय वे राष्ट्रीय चेतना का भी झंडा उठाते हैं। माल उत्पादन के विकास के साथ शिक्षा प्रणाली का विकास होता है और किसानों के बच्चों को भी स्कूल जाना पड़ता है, जबकि पहले उन्हें इसकी ज़रूरत नहीं होती थी। शिक्षा पर जहाँ पहले शासक वर्गों का विशेषाधिकार होता था, अब एक हद तक की स्कूली शिक्षा समाज के विकास की पूर्ण शर्त बन जाती है। लोग चाहते हैं कि उन्हें शिक्षा मिले और यह शिक्षा उन्हें उनकी भाषा में ही दी जा सकती है। लोग चाहते हैं कि अध्यापक भी उनकी अपनी राष्ट्रीयता के हों, जिन्हें वे बिना मुश्किल के समझ सकें।
उत्पादन और विज्ञान का विकास सिर्फ़ अध्यापकों की ही नहीं अन्य बुद्धिजीवियों की भी ज़रूरत पैदा करता है। छोटे संपत्ति मालिकों, किसानों, दुकानदारों, दस्तकारों को वकीलों और हर एक को डॉक्टरों की ज़रूरत होती है। लोग इनके साथ तभी बातचीत कर सकते हैं, यदि वे उनकी भाषा जानते हों।
पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के हर सदस्य के लिए, सभी आधुनिक वर्गों के लिए, मज़दूरों और पूँजीपतियों सहित, राष्ट्र का आकार महत्व रखता है। यहाँ तक कि मज़दूरों के लिए भी यदि शेष सभी स्थितियाँ समान हों तो जितना बड़ा मज़दूर का राष्ट्र होगा, उतनी ही विस्तृत उसकी श्रम गतिशीलता होगी। भले ही वह ज़्यादा तनख़्वाह वाले काम के लिए अन्य इलाक़ों में प्रवास कर सकता है, लेकिन उस स्थिति में वह पूँजीपति पर अधिक निर्भर होता है और अपने साथी मज़दूरों के साथ बातचीत में मुश्किल महसूस करता है, क्योंकि उन क्षेत्रों में उसकी भाषा नहीं बोली जाती। परंतु मज़दूर इस समस्या पर क़ाबू पा सकते हैं और प्रदेश की भाषा आसानी से सीख सकते हैं।
बुद्धिजीवी, पूँजीपतियों और मज़दूरों से ज़्यादा, राष्ट्र के आकार में दिलचस्पी रखता है। उसके लिए भाषा संचार के माध्यम से ज़्यादा महत्व रखती है। यह उसका सबसे बढ़िया औज़ार, कई बार उसके पास सिर्फ़ एक ही चीज़ होती है, जिसका वह दूसरों के साथ लेन-देन कर सकता है। कवि और वक्ता, भले ही वह राजनीतिज्ञ, न्यायधीश या पादरी हो, उसे अपनी भाषा में, इसकी सारी शक्ति और बारीकियाँ, इसकी गहराई और प्रचुरता में महारत हासिल करनी पड़ती है।
आधुनिक राज्यों के उभार के साथ राष्ट्रीय भावनाएँ मज़बूत हुईं, जो कि अंतरराष्ट्रीय पारस्परिक क्रिया की तरह उसी स्रोत यानी उत्पादन के पूँजीवादी ढंग से पैदा होती हैं।
मध्ययुग में राज्य कई छोटे कैंटनों, ज़िलों और आर्थिक रूप से आज़ाद बाज़ार समूहों, जो स्व-शासित थे और सरकारी प्राधिकरण पर निर्भरता की पतली डोर से जुड़े हुए थे। दरअसल इन सभी समुदायों में अपनी भाषा बोली जाती थी। यह किसी भी तरह ज़रूरी नहीं था, कि ये सब रियासतें (Polities) जिनसे मिलकर एक राज्य बनता था, वे एक भाषा बोलें।
लेकिन पूँजीवाद के आगमन से यह बदल जाता है। स्थानीय की जगह केंद्रीकृत प्रशासन, वेतनभोगी नौकरशाही ले लेती है, सामंती ताबेदार फ़ौज (Vassalage) की जगह स्थायी फ़ौज ले लेती है। स्थायी फ़ौज ने शुरू में भाषाओं की विविधता को बर्दाश्त किया। परंतु बाद में एक भाषा इसकी ज़रूरत बन जाती है। सेना में आदेश की भाषा और आला अधिकारियों की भाषा एक ही होनी चाहिए।
नौकरशाही, जिसने न्याय, पुलिस, अर्थव्यवस्था, सीमा शुल्क, यातायात, कर प्रणाली आदि के विविधतापूर्ण कार्यों को पूरा करना होता है, के लिए भाषा की एकता और ज़्यादा महत्व रखती है। इसके अभाव में कार्य सुचारू रूप से चल ही नहीं सकता है। केंद्रीकृत नौकरशाहना निरंकुशता राज्य प्रशासन में हर जगह एक भाषा की इच्छा रखती है।
परंतु नौकरशाहों ने सिर्फ़ आपस में ही बात नहीं करनी होती बल्कि लोगों से भी बात करनी होती है। इसलिए राज्य के प्रतिनिधि के लिए लोगों की भाषा सीखनी ज़रूरी है, “आबादी का एक भाषाई होना भी उतना ही महत्वपूर्ण बन गया जितना कि नौकरशाही का।” (काउत्स्की, ‘नेशनेलिटी एंड इंटरनेशनेलिटी’, उपरोक्त, पन्ना 146, शब्दों पर ज़ोर हमारा)
इसलिए 18वीं सदी में ही निरंकुश राज्य ने, राष्ट्रीय राज्य, जिसमें सिर्फ़ एक ही भाषा बोली जाए, बनने की कोशिश की है। इसने साम्राज्य की शासक भाषा के क्षेत्रों में विस्तार की कोशिश की। “दूसरी ओर इसने अपने ग़ुलामों पर, जो इसकी भाषा नहीं बोलते थे, मुख्य तौर पर स्कूली शिक्षा के ज़रिए यह भाषा थोपने की कोशिश की। उसी वक़्त बहुत से नौकरशाहों ने सोचा और कई आज भी सोचते हैं कि स्कूली शिक्षा शासकों की ज़रूरतों के अनुसार लोगों को ढाल सकती है।” (काउत्स्की, उपरोक्त, शब्दों पर ज़ोर हमारा) [इससे देखा जा सकता है कि पंजाब और भारत के अन्य राज्यों में क्यों प्राथमिक विद्यालय से ही और अब तो इससे भी पहले से ही, हिंदी अंग्रेज़ी थोपी जाती है।] परंतु नौकरशाही के ये प्रयास, राष्ट्रीय आकांक्षाओं को पैदा होने से रोक न सके। काउत्स्की का कहना है,
“कई मामलों में राष्ट्रीय एकता की आकांक्षा सफल हुई, स्कूली शिक्षा के ज़रिए नहीं, परंतु यक़ीनन, राज्य के अंदर पारस्परिक क्रिया की ताक़त से।
जहाँ यह पारस्परिक क्रिया उतनी शक्तिशाली नहीं थी कि यह विदेशी भाषाई समुदायों को शासक भाषा प्रयोग करने के लिए प्रेरित कर सकती, भाषा के मानकीकरण के नौकरशाही के प्रयासों का उल्टा असर हुआ। विदेशी राष्ट्रों ने ख़ुद को उत्पीड़ित और तिरस्कृत महसूस किया।” (कार्ल काउत्स्की, उपरोक्त, पन्ना 146-47, शब्दों पर ज़ोर हमारा)
आगे काउत्स्की अलग-अलग राष्ट्रों पर शासक भाषा थोपने के अन्य विकारों की चर्चा करते हुए इस नतीजे पर पहुँचता है,
“इसलिए मिली-जुली आबादी वाले राज्यों में राष्ट्रों के अंदर राज्य के प्रति, हर एक राज्य के प्रति नहीं, बल्कि उस राज्य के प्रति जिसमें वह रहती है, दुश्मनी वाला वातावरण पैदा होता है। इस तरह संभव तौर पर अन्य राष्ट्रों के निवासियों के साथ मिलकर, जिनकी पड़ोसी राज्यों में यही नियति होती है, राज्य से अलग होकर अपना स्वतंत्र राज्य क़ायम करने की इच्छा पैदा होती है। शासक राष्ट्र की तरह ही, शासित राष्ट्र के अंदर राष्ट्रीय राज्य की भावना पैदा होती है।
इस भावना को पूँजीवादी विकास के एक निश्चित स्तर पर पैदा होने वाला जनवादी आंदोलन और बढ़ावा देता है, जो एक ओर पूँजीपति वर्ग द्वारा सरकार को अपने अधीन करने के प्रयास में से पैदा होता है और दूसरी ओर यह मेहनतकश-व्यापारियों, किसानों, उजरती मज़दूरों और उनमें बढ़ती पारस्परिक क्रिया, डाक व्यवस्था और प्रेस के विकास, जो कि धीरे-धीरे संकीर्ण स्थानीयतावाद पर क़ाबू पा लेता है और उन्हें राज्य की राजनीति और यहाँ तक कि विश्व राजनीति के साथ जोड़ देता है, से पैदा होता है…
जब भी नौकरशाही और जनता अलग-अलग राष्ट्रीयताओं के होते हैं, उनमें अंतरविरोध और ज़्यादा स्पष्ट हो जाते हैं। दूसरी ओर संसद के लिए प्रयास, राष्ट्रीय संसद के प्रयास बन जाते हैं, क्योंकि ऐसी संसद ही राष्ट्र की ज़रूरतों के साथ न्याय कर सकती है और इसे अपनी बात कहने दे सकती है।…
संसदवाद और जनवाद के युग में नौकरशाहाना निरंकुशवाद के युग से ज़्यादा ज़रूरी है कि राज्य एक राष्ट्रीय हो, न सिर्फ़ आबादी और जनवाद के सिद्धांतों के दृष्टिकोण से बल्कि ख़ुद सरकार के दृष्टिकोण से भी।” (कार्ल काउत्स्की, उपरोक्त, पन्ना 147-148, शब्दों पर ज़ोर हमारा)
राष्ट्रीय आंदोलनों की प्रवृत्ति राष्ट्रीय राज्य की स्थापना की ओर होती है। रोज़ा लग्ज़ेमबर्ग की आलोचना करते हुए लेनिन इसकी और ज़्यादा व्याख्या करते हैं,
“आगे चलकर हम और भी कारणों पर विचार करेंगे कि आत्मनिर्णय के अधिकार का अर्थ एक अलग राज्य के रूप में अस्तित्व के अधिकार के अतिरिक्त और कुछ समझना क्यों ग़लत है। इस समय तो हम इस अनिवार्य निष्कर्ष को “चुटकियों में उड़ा देने” की रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग की कोशिशों पर विचार करेंगे कि राष्ट्रीय राज्य बनाने की चेष्टा गहरी आर्थिक बुनियादों पर आधारित होती है।
रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग काउत्स्की की ‘राष्ट्रीयता तथा अंतरराष्ट्रीयता’ नामक पुस्तिका से भली भाँति परिचित हैं (Neue Zeut, अंक 1, 1907-1908, का परिशिष्ट; रूसी अनुवाद ‘नाऊचनाया मीस्ल’ नामक पत्रिका में, रीगा, 1908)। वह जानती हैं कि काउत्स्की इस पुस्तिका की धारा 4 में राष्ट्रीय राज्य के प्रश्न की बड़े ध्यानपूर्वक छानबीन करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि ओटो बावेर “राष्ट्रीय राज्य का निर्माण करने की आकांक्षा की शक्ति को कम करके आँकते हैं” (वही, पृष्ठ 23)। रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग ने स्वयं काउत्स्की के इन शब्दों को उद्धृत किया है। “राष्ट्रीय राज्य राज्य का वह रूप है जो आधुनिक परिस्थितियों के लिए” (अर्थात मध्ययुगीन, पूर्व-पूँजीवादी, आदि परिस्थितियों से भिन्न पूँजीवादी, सभ्य, आर्थिक दृष्टि से प्रगतिशील परिस्थितियों के लिए) “सबसे उपयुक्त है, यह वह रूप है जिसके अंतर्गत वह अपने कार्यों को सर्वोत्तम ढंग से पूरा कर सकता है” (अर्थात पूँजीवाद के सर्वाधिक स्वतंत्र, व्यापक तथा तीव्र विकास को सुनिश्चित बनानेवाले कार्यों को)। इसके साथ ही हम काउत्स्की की इससे भी अधिक सही वह बात भी जोड़ दें जो उन्होंने अंत में कही है : पंचमेली राष्ट्रीय गठनवाले राज्य (जिन्हें राष्ट्रीय राज्यों से विभेदित करने के लिए बहुराष्ट्रीय राज्य कहा जाती है) “हमेशा ऐसे राज्य होते हैं जिनकी आंतरिक रचना किसी न किसी कारण असामान्य अथवा अर्ध-विकसित” (पिछड़ी हुई) “रह गई है”। कहने की ज़रूरत नहीं कि काउत्स्की असामान्य अवस्था का उल्लेख केवल इस अर्थ में करते हैं कि वह उन बातों से मेल नहीं खाती जो विकासमान पूँजीवाद की आवश्यकताओं के सबसे अधिक अनुकूल होती है।
अब सवाल यह है कि रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग ने काउत्स्की के इन ऐतिहासिक-आर्थिक निष्कर्षों को किस तरह लिया है? वे सही हैं या ग़लत? काउत्स्की का यह ऐतिहासिक-आर्थिक सिद्धांत सही है या बावेर का, जो बुनियादी तौर पर मनोवैज्ञानिक है? बावेर के असंदिग्ध “राष्ट्रीय अवसरवाद”, उनकी सांस्कृतिक-राष्ट्रीय स्वायत्तता की हिमायत, उनके राष्ट्रवादी मोह (काउत्स्की के शब्दों में “राष्ट्रीय पहलू पर यहाँ-वहाँ ज़ोर”), उनकी “राष्ट्रीय पहलू की बेहद अतिरंजना तथा अंतरराष्ट्रीय पहलू की पूर्ण विस्मृति” (काउत्स्की) का और राष्ट्रीय राज्य की स्थापना करने की आकांक्षा की शक्ति को कम करके आँकने का आपस में क्या संबंध है?
रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग ने यह सवाल उठाया तक नहीं। वह इस संबंध को देख भी नहीं पाईं। उन्होंने बावेर के सैद्धांतिक विचारों को पूर्ण रूप में लेकर उनके गुण-दोषों को नहीं जाँचा। उन्होंने राष्ट्रीय प्रश्न के बारे में ऐतिहासिक-आर्थिक सिद्धांत तथा मनोवैज्ञानिक सिद्धांत के बीच अंतर भी नहीं किया। उन्होंने काउत्स्की की आलोचना करते समय अपने आपको निम्नलिखित बातों तक ही सीमित रखा :
“…यह ‘सर्वोत्तम’ राष्ट्रीय राज्य केवल एक अमूर्त धारणा है, जिसे सिद्धांत रूप में प्रतिपादित करना तथा उसके पक्ष में तर्क देना बहुत आसान है, परंतु जो वास्तविकता से मेल नहीं खाती”(Przeglad Socjaldemokratyczny, 1908, अंक 6, पृष्ठ 499)।
और इस स्पष्ट कथन की पुष्टि में उसके बाद इस आशय के तर्क दिए गए हैं कि छोटी राष्ट्रों का “आत्मनिर्णय का अधिकार” बड़ी-बड़ी पूँजीवादी ताक़तों के विकास के कारण तथा साम्राज्यवाद के कारण एक भ्रम बनकर रह गया है। रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग कहती हैं, “क्या हम मांटिनीग्रियाई, बुल्गारियाई, रूमानियाई, सर्बियाई, यूनानी, और कुछ हद तक स्विस लोगों के ‘आत्मनिर्णय’ की बात गंभीरतापूर्वक कह सकते हैं, जो कहने को तो स्वतंत्र हैं, परंतु जिनकी स्वतंत्रता ‘यूरोपीय कंसर्ट’ के राजनीतिक संघर्ष तथा कूटनीतिक प्रपंच का परिणाम है?”! (पन्ना 500)। जो राज्य इन परिस्थितियों के सबसे अधिक उपयुक्त है “वह राष्ट्रीय राज्य नहीं है, जैसा कि काउत्स्की समझते हैं, बल्कि एक लुटेरा राज्य है”। ब्रिटिश, फ़्रांसीसी तथा अन्य उपनिवेशों के आकार के बारे में दर्जनों आँकड़े दिए गए हैं।
ऐसी दलीलें पढ़कर इस बात को कि कौन–सी चीज़ क्या है न समझने की लेखिका की क्षमता पर आश्चर्य किए बिना नहीं रहा जा सकता। काउत्स्की को बड़ी गंभीरता से यह सिखाना कि छोटे राज्य आर्थिक रूप से बड़े राज्यों पर निर्भर रहते हैं; कि अन्य राष्ट्रों को लूट-मार कर कुचल देने के लिए पूँजीवादी राज्यों के बीच संघर्ष चल रहा है; कि साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशों का अस्तित्व है – यह होशियार बनने की हास्यास्पद, बचकाना कोशिश है, क्योंकि इन सब बातों का इस विषय से कोई संबंध नहीं है। केवल छोटे राज्य ही नहीं बल्कि, मिसाल के लिए, रूस भी “धनी” पूँजीवादी देशों की साम्राज्यवादी वित्तीय पूँजी की शक्ति पर आर्थिक रूप से पूरी तरह निर्भर है। केवल नन्हे-नन्हे बाल्कन राज्य ही नहीं बल्कि उन्नीसवीं शताब्दी में अमरीका भी आर्थिक दृष्टि से यूरोप का एक उपनिवेश था, जैसा कि मार्क्स ने ‘पूँजी’ में बताया है। ज़ाहिर है कि सभी मार्क्सवादियों की तरह काउत्स्की इस बात से भली भाँति परिचित हैं, परंतु जहाँ तक राष्ट्रीय आंदोलन तथा राष्ट्रीय राज्य का प्रश्न है, वह न यहाँ है न वहाँ।
पूँजीवादी समाज में राष्ट्रों के राजनीतिक आत्मनिर्णय के और राज्यों के रूप में उनकी स्वाधीनता के प्रश्न के स्थान पर रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग ने उनकी आर्थिक स्वाधीनता का प्रश्न लाकर रख दिया है। यह तो कुछ वैसी ही बुद्धिमता है यानी कोई व्यक्ति कार्यक्रम में उठाई गई पूँजीवादी राज्य में संसद की, अर्थात जनता के प्रतिनिधियों की सभा की प्रभुता की माँग पर विचार करते हुए इस सर्वथा उचित विश्वास का प्रतिपादन करने लगे कि पूँजीवादी देश में शासन-व्यवस्था कैसी भी हो, उस पर प्रभुत्व बड़े पूँजीपतियों का ही रहता है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि सबसे घनी आबादी वाले महाद्वीप एशिया का अधिकांश भाग या तो “बड़ी ताक़तों” के उपनिवेशों का है या ऐसे राज्यों का है जो अत्यधिक परावलंबी तथा राष्ट्रों के रूप में उत्पीड़ित हैं। परंतु क्या इस सर्वविदित बात से इस अकाट्य तथ्य के बारे में ज़रा भी शंका उत्पन्न होती है कि स्वयं एशिया में भी पण्य-उत्पादन के पूर्ण विकास के लिए, पूँजीवाद के सर्वाधिक स्वतंत्र, व्यापक तथा तीव्र विकास के लिए परिस्थितियाँ केवल जापान में, अर्थात केवल एक स्वतंत्र राष्ट्रीय राज्य में, उत्पन्न हुई हैं? यह राज्य एक पूँजीवादी राज्य है, इसलिए इसने स्वयं भी अन्य राष्ट्रों को उत्पीड़ित करना तथा उपनिवेशों को अधीन करना आरंभ कर दिया है। हम यह तो नहीं बता सकते कि पूँजीवाद के पराभव से पहले एशिया को इतना समय मिलेगा कि नहीं कि यूरोप की तरह वह भी स्वतंत्र राष्ट्रीय राज्यों की एक व्यवस्था के रूप में विकसित हो सके। परंतु यह एक निर्विवाद तथ्य है कि पूँजीवाद ने एशिया में जागृति फैलाकर उस महाद्वीप में भी हर जगह राष्ट्रीय आंदोलनों को जन्म दिया है, कि इन आंदोलनों की प्रवृत्ति एशिया में राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना करने की है, कि पूँजीवाद के विकास के लिए सर्वोत्तम परिस्थितियाँ ठीक ऐसे ही राज्यों द्वारा सुनिश्चित होती हैं। एशिया का उदाहरण काउत्स्की के पक्ष में और रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग के विपक्ष में पड़ता है।
इसी प्रकार बाल्कन राज्यों का उदाहरण भी उनके ख़िलाफ़ ही पड़ता है, क्योंकि अब हर आदमी इस बात को देख सकता है कि बाल्कन-क्षेत्र में पूँजीवाद के विकास के लिए सर्वोत्तम परिस्थितियाँ ठीक उसी हद तक पैदा होती हैं जिस हद तक कि उस प्रायद्वीप में स्वतंत्र राष्ट्रीय राज्य बनते हैं।
इसलिए, रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग चाहे कुछ भी कहें, पूरी प्रगतिशील, सभ्य मानव जाति के उदाहरण, बाल्कन-क्षेत्र के उदाहरण, तथा एशिया के उदाहरण से यह सिद्ध होता है कि काउत्स्की की प्रस्थापना बिल्कुल सही है : राष्ट्रीय राज्य पूँजीवाद का नियम तथा उसकी “सामान्यावस्था” है, बहुराष्ट्रीय राज्य या तो पिछड़ेपन का द्योतक होता है, या अपवाद होता है। राष्ट्रीय संबंधों के दृष्टिकोण से पूँजीवाद के विकास के लिए सर्वोत्तम परिस्थितियाँ नि:संदेह राष्ट्रीय राज्य ही उपलब्ध कराता है। ज़ाहिर है, इसका अर्थ यह नहीं है कि इस प्रकार का राज्य, जो पूँजीवादी संबंधों पर आधारित होता है, राष्ट्रों के शोषण तथा उत्पीड़न को दूर कर सकता है। इसका अर्थ केवल यह होता है कि मार्क्सवादी उन प्रबल आर्थिक तत्त्वों को कभी नज़रंदाज़ नहीं कर सकते जो राष्ट्रीय राज्यों की स्थापना की चेष्टा को जन्म देते हैं। इसका अर्थ यह है कि मार्क्सवादियों के कार्यक्रम में “राष्ट्रों के आत्मनिर्णय” का अर्थ, ऐतिहासिक-आर्थिक दृष्टिकोण से, राजनीतिक आत्मनिर्णय राजकीय स्वतंत्रता, राष्ट्रीय राज्य के निर्माण के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता।” (लेनिन, जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार, उपरोक्त, पन्ना 7-11)
राष्ट्रों के आत्मनिर्णय का अधिकार
मार्क्सवाद हर प्रकार के राष्ट्रीय उत्पीड़न का विरोधी है और राष्ट्रों की बराबरी का झंडाबरदार है। राष्ट्रीय उत्पीड़न के विरुद्ध लड़ने, इसके ख़ात्मे के लिए मार्क्सवादी राष्ट्रों के आत्मनिर्णय (अलग होने सहित) का नारा बुलंद करते हैं।
अपने वक़्तों में मार्क्स और एंगेल्स ने हर प्रकार के राष्ट्रीय उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज़ उठाई। उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवाद से भारत की आज़ादी के हक़ में आवाज़ बुलंद की। वे पोलैंड के एकीकरण (और आज़ादी), आयरलैंड की आज़ादी के हक़ में खड़े हुए।
उन्होंने कई टुकड़ों में बँटे हुए जर्मनी के एकीकरण की वकालत की। जर्मनी के एकीकरण के लिए पूर्वी यूरोप में सरहदें फिर तय होनी थीं। वे जर्मनी के एकीकरण को यूरोपीय महाद्वीप का सबसे अधिक प्रगतिशील राष्ट्रीय विकास मानते थे। मार्क्स, एंगेल्स दोनों जर्मन राष्ट्र से संबंधित थे। इसलिए उनके द्वारा जर्मनी के एकीकरण की की जाने वाली वकालत के कारण 1848 से ही उनके विरोधियों ने उन पर जर्मन शाविनिस्ट होने के ठप्पे जड़ने शुरू कर दिए। परंतु इतिहास ने साबित किया कि उनके विरोधी ग़लत थे, मार्क्स, एंगेल्स सच्चे अंतरराष्ट्रीयवादी थे।
फ्रे़डरिक एंगेल्स ने कहा था कि देशों की सीमाएँ, आबादी की राष्ट्रीय संरचना के अनुसार होनी चाहिए। उनका कहना है,
“कोई भी इस बात पर ज़ोर नहीं देगा कि यूरोप का नक्शा निश्चित तौर पर तय हो गया है। सब परिवर्तन, यदि उन्हें टिकाऊ होना है तो उन्हें लाज़िमी ही इस प्रकृति का होना चाहिए कि विशाल और जीवनक्षम यूरोपीय राष्ट्रों को, उनकी वास्तविक (real) प्राकृतिक सीमाओं जो कि भाषा और सहानुभूतियों द्वारा तय की जाती हैं, के ज़्यादा क़रीब लाए।” (एंगेल्स, ‘पो एंड रहोन’, अंग्रेज़ी से अनुवाद हमारा, शब्दों पर ज़ोर मूल में)
मार्क्स-एंगेल्स के समय में पोलैंड के अलग-अलग हिस्सों पर रूस, ऑस्ट्रिया, प्रशिया का क़ब्ज़ा था। 1848-49 में कोलोन (जर्मनी) से छपने वाले अख़बार ‘नया राइन समाचार’, जिसके संपादक कार्ल मार्क्स थे, ने पोलैंड की आज़ादी के हक़ में ज़ोरदार आवाज़ बुलंद की। इसकी आज़ादी रूस में ज़ारशाही हुकूमत को उलटाने के साथ जुड़ी हुई थी। फ्रे़डरिक एंगेल्स ने, मार्क्स की सलाह पर जनवरी-अप्रैल 1866 में पोलैंड की पुनर्स्थापना और आज़ादी के बारे में कई लेख लिखे। ये लेख इस ज़रूरत से लिखे गए क्योंकि अंतरराष्ट्रीय मज़दूर सभा की 1865 में हुई लंदन कांग्रेस में इस मसले पर विवाद उठ खडा हुआ था। यह विवाद आगे भी अंतरराष्ट्रीय की जेनेवा कांग्रेस की कार्यसूची में पोलैंड की आज़ादी की माँग शामिल करने के समय तक जारी रहा। अंतरराष्ट्रीय की केंद्रीय काउंसिल जहाँ पोलैंड की आज़ादी के हक़ में खड़ी थी, वहीं प्रूदोवादी इसे सिरे से ख़ारिज करते थे। प्रूदोंवादियों का कहना था कि मज़दूर वर्ग का दबे-कुचले राष्ट्रों की आज़ादी से कोई लेना-देना नहीं है। ये समस्याएँ मज़दूर वर्ग को उसके मंतव्यों से परे ले जाती हैं। एंगेल्स ने इसके बारे में लिखा,
“जहाँ कहीं भी मज़दूर वर्ग ने अपने राजनीतिक आंदोलन में हिस्सा लिया, उनकी विदेश नीति थोड़े से शब्दों – पोलैंड की पुनर्स्थापना, में प्रकट हुई।…यूरोप के मेहनतकशों ने, सर्वसम्मति से (एक अपवाद के साथ) पोलैंड की पुनर्स्थापना को अपनी नीति की सबसे अधिक व्यापक अभिव्यक्ति के रूप में अपने राजनीतिक कार्यक्रम का अंग बनाया।…
फ़्रांस के मज़दूर वर्ग में एक छोटी अल्प-संख्या है, जो कि स्वर्गीय पी.जे. प्रदों के स्कूल से संबंधित है। यह उन्नत और विचारवान मज़दूरों की आम राय से पूरी तरह भिन्नता रखती है; यह उन्हें अज्ञानी मूर्ख घोषित करती है (ऐसे नमूने हमारे देश में भी देखे जा सकते हैं – लेखक) और ज़्यादातर बिंदुओं पर उनके विरुद्ध राय रखती है। इनके पास भी विदेश नीति है…। ये रूस का भविष्य का महान धरती के रूप में महिमागान करते हैं।” (एंगेल्स, ‘वट हैव द वर्किंग क्लासिस टू डू विद पोलैंड?’, अंग्रेज़ी से अनुवाद हमारा, शब्दों पर ज़ोर हमारा)
1870 के दशक के अंत में पोलिश समाजवादियों में पोलैंड की पुनर्स्थापना और आज़ादी के प्रश्न पर मतभेद उभरे। इनमें से एक हिस्सा पोलैंड की आज़ादी और पुनर्स्थापना के हक़ में खड़ा था जबकि दूसरा रूस (पोलैंड जिसका ग़ुलाम था) में क्रांति पर ज़ोर देता था। एंगेल्स ने इस विवाद में पहले पक्ष का समर्थन किया। इस विवाद में एंगेल्स ने काउत्स्की को एक पत्र लिखकर अपनी अवस्थिति स्पष्ट की। एंगेल्स ने लिखा,
“1848 की क्रांति के कार्यभारों में से क्रांति का असली कार्यभार, न कि भ्रामक (illusory) कार्यभार, हमेशा केंद्रीय यूरोप की उत्पीड़ित और बिखरी हुई राष्ट्रीयताओं का संघटन था, बशर्ते कि वे इस योग्य हों, बशर्ते कि वे आज़ादी के लिए परिपक्व हो गई हों। इटली, हंगरी और जर्मनी में, यह कार्यभार, वहाँ की स्थितियों के अनुसार क्रांति के वाहक बोनापार्ट, कावोर और बिस्मार्क ने पूरा किया। आयरलैंड और पोलैंड शेष रह गए। यहाँ हम आयरलैंड की चर्चा छोड़ देते हैं क्योंकि यह यूरोपीय महाद्वीप की स्थिति को सिर्फ़ अप्रत्यक्ष तौर पर ही प्रभावित करता है। परंतु पोलैंड यूरोप के केंद्र में स्थित है, और इसका विभाजन पवित्र गँठजोड़ को बार-बार एकत्रित करता है, इसलिए पोलैंड में हमारी बहुत दिलचस्पी है।
ऐतिहासिक तौर पर महान लोगों के लिए, यहाँ तक कि आंतरिक समस्याओं के बारे में भी तब तक चर्चा कर सकना असंभव है, जब तक इसके पास राष्ट्रीय आज़ादी न हो।…
सर्वहारा का अंतरराष्ट्रीय आंदोलन सिर्फ़ आज़ाद राष्ट्रों में संभव है।…
जब तक पोलैंड विभाजित और दबाया हुआ है, न तो यहाँ एक मज़बूत समाजवादी पार्टी विकसित हो सकती है, न ही जर्मनी आदि में सर्वहारा पार्टियों में वास्तविक अंतरराष्ट्रीय आपसी मेल-जोल (intercourse) उभर सकता है…
यह बात महत्वहीन है कि अगली क्रांति से पहले पोलैंड का पुन:संघटन संभव है कि नहीं। हमारे सामने किसी भी मामले में यह कार्यभार नहीं है कि पोलों को उन महत्वपूर्ण परिस्थितियों, जो उनके भावी विकास के लिए ज़रूरी हैं, के लिए लड़ने से रोकें या उन्हें इस बात के लिए प्रेरित करें कि अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण से राष्ट्र की आजा़दी दोयम दर्ज़े का मामला है। इसके विपरीत स्वतंत्रता किसी भी संयुक्त अंतरराष्ट्रीय कार्यवाही के लिए ज़रूरी है।…” (फ्रे़डरिक एंगेल्स, लेटर टू कार्ल काउत्स्की, 7 फ़रवरी 1882, अंग्रेज़ी से अनुवाद और शब्दों पर ज़ोर हमारा)
पोलैंड और आयरलैंड के संबंध में एंगेल्स ने कहा था,
“इसलिए मेरा यह विचार है कि यूरोप के दो राष्ट्रों, आयरिश और पोल का न सिर्फ़ यह हक़ बल्कि फ़र्ज़ भी है कि वे अंतरराष्ट्रीयवादी बनने से पहले राष्ट्रवादी बनें। जब वे सच्चे राष्ट्रवादी होते हैं, तभी वे सबसे अधिक अंतरराष्ट्रीयवादी होते हैं” (उपरोक्त)
परंतु 20वीं सदी के आते-आते पोलैंड की आज़ादी के बारे में मार्क्स-एंगेल्स के विचार प्रासंगिक न रहे। लेनिन का कहना है,
“मार्क्स का यह दृष्टिकोण उन्नीसवीं शताब्दी के पाँचवें, छठे और सातवें दशकों या तीसरी चौथाई के लिए तो पूरी तरह सही था परंतु बीसवीं शताब्दी में वह सही नहीं रह गया है। अधिकांश स्लाव देशों में, यहाँ तक कि रूस में भी, जो एक सबसे पिछड़ा हुआ स्लाव देश है, स्वतंत्र जनवादी आंदोलन, यहाँ तक कि स्वतंत्र सर्वहारा आंदोलन भी आरंभ हो गए हैं। अभिजात पोलैंड का लोप हो चुका है और उसका स्थान पूँजीवादी पोलैंड ने ले लिया है। ऐसी परिस्थितियों में पोलैंड का अपना असाधारण क्रांतिकारी महत्व खो देना अनिवार्य ही था।” (लेनिन, ‘जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार’, उपरोक्त, पन्ना 51)
आगे लेनिन लिखते हैं,
“इसलिए जब पोलैंड के सामाजिक-जनवादियों ने पोलैंड के निम्न-पूँजीपति वर्ग के उग्र राष्ट्रवाद का विरोध किया और राष्ट्रीय प्रश्न को पोलैंड के मज़दूरों के लिए गौण महत्त्व का प्रश्न बताया, जब उन्होंने पोलैंड में पहली बार एक शुद्धत: सर्वहारा पार्टी की स्थापना की और इस अत्यंत महत्त्वपूर्ण सिद्धांत की घोषणा की कि अपने वर्ग-संघर्ष में पोलैंड तथा रूस के मज़दूरों को घनिष्ठतम एकता (closest alliances) क़ायम रखनी चाहिए, तो उन्होंने बिल्कुल ठीक ही किया।” (उपरोक्त, पन्ना 52)
इसी मसले पर कामरेड स्तालिन का कहना है,
“हालात हर चीज़ की तरह बदलते रहते हैं। इसलिए एक ख़ास वक़्त में किया गया फै़सला बदली सूरते-हाल में ग़लत हो सकता है।
19वीं सदी के मध्य में मार्क्स रूस प्रशासित पोलैंड के अलग होने के पक्ष में थे। और वह बिल्कुल सही थे क्योंकि तब सवाल छोटी संस्कृति का बड़ी संस्कृति से आज़ाद होने का था। बड़ी संस्कृति छोटी संस्कृति को तबाह कर रही थी। और तब सवाल सिर्फ़ सैद्धान्तिक नहीं था, यह सवाल अकादमिक नहीं था, बल्कि व्यावहारिक था। यह सवाल ठोस वास्तविकता का था …
19वीं सदी के अन्त में पोल मार्क्सवादी पोलैंड के रूस से अलग होने का विरोध कर रहे थे। वे भी सही थे क्योंकि पचास सालों में बहुत बदलाव आ चुका था। पोलैंड और रूस आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से काफ़ी नज़दीक आ चुके थे। इसके अलावा अलग होने का सवाल अब व्यावहारिक नहीं रहा था। वह अकादमिक सवाल बन गया था जिसमें विदेशों में रहने वाले कुछ बुद्धिजीवियों के अलावा कोई रुचि नहीं लेता था।
लेकिन इससे इस बात की संभावना पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई थी कि कभी ऐसे भीतरी और बाहरी हालात पैदा हों जिनके तहत पोलैंड का रूस से अलग होने का सवाल फिर सिर नहीं उठाए।
राष्ट्रीय सवालों का हल उन्हीं ऐतिहासिक हालात के मद्देनज़र हो सकता है जो उनके विकास में साजगार रहे हैं।” (स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और जातीयताओं का प्रश्न’, उपरोक्त, पन्ना 30-31, शब्दों पर ज़ोर हमारा)
कामरेड स्तालिन का यह मूल्यांकन कि भविष्य में पोलैंड की आज़ादी का प्रश्न फिर से उठ सकता है, सही साबित हुआ। स्तालिन ने अपनी उपरोक्त पुस्तिका 1913 में लिखी थी। अक्टूबर 1917 में रूस में समाजवादी क्रांति सफल हुई। फ़रवरी 1917 की क्रांति के तत्काल बाद पोलैंड (और फ़िनलैंड में) पूर्ण राष्ट्रीय स्वतंत्रता की माँग उठी। अक्टूबर क्रांति के बाद सोवियत सरकार ने बिना शर्त पोलैंड की आज़ादी को स्वीकार कर लिया।
मार्क्स ने कहा था,
“कोई भी राष्ट्र जो दूसरों का उत्पीड़न करता है, ख़ुद की बेड़ियाँ बनाता है।” (कार्ल मार्क्स, ‘कॉन्फ़िडेंशियल कम्यूनिकेशन’, 28 मार्च 1870, अंग्रेज़ी से अनुवाद हमारा)
आयरलैंड की इंग्लैंड के हाथों ग़ुलामी की चर्चा करते हुए मार्क्स ने लिखा था,
“आयरलैंड के ‘अंतरराष्ट्रीय’ तथा ‘मानवोचित’ न्याय के बारे में सारे फ़िकरों से सर्वथा स्वतंत्र रूप में – इन्हें तो इंटरनेशनल की परिषद में मानी हुई बात समझा जाता है – इंग्लैंड के मज़दूर वर्ग के हित सीधे-सीधे और पूरी तरह यह माँग करते हैं कि वह आयरलैंड के साथ अपना वर्तमान संबंध बिल्कुल ख़त्म कर दे। और मेरा दृढ़ विश्वास है, और इसके कारण ऐसे हैं, जिनमें से कुछ को मैं इंग्लैंड के मज़दूरों को नहीं बता सकता। बहुत समय तक मेरा यह विश्वास था कि जब इंग्लैंड के मज़दूर वर्ग का आंदोलन तेज़ हो जाएगा, तो आयरलैंड की शासन-व्यवस्था का तख़्ता उलटना संभव हो जाएगा। मैंने ‘दि न्यू-यार्क ट्रिब्यून’ 32 में” (एक अमरीकी अख़बार, जिसमें मार्क्स के लेख बहुत समय तक छपते रहे) “हमेशा इस दृष्टिकोण को व्यक्त किया। अधिक गहरा अध्ययन करने से मेरा विश्वास इसका उल्टा हो गया है। इंग्लैंड का मज़दूर वर्ग जब तक आयरलैंड से अपना पीछा नहीं छुड़ा लेगा, तब तक वह कुछ भी नहीं कर सकता… इंग्लैंड में अंग्रेज़ों के प्रतिक्रियावाद का स्रोत आयरलैंड को ग़ुलाम बनाने में है”। (शब्दों पर ज़ोर मार्क्स ने दिया है)।” (लेनिन द्वारा दिया गया हवाला, ‘जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार’, उपरोक्त, पन्ना 59)
अंतरराष्ट्रीय मज़दूर सभा जो दूसरे अंतरराष्ट्रीय के रूप में भी जानी जाती है, ने 1896 में लंदन में हुई अंतरराष्ट्रीय कांग्रेस में “सभी राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के पूर्ण अधिकार” का प्रस्ताव पारित किया। रूस की सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी (उस समय दुनिया में मज़दूर पार्टियों का यही नाम हुआ करता था। कम्युनिस्ट नामकरण बाद में प्रचलित हुआ) दुनिया की पहली सामाजिक जनवादी पार्टी थी, जिसने राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार को अपने कार्यक्रम में शामिल किया। 1903 की गर्मियों में रू.स.ज.म. पार्टी की हुई कांग्रेस में कार्यक्रम में राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार की धारा स्वीकार की गई। रूस में दर्जनों दबे-कुचले राष्ट्र थे, जो ज़ारशाही के बर्बर उत्पीड़न का शिकार थे। लेनिन के नेतृत्व में रूस के सामाजिक जनवादी मज़दूर पार्टी ने इन उत्पीड़ित राष्ट्रों की आज़ादी, उनकी राष्ट्रीय भावनाओं के प्रति बेहद संवेदनशील रवैया अपनाया। पार्टी ने अपने नाम में रूसी शब्द की जगह रूस शब्द चलाया। रूसी शब्द रूसी राष्ट्र का प्रतीक था, जबकि रूस देश का। इसका अर्थ यह था कि रूस में बनी मज़दूर पार्टी रूस के सभी राष्ट्रों के सर्वहारा की पार्टी है, न कि सिर्फ़ रूसी सर्वहारा की। इस संबंध में लेनिन ने लिखा,
“रूस में अलग-अलग राष्ट्रीयताओं, विशेषकर ग़ैर-रूसी राष्ट्रीयताओं के मज़दूर ऐसे आर्थिक और राजनीतिक दमन के शिकार हैं, जैसा दुनिया के किसी दूसरे देश में देखने को नहीं मिलता। यहूदी मज़दूर, एक ऐसी राष्ट्रीयता के रूप में जिससे वोट का अधिकार छीन लिया गया है, सिर्फ़ आम आर्थिक और राजनीतिक दमन के ही शिकार नहीं हैं, बल्कि एक ऐसे जुए तले भी पिस रहे हैं जिसने उन्हें मूलभूत (elementary) नागरिक अधिकारों से भी वंचित कर दिया है। जितना ही यह जुआ भारी होता है, उतनी ही अलग-अलग राष्ट्रीयताओं के सर्वहारा में सबसे निकटतम एकता की ज़रूरत होती है, ऐसी एकता के बिना आम उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष नामुमकिन है।…
1898 की बहार में हुई हमारी पार्टी की कांग्रेस ने ऐसी एकता स्थापित करने का प्रयास किया। पार्टी ने ख़ुद को “Russiiskaya (इसका अर्थ रूस देश है – लेखक) कहा न कि “Russkaya (इसका अर्थ रूसी राष्ट्र है – लेखक) जिससे पार्टी के राष्ट्रीय चरित्र के हर विचार को दूर किया जा सके।” (लेनिन, ‘टू द ज्यूइश वर्कर्स’, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 8, पन्ना 495-496)
राष्ट्रीय प्रश्न में मज़दूर वर्ग की दिलचस्पी क्यों है? इसके बारे में ऊपर भी काफ़ी चर्चा हो चुकी है। इसके बारे में कामरेड लेनिन का कहना है,
“असल में सर्वहारा वर्ग की एकजुटता की वृद्धि और मज़बूती को और कोई चीज़ इतना नहीं रोकती, जितना कि राष्ट्रीय अन्याय रोकता है; “अपमानित” राष्ट्र की जनता और किसी चीज़ के प्रति इतना भावुक नहीं होती जितना कि बराबरी की भावना और इस भावना के उल्लंघन के प्रति होते हैं।” (लेनिन, ‘द क्वेश्चन ऑफ़ नेशनेलिटीस ओर “ऑटोनॉमिसेशन”’,कलेक्टिड वर्क्स, खंड 36, पन्ना 608-609)
ऊपर हमने राष्ट्रीय उत्पीड़न और राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में स्तालिन के विचारों की चर्चा की है। इसी चर्चा के संदर्भ में स्तालिन राष्ट्रीय उत्पीड़न के प्रति मज़दूर वर्ग के रवैए की इस प्रकार चर्चा करते हैं,
“लेकिन इसका मतलब यह क़तई नहीं है कि सर्वहारा को राष्ट्रीय दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष नहीं करना चाहिए।
आवागमन की आज़ादी पर प्रतिबंध, मताधिकार का छिन जाना, भाषा का दमन, स्कूलों का बंद किया जाना, और उत्पीड़न के अन्य तरीक़ों का प्रभाव सर्वहारा पर भी होता है, भले ही वे पूँजीवादियों की तरह ज़्यादा प्रभावित न होते हों। इस तरह के हालात पराधीन राष्ट्रों के सर्वहारा की बौद्धिक ऊर्जा के विकास को कुंद कर देते हैं। इस बात की कल्पना ही नहीं की जा सकती कि अगर तातारी और यहूदी मज़दूरों को बैठकों और व्याख्यानों में उनकी अपनी (Native) भाषाओं का इस्तेमाल करने की इजाज़त नहीं दी जाए और उनके स्कूलों को बंद कर दिया जाए तो ऐेसे हालात में उनकी बौद्धिक क्षमताओं (Faculties) का पूरा विकास हो पाएगा।” (स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और जातीयताओं का प्रश्न’, उपरोक्त, पन्ना 27)
इसके अलावा स्तालिन दो अन्य कारणों की चर्चा करते हैं, जिनकी वज़ह से मज़दूर वर्ग को राष्ट्रीय उत्पीड़न का प्रतिरोध करना चाहिए। स्तालिन का कहना है,
“लेकिन भाषाई उत्पीड़न सर्वहारा के हितों के लिए दूसरे मायनों में भी ख़तरनाक है। यह एक बड़े वर्ग का ध्यान सामाजिक सरोकारों, वर्गीय संघर्ष के सवालों से हटाकर सर्वहारा और पूँजीवाद के ‘साझा’ सवालों की तरफ़ मोड़ देता है। यह ‘हितों की समरसता’ के लिए प्रचार-मैदान तैयार करता है, और सर्वहारा के वर्गीय हितों का लोप करने तथा मज़दूरों को बौद्धिक ग़ुलामी में जकड़ने का रास्ता बनाता है।” (स्तालिन, उपरोक्त, पन्ना 27)
तीसरे कारण की चर्चा करते हुए स्तालिन लिखते हैं,
“लेकिन राष्ट्रीय उत्पीड़न की नीति यहीं नहीं रुकती। यह प्रायः उत्पीड़न की ‘व्यवस्था’ से राष्ट्रों को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ भड़काने की ‘व्यवस्था’ में, और क़त्लेआम व नस्लकुशी में बदल जाती है। यह सही है कि यह बाद वाली व्यवस्था हर जगह नहीं है, लेकिन संभव तो है ही। लेकिन जहाँ कहीं भी वह बुनियादी नागरिक अधिकारों के अभाव में संभव है, वह वहाँ बहुत भयानक रूप ले लेती है और मज़दूरों की एकता को ख़ून और आँसुओं में तर कर देती है।” (स्तालिन, उपरोक्त, पन्ना 27-28)
आगे स्तालिन लिखते हैं,
“इसलिए मज़दूर राष्ट्रीय उत्पीड़न की हर तरह की नीति के ख़िलाफ़ लड़ते हैं, और लड़ना जारी रखेंगे। वे हर तरह के संघर्ष के लिए सदैव तैयार रहेंगे। वे राष्ट्रों को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ भड़काने वाली नीतियों के ख़िलाफ़ भी संघर्ष जारी रखेंगे।” (स्तालिन, उपरोक्त, पन्ना 28)
मार्क्स ने कहा था, “कोई भी राष्ट्र जो दूसरों का उत्पीड़न करता है, ख़ुद की बेड़ियाँ बनाता है।” (कार्ल मार्क्स, ‘कॉन्फ़िडेंशियल कम्यूनिकेशन’, 28 मार्च 1870, अंग्रेज़ी से अनुवाद हमारा)
राष्ट्रीय उत्पीड़न के प्रति मार्क्सवादियों का रुख़ स्पष्ट करते हुए लेनिन ने लिखा है,
“जो भी राष्ट्रों और भाषाओं की बराबरी को मान्यता नहीं देता और उसका पक्ष नहीं लेता और सभी राष्ट्रीय ज़ुल्म और ग़ैर-बराबरी के विरुद्ध संघर्ष नहीं करता, मार्क्सवादी नहीं है; यहाँ तक कि वह जनवादी भी नहीं है। इसमें कोई शक नहीं।” (लेनिन, ‘क्रिटिकल रीमार्क्स ऑन द नेशनल क्वेश्चन’, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 20, उपरोक्त, पन्ना 28, शब्दों पर ज़ोर हमारा)
लेनिन का यह हवाला वर्ग अपचयनवाद (class reductionism) के शिकार उन सभी मार्क्सवादियों के लिए है, जो राष्ट्रों के जायज़ मसलों, राष्ट्रीय उत्पीड़न के अलग-अलग रूपों की तरफ़ नाक-मुँह चढ़ाते हुए, किसी-न-किसी बहाने, राष्ट्रीय प्रश्नों से कन्नी काटकर गुज़र जाना चाहते हैं।
ऐसे ही वर्ग अपचयनवादियों के बारे में जो ‘सामाजिक क्रांति’ के पर्दे की आड़ में राष्ट्रीय समस्या को रद्द करते हैं, लेनिन का कहना है,
“टुटपूँजिया जनवादियों के विपरीत मार्क्स बिना किसी अपवाद के प्रत्येक जनवादी माँग को कोई निरपेक्ष सत्य नहीं, अपितु सामंतवाद के विरुद्ध बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में जनसाधारण के संघर्ष की ऐतिहासिक अभिव्यक्ति मानते थे। इन माँगों में से एक भी ऐसी नहीं है, जो मज़दूरों की आँखों में धूल झोंकने के लिए कतिपय परिस्थितियों में बुर्जुआ वर्ग का अस्त्र न बन सकी हो और न बनी हो। इस मामले में राजनीतिक जनवाद की एक माँग को, ठीक राष्ट्रों के आत्मनिर्णय को चुन लेना और उसे बाक़ी के मुक़ाबले खड़ा करना सिद्धांत में मूलत: ग़लत है। व्यवहार में सर्वहारा वर्ग जनतंत्र की माँग को अलग किए बिना समस्त जनवादी माँगों के लिए अपने संघर्ष को बुर्जुआ वर्ग का तख़्ता उलटने के लिए अपने क्रांतिकारी संघर्ष के मातहत रखकर ही अपने स्वावलंबन को अक्षुण्ण रख सकता है।
दूसरी ओर, प्रूदोंवादियों के विपरीत, जिन्होंने “सामाजिक क्रांति के नाम पर” राष्ट्रों के प्रश्न से “इनकार” किया, मार्क्स ने उन्नत देशों में सर्वहारा के वर्ग संघर्ष के हितों को सबसे अधिक ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीयतावाद तथा समाजवाद के मूलभूत सिद्धांत को पहले स्थान पर रखा : दूसरे राष्ट्रों का उत्पीड़न करने वाला कोई भी राष्ट्र आज़ाद नहीं हो सकता। ठीक जर्मन मज़दूरों के क्रांतिकारी आंदोलन को हितों के दृष्टिकोण से ही मार्क्स ने 1848 में माँग की थी कि जर्मनी में विजयी जनवाद जर्मनों द्वारा उत्पीड़ित राष्ट्रों की स्वतंत्रता की घोषणा करे और उसे अमल में लाए। अंग्रेज़ मज़दूरों के क्रांतिकारी संघर्ष के दृष्टिकोण से ही मार्क्स ने 1869 में आयरलैंड को इंग्लैंड से पृथक करने की माँग की थी और इतना और जोड़ा था : “भले ही पृथकता के बाद संघ आये” । केवल ऐसी माँग पेश करके ही मार्क्स अंग्रेज़ मज़दूरों को वस्तुत: अंतरराष्ट्रीयतावाद की भावना में शिक्षित-दीक्षित कर रहे थे। केवल इसी तरह वह अवसरवादियों तथा बुर्जुआ सुधारवाद, जो आज तक, आधी शताब्दी के बाद भी आयरिश “सुधार” को मूर्त रूप नहीं दे पाया – के मुक़ाबले में संबद्ध ऐतिहासिक समस्या का क्रांतिकारी समाधान प्रस्तुत कर सके। केवल इसी तरह मार्क्स पूँजी के पैरवीकारों के मुक़ाबले में, जो चिल्लाते हैं कि छोटे राष्ट्रों के पृथक होने की स्वतंत्रता यूटोपियन तथा अव्यवहार्य है, कि आर्थिक ही नहीं, अपितु राजनीतिक संकेद्रण भी प्रगतिशील है, इस संकेद्रण की प्रगतिशीलता की रक्षा साम्राज्यवादी ढंग से नहीं, राष्ट्रों को ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं, अपितु समस्त देशों के सर्वहारा वर्ग के स्वतंत्र संघ के आधार पर एक-दूसरे के समीप लाने की रक्षा कर सके। केवल इसी तरह मार्क्स राष्ट्रों की समानता तथा आत्मनिर्णय की कोरी शाब्दिक और बहुधा पाखंडभरी मान्यता के मुक़ाबले में राष्ट्रीय प्रश्नों के समाधान में भी जनसाधारण की क्रांतिकारी कार्रवाई को प्रस्तुत कर सके। (लेनिन, ‘समाजवादी क्रांति तथा जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार’, संकलित रचनाएँ, दस खंडों में, खंड 6, प्रगति प्रकाशन, संस्करण 1983, पन्ना 44-45)
इसी बारे में लेनिन एक अन्य जगह लिखते हैं,
“समाजवादी क्रांति एक कार्रवाई नहीं होती, एक मोर्चे पर एक लड़ाई नहीं होती, बल्कि तीक्ष्ण वर्ग टक्करों का एक पूरा युग, तमाम मोर्चों पर, यानी अर्थनीति तथा राजनीति के तमाम प्रश्नों पर लड़ाइयों की एक लंबी श्रृंखला होती है, ऐसी लड़ाइयों की, जिनका समापन मात्र बुर्जुआ वर्ग के संपत्तिहरण (expropriation) में हो सकता है। यह सोचना बुनियादी ग़लती होगी कि जनवाद के लिए संघर्ष सर्वहारा वर्ग को समाजवादी क्रांति से विमुख करने अथवा समाजवादी क्रांति को छुपाने, उसे धूमिल करने, आदि में सक्षम होता है। इसके विपरीत, जिस तरह पूर्ण जनवाद को अमल में न लानेवाला विजयी समाजवाद संभव नहीं है, उसी तरह सर्वहारा वर्ग जनवाद के लिए सर्वतोमुखी, सुसंगत तथा क्रांतिकारी संघर्ष किए बिना बुर्जुआ वर्ग पर विजय की तैयारी नहीं कर सकता।” (लेनिन, ‘समाजवादी क्रांति तथा जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार’ संकलित रचनाएँ, उपरोक्त, पन्ना 38)
उत्पीड़ित राष्ट्रों के राष्ट्रीय मसले के प्रति जो लोग बेरुखी अपनाते हैं, राष्ट्र के आत्मनिर्णय, ख़ुदमुख़्तियारी की हिमायत, राष्ट्रीय उत्पीड़न के अलग-अलग रूपों के विरुद्ध संघर्ष पर जो लोग राष्ट्रवादी अस्मितावाद के ठप्पे जड़ते हैं, वे अक्सर राष्ट्रों को दबाने वालों, उत्पीड़कों के पक्ष में भूमिका निभा जाते हैं।
लेनिन लिखते हैं,
“उत्पीड़ित राष्ट्रों के बुर्जुआ राष्ट्रवाद के हाथों में खेलने के डर से लोग उत्पीड़क राष्ट्र के सिर्फ़ बुर्जुआ राष्ट्रवाद के ही नहीं; प्रतिक्रियावादी राष्ट्रवाद के हाथों में भी खेलते हैं।” (लेनिन, ‘द नेशनल प्रोग्राम ऑफ़ द आर.एस.डी.एल.पी.’, कलेक्टिड वर्क्स, उपरोक्त, खंड 19)
राष्ट्रीय प्रश्न पर मार्क्सवादी नीति का सारांश पेश करते हुए लेनिन लिखते हैं,
“राष्ट्रों के अधिकारों की पूर्ण समानता; राष्ट्रों का आत्मनिर्णय का अधिकार; सभी राष्ट्रों के मज़दूरों की एकता – यही वह राष्ट्रीय कार्यक्रम है, जिसकी शिक्षा मार्क्सवाद, सारी दुनिया का अनुभव और रूस का अनुभव मज़दूरों को देता है।” (लेनिन, जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार, उपरोक्त, पन्ना 78)
“मज़दूर वर्गीय जनवाद का राष्ट्रीय कार्यक्रम है : किसी भी एक राष्ट्र या भाषा के लिए किसी भी विशेष अधिकार का क़तई न होना; राष्ट्रों के राजनीतिक आत्मनिर्णय के मसले का समाधान, यानी, पूर्ण हद तक आज़ाद, जनवादी तरीक़ों से राज्य के रूप में उनका अलग हो सकना; समूचे राज्य के लिए ऐसे क़ानून का लागू किया जाना, जिसके द्वारा हर वह कार्यवाही (जेमस्तवो, शहरी या साझा इत्यादि) जो किसी एक राष्ट्र के लिए किसी भी क़िस्म का कोई विशेष अधिकार स्थापित करती हो, राष्ट्रों की बराबरी के विरुद्ध जाती हो, या किसी राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के अधिकारों के विरुद्ध जाती हो, ग़ैर-क़ानूनी और बे-असर क़रार दी जाए और राज्य के हर शहरी को यह माँग करने का अधिकार हो कि ऐसी कार्यवाही अवैधानिक होने के कारण रद्द की जाए और उन्हें, जो उसे व्यवहार में लाने की कोशिश करें, सज़ा दी जाए।” (लेनिन, ‘क्रिटिकल रीमार्क्स ऑन द नेशनल क्वेश्चन’, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 20, उपरोक्त, पन्ना 22)
मार्क्सवादी राष्ट्रीय उत्पीड़न का विरोध करते हैं और इसके साथ ही वे राष्ट्रों के घुलने-मिलने की भी हिमायत करते हैं। लेनिन लिखते हैं,
“विकास कर रहे पूँजीवाद में राष्ट्रीय प्रश्न से संबंधित दो ऐतिहासिक प्रवृत्तियाँ होती हैं। पहली राष्ट्रीय जीवन और राष्ट्रीय आंदोलनों की जागृति है, सभी तरह के राष्ट्रीय ज़ुल्मों के विरुद्ध संघर्ष है, और राष्ट्रीय राज्य की स्थापना है। दूसरी हर शकल में अंतरराष्ट्रीय लेन-देन का विकास तथा उसकी बढ़ रही आवृत्ति, राष्ट्रीय रोकों का विघटन होना, पूँजी की, आम तौर पर आर्थिक जीवन की, राजनीति, विज्ञान आदि की अंतरराष्ट्रीय एकता स्थापित होना है।
दोनों प्रवृत्तियाँ पूँजीवाद का सर्वव्यापी क़ानून हैं। पहली प्रवृत्ति इसके विकास के आरंभ में प्रधान होती है, और दूसरी परिपक्व पूँजीवाद, जो समाजवादी समाज में तब्दीली की तरफ़ बढ़ रहा है, की विशेषता होती है। मार्क्सवादियों का राष्ट्रीय कार्यक्रम दोनों प्रवृत्तियों को ध्यान में रखता है, और, पहले स्थान पर, राष्ट्रों और भाषाओं की बराबरी की और इस पक्ष से किसी भी तरह के विशेष अधिकार की आज्ञा न दिए जा सकने की (और साथ ही राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार की, जिसे बाद में अलग से लेंगे); दूसरे नंबर पर, अंतरराष्ट्रीयवाद के सिद्धांत और सर्वहारा को, यहाँ तक कि शुद्धम-शुद्ध क़िस्म के भी बुर्जुआ राष्ट्रवाद के साथ, दूषित किए जाने के विरुद्ध दृढ़ संघर्ष की हिमायत करता है।
प्रश्न उठता है : जब बुंदवादी “जज़्ब कर लिए जाने” (assimilation) के विरुद्ध आसमान सिर पर उठा लेता है, उसका मतलब क्या होता है? उसका मतलब राष्ट्रों पर उत्पीड़न या किसी एक ख़ास राष्ट्र द्वारा विशेष अधिकार का लाभ उठाना नहीं हो सकता था, क्योंकि यह शब्द “जज़्ब कर लिया जाना” यहाँ बिल्कुल ही अनुपयुक्त है, क्योंकि सभी मार्क्सवादियों ने, व्यक्तिगत रूप में, और सरकारी, समूची इकाई के तौर पर, असल में निश्चित ढंग से और साफ़-साफ़ राष्ट्रों के विरुद्ध मामूली से मामूली हिंसा व उत्पीड़न की और राष्ट्रों की असमानता की निंदा की है, और आख़िर में, क्योंकि यह आम मार्क्सवादी विचार, जिस पर बुंदवादी ने हमला किया है, “सेवेरनाया प्रावदा” वाले लेख में अत्यंत ज़ोरदार ढंग से प्रकट किया गया है।
नहीं, यहाँ सिर नहीं बचाया जा सकता। “जज़्ब कर लिए जाने” की निंदा करते हुए, श्रीमान लीबमान के मन में, हिंसा नहीं, असमानता नहीं, और विशेष अधिकार नहीं थे। जब सारी हिंसा और सारी असमानता निकाल ली जाए, जज़्ब कर लिए जाने की अवधारणा में कोई असल चीज़ रह जाती है?
हाँ, निस्संदेह ही रह जाती है। जो कुछ रह जाता है, वह है पूँजीवाद की राष्ट्रीय बाधाओं को तोड़ने, राष्ट्र से राष्ट्र की भिन्नताएँ समाप्त करने, और राष्ट्रों को जज़्ब कर लेने की विश्व-ऐतिहासिक प्रवृत्ति – ऐसी प्रवृत्ति, जो स्वयं को हर गुज़रते दशक के साथ सदा ज़्यादा ज़ोरदार ढंग से व्यक्त करती है, और पूँजीवाद को समाजवाद में परिवर्तित करने वाली एक सबसे महान चालक शक्ति है।” (लेनिन, ‘क्रिटिकल रीमार्क्स ऑन द नेशनल क्वेश्चन’, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 20, उपरोक्त, पन्ना 27-28)
जैसा कि लेनिन ने ऊपर बताया है कि राष्ट्रों के आत्मनिर्णय, राष्ट्रीय उत्पीड़न के मसले और अन्य जनवादी माँगों-मसलों में यह संभावना होती है कि जिन्हें बुर्जुआजी मज़दूरों को धोखा देने के लिए इस्तेमाल कर सकती है। कई वर्गीय अपचयनवादी इसी डर से राष्ट्रों के मसले उठाने, यहाँ तक कि इनके बारे में बात तक करने से घबराते हैं। इसके बारे में लेनिन ने प्लेख़ानोव का हवाला देते हुए लिखा है,
“रू:सो:डे:ले:पा: के मसविदा-कार्यक्रम का (जो 1903 में कार्यक्रम बना) समर्थन करते हुए आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता दिए जाने का विशेष उल्लेख (पन्ना 38) किया था और उसके बारे में निम्नलिखित कहा था :
“यह, माँग, जो बुर्जुआ जनवादियों के लिए लाज़िमी नहीं, सिद्धांत तक में भी, सामाजिक जनवादियों के रूप में हमारे लिए लाज़िमी है। यदि हम इसके बारे में भूल जाएँ या महान रूसी मूल वाले अपने हमवतनों के राष्ट्रीय पूर्वाग्रहों को ठेस पहुँचाने के डर से इसे पेश करने से घबराएँ, तो हमारे होंठों पर संसार सामाजिक-जनवाद का जंगी नारा “सभी देशों के मज़दूरों एक हो जाओ” एक शर्मनाक झूठ होगा।” (लेनिन, ‘द नेशनल प्रोग्राम ऑफ़ द आर.एस.डी.एल.पी.’, कलेक्टिड वर्क्स, उपरोक्त, खंड 19, पन्ना 544)
मार्क्सवादी राष्ट्रीय उत्पीड़न के ख़ात्मे के लिए, राष्ट्रों के आत्मनिर्णय का झंडा बुलंद करते हैं। आइए अब देखते हैं कि राष्ट्रों के आत्मनिर्णय का क्या अर्थ है। लेनिन लिखते हैं,
“इसलिए हर राष्ट्रीय आंदोलन की प्रवृत्ति राष्ट्रीय राज्य बनाने की दिशा में होती है, जिसके अंतर्गत आधुनिक पूँजीवाद की ये आवश्यकताएँ सबसे अच्छे ढंग से पूरी होती हैं। गूढ़तम आर्थिक तत्व इसी तक्ष्य की ओर ले जाते हैं और इसलिए पूरे पश्चिमी यूरोप में, बल्कि पूरे सभ्य जगत में, पूँजीवादी मंज़िल के लिए राष्ट्र राज्य की लाक्षणिक तथा सामान्य अवस्था है।
अत: यदि हम राष्ट्रों के आत्मनिर्णय का अर्थ क़ानूनी परिभाषाओं के साथ खेलकर, या अमूर्त परिभाषाएँ “गढ़कर” नहीं बल्कि राष्ट्रीय आंदोलनों की ऐतिहासिक तथा आर्थिक परिस्थितियों की जाँच करके समझना चाहते हैं, तो हम अनिवार्य रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे के राष्ट्रों के आत्मनिर्णय का अर्थ होता है इन राष्ट्रों का पराए राष्ट्रीय समूहों से राजकीय अलगाव और स्वतंत्र राष्ट्रीय राज्य का निर्माण।
आगे चलकर हम और भी कारणों पर विचार करेंगे कि आत्मनिर्णय के अधिकार का अर्थ एक अलग राज्य के रूप में अस्तित्व के अधिकार के अतिरिक्त और कुछ समझना क्यों गलत है।” (लेनिन, जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार, उपरोक्त, पन्ना 7, ज़ोर मूल में)
कामरेड स्तालिन अपनी पुस्तिका, ‘मार्क्सवाद और राष्ट्रीय प्रश्न’ में राष्ट्रीय उत्पीड़न, राष्ट्रीय आंदोलन और इसके प्रति मज़दूर वर्ग का रुख़ स्पष्ट करने के बाद लिखते हैं,
“सभी देशों की सामाजिक-जनवादी ताक़तें इसीलिए राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार की बात करती हैं।
आत्मनिर्णय के अधिकार का मतलब है कि केवल राष्ट्र को अपना भविष्य तय करने का अधिकार होगा, किसी और को राष्ट्रों के जीवन में ज़बरदस्ती हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं होगा, किसी को भी उनके स्कूलों और अन्य संस्थानों को तबाह करने का अधिकार नहीं होगा, किसी को भी उनकी आदतों और रिवाजों का हनन करने का अधिकार नहीं होगा, किसी को भी उनकी भाषा का दमन करने का अधिकार नहीं होगा या उनके अधिकारों को कम करने का अधिकार नहीं होगा।
लेकिन इसका मतलब यह क़तई नहीं है कि सामाजिक-जनवाद किसी राष्ट्र के हर रिवाज और संस्थान का समर्थन करेगा। वह किसी राष्ट्र के दबाव के ख़िलाफ़ लड़ते हुए, सिर्फ़ राष्ट्र के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करेगा। साथ ही वह राष्ट्र के नुक़सानदेह रिवाजों और संस्थानों का विरोध करेगा ताकि उस राष्ट्र का मेहनतकश तबक़ा उन नुक़सानदेह रिवाजों और संस्थाओं से आज़ाद हो सके।…
राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकारों के लिए लड़ने का उद्देश्य यह है कि सामाजिक-जनवाद इसके तहत राष्ट्रीय उत्पीड़न की नीति को समाप्त करना चाहता है, और यह प्रयास करना चाहता है कि दोबारा इस तरह का उत्पीड़न न हो। वह इसके ज़रिए राष्ट्रों के आपसी टकराव की वजहों को ख़त्म करना चाहता है। उस टकराव की धार कुंद करना चाहता है और उसे कम करना चाहता है। ” (स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और जातीयताओं का प्रश्न’, उपरोक्त, पन्ना 28-29)
मार्क्सवादियों द्वारा राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार का झंडा उठाने का यह अर्थ नहीं होता कि वे हरेक राष्ट्रीय आंदोलन की हिमायत करते हैं। मार्क्सवादी हमेशा मज़दूर आंदोलन, मज़दूर वर्ग के हितों को सबसे ऊपर रखते हैं। सभी राष्ट्रों के मज़दूरों की एकता उनका सर्वप्रथम लक्ष्य होती है। राष्ट्रीय मसले संबंधी मार्क्सवादियों के सामने दोहरा कार्यभार होता है, एक ओर जहाँ वे हर तरह के राष्ट्रीय उत्पीड़न का विरोध करते हैं, वहीं वे अंध-राष्ट्रवाद का, मेहनतकशों की क़तारों में फूट डालने के प्रयासों का विरोध करते हैं, चाहे ऐसे प्रयास किसी उत्पीड़ित राष्ट्र के अंध-राष्ट्रवादियों द्वारा ही क्यों न किए जाते हों। राष्ट्रीय आंदोलनों को मार्क्सवादियों की हिमायत ठोस ऐतिहासिक हालातों पर निर्भर करती है। मार्क्सवादियों के लिए इन आंदोलनों की हिमायत करना कोई निरपेक्ष उसूल नहीं होता। मार्क्सवादी जहाँ एक विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद का विरोध करते हैं, वहीं, उत्पीड़क और उत्पीड़ित राष्ट्र के राष्ट्रवाद में फर्क भी करते हैं।
लेनिन लिखते हैं,
“हमारी पार्टी के कार्यक्रम के मसविदे में हमने एक गणराज्य की माँग उठाई है जिसका एक जनवादी संविधान हो जो अन्य चीज़ों के साथ ही “राज्य का अंग बन रहे सभी राष्ट्रों को आत्मनिर्णय के अधिकार” की गारंटी देगा।… सामाजिक जनवादी आत्मनिर्णय को बाहर से हिंसा या अन्याय के ज़रिए प्रभावित करने की हर कोशिश के विरुद्ध जूझते हैं। परंतु हमारी आत्मनिर्णय की आज़ादी की बिना शर्त हिमायत किसी भी तरह हमें आत्मनिर्णय की हर माँग की हिमायत के लिए वचनबद्ध नहीं करती। मज़दूर वर्ग की पार्टी के रूप में, सामाजिक जनवादी पार्टी राष्ट्र या लोगों के लिए आत्मनिर्णय की जगह प्रत्येक राष्ट्रीयता के मज़दूरों के आत्मनिर्णय को आगे बढ़ाना, अपना मुख्य और सकारात्मक कार्यभार समझती है। हम हमेशा और बिना शर्त सभी राष्ट्रीयताओं के सर्वहाराओं की अधिक से अधिक निकटतम एकता के लिए, काम करते हैं और सिर्फ़ अलग तरह के और अपवादस्वरूप मामलों में हम एक नए वर्गीय राज्य की स्थापना या राज्य की मुकम्मल राजनीतिक एकता को, ढीली-ढाली संघीय एकता में बदलने की माँग और इसकी सक्रिय हिमायत कर सकते हैं।” (लेनिन, ‘द नेशनल क्वेश्चन इन अवर प्रोग्राम’, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 6, पन्ना 452)
सभी राष्ट्रीयताओं के सर्वहारा के आत्मनिर्णय के अधिकार को आगे बढ़ाने के बारे में लेनिन के कथन का यह मतलब नहीं कि मार्क्सवादी राष्ट्रों (बुर्जुआजी सहित) के आत्मनिर्णय के हक़ को रद्द करते हैं, यह बात लेनिन के उपरोक्त हवाले से भी स्पष्ट है। जब बोल्शेविक पार्टी की आठवीं कांग्रेस (मार्च 18-23, 1919) में बुखारिन ने यह ऐलान किया कि “मैं सिर्फ़ मेहनतकश वर्गों के लिए आत्मनिर्णय का अधिकार चाहता हूँ, तो लेनिन ने इस बात का ज़ोरदार विरोध किया था।” (देखिए, लेनिन कलेक्टिड वर्क्स, खंड 29, पन्ना 170-171)
कामरेड स्तालिन लिखते हैं कि राष्ट्रीय उत्पीड़न के ख़ात्मे के लिए अलग होने सहित राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार की मार्क्सवादियों द्वारा हिमायत का,
“यह मतलब भी क़तई नहीं है कि सामाजिक-जनवाद राष्ट्र की सभी माँगों का समर्थन करेगा। एक राष्ट्र को पुरानी लीक पर लौटने का भी अधिकार है; लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सामाजिक-जनवाद किसी ख़ास राष्ट्र की किसी संस्था द्वारा किए गए इस निर्णय का समर्थन कर देगा। सामाजिक-जनवाद का सर्वहारा के हितों की रक्षा करने का दायित्व, और विभिन्न वर्गों से बनी राष्ट्र के अधिकार, ये दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं।” (स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और जातीयताओं का प्रश्न’, उपरोक्त, पन्ना 28-29)
राष्ट्रवाद के बारे में मार्क्सवादी अवस्थिति स्पष्ट करते हुए लेनिन लिखते हैं,
“मार्क्सवाद को राष्ट्रवाद के साथ नहीं मिलाया जा सकता, भले ही राष्ट्रवाद सबसे न्याय-पूर्ण और “अत्यंत विशुद्ध”, अत्यंत परिष्कृत या सभ्य ब्रांड का भी क्यों न हो। राष्ट्रवाद की सभी शक्लों की जगह मार्क्सवाद अंतरराष्ट्रीयवाद, उच्चतर एकता में राष्ट्रों की समामेलन (amalgamation) पेश करता है, एकता जो निर्मित की जा रही रेलवे लाइन के हर मील के साथ, हर अंतरराष्ट्रीय ट्रस्ट के साथ, क़ायम की जा रही हर मज़दूर संस्था (संस्था जो अपनी आर्थिक गतिविधियों, और साथ ही अपने विचारों और लक्ष्यों के पक्ष से अंतरराष्ट्रीय है) के साथ हमारी आँखों के सामने बढ़ रही है।
बुर्जुआ समाज में राष्ट्रीयता का उसूल ऐतिहासिक तौर पर लाज़िमी है, और मार्क्सवादी, इस समाज को योग्य ढंग से ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय आंदोलनों की ऐतिहासिक वैधता को पूर्ण हद तक मान्यता देता है। परंतु इसे मान्यता देने को राष्ट्रवाद की क्षमा-याचना बनने से रोकने के लिए चाहिए कि इसे बिल्कुल उस तक सीमित रखा जाए, जो ऐसे आंदोलनों में प्रगतिशील है और जो इसे मान्यता देने के परिणामस्वरूप बुर्जुआ विचारधारा सर्वहारा चेतना को धुँधला ना कर सके।
सामंतवादी आलस्य से जनता की जागृति और हर तरह के राष्ट्रीय उत्पीड़न के विरुद्ध, जनता की, राष्ट्र की, ख़ुदमुख़्तियारी के लिए उनके संघर्ष प्रगतिशील हैं। इसलिए मार्क्सवादी का दृढ़ कर्तव्य है कि वह राष्ट्रीय प्रश्न के सभी पक्षों से संबंधित सुदृढ़ और सुसंगत जनवाद का पक्ष ले। यह कार्यभार बहुत हद तक नकारात्मक है। लेकिन यह हद है, जिस तक सर्वहारा राष्ट्रवाद की हिमायत कर सकता है, क्योंकि उससे आगे बुर्जुआजी द्वारा राष्ट्रवाद की किलाबंदी की “निर्णायक” कवायत शुरू हो जाती है।
सामंतवादी जुआ उतार फेंकने, समूचे राष्ट्रीय उत्पीड़न और किसी एक राष्ट्र या जुबान को प्राप्त सभी विशेष अधिकारों को उतार फेंकना जनवादी ताक़त के रूप में सर्वहारा का लाज़िमी फ़र्ज़ है, और यक़ीनन ही सर्वहारा वर्ग-संघर्ष के हितों के अनुसार है; संघर्ष, जो राष्ट्रीय प्रश्न से संबंधित झगड़े के साथ धुँधला और मंद पड़ता है। परंतु बुर्जुआ राष्ट्रवाद की मदद में इन एकदम सीमित और निश्चित ऐतिहासिक सीमाओं से आगे जाने का मतलब सर्वहारा के साथ ग़द्दारी करना है और बुर्जुआजी का पक्ष लेना है। यहाँ एक सीमा रेखा है, जो अक्सर बहुत ही बारीक होती है, और जिसे बुंदवादी और यूक्रेनी राष्ट्रवादी-सोशलिस्ट बिल्कुल ही आँखों से ओझल करते हैं।
समूचे राष्ट्रीय उत्पीड़न से टक्कर ली जाए? कहिए, बेशक! हर तरह के राष्ट्रीय विकास के लिए, आम तौर पर “राष्ट्रीय संस्कृति” के लिए, संग्राम किया जाए? – बेशक नहीं। पूँजीवादी समाज के आर्थिक विकास से हमें दुनिया-भर में अपरिपक्व राष्ट्रीय आंदोलनों की मिसालें मिलती हैं, कुछ छोटे-छोटे राष्ट्रों से, या कुछ छोटे राष्ट्रों के नुक़सान से विशाल राष्ट्रों के बनने की मिसालें मिलती हैं, और राष्ट्रों के जज़्ब कर लिए जाने की मिसालें भी मिलती हैं। आम तौर पर राष्ट्रीयता का विकास बुर्जुआ राष्ट्रवाद का उसूल है; इसलिए बुर्जुआ राष्ट्रवाद की भिन्नता है, इसी कारण अंतहीन राष्ट्रीय झगड़ा है। लेकिन, सर्वहारा हर राष्ट्रीय विकास की रक्षा करने की शपथ लेने की तो बात ही छोड़िए, बल्कि इसके विपरीत, जनता को इसके भ्रांतियों के विरुद्ध सावधान करता है, पूँजीवादी मेल-मिलाप के लिए पूर्ण-से-पूर्ण आज़ादी की हिमायत करता है, और राष्ट्रों के हर प्रकार के जज़्ब कर लिए जाने का स्वागत करता है, सिवाए उसके, जिसकी बुनियाद बल या विशेषाधिकार पर हो।” (लेनिन, ‘क्रिटिकल रीमार्क्स ऑन द नेशनल क्वेश्चन’, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 20, उपरोक्त, पन्ना 34-35)
राष्ट्रीय मसले से संबंधित मार्क्सवादियों के समक्ष दोहरे कार्यभार, यानी राष्ट्रीय उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष और, बुर्जुआ राष्ट्रवाद के विरुद्ध संघर्ष के बारे में लेनिन लिखते हैं,
“मज़दूरों के लिए महत्वपूर्ण बात दोनों प्रवृत्तियों के सिद्धांतों के बीच अंतर करना है। जहाँ तक उत्पीड़ित राष्ट्र का पूँजीपति वर्ग उत्पीड़क राष्ट्र के पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ लड़ता है, वहाँ तक हम हमेशा, हर सूरत में, और किसी की भी अपेक्षा अधिक दृढ़ता के साथ उसके पक्ष में हैं, क्योंकि हम उत्पीड़न के सबसे कट्टर और सबसे पक्के दुश्मन हैं। परंतु जहाँ उत्पीड़ित राष्ट्र का पूँजीपति वर्ग अपने ही पूँजीवादी राष्ट्रवाद के लिए लड़ता है, वहाँ हम उसके ख़िलाफ़ हैं। हम उत्पीड़क राष्ट्र के विशेषाधिकारों तथा उसकी हिंसा के ख़िलाफ़ लड़ते हैं और उत्पीड़ित राष्ट्र द्वारा विशेषाधिकार प्राप्त करने की कोशिशों को किसी भी प्रकार क्षम्य नहीं समझते।” (लेनिन, जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार, उपरोक्त, पन्ना 25, ज़ोर मूल में)
उत्पीड़ित राष्ट्र के राष्ट्रवाद को उत्पीड़क राष्ट्र के राष्ट्रवाद से अलग करते हुए लेनिन लिखते हैं,
“उत्पीड़ित राष्ट्र के हर पूँजीवादी राष्ट्रवाद में एक आम जनवादी तत्त्व होता है, जो उत्पीड़न के ख़िलाफ़ निदेशित होता है और हम इसी तत्त्व का निस्संदेह समर्थन करते हैं।” (उपरोक्त, पन्ना 26, ज़ोर मूल में)
“राष्ट्रीय प्रश्न के बारे में अपनी रचनाओं में मैंने हमेशा ही यह कहा है कि राष्ट्रवाद के प्रश्न को आम तौर पर अमूर्त तरीके़ से पेश करने का बिल्कुल कोई फ़ायदा नहीं। उत्पीड़क राष्ट्र की राष्ट्रवाद और उत्पीड़ित राष्ट्र के राष्ट्रवाद के बीच, बड़े राष्ट्र की और छोटे राष्ट्र के राष्ट्रवाद के बीच लाज़िमी तौर पर अंतर किया जाना चाहिए।
दूसरी क़िस्म के राष्ट्रवाद के संबंध में हम, बड़े राष्ट्र के लोग, ऐतिहासिक अमल में, लगभग हमेशा ही हिंसा के अनगिनत मामलों के दोषी रहे हैं; इससे भी आगे, हम हिंसा करते हैं और बिना ध्यान दिए असंख्य बार अपमान करते हैं। मेरा वोल्गा के संस्मरणों को याद करना ही काफ़ी है कि ग़ैर-रूसियों के साथ कैसा बर्ताव किया जाता है; कैसे पोलों को सिवाए “पोलियाचीशका” के और किसी नाम से नहीं बुलाया जाता; कैसे तातार को चिढ़ाने के लिए “शहज़ादा” कहा जाता है, कैसे यूक्रेनियों को “खोखोल” कहा जाता है और जॉर्जियनों तथा दूसरे काकेशिया निवासियों को हमेशा “कपकासियन” कहा जाता है।
यही कारण है कि उत्पीड़क या “महान” राष्ट्र का, जैसे कि उन्हें कहा जाता है, (भले ही महान वह सिर्फ़ अपनी हिंसा में, महान सिर्फ़ बदमाशों के तौर पर होते हैं) अंतरराष्ट्रीयवाद सिर्फ़ राष्ट्रों की रस्मी बराबरी का ख़याल रखने में नहीं होना चाहिए बल्कि उत्पीड़क राष्ट्र, महान राष्ट्र, की ग़ैर-बराबरी में भी होना चाहिए, जिसे चाहिए कि अमल में मिलती ग़ैर-बराबरी पूरी करे। जो भी कोई इस बात को नहीं समझता उसने राष्ट्रीय प्रश्न के प्रति असली सर्वहारा रवैए को नहीं समझा, वह अभी भी अपने नज़रिए में बुनियादी तौर पर निम्न-बुर्जुआ है और, इसलिए, यक़ीनी तौर पर बुर्जुआ नज़रिए तक नीचे गिर जाएगा।
सर्वहारा के लिए कौन सी बात महत्वपूर्ण है? सर्वहारा के लिए यह बात न सिर्फ़ महत्वपूर्ण बल्कि बिल्कुल लाज़िमी है कि उसे यक़ीन होना चाहिए कि ग़ैर-रूसी लोग सर्वहारा वर्ग संघर्ष में अधिक से अधिक संभव विश्वास रखें। इसे सुनिश्चित करने के लिए किस चीज़ की ज़रूरत है? सिर्फ़ रस्मी बराबरी की नहीं। किसी भी तरीक़े से, किसी रवैए द्वारा या रियायतों द्वारा, यह ज़रूरी है कि ग़ैर-रूसी जनका को उस भरौसे की कमी, शक या अपमान के लिए मुआवजा दिया जाए, जो “हावी” राष्ट्र की सरकार ने इन्हें अतीत में सहने पर मज़बूर किया है।” (लेनिन, ‘द क्वेश्चन ऑफ़ नेशनेलिटीस ओर “ऑटोनॉमिसेशन”’, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 36, पन्ना 607-608)
मार्क्सवादियों के लिए राष्ट्रीय मसला, हमेशा सर्वहारा के हितों, या मज़दूर मसले के मातहत होता है, परंतु इसका मतलब राष्ट्रीय उत्पीड़न की तरफ़ पीठ करना नहीं होता। लेनिन लिखते हैं,
“मार्क्स के दिमाग़ में इसमें कोई शंका नहीं थी कि “मज़दूरों के प्रश्न” की तुलना में राष्ट्रों का प्रश्न गौण महत्व रखता है। परंतु उनका सिद्धांत राष्ट्रीय आंदोलनों की रत्ती-भर भी उपेक्षा नहीं करता।” (लेनिन, जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार, उपरोक्त, पन्ना 55)
राष्ट्रीय उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष में, राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के संघर्ष में, बुर्जुआजी के प्रति सर्वहारा के रवैए की लेनिन इस तरह व्याख्या करते हैं,
“अवसरवादियों ने रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग के इस तर्क को विशेष रूप से पकड़ लिया है कि हमारे कार्यक्रम की धारा 9 में कोई “व्यावहारिक” बात नहीं है। रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग अपनी इस दलील से इतनी ख़ुश हैं कि उनके लेख के कुछ हिस्सों में तो इस “नारे” को एक ही पृष्ठ पर आठ-आठ बार दोहराया गया है।
वह लिखती हैं : धारा 9 “सर्वहारा वर्ग की दैनंदिन नीति में कोई व्यावहारिक अगुआई नहीं करती, वह राष्ट्रीय समस्याओं का कोई व्यावहारिक हल नहीं बताती”।
आइए, हम इस दलील को जाँचें, जिसे अन्यत्र इस ढंग से भी प्रतिपादित किया गया है कि धारा 9 या तो बिल्कुल निरर्थक है या फिर हर राष्ट्रीय आकांक्षा का समर्थन करने को बाध्य करती है।
राष्ट्रीय प्रश्न में “व्यावहारिकता” की माँग का क्या अर्थ है?
या तो सभी राष्ट्रीय आकांक्षाओं का समर्थन; या हर राष्ट्र के सिलसिले में उसके अलग हो जाने के प्रश्न का उत्तर “हाँ” या “नहीं” में देना या फिर यह कहना कि राष्ट्रीय माँगें सीधे “पूर्तियोग्य” हैं।
आइए, हम “व्यावहारिकता” की माँग के इन तीनों संभव अर्थों को जाँचें।
पूँजीपति वर्ग, जो स्वाभाविक रूप से हर राष्ट्रीय आंदोलन के आरंभ में नेतृत्व ग्रहण करता है, सभी राष्ट्रीय आकांक्षाओं के समर्थन को व्यावहारिक ठहराता है। परंतु राष्ट्र के प्रश्न में सर्वहारा वर्ग की नीति (अन्य प्रश्नों की तरह ही) पूँजीपति वर्ग का समर्थन एक निश्चित दिशा में ही करती है, परंतु वह पूँजीपति वर्ग की नीति के साथ पूरी तरह मेल कभी नहीं खाती। मज़दूर वर्ग पूँजीपति वर्ग का समर्थन केवल राष्ट्रों के बीच शांति प्राप्त करने के लिए (जिसे पूँजीपति वर्ग पूरी तरह कभी नहीं सम्पन्न कर सकता और जिसकी सिद्धि केवल पूर्ण जनवाद के साथ ही हो सकती है), समान अधिकार प्राप्त करने और वर्ग-संघर्ष के लिए श्रेष्ठतम परिस्थितियाँ उत्पन्न करने के लिए करता है। इसलिए पूँजीपति वर्ग की व्यावहारिकता के ख़िलाफ़ ही तो सर्वहारागण राष्ट्रों के प्रश्न के बारे में अपनी सैद्धांतिक नीति प्रस्तुत करते हैं, पूँजीपति वर्ग का समर्थन वे सदा कुछ शर्तों पर ही करते हैं। राष्ट्रीय मामलों में पूँजीपति वर्ग हमेशा या तो स्वयं अपने राष्ट्र के लिए विशेषाधिकार या उसके लिए विशिष्ट सुविधाएं चाहता है; और इसे “व्यावहारिक” होना कहा जाता है। सर्वहारा वर्ग हर तरह के विशेषाधिकारों के, हर तरह की विशिष्टता के ख़िलाफ़ है। यह माँग करना कि उसे “व्यावहारिक” होना चाहिए, पूँजीपति वर्ग का दुमछल्ला बनना हा, अवसरवाद में फंस जाना है।
हर राष्ट्र के सिलसिले में उसके अलग हो जाने के प्रश्न का उत्तर “हाँ” या “नहीं” में देने की माँग बहुत “व्यावहारिक” प्रतीत हो सकती है। वास्तव में यह बिल्कुल बेतुकी माँग है, सिद्धांत की दृष्टि से यह अधिभूतवादी है और व्यवहार में यह सर्वहारा वर्ग को पूँजीपति वर्ग की नीति के अधीनस्थ करती है। पूँजीपति वर्ग अपनी राष्ट्रीय माँगों को सर्वदा सर्वोपरि स्थान देता है और ऐसा बिना किसी शर्त के करता है। परंतु सर्वहारा वर्ग के लिए ये माँगें वर्ग-संघर्ष के हितों के अधीन होती हैं। सिद्धांतत: पहले से यह बात दावे के साथ कहना असंभव होता है कि किसी राष्ट्र के दूसरी राष्ट्र से अलग हो जाने से या उसके बराबर अधिकार प्राप्त कर लेने से पूँजीवादी-जनवादी क्रांति पूरी हो जाएगी; दोनों ही सूरतों में, सर्वहारा वर्ग के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि वह अपने वर्ग के विकास को सुनिश्चित बनाए। पूँजीपति वर्ग के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि वह “अपने” राष्ट्र के उद्देश्यों को सर्वहारा के उद्देश्यों से आगे ठेलकर इस विकास में बाधा डाले। यही कारण है कि किसी राष्ट्र को कोई आश्वासन दिए बिना, किसी अन्य राष्ट्र के हितों की क़ीमत पर कुछ देने की हामी भरे बिना, सर्वहारा वर्ग, कहना चाहिए, अपने आपको आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार करने की नकारात्मक माँग तक ही सीमित रखता है।
संभव है कि यह बात “व्यावहारिक” न हो, पर वास्तव में यह सभी संभव हलों में से सबसे अधिक जनवादी हल प्राप्त करने की सबसे अच्छी गारंटी है। सर्वहारा वर्ग को केवल इन गारंटियों की ज़रूरत होती है, जबकि हर राष्ट्र का पूँजीपति वर्ग केवल अपने स्वार्थों के लिए गारंटी चाहता है, उसे इससे कोई मतलब नहीं होता कि अन्य राष्ट्रों की स्थिति क्या है (या इससे उन्हें संभवत: क्या असुविधाएँ हो सकती हैं)।
पूँजीपति वर्ग को सबसे अधिक दिलचस्पी इसमें होती है कि इस माँग की “पूर्तियोग्यता” है या नहीं – यही कारण है कि उसकी नीति सदैव सर्वहारा वर्ग के हितों की बलि देकर दूसरे राष्ट्रों के पूँजीपति वर्ग के साथ समझौता कर लेने की होती है। परंतु सर्वहारा वर्ग के लिए पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध अपने वर्ग को शक्तिशाली बनाना और जनसाधारण को सुसंगत जनवाद तथा समाजवाद की भावना की शिक्षा देना एक महत्वपूर्ण बात है।
संभव है कि यह बात अवसरवादियों लिए “व्यावहारिक” न हो, परंतु यही एकमात्र सच्ची गारंटी है, सामंतवादी ज़मींदारों तथा राष्ट्रवादी पूँजीपति वर्ग के बावजूद अधिकतम राष्ट्रीय समता तथा शांति की गारंटी।
राष्ट्रीय प्रश्न के संबंध में सर्वहारागण का सारा काम हर राष्ट्र के राष्ट्रवादी पूँजीपति वर्ग के दृष्टिकोण से “अव्यावहारिक” होता है, क्योंकि हर प्रकार के राष्ट्रवाद का विरोधी होने के नाते सर्वहारागण “अमूर्त” समता की माँग करते हैं, वे यह माँग करते हैं कि सिद्धांतत: कोई भी विशेषाधिकार नहीं होने चाहिए, वे चाहे कितने ही छोटे क्यों न हों। इस बात को न समझ सकने के कारण रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग ने व्यावहारिकता की अपनी भ्रांत प्रशस्ति द्वारा अवसरवादियों के लिए, और विशेष रूप से रूसी राष्ट्रवाद को अवसरवादी रियायतें देने के लिए, पूरा रास्ता खोल दिया।
रूसी क्यों? क्योंकि रूस में रुसी एक उत्पीड़क राष्ट्र है और यह स्वाभाविक ही है कि राष्ट्रीय प्रश्न के सिलसिले में अवसरवाद उत्पीड़क राष्ट्रोंमें उत्पीड़ित राष्ट्रोंकी अपेक्षा भिन्न रूप में व्यक्त होता है।
उत्पीड़ित राष्ट्रों का पूँजीपति वर्ग सर्वहारा वर्ग का आह्वान करेगा कि वह उसकी आकांक्षाओं का बेशर्त समर्थन करे, क्योंकि उसकी माँगें “व्यावहारिक” हैं। सबसे अधिक व्यावहारिक प्रक्रिया यह है कि सभी राष्ट्रों को अलग हो जाने का अधिकार होने के पक्ष में “हाँ” कहने की अपेक्षा किसी एक राष्ट्र विशेष के अलग हो जाने के पक्ष में साफ़ “हाँ” कह दी जाए!
सर्वहारा वर्ग इस प्रकार की व्यावहारिकता के ख़िलाफ़ है : राष्ट्रों की बराबरी तथा राष्ट्रीय राज्य को स्थापित करने के उनके समान अधिकारों को स्वीकार करते हुए भी वह सभी राष्ट्रों के सर्वहारागण की एकता को सबसे मूल्यवान समझता है, उसे सबसे ऊँचा स्थान देता है और हर राष्ट्रीय माँग का, हर राष्ट्रीय संबंध-विच्छेद का मूल्यांकन मज़दूरों के वर्ग-संघर्ष के दृष्टिकोण से करता है। व्यावहारिकता का यह आह्वान पूँजीवादी आकांक्षाओं को बिना सोचे-समझे मान लेने के आह्वान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
हमसे कहा जाता है : अलगाव के अधिकार का समर्थन करके आप उत्पीड़ित राष्ट्रों के पूँजीवादी राष्ट्रवाद का समर्थन करते हैं। रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग यही बात कहती हैं और इसी को अवसरवादी सेम्कोव्स्की प्रतिध्वनित करते हैं, जिनके बारे में लगे हाथों यह बता दिया जाए कि विसर्जनवादी अख़बार में इस प्रश्न पर विसर्जनवादी विचारों के वह एकमात्र प्रतिनिधि हैं!
हम इसका उत्तर यह देते हैं : नहीं, इस प्रश्न का “व्यावहारिक” हल पूँजीपित वर्ग के लिए ही महत्व रखता है। मज़दूरों के लिए महत्वपूर्ण बात दोनों प्रवृत्तियों के सिद्धांतों के बीच अंतर करना है। जहाँ तक उत्पीड़ित राष्ट्र का पूँजीपति वर्ग उत्पीड़क राष्ट्र के पूँजीपित वर्ग के ख़िलाफ़ लड़ता है, वहाँ तक हम हमेशा, हर सूरत में, और किसी की भी अपेक्षा अधिक दृढ़ता के साथ उसके पक्ष में हैं, क्योंकि हम उत्पीड़न के सबसे कट्टर और सबसे पक्के दुश्मन हैं। परंतु जहाँ उत्पीड़ित राष्ट्र का पूँजीपति वर्ग अपने ही पूँजीवादी राष्ट्रवाद के लिए लड़ता है, वहाँ हम उसके ख़िलाफ़ हैं। हम उत्पीड़क राष्ट्र के विशेषाधिकारों तथा उसकी हिंसा के ख़िलाफ़ लड़ते हैं और उत्पीड़ित राष्ट्र द्वारा विशेषाधिकार प्राप्त करने की कोशिशों को किसी भी प्रकार क्षम्य नहीं समझते।
यदि हम अपने कार्यक्रम में अलगाव के अधिकार का नारा नहीं देंगे और उसका समर्थन नहीं करेंगे, तो हम उत्पीड़क राष्ट्र के केवल पूँजीपति वर्ग के ही हाथों में नहीं बल्कि उसके सामंती ज़मींदारों तथा उसकी निरंकुशता के भी हाथों में खेलेंगे। काउत्स्की ने बहुत पहले ही रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग के ख़िलाफ़ यह तर्क प्रस्तुत किया था और यह तर्क अकाट्य है। रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग जब पोलैंड के राष्ट्रीवादी पूँजीपति वर्ग की “सहायता” न करने की फ़िक्र में रूसी मार्क्सवादियों के कार्यक्रम में अलग हो जाने के अधिकार को अस्वीकार करती हैं, तो वह वास्तव में रूसी यमदूतसभावालों की ही सहायता करती हैं। वह वास्तव में रूसियों के विशेषाधिकारों को (और विशेषाधिकारों से भी बदतर चीज़ को) बर्दाश्त करने की अवसरवादी प्रवृत्ति की सहायता करती हैं।
पोलैंड में राष्ट्रवाद के विरुद्ध संघर्ष की धारा में बहकर रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग रूसियों के राष्ट्रवाद को भूल गई हैं, हालाँकि इस समय यही सबसे अधिक ख़तरनाक है, यह वह राष्ट्रवाद है, जो पूँजीवादी कम और सामंतवादी ज़्यादा है, और यही जनवाद तथा सर्वहारा वर्ग के संघर्ष की राह में मुख्य बाधा है। उत्पीड़ित राष्ट्र के हर पूँजीवादी राष्ट्रवाद में एक आम जनवादी तत्त्व होता है, जो उत्पीड़न के ख़िलाफ़ निदेशित होता है और हम इसी तत्त्व का निस्संदेह समर्थन करते हैं, पर साथ ही हम राष्ट्रीय विशिष्टता की प्रवृत्ति से बड़ी सख़्ती के साथ उसका अंतर बताते हैं; हम पोलैंड के पूँजीपति वर्ग की यहूदियों का उत्पीड़न करने की प्रवृत्ति के ख़िलाफ़ लड़ते हैं, आदि, आदि।
यह बात पूँजीपति वर्ग और कूपमंडूकों के दृष्टिकोण से “अव्यावहारिक” है, परंतु राष्ट्रीय प्रश्न के बारे में यही एक ऐसी नीति है, जो व्यावहारिक है, जो सिद्धांतों पर आधारित है और जो सचमुच जनवाद, आज़ादी और सर्वहारा एकता को बढ़ावा देती है।
सबके लिए अलग हो जाने के अधिकार को मानना; अलग हो जाने के हर ठोस प्रश्न का मूल्यांकन सारी असमानता, सारे विशेषाधिकारों, सारी विशिष्टता दूर करने के दृष्टिकोण से करना।
आइए, हम एक उत्पीड़क राष्ट्र की स्थिति को लें। यदि कोई राष्ट्र अन्य राष्ट्रों का उत्पीड़न करता है, तो क्या वह स्वतंत्र हो सकती है? वह नहीं हो सकती। रूसी आबादी की स्वतंत्रता के हितों का तक़ाज़ा है कि इस प्रकार के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ संघर्ष किया जाए। उत्पीड़ित राष्ट्रों के आंदोलन के दमन के लंबे, युगों पुराने इतिहास और “उच्च” वर्गों की ओर से इस दमन के पक्ष में बाक़ायदा प्रचार ने स्वयं रूसी जनगण की स्वतंत्रता के ध्येय की राह में पूर्वाग्रहों, आदि के रूप में बहुत बड़ी-बड़ी बाधाएँ खड़ी कर दी हैं।
रूसी यमदूत सभा वाले जानबूझकर इन पूर्वाग्रहों को बरकरार रखते और उन्हें हवा देते हैं। रूसी पूँजीपति वर्ग या तो उन्हें बर्दाश्त करता है या उन्हें फुसलाने की कोशिश करता है। रूसी सर्वहारा वर्ग जब तक बाक़ायदा इन पूर्वाग्रहों के ख़िलाफ़ नहीं लड़ेगा, तब तक वह स्वयं अपने उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकता, अपनी स्वतंत्रता के लिए रास्ता साफ़ नहीं कर सकता।
रूस में एक स्वतंत्र राष्ट्रीय राज्य का निर्माण करने का विशेषाधिकार अभी तक अकेली रूसी राष्ट्र को प्राप्त हुआ है। हम, रूसी सर्वहारागण, किसी भी विशेषाधिकार का समर्थन नहीं करते और हम इस विशेषाधिकार के भी पक्ष में नहीं हैं। अपनी लड़ाई में हम उस राज्य को , जो इस समय विद्यमान है, अपना आधार मानते हैं; हम उस राज्य विशेष की सभी राष्ट्रों के मज़दूरों की एकता स्थापित करते हैं, हम निश्चय के साथ यह नहीं बता सकते कि राष्ट्रीय विकास किस मार्ग से बढ़ेगा, हम अपने वर्ग-लक्ष्य की ओर सभी संभव मार्गों से आगे बढ़ रहे हैं।
परंतु जब तक हम हर प्रकार के राष्ट्रवाद के विरुद्ध न लड़ें, जब तक हम सभी राष्ट्रों की बराबरी की हिमायत न करें, तब तक हम उस लक्ष्य की ओर आगे नहीं बढ़ सकते। उदाहरण के लिए, यह सवाल कि उक्रेन आगे चलकर एक स्वतंत्र राज्य बनेगा कि नहीं, ऐसी हज़ारों बातों से तय होगा, जिनके बारे में पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता। फ़िज़ूल की अटकलबाज़ी की कोशिश किए बग़ैर हम दृढ़तापूर्वक केवल उस बात को सही मानते हैं, जिसमें कोई संदेह नहीं हो सकता; उक्रेन का इस प्रकार का राज्य बनाने का अधिकार। हम इस अधिकार का सम्मान करते हैं; हम उक्रेनियों के संबंध में रूसियों के किन्हीं विशेषाधकारों के समर्थक नहीं हैं, हम जनता को इस अधिकार को मानने की भावना में, किसी भी राष्ट्र के राज्य-संबंधी विशेषाधिकारों को अस्वीकार करने की भावना में शिक्षा देते हैं।
सभी देश पूँजीवादी क्रांतियों के काल में जो छलाँगें भरते हैं, उनमें राष्ट्रीय राज्य के अधिकार को लेकर टक्करें तथा संघर्ष संभव हैं, अत्यधिक संभव हैं। हम सर्वहारागण पहले से ही यह घोषणा करते हैं कि हम रूसियों के विशेषाधिकारों के ख़िलाफ़ हैं, और यही बात हमारे आंदोलन तथा प्रचार के पूरे काम का पथ-प्रदर्शन करती है।
“व्यावहारिकता” की साधना में रोज़ा लक्ज़ेमबुर्ग रूसी सर्वहारा वर्ग और अन्य राष्ट्रीयताओं के सर्वहारा वर्ग दोनों ही के मुख्य व्यावहारिक काम को नहीं देख पाईं : सभी राज्यीय तथा राष्ट्रीय विशेषाधिकारों के विरुद्ध, और सभी राष्ट्रों के अपना राष्ट्रीय राज्य बनाने के अधिकार, समान अधिकार के पक्ष में दैनंदिन आंदोलन तथा प्रचार का काम। राष्ट्रीय प्रश्न के सिलसिले में यह काम (इस समय) हमारा मुख्य काम है, क्योंकि केवल इसी तरीक़े से हम जनवाद के तथा बराबरी के आधार पर सभी राष्ट्रों के समस्त सर्वाहारागण की एकता के हितों की रक्षा कर सकते हैं।
संभव है कि यह प्रचार रूसी उत्पीड़कों के दृष्टिकोण से और उत्पीड़ित राष्ट्रों के पूँजीपति वर्ग के दृष्टिकोण से भी “अव्यावहारिक” हो (दोनों ही साफ़ “हाँ” या “नहीं” में उत्तर चाहते हैं और सामाजिक-जनवादियों पर “अस्पष्ट” होने का आरोप लगाते हैं)। वास्तव में केवल यह प्रचार और यही प्रचार जनता की सचमुच जनवादी और सचमुच समाजवादी शिक्षा को सुनिश्चित बनाता है। यदि रूस एक बहुराष्ट्रीय राज्य रहे, तो केवल ऐसा प्रचार ही उसमें विभिन्न राष्ट्रों के बीच शांति की और यदि उसके अलग-अलग राष्ट्रीय राज्यों में बँट जाने का सवाल पैदा हो, तो इस विभाजन के सर्वाधिक शांतिपूर्ण (और सर्वहारा वर्ग-संघर्ष के लिए निरापद) ढंग से संपन्न होने की सर्वाधिक संभावना सुनिश्चित करता है। (लेनिन, ‘जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार’, उपरोक्त, पन्ना 21-28, शब्दों पर ज़ोर मूल में)
इसी संबंध में कामरेड स्तालिन लिखते हैं,
“पूँजीवादी राष्ट्रवाद के परचम तले सर्वहारा का जुटना इस बात से तय होता है कि वर्गीय विरोध, वर्गीय चेतना का कितना विकास हुआ है तथा सर्वहारा को कितना संगठित किया गया है। वर्गीय चेतना से ओतप्रोत सर्वहारा का अपना परचम होता है, और उसे पूँजीवाद के परचम के नीचे जुटने की कोई ज़रूरत नहीं होती।”(स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और जातीयताओं का प्रश्न’, उपरोक्त, पन्ना 26)
आख़िर राष्ट्रीय मसले का हल क्या है? इस प्रश्न का लेनिन यह जवाब देते हैं,
“ बुर्जुआजी को वर्ग सचेतन मज़दूर जवाब देगा – राष्ट्रीय मसले का सिर्फ़ एक ही हल है (मुनाफ़ा, झगड़ों और लूट-मार की दुनिया, पूँजीवादी दुनिया में आम तौर पर जिस हद तक यह हो सकता है) और यह हल सुसंगत जनवाद है।” (लेनिन, ‘क्रिटिकल रीमार्क्स ऑन द नेशनल क्वेश्चन’, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 20, उपरोक्त, पन्ना 22, शब्दों पर ज़ोर हमारा)
“कुछ भी हो, क्या यह एक संदेह-रहित और निर्विवाद सच्चाई नहीं है कि पूँजीवाद के तहत राष्ट्रीय शांति केवल उन देशों में ही प्राप्त की जा सकी है (जिस हद तक वह प्राप्त की जा सकती है), जिनमें सुसंगत जनवाद प्रबल है?
क्योंकि यह संदेह-रहित है, इसलिए राष्ट्रवादियों द्वारा स्विट्ज़रलैंड की जगह ऑस्ट्रिया के हठी हवाले एक ठेठ कैडटीय ढंग के सिवा और कुछ नहीं, क्योंकि कैडट हमेशा ही सबसे अच्छे की जगह सबसे खराब यूरोपीय संविधानों की नक़ल करते हैं।
स्विट्ज़रलैंड में तीन सरकारी जुबानें हैं, परंतु जनमत के लिए पेश किए गए बिल पाँच जुबानों में छापे जाते हैं, यानी कि तीन सरकारी जुबानों के अलावा दो रोमांश उप-भाषाओं में भी। सन् 1900 की जनसंख्या के अनुसार, ये दो उप-भाषाएँ स्विट्ज़रलैंड के 33,15,443 निवासियों में से 38,651 द्वारा, यानी कोई एक प्रतिशत से अधिक आबादी द्वारा बोली जाती हैं। सेना में कमीशंड अधिकारियों को “जवानों के साथ ख़ुद अपनी भाषा में बात करने की पूर्ण आज़ादी दी जाती है।” गराउबूनदेन और वालसी की कैटनों में (दोनों की आबादी एक-एक लाख से अधिक है) दोनों उप-भाषाओं को पूर्ण बराबरी प्राप्त है।” (लेनिन, ‘क्रिटिकल रीमार्क्स ऑन द नेशनल क्वेश्चन’, कलेक्टिड वर्क्स, खंड 20, उपरोक्त, पन्ना 41, शब्दों पर ज़ोर मूल में)
राष्ट्रीय सांस्कृतिक ख़ुदमुख़्तियारी, बनाम क्षेत्रीय ख़ुदमुख़्तियारी
कम्यूनिस्ट आंदोलन के इतिहास में, राष्ट्रीय मसले के हल के साथ जुड़े विवादों में, राष्ट्रीय सांस्कृतिक ख़ुदमुख़्तियारी बनाम क्षेत्रीय ख़ुदमुख़्तियारी का विवाद भी शामिल रहा है। यहाँ इस विवाद की संक्षेप में चर्चा भी प्रासंगिक होगी। राष्ट्रीय सांस्कृतिक ख़ुदमुख़्तियारी का कार्यक्रम ऑस्ट्रियाई सामाजिक-जनवाद का कार्यक्रम था। ऑस्ट्रिया की सामाजिक-जनवादी पार्टी ने 1899 में ब्रुन कांग्रेस में यह कार्यक्रम अपनाया था। राष्ट्रीय सांस्कृतिक ख़ुदमुख़्तियारी के सिद्धांत के प्रवर्तक ऑस्ट्रियाई सामाजिक-जनवादी स्प्रिंगर और बावेर थे। राष्ट्रीय सांस्कृतिक ख़ुदमुख़्तियारी के अर्थ की व्याख्या करते हुए कामरेड स्तालिन लिखते हैं कि,
“इसका पहला मतलब यह हुआ कि स्वायत्तता दी जाएगी, या यूँ कह लें कि बोहेमिया या पोलैंड को नहीं, जहाँ मुख्यत: चेक और पोल बसते हैं, बल्कि यह स्वायत्तता बिना क्षेत्र का ध्यान रखे आमतौर पर चेक और पोल लोगों को दी जाएगी। इससे कोई मतलब नहीं कि वे ऑस्ट्रिया के किस हिस्से में बसते हैं।
यही कारण है कि इस स्वायत्तता को राष्ट्रीय कहा गया है, न कि क्षेत्रीय।
इसका दूसरा मतलब यह हुआ कि ऑस्ट्रिया के विभिन्न भागों में फैले हुए चेक, पोल, जर्मन आदि लोगों को व्यक्तियों के रूप में लिया गया है। इन लोगों को समग्र राष्ट्रों में संगठित होना है, और एक ऑस्ट्रियाई राज्य क़ायम करना है। इस तरह ऑस्ट्रिया स्वायत्तशासी क्षेत्रों का संघ नहीं, बल्कि बिना क्षेत्र का ख़याल रखे हुए स्वायत्तशासी राष्ट्रीयताओं का संघ बन जाएगा।
इसका तीसरा मतलब यह हुआ कि इस उद्देश्य के लिए चेक, पोल आदि लोगों के लिए जो राष्ट्रीय संस्थाएँ क़ायम की जाएँगी उनका अख़्तियार सिर्फ़ ‘सांस्कृतिक’ सवालों में होगा, ‘राजनीतिक’ सवालों में नहीं। राजनीतिक सवालों को ऑस्ट्रियाई संसद (रीख़स्रात) तक महदूद कर दिया जाएगा।” (स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और जातीयताओं का प्रश्न’, उपरोक्त, पन्ना 35)
राष्ट्रीय सांस्कृतिक ख़ुदमुख़्तियारी के सिद्धांत का खंडन करते हुए कामरेड स्तालिन लिखते हैं,
“आँखों को जो बात सबसे पहले खटकती है वह है राष्ट्रीय स्वायत्तता को राष्ट्रों के आत्मनिर्णय में बदलना। यह बात बिल्कुल समझ में नहीं आती, और न ही यह न्यायसंगत है। … इसमें कोई शक नहीं कि (अ) सांस्कृतिक-राष्ट्रीय स्वायत्तता का तक़ाज़ा बहुराष्ट्रीय राज्य को एकता में बाँधना है, जबकि आत्मनिर्णय एकता के इस दायरे से बाहर की चीज़ है, और यह कि (ब) आत्मनिर्णय राष्ट्र को सभी अधिकार देता है, जबकि सांस्कृतिक-राष्ट्रीय स्वायत्तता में केवल ‘सांस्कृतिक’ अधिकारों की बात आती है।
दूसरी बात यह कि आगे चलकर अंतरराष्ट्रीय और बाहरी हालात का संयोजन संभव है, जिसके आधार पर एक या दूसरी राष्ट्रीयता बहुराष्ट्रीय राज्य से अलग होने का फै़सला कर सकती है, उदाहरणार्थ – ऑस्ट्रिया से। … इस तरह के मामलों में राष्ट्रीय स्वायत्तता कैसे हो सकती है जो ‘हर राष्ट्र के सर्वहारा के लिए अपरिहार्य हो’?…
आगे – राष्ट्रों के विकास की पूरी प्रक्रिया से राष्ट्रीय स्वायत्तता बिल्कुल विपरीत चीज़ है। इसमें राष्ट्रों को संगठित करने की बात की जाती है; लेकिन जब आर्थिक विकास राष्ट्रों को दरहम-बरहम कर दे और उन्हें विभिन्न क्षेत्रों में धकेल दे तो क्या ऐसी सूरत में राष्ट्रों को कृत्रिम तरीक़े से एक-दूसरे से जोड़ा जा सकता है? इसमें कोई शक नहीं कि पूँजीवाद के शुरुआती चरणों में राष्ट्र एक-दूसरे से जुड़े हुए थे। लेकिन इसमें भी कोई शक नहीं कि पूँजीवाद के उच्च चरणों में राष्ट्रों के छिन्न-भिन्न होने की प्रक्रिया भी शुरू हो चुकी थी।
यह ऐसी प्रक्रिया थी जिसमें कई समूह राष्ट्रों से अलग हो गए, और आजीविका की तलाश में दूसरे क्षेत्रों में जाकर हमेशा के लिए बस गए। इस दौरान इन लोगों ने अपने पुराने संपर्क खो दिए और अपने नए स्थान पर नए संपर्क बनाए। इस तरह पीढ़ी दर पीढ़ी उन्होंने नई आदतें, नई रुचियाँ अपनी लीं, और बहुत संभव है नई भाषा भी अपनाई हो। सवाल उठता है; क्या उन्हें एकल राष्ट्रीय समूहों में एक किया जा सकता है जबकि उनका विकास बिल्कुल अलग तरह से हुआ है? जिसे एक नहीं किया जा सकता, उसे एक करने की जादुई छड़ी कहाँ है? (स्तालिन, ‘मार्क्सवाद और जातीयताओं का प्रश्न’, उपरोक्त, पन्ना 39-40)
इसी क्रम में स्तालिन लिखते हैं कि राष्ट्र की एकता सिर्फ़ प्रवास के साथ ही भंग नहीं होती, बल्कि यह राष्ट्र के अंदर वर्ग संघर्ष के तीखे होने के साथ भी टूटती है।
जॉर्ज थामसन ने भी अपनी पुस्तक ‘मार्क्स से माओ-त्से-तुंग तक’ में, इस प्रश्न के बारे में चर्चा की है।
“हर राष्ट्र के अलग होने और एक आज़ाद देश बनाने के अधिकार को मान्यता देते हुए लेनिन का यह मतलब नहीं था कि सर्वहारा की पार्टी इस अधिकार के प्रयोग के सभी मामलों की हिमायत करने के लिए प्रतिबद्ध है। बल्कि उन्होंने यह दर्शाया कि कुछ परिस्थितियों में अलग होना ग़ैर-मुनासिब हो सकता है :
“राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार (मतलब कि अलग होने का फ़ैसला करने के लिए पूरी तरह से आज़ाद और जनवादी तरीक़ों की संवैधानिक गारंटी) को किसी भी परिस्थिति में विचाराधीन राष्ट्र के अलग होने के औचित्य के साथ गड्ड-मड्ड नहीं करना चाहिए। सामाजिक-जनवादी पार्टी को इस प्रश्न के हर मामले की अपनी विशेषताओं के आधार और, व्यापक सामाजिक विकास और समाजवाद के लिए सर्वहारा के वर्ग संघर्ष के हितों को ध्यान में रखकर हल करना चाहिए।” (लेनिन)
यह भी हो सकता है कि बाहरी हालात ही अलग होने को नामुमकिन बना दें। कुछ राष्ट्रीयताएँ इतनी छोटी हैं या इतनी बिखरी हुई हैं कि एक आज़ाद देश नहीं बना सकतीं। फिर जहाँ अलग होना ग़ैर-मुनासिब या अव्यावहारिक हो वहाँ राष्ट्रीय प्रश्न को कैसे हल किया जाए?
ऐसी स्थिति में, जैसा कि लेनिन ने कहा है समस्या के दो विरोधी हल हैं – सांस्कृतिक-राष्ट्रीय ख़ुदमुख़्तियारी का बुर्जुआ हल और क्षेत्रीय एवं स्थानीय ख़ुदमुख़्तियारी का सर्वहारा हल।
सांस्कृतिक-राष्ट्रीय ख़ुदमुख़्तियारी के सिद्धांत के मुताबिक़, एक राष्ट्र के सभी सदस्य एक ‘राष्ट्रीय संस्था’ बना लेते हैं जो शिक्षा प्रणाली सहित उनके सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन को नियंत्रित करती है। इस तरह स्कूल भी राष्ट्रीयता के आधार पर अलग-अलग कर दिए जाते हैं। लेनिन ने प्रश्न किया :
“यदि यह पूछा जाए कि क्या ऐसा विभाजन आम तौर पर जनवादी नज़रिए से और ख़ास तौर पर सर्वहारा वर्ग संघर्ष के हितों के दृष्टिकोण से किसी भी तरह वाजिब है?”
“सांस्कृतिक-राष्ट्रीय ख़ुदमुख़्तियारी” के कार्यक्रम के तत्व की स्पष्ट समझ बिना किसी झिझक के यह जवाब देने के योग्य बना देती है : यह पूरी तरह से ग़ैर-वाजिब है…
अगर एक देश में रहने वाले अलग-अलग राष्ट्र आर्थिक डोरियों के साथ जुड़े हुए हैं तो उन्हें ‘सांस्कृतिक’ और ख़ास तौर पर शैक्षिक मामलों में पक्के तौर पर विभाजित करने की कोई भी कोशिश मूर्खतापूर्ण और पिछड़ी हुई होगी। उल्टा राष्ट्रों को शैक्षणिक मामलों में इकठ्ठा करने के प्रयास होने चाहिए ताकि जो असल ज़िंदगी में होता है, स्कूल उसकी तैयारी के लिए हों। आज हम देखते हैं कि अलग-अलग राष्ट्रों में हासिल अधिकारों और विकास के स्तर के अनुसार असमानता है। ऐसे हालातों में, राष्ट्र के आधार पर स्कूलों को अलग करने के साथ असल में और लाज़िमी तौर पर अधिक पिछड़े राष्ट्रों की हालत और ख़राब होगी…
राष्ट्रीयता के आधार पर स्कूलों को अलग करना न सिर्फ़ हानिकारक ही है, बल्कि यह सीधा-सीधा पूँजीपतियों द्वारा की गई धोखाधड़ी है। ऐसे विचारों द्वारा और ज़्यादा आम लोगों के स्कूलों को राष्ट्रीयता के आधार पर अलग करके मज़दूरों को एक-दूसरे से तोड़ा, विभाजित और कमज़ोर किया जा सकता है; जबकि पूँजीपतियों के लिए, जिनके बच्चों के लिए अमीर प्राइवेट स्कूल और स्पेशल ट्यूशनों का बढ़िया प्रबंध होता है, ‘सांस्कृतिक-राष्ट्रीय ख़ुदमुख़्तियारी’ द्वारा बाँटे जाने या कमज़ोर पड़ने का कोई ख़तरा नहीं होता। (लेनिन)
इस तरह ‘सांस्कृतिक-राष्ट्रीय ख़ुदमुख़्तियारी’ का निष्कर्ष मज़दूरों को बाँटने व उन्हें और भी पक्के तरीके़ से बुर्जुआ नियंत्रण में लाने में निकलता है।
इसके विरोध में लेनिन क्षेत्रीय और स्थानीय ख़ुदमुख़्तियारी का सिद्धांत आगे लेकर आए। उनके अनुसार, सच्ची राष्ट्रीय बराबरी के लिए यह ज़रूरी है :
“व्यापक क्षेत्रीय ख़ुदमुख़्तियारी और संपूर्ण तौर पर जनवादी स्व-शासन जिसकी सीमाओं को आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ, आबादी की राष्ट्रीय संरचना आदि के मद्देनज़र स्थानीय बाशिंदे तय करें।” (लेनिन)
“राष्ट्रीय उत्पीड़न को समाप्त करने के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि एक तरह की आबादी वाले ख़ुदमुख़्तियार क्षेत्र जो भले ही कितने भी छोटे हों, बनाए जाएँ और जिनसे देश-भर में यहाँ तक कि दुनिया-भर में बिखरे संबंधित राष्ट्रीयताओं के सदस्य जिनकी तरफ़ आकर्षित हो सकें, संबंध स्थापित कर सकें और हर तरह का आज़ाद मेल-मिलाप रख सकें।” (लेनिन)
स्थानीय ख़ुदमुख़्तियारी के सिद्धांत में यह भी शामिल है :
“लोगों को अपनी मातृ भाषा में शिक्षा प्राप्ति का हक़ हो जिसके लिए स्कूलों का प्रबंध राज्य और स्थानीय स्व-शासन की संस्थाएँ करें; प्रत्येक नागरिक को मीटिंगों के दौरान अपनी मातृ भाषा इस्तेमाल करने का हक़ हो; सभी स्थानीय, सार्वजनिक और सरकारी संस्थाओं में काम मातृ भाषा में हो; लाज़िमी दफ़्तरी भाषा को समाप्त किया जाए।” (लेनिन)
आख़िरी नुक्ते के बारे में लेनिन ने और भी विस्तार से दर्शाया है :
“आर्थिक आदान-प्रदान की ज़रूरतें ख़ुद ही तय करेंगी कि देश की कौन-सी भाषा का प्रयोग बहुसंख्यक लोगों के व्यापारिक हितों के लिए फायदेमंद है।” (लेनिन)
“क्या ‘दफ़्तरी भाषा’ वह डंडा नहीं जो लोगों को रूसी भाषा से दूर भगाता है? आप उस मानसिकता को क्यों नहीं समझते जो राष्ट्रीय प्रश्न में इतनी महत्वपूर्ण है, और जो यदि थोड़ी जितनी भी ज़बरदस्ती की जाए तो केंद्रीकृत बड़े देशों में एक समान भाषा के बिना शक प्रगतिशील महत्व को दाग़दार, प्रभावहीन और शून्य कर देती है?” (लेनिन)
लेकिन अभी भी बड़े औद्योगिक केंद्रों की समस्या बाक़ी है जिनकी आबादी देश के अलग-अलग हिस्सों और यहाँ तक कि दूसरे देशों में से भी आने के चलते लाज़िमी तौर पर विविधतापूर्ण होती है और साथ ही इतनी ज़्यादा घुली-मिली होती है कि स्थानीय ख़ुदमुख़्तियारी का सिद्धांत भी संपूर्ण राष्ट्रीय बराबरी को सुनिश्चित बनाने के लिए नाकाफ़ी है। यह पहले ही लेनिन के समय ही दुनिया की व्यापक समस्या बन चुकी थी :
“इसमें कोई शक नहीं हो सकता कि भयानक ग़रीबी ही लोगों को अपनी मातृभूमि छोड़ने के लिए मजबूर करती है, और पूँजीपति प्रवासी मज़दूरों को सबसे बेशर्मी भरे तरीके़ से लूटते हैं। परंतु सिर्फ़ कोई पिछड़ा हुआ ही राष्ट्रों के इस आधुनिक प्रवास के प्रगतिशील महत्व को नज़रअंदाज़ कर सकता है।” (लेनिन)
1911 की स्कूल गणना का हवाला देते हुए लेनिन ने कहा :
“सेंट पीटर्सबर्ग जैसे बड़े शहर की आबादी में राष्ट्रों का बड़े स्तर पर विलय एकदम स्पष्ट है। यह कोई संयोग नहीं है, बल्कि पूँजीवाद का एक नियम है जो सभी महाद्वीपों में और संसार के सभी हिस्सों में लागू होता है। बड़े शहर, फ़ैक्टरी केंद्र, रेलवे केंद्र, व्यापारिक और औद्योगिक केंद्रों में बहुत ज़्यादा मिली-जुली आबादी अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक संभव होती है और यही वे केंद्र हैं जो दूसरों की अपेक्षा ज़्यादा तेज़ी से बढ़ते हैं और लगातार ग्रामीण इलाक़ों से लोगों को अपनी तरफ़ खींचते जाते हैं।” (लेनिन)
उनके अनुसार, यदि सांस्कृतिक राष्ट्रीय ख़ुदमुख़्तियारी के सिद्धांत को सेंट पीटर्सबर्ग में लागू किया जाए तो कम-से-कम 23 ‘राष्ट्रीय एसोसिएशनें’ बनेंगी, हर एक के अलग स्कूल होंगे। वह आगे कहते हैं :
“आम तौर पर जनवाद और मज़दूर वर्ग के हित बिल्कुल उलट माँग करते हैं। हमें प्रत्येक इलाक़े के सभी राष्ट्रों के बच्चों का स्कूलों में आपस में घुलना-मिलना सुनिश्चित बनाने की कोशिश करनी चाहिए… शिक्षा के मामले में राष्ट्रों को अलग करना हमारा काम नहीं, बल्कि उल्टा हमें बराबर अधिकारों के आधार पर राष्ट्रों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के लिए बुनियादी जनवादी परिस्थितियाँ पैदा करनी चाहिए।” (लेनिन)
यहाँ भी हल जनवाद को पूरी तरह से लागू करने में ही है। लेनिन इसे एक बहुत नायाब उदाहरण से सिद्ध करते हैं। सेंट पीटर्सबर्ग की स्कूली आबादी में एक ही जॉर्जियाई बच्चे के होने का हवाला देकर लेनिन कहते हैं :
“हमसे यह पूछा जा सकता है कि क्या संभव है कि बराबर अधिकारों के आधार पर सेंट पीटर्सबर्ग के 48,076 बच्चों में एक जॉर्जियाई बच्चे के हितों को सुरक्षित रखा जा सकता है? हमें यह जवाब देना चाहिए कि जॉर्जियाई ‘राष्ट्रीय संस्कृति’ के आधार पर सेंट पीटर्सबर्ग में एक जॉर्जियाई स्कूल स्थापित करना असंभव है… परंतु हम किसी नुक़सानदेह चीज़ का पक्ष भी नहीं ले रहे होंगे और न ही असंभव के पीछे भाग रहे होंगे यदि हम इस बच्चे के लिए जॉर्जियाई भाषा, जॉर्जियाई इतिहास आदि की पढ़ाई के लिए मुफ़्त सरकारी कैंपस, केंद्रीय पुस्तकालय से जॉर्जियाई किताबें, जॉर्जियाई अध्यापक की फ़ीस के लिए सरकारी अदायगी और ऐसी ही और माँगें करते हैं। संपूर्ण जनवाद के तहत… लोग सहज ही इसकी पूर्ति कर सकते हैं, लेकिन यह संपूर्ण जनवाद तभी संभव हो सकता है जब सभी राष्ट्रों के मज़दूर इकठ्ठा हो जाएँ।” (लेनिन)” (जॉर्ज थामसन, ‘मार्क्स तों माओ तक’, पन्ना 64-68, शहीद भगत सिंह यादगारी प्रकाशन, लुधियाना, पंजाबी से अनुवाद हमारा)
लेनिन का कहना है कि ख़ुदमुख़्तियारी (क्षेत्रीय) एक सुधारवादी कार्यक्रम है जबकि राष्ट्रों का आत्मनिर्णय एक क्रांतिकारी कार्यक्रम है, परंतु उनका कहना है सुधार अक्सर क्रांति की तरफ़ एक क़दम होते हैं। लेनिन का कहना है,
“पोलिश सामाजिक-जनवादियों की दृष्टि में हमारा कार्यक्रम एक “राष्ट्रीय-सुधारवादी” कार्यक्रम है। ज़रा दो व्यावहारिक प्रस्तावों की तुलना कीजिए : (1) स्वायत्तता का प्रस्ताव (पोलिश थीसिसें 3, भाग 4) तथा (2) अलगाव की स्वतंत्रता का प्रस्ताव। इसी बात में और केवल इसी बात में हमारे कार्यक्रम भिन्न हैं! और क्या यह प्रत्यक्ष नहीं है कि ठीक पहला कार्यक्रम सुधारवादी है, न कि दूसरा? सुधारवादी परिवर्तन वह होता है, जो शासक वर्ग की सत्ता के आधारों को अखंडित छोड़ देता है, वह मात्र एक रियायत है, जिससे इस सत्ता पर आँच नहीं आती। क्रांतिकारी परिवर्तन सत्ता के आधारों को खंडित करता है। सुधारवादी परिवर्तन राष्ट्रों समस्या संबंधी कार्यक्रम में शासक राष्ट्र के सभी विशेषाधिकारों को रद्द नहीं करता; वह पूर्ण समानता स्थापित नहीं करता, वह राष्ट्रीय उत्पीड़न के सभी रूपों को नष्ट नहीं करता। एक “स्वायत्त” राष्ट्र जिन अधिकारों का उपभोग करती है, वे “शासक” राष्ट्र के अधिकारों के समान नहीं होते; यदि हमारे पोलिश साथी (हमारे पुराने अर्थवादियों की तरह) राजनीतिक धारणाओं तथा प्रवर्गों के विश्लेषण से आग्रहपूर्वक कतराए न होते, तो वे यह देखे बिना नहीं रह सकते थे। 1905 तक स्वीडन के एक भाग के रूप में स्वायत्त नार्वे ने व्यापकतम स्वायत्तता का उपभोग किया, परंतु वह स्वीडन के समकक्ष न था। उसकी समानता केवल उसके स्वतंत्र अलगाव द्वारा ही व्यवहारत: प्रत्यक्ष तथा सिद्ध हुई (चलते-चलते हम इतना और कह दें कि ठीक इस स्वतंत्र अलगाव ने ही अधिकारों की समानता पर टिके एक अधिक घनिष्ठ तथा अधिक जनवादी परस्पर सामीप्य के लिए आधार निर्मित किया)। जब तक नार्वे एक स्वायत्त प्रदेश मात्र था, स्वीडनी अभिजात वर्ग को एक अतिरिक्त विशेषाधिकार प्राप्त था; अलगाव ने इस विशेषाधिकार को “कमज़ोर” नहीं किया (सुधारवाद का सारतत्व है किसी बुराई को नष्ट न करके उसे कमज़ोर करना), बल्कि पूरी तरह मिटा दिया (जो किसी कार्यक्रम के क्रांतिकारी चरित्र का प्रमुख लक्षण है)।
प्रसंगवश यह कहा जा सकता है : स्वायत्तता एक सुधार के रूप में अलगाव की स्वतंत्रता से, जो एक क्रांतिकारी क़दम है, सिद्धांतत: भिन्न है। यह बात असंदिग्ध है। परंतु, जैसा कि सभी जानते हैं, सुधार व्यवहारत: अक्सर क्रांति की दिशा में एक क़दम होता है। ठीक स्वायत्तता ही संबद्ध राज्य की सीमाओं के भीतर ज़बरदस्ती रखी हुई किसी राष्ट्र को एक निश्चित राष्ट्र के रूप में गठित होने, अपनी शक्तियों का अनुमान लगाने, उन्हें एकजुट तथा संगठित करने और सबसे उपयुक्त मौक़ा चुनकर… “नार्वेजियन” भावना के अनुरूप यह घोषणा करने में सक्षम बनाती है: हम, अमुक राष्ट्र अथवा अमुक प्रदेश की स्वायत्त विधान सभा के सदस्य घोषणा करते हैं कि समस्त रूस का सम्राट पोलैंड का राजा नहीं रह गया है, आदि।” (लेनिन, ‘आत्मनिर्णय संबंधी बहस के परिणाम’, संकलित रचनाएँ, दस खंडों में, खंड 6, प्रगति प्रकाशन, 1983, पन्ना 111-112, शब्दों पर ज़ोर मूल में)
लेनिन का कहना है कि राष्ट्रों के लिए मार्क्सवादी “ख़ुदमुख़्तियारी के अधिकार” की नहीं बल्कि ख़ुदमुख़्तियारी की माँग करते हैं,
“जहाँ तक स्वायत्तता का सवाल है, मार्क्सवादी स्वायत्तता के “अधिकार” की नहीं, बल्कि ऐसे जनवादी राज्य के लिए, जिनमें कई राष्ट्र रहते हों और जिसके विभिन्न भागों की भौगोलिक तथा अन्य परिस्थितियों में बहुत अंतर हो, आम, सार्वत्रिक सिद्धांत के रूप में स्वयं स्वायत्तता का समर्थन करते हैं।” (लेनिन, ‘जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार’, उपरोक्त, पन्ना 61)
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