

अम्मा
मेरे बचपन में नाथ पंथी जोगियों का जत्था गांव में आकर हमारे दालान के साये में बड़े अब्बा के नीम के पेड़ के नीचे डेरा डाल देता था और हमारी अम्मा सोंचती थी कि उनके आमद से घर गिरस्ती महफूज रहेगी और शैतानी ताकते घर से दूर।वे आसपास के गांव में सारंगी की धुन पर गाते हुए रोजी रोटी इकट्ठा करते थे।उसका संगीत मधुर तो था ही पर बोल दुनिया के किसी भी तहज़ीब के लिए चुनौती भरा था।मेरी अम्मा इनसे हम बच्चों के लिए दुआ करने के लिए कहती तो जोगियों का दुआ और स्नेह भरा हाथ हमारे सर पर होता था और अम्मा ये मान लेती कि भविष्य में आने वाली बलाओं से उनके बच्चों को निजात मिल गयी।कैसा अनोखा विश्वास था।हर शाम हमें उनके पास जाकर पूछना पड़ता था कि सबके पास खाना है कि नहीं,इसके बाद ही हमारे घर में रसोईं बनती थी।ज्यादातर जोगी गोरखपुर आसपास के होते थे।अम्मा का घर यानी मेरा ननिहाल कुशीनगर है।अम्मा उन जोगियों से जो लगभग हर साल आते थे आत्मीय रिश्ता कायम कर चुकी थी और कभी कभी उनसे उनके क्षेत्रों की खेती किसानी और मंहगाई पर चर्चा करती तो चेहरे पर चिंता की लकीरें उभर आती थीं।शायद उन्हें इन जोगियों में नैहर से आने वाले भाई बाप का अक्स भी दिखता होगा।एक और बात की अम्मा बात करते करते उनको खाना पीना बड़े सलीके से खिलाती थी तथा क्या मजाल की इस दौरान आँचल सर से हट जाए जैसे अम्मा पूरा स्नेह उन पर लुटा देना चाहती हो और उनके सामने उनके नैहर का कोई सदस्य हो।मेरे वालिद (अब्बा) कभी मोहब्बत से तंज करते कि दुल्हन तुमने इतने प्यार से तो कभी हमें नही खिलाया तो अम्मा के चेहरे पर ऐसी मुस्कुराहट तारी होती जैसे सारे जमाने की दौलत उन्हें मिल गयी हो।(अम्मा को वालिद साहब सहित सारा परिवार यहां तक कि हमारे रिश्तेदार नातेदार भी दुल्हन से ही सम्बोधित करते थे।ये नाम हमारे दादा हुजूर ने पहले दिन घर पर आते ही इस्तेमाल किया था सो मृत्यु तक बना रहा।एक बार तो वोटर लिस्ट में भी यही नाम दर्ज हो गया था।)
मांगे सबकी खैर और दुआ फकीरा रहमल्ला की तर्ज़ पर साझी संस्कृति की विरासत का सबसे बड़ा अलमबरदार था ये जत्था और भारत को विश्वगुरु का दर्जा दिलाने की राह का हमराही भी। इनमें जाति और धर्म को लेकर कोई तकरार नहीं था।इनमें बड़ी संख्या मुस्लिम जोगियों की भी थी –
जाति न पूछो साधु की
पूछ सको जो ज्ञान
बदलते वक्त और फिरकापरस्ती की मार से ये पूरी तरह से विलुप्तप्राय हो रहे है।हम सियासी संकट के ऐसे दौर से गुजर रहे है जहां हमारी ऐसी तमाम विरासतों को खतरा पैदा हो गया है जिन पर सफर करते हुए भारत आधुनिक हुआ और विविधता और सह-अस्तित्व वाले समाज का निर्माण कर सका जो शायद दुनिया मे कहीं अन्यत्र सम्भव नहीं हो पाया।
अम्मा अब नहीं रही।वो पढ़ी लिखी सिर्फ नाम भर की थी लेकिन आज सोंचता हूँ तो महसूस होता है कि वे आज के ज्ञानियों से कितना समझदार थी जिन्होंने ये मूलतत्व समझ लिया था कि दुखी दिलों पर मरहम लगाना ही इंसान का पावन कर्तव्य है और प्रेम ही शाश्वत सत्य।अम्मा जैसे लोग अब कहाँ मिलेंगे जिन्होंने जोगियों के इस मंत्र को गांठ बांध लिया था-
दुनियां एक झमेला रे बंदे ,न कुछ तेरा न कुछ मेरा
आइये हम आप सब मिलकर अपनी इस साझी विरासत के पक्ष में खड़े हों और अम्मा की राह पर चलें—–
डॉ मोहम्मद आरिफ
9415270416