मुस्लिम दुनिया के नास्तिकों के सपने

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संतोष कुमार

बीसवीं शताब्दी में गैर मुस्लिम विश्व के बहुत बड़े हिस्से में राज्य व्यवस्थाओं नें धर्म निरपेक्षता को एक नीति निर्देशक सिद्धान्त के रुप में स्वीकार किया था। इनमें से अधिकांश क्रूसेड की व्यर्थताओं से सीखे इसाई बहुल राज्य थे। इन देशों के अतिरिक्त लोकतांत्रिक प्रणाली वाले भारत और कम्यूनिष्ट प्रणाली वाले चीन जैसे विशाल देश भी धर्मनिरपेक्ष विश्व के भूगोल में सम्मिलित थे, जिसके कारण धर्मनिरपेक्षता सर्वस्वीकार्य मूल्य की तरह दिख रही थी।

यद्यपि भारत और चीन कृषि आधारित जीवन प्रणाली वाले पिछड़े राज्य थे फिर भी इनके नेताओं ने अपने समाजों में धर्मनिरपेक्षता की स्वीकार्यता स्थापित कराया और राज्य व्यवस्थाओं को एक हद तक धर्मनिरपेक्ष आधार पर क्रियान्वित किया। इसका सुपरिणाम यह निकला कि इन राज्यों से निकले प्रवासियों ने यूरोप और अमेरिका जैसे समृद्ध और आधुनिक मुल्कों के नागरिको के कदम से कदम मिलाकर इन आधुनिक मुल्कों में सफलता के नए मानदण्ड स्थापित किए।

इस धर्मनिरपेक्ष विश्व के बाहर एशिया और अफ्रीका के बड़े हिस्से में स्थित मुस्लिम जगत में आधुनिक सुविधाओं का उपभोग करते हुए १४सौ साल पुरानी दुनिया की धार्मिक मान्यताओं में अपना आर्दश ढूढ़ने वाली राज्य व्यवस्थाएं येनकेन प्रकारेण सत्ता में बनी रहीं। इन सत्ताओं ने जहां अपने समानधर्मी नागरिकों की स्वतंत्रता पर कई किस्म की पाबन्दियां लगाए रखीं वही इन्होने अपने ही मुल्क में सदियों से रह रहे भिन्न धर्मी नागरिकों, स्त्रियों को संवैधानिक रुप से द्धितीय श्रेणी का नागरिक बनाए रखा। इन राज्य व्यवस्थाओं के लगातार टिके रहने के कारण हजार और बहाने दस हजार हो सकते हैं लेकिन यह विडंबनापूर्ण वास्तविकता है कि मुस्लिम जगत की बंजर भूमि में धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र जड़ नही जमा सका। मुस्लिम जगत के नागरिक अगर आधुनिक विश्व में कहीं गए तो वहां भी उनके अधिकांश हिस्से ने अरबी कबीले के सांस्कृतिक प्रतिनिधि के रुप में ही रहना पसन्द किया।

धर्मनिरपेक्षता के पक्षधरों में काफी समय तक यह विश्वास था कि धीरे–धीरे मुस्लिम जगत स्वयं आधुनिकता के मूल्यों को स्वीकार करेगा। इस विश्वास के कारण उन्होने मुस्लिम जगत द्वारा रुढ़िवादी मूल्यों को अपनाए रखने की हठधर्मिता से उपजने वाली प्रतिक्रियाओं की तरफ से आंखे मूंदे रखा। यही नही जिसने भी इस दिशा में उंगली उठाई उनके उपर फासिस्ट होने जैसे तमाम आरोप उछाल दिए। दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता के पक्षधरों की इस कार्यवाही से मुस्लिम जगत ने खुद को विक्टिम मान लिया और उनके अन्दर यह भाव पैदा हुआ कि उनसे एडजस्ट करने की सारी जिम्मेदारी आधुनिक समाज की है, वो तो इस दुनियां में बस जन्नत की तैयारी करने के लिए हैं।

धीरे–धीरे इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशक में आधुनिक मूल्यों वाले समाज की आंखों के सामनें भिन्न प्रकार की वेशभूषा, दोयम दर्जे की नागरिक स्त्रियों और धार्मिक कर्मकाण्ड में जीने की जिद के साथ ही उदार मूल्यों वाले समाजों की सारी सुविधाओं का लाभ उठाने वाली धूर्तताएं धीरे–धीरे  स्पष्ट होने लगी।

इस हठधर्मिता का दुष्परिणाम यह निकला कि इग्लैण्ड, फ्रांस, डेनमार्क, स्वीडेन, अमेरिका जैसे उदार समाजों और राजनैतिक व्यवस्थाओं वाले देश के नागरिकों ने मुस्लिम जगत को ज्यादा यर्थाथवादी ढंग से डील करनें के लिए उदार धर्मनिरपेक्षतावादी राजनैतिक धारा के बजाय यर्थाथवादी दक्षिणपंथ की तरफ देखना पसन्द किया। उदार धर्मनिरपेक्षतावादी दलों ने यूरोप की मजलिसों मे शरिया कायम करने की तकरीरों, इंग्लैण्ड में हजारो गोरी बच्चियों का यौन शोषण करने वाले के ग्रूमिंग गैंग के कारनामे जिसके ९९ प्रतिशत सदस्य पाकिस्तानी मुस्लिम थे या अमेरिका में न्यूर्याक के ग्राउण्ड जीरो की जमीन खरीद कर इस्लाम की फतह के स्मारक की मस्जिद बनाने के अभियान जैसी अनेक घटनाओं को अनदेखा किया। जिसकी प्रतिक्रिया में इन लोकतांत्रिक देशों में बहुसंख्यक समाज में दक्षिणपंथी राजनीति का जनसमर्थन बढ़ना ही था।

एक पार्टी प्रणाली वाले चीन ने तानाशाही तरीके से धार्मिक शिक्षा में आवश्यक संशोधन करके पुनः प्रशिक्षित कर मुस्लिमों को आधुनिक मनुष्य बनाने की एकतरफा कार्यवाही किया है जिसका सुपरिणाम या दुष्परिणाम आना शेष है। चीन जैसी एकाधिकारवादी सत्ता के पास यह प्रयोग करने का विकल्प है।

भारत जैसे लोकतांत्रिक परम्पराओं वाले विकासशील देश के पास राजनैतिक विकल्पों में एक तरफ वामोन्मुख राजकीय समाजवाद के साथ बोनस में अल्पमत सांम्प्रदायिकता है तो दूसरी तरफ दक्षिणपंथी कारपोरेटवाद के साथ नत्थी बहुसंख्यकवाद है। बहुसंख्यकवाद उसका वर्तमान नष्ट करने में सक्षम है तो अल्पसंख्यक सांम्प्रदायिकता में भविष्य की भयावह सम्भावना दिखती है। हम वर्तमान में जिस डर से डील कर रहे होते हैं उसकी उसकी भयावहता भविष्य के काल्पनिक डर से कम होती है और यही मनोदशा भारत का सामान्य बहुसंख्यक की है।

भारतीय बहुसंख्यकों के बीच यह प्रभावी धारणा है कि मुस्लिम अल्पसंख्यक किसी भी देश के उदार संवैधानिक प्राविधानों को रणनीतिक रुप से इस्तेमाल करते हैं लेकिन उनका इसमें विश्वास बिल्कुल नही होता है। भारतीय बहुसंख्यक के सामने इस्लामिक स्टेट का माडल प्रमाण के रुप में उपलव्ध है जिसको यूरोप, अमेरिका के पढ़ेलिखे मुस्लिम नौजवानों और छिटपुट कुछ पढ़ेलिखे भारतीय मुस्लिम नौजवानों का भी समर्थन प्राप्त था। इस्लामिक स्टेट ने धार्मिक विश्वासों के आधार पर गैर मुस्लिम युवतियों को यौन दासी के रुप में इस्तेमाल करने, हाथ पैर सिर काटने जैसी बर्बर कार्यवाहियां की, जिसको पढ़ेलिखे मुस्लिम समुदाय के मौन समर्थन की तरह प्रस्तुत किया गया।

भारतीय बहुसंख्यक विश्वास करता है कि कश्मीर में सरकार का दमन प्रतिक्रिया में है और कश्मीरी उग्रवाद सिर्फ उस राज्य के बहुसंख्यक मुसलमानों की धार्मिक लड़ाई है, जो लोकतंत्र और आधुनिकता के विरुद्ध है और गजवा–ए–हिन्द का एक पड़ाव मात्र है। भारतीय धर्मनिरपेक्ष दलों के पास इसका कोई काउण्टर नैरेटिव नही है। इन धर्मनिरपेक्ष दलों के पास हिन्दुओं की जातीय संरचना में अगड़े–पिछड़े का समीकरण, अल्पसंख्यक वोट और एण्टी इन्कैम्बेन्सी का सहारा है जिसे साधकर चुनाव का अंकगणित हल कर लेगें है। कोढ़ में खाज यह है कि अल्पसंख्यक वोट पाने के लिए ये धर्मनिरपेक्ष दल रुढ़िवादी मुस्लिम नेतृत्व को प्रश्रय देते रहे है जिनके दबाव में मुस्लिम कठमुल्लावाद से लड़ रही तस्लीमा नसरीन जैसी लेखिका को उस बंगाल में रहने के लिए एक घर नही मिल पाता है जिसके लिए कोलकाता मौसी के घर जैसा था। भारतीय धर्मनिरपेक्ष दलों के इस प्रकार के तमाम दोहरेपन को भारतीय बहुसंख्यकों के मानस में यह बात बैठा दिया है कि ये धर्मनिरपेक्ष दल वोट के लालच में मुस्लिम रुढ़िवादिता को प्रश्रय दे रहे हैं।

संचार माध्यमों की उपलव्धता से भारतीय बहुसंख्यक के समक्ष भारतीय मुस्लिम में एक अंतराष्टªीय छवि विकसित हुई है। जिसमें उसके पड़ोस में रहने वाला अपनी रोजी रोटी में बेहाल सामान्य गरीब मुसलमान भी किसी अरबी या इस्लामिक स्टेट जैसे कट्टर धार्मिक गिरोह का भारतीय प्रतिनिधि है, जो किसी कमजोर और निर्णायक समय में उनके दुश्मन के साथ होगा।

यद्यपि गैर मुस्लिम विश्व, मुस्लिम जगत में धर्मनिरपेक्ष राजनीति को विकसित करने में असफल रहा है लेकिन ऐसा नही है कि मुस्लिम समाज जड़वत है तथा उनके अन्दर किसी प्रकार की हलचल नही है। जब से सोशल मीडिया ने राज्य समर्थित मीडिया के एकाधिकार को कमजोर किया है इन रुढ़िग्रस्त बन्द समाजों में सेंध लग गयी है। इन देशों के वैज्ञानिक सोच वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपने समाजों के धार्मिक विश्वासों और सामन्ती सत्ताओं के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया है। इन नास्तिक प्रचारकों का घोषित लक्ष्य अपने राज्य को धर्मनिरपेक्ष बनाने के लिए जनमत तैयार करना है। पाकिस्तान के दसियों नास्तिक नागरिकों द्वारा यू–ट्यूब चैनल चलाए जा रहे हैं जिसमें लगातार धार्मिक रुढ़ियों की लानत मलामत की जाती है। इसी प्रकार फ्री–थिंकर्स के बहुत से पेज है जिनको सरकार लगातार प्रतिबंधित कराती रहती है लेकिन वे जिन्दा होते रहते हैं। इन फ्री–थिंकर्स का आंकलन है कि पाकिस्तान में नास्तिक नागरिकों की संख्या लगभग २ करोड़ है। बताया जा रहा है कि गैलप के आंकलन के अनुसार ईरान में नास्तिकों का प्रतिशत २० से ३० है। इसी प्रकार भारत बाग्लादेश में भी मुस्लिम नास्तिकों ने यू–ट्यूब चैनल शुरु किए हैं। अपना अस्तित्व दांव पर लगाकर इस्लामी रुढ़िवादियों के विरुद्ध लड़ने वाले ये अल्पचर्चित योद्धा यह अच्छी तरह से जानते हैं कि उनकी लड़ाई कई दशकों तक लड़ी जानी है और धर्मान्धों द्वारा उनकी या उनके परिजनों की हत्या होने पर किसी समूह या राजनैतिक दल द्वारा एक कतरा आंसू भी नही बहाया जायेगा फिर भी गैलिलियो के ये साधनहीन वंशज पूरी दिलेरी से लड़ते हुए मुस्लिम जगत को लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष समाज में बदलने का सपना देख रहे हैं। लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करने वाले जाग्रत नागरिकों को क्रूर धार्मिक सत्ताओं के विरुद्ध लड़ने वाले इन बहादुरों के प्रति अपना दायित्व नही भूलना चाहिए क्योंकि इनकी सफलता ही शेष विश्व में धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को स्थायित्व दे सकेगी। खुली आंखों से देखे जा रहे इन सपनों को सलाम।

 

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