डॉ. लखनलाल की पुस्तक समीक्षा
श्री मुसाफिर बैठा दलित साहित्य परिसर के सिद्ध रचनाकार हैं, जिनकी पुस्तक “बीमार मानस का गेह” 38 स्तरीय कविताओं का महत्वपूर्ण संकलन है। हिंदी दलित आलोचना की उपेक्षा के कारण कवि और उनकी यह महत्वपूर्ण सृजनात्मक कृति पाठकीय परिसर में अब तक अलक्षित है। कवि के रचनाकर्म के रेंज का विस्तार अपने घर-परिवार से लेकर वाह्य परिवेश तक है। मुसाफिर बैठा संभावनाओं से समृद्ध ताजा कवि हैं। इनका कवि-कर्म अपने जीवन के अनुभवों से अनुप्राणित है। कवि दलित समुदाय के अंग होने के कारण इनकी कविताएं स्वानुभूति के आधार पर भी सृजित हैं। दलित होने का दंश इस कवि को भी झेलना पडा है। इसलिए स्वभावतः इनकी काव्य चेतना में दलित चेतना समाविष्ट है। ऐसी कविताओं में कवि ने समाज में अस्पृश्यता अथवा सवर्ण – अवर्ण के भेद की अमानुषिकता पर बहुत बेबाकी से चोट की है। कवि की यथार्थ की गतिशीलता के प्रति तीक्ष्ण दृष्टि है। कवि को मनुष्य और मनुष्यता से प्रेम है। इसलिए उसके मन में प्रश्न उठता है कि ईश्वर के रहते हुए भी समाज में अमानुषिक कार्यों का प्रसार क्यों हो रहा है? यह कवि मानवीय गुणों और कार्यों के आधार पर श्रेष्ठता का हिमायती है, वर्ण, जाति या धर्म के आधार पर नहीं। इस संकलन की कविताओं में दादी, माँ, सामान्य स्त्री, कोशी बाढ की व्यथा, बिटिया की संवेदना से भींगी जन्म कथा है। संकलन की एक महत्वपूर्ण कविता “अछूत का इनार ” है, जिस इनार से गांव की छूत अछूत स्त्रियां पानी भरती हैं, लेकिन ऊपर आते ही पानी को छूत लग जाती है ____
जाने कैसे
संग साथ रहे पानी का
अलग अलग डोर से
बंधकर खिंच आने पर
जात स्वभाव बदल जाता था।
कवि की दृष्टि अत्यंत सूक्ष्म और तीखे व्यंग्य से सिक्त है। वह कहते हैं, धोबी अछूत है परंतु उसके घर से धुलकर आने वाले कपडे में छूत नहीं चिपकती।कवि सवर्ण और शूद्र स्त्रियों का उल्लेख करते हुए कहते हैं ____
अलबत्ता उनके बदन पर
जो धवल साडी लिपटी होती थीं
उनमें धोबी घर से धुलाई भी
रत्तीभर छूत नही चिपकती थी।
कवि की सृजनशीलता अभिधात्मक होने पर भी श्रेष्ठ कवित्व से समृद्ध है। भाषा में सहजता और अविरल प्रवाह है। बोलचाल की भाषा की छौंक ने संकलन कीसभी कविताओं को पाठकीयता के धरातल पर स्वादिष्ट बना दिया है। श्री मुसाफिर बैठा को मेरी स्नेहसिक्त हार्दिक बधाई! मैं पाठकों को इस महत्वपूर्ण पुस्तक की कविताओं के आस्वादन हेतु सहर्ष आमंत्रित करता हूँ।