6वीं किस्तः पूंजीवाद का मूल अपराध मानवीय श्रम का पूर्ण विकृतीकरण है

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लेखक- एरिक फ्रॉम

अनुवाद- प्रणव एन

मार्क्स के मुताबिक उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन करना अपने आप में समाज का कोई उद्देश्य नहीं होता। लोग यह बात आसानी से भूल जाते हैं कि मार्क्स ने कहा है, ‘बहुत ज्यादा उपयोगी वस्तुओं के उत्पादन का नतीजा बहुत ज्यादा अनुपयोगी लोगों के रूप में सामने आता है।’ अतिव्ययता और मितव्ययता, विलासिता और संयम, संपत्ति और गरीबी के बीच के अतंर्विरोध इसलिए इतने स्पष्ट हैं क्योंकि ये तमाम विरोध समतुल्य हैं। आज जब दोनों कम्यूनिस्ट और तमाम सोशलिस्ट पार्टियां (भारतीय, बर्मी और यूरोपीय तथा अमेरिकी सोशलिस्टों के रूप में कुछ उल्लेखनीय अपवादों को छोड़कर) सभी पूंजीवादी व्यवस्थाओं में निहित इस सिद्धांत को स्वीकार कर चुकी हैं कि अधिकाधिक उत्पादन और खपत समाज का निर्विवाद उद्देश्य होता है, तब मार्क्स की इस अवस्थिति को समझना खास तौर पर महत्वपूर्ण है। बेशक हमें घोर गरीबी (जो गरिमापूर्ण जीवन की राह में रोड़ा होती है) को दूर करने के मकसद और खपत को लगातार बढ़ाते जाने के मकसद (जो पूंजीवाद और खुश्चेववाद दोनों के लिए सबसे अहम हो चुका है) में घालमेल नहीं करना चाहिए। मार्क्स का रुख साफ तौर पर जितना गरीबी दूर करने के पक्ष में है, उतना ही खपत को सर्वोच्च मकसद बनाने के खिलाफ है।

मार्क्स के मुताबिक स्वतंत्रता और आजादी स्वयंसृजन पर निर्भर करती है। ‘’कोई भी अस्तित्व खुद को तब तक स्वतंत्र नहीं मानता जब तक कि वह खुद अपना मालिक नहीं होता और वह तब तक खुद अपना मालिक नहीं हो सकता जब तक कि वह अपने अस्तित्व के लिए खुद को किसी और का आभारी महसूस करता है। दूसरे के एहसानों के बल पर जीवित मनुष्य खुद को निर्भर प्राणी महसूस करता है। लेकिन मैं दूसरे के एहसानों पर पूरी तरह निर्भर तब होता हूं जब मैं न केवल अपनी जिंदगी के बने रहने के लिए बल्कि इसके सृजन के लिए भी खुद को उसका आभारी समझता हूं, जब इसका पूरा स्रोत वही होता है। मेरी जिंदगी अगर मेरी अपनी रचना नहीं है तो ऐसा कोई न कोई बाहरी मकसद इससे अनिवार्य तौर पर जुड़ा रहता है।’ या जैसा कि मार्क्स ने कहा है, मनुष्य स्वतंत्र सिर्फ तभी होता है जब ‘वह दुनिया से अपने हरेक रिश्ते में यानी देखने, सुनने, सूंघने, स्वाद लेने, महसूस करने, सोचने, चाहने, प्यार करने आदि में संपूर्ण मनुष्य के तौर पर अपनी वैयक्तिकता को पूरी दृढ़ता से व्यक्त करता है। संक्षेप में वह अपनी वैयक्तिकता के हर अंग को मजबूती से व्यक्त करता है।’

मार्क्स के मुताबिक समाजवाद का उद्देश्य मनुष्य की मुक्ति है और मनुष्य की मुक्ति का मतलब उत्पादक जुड़ाव की प्रक्रिया में आत्म साक्षात्कार तथा मनुष्य और प्रकृति के बीच ऐक्य ही है। समाजवाद का उद्देश्य व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास है। मार्क्स सोवियत साम्यवाद जैसी व्यवस्था के बारे में क्या सोचते यह बात उन्होंने ‘अधकचरे साम्यवाद’ पर दिए अपने बयान में पूरी स्पष्टता से प्रकट की है जिसमें उनके समय के कुछ खास साम्यवादी विचारों और प्रचलनों का हवाला दिया गया है। यह अधपका या कच्चा साम्यवाद ‘दोहरे रूपों में प्रकट होता है; भौतिक संपत्ति का प्रभुत्व इस कदर बढ़ जाता है कि यह ऐसी सभी चीजों को नष्ट करने पर तुल जाती है जो सबके पास निजी संपत्ति के रूप में रखी नहीं जा सकती। यह प्रतिभा वगैरह को ताकत के बल पर खत्म करना चाहती है। तात्कालिक भौतिक स्वामित्व ही इसे जिंदगी और अस्तित्व का अनूठा उद्देश्य लगने लगता है। श्रमिकों की भूमिका समाप्त नहीं होती बल्कि सभी मनुष्यों तक विस्तारित हो जाती है। निजी संपत्ति के रिश्ते समुदाय के वस्तुओं से रिश्तों के रूप में बरकरार रहते हैं। निजी संपत्ति के विरोध की, सामान्य निजी संपत्ति के विरोध की यह यह प्रवृत्ति पाशविक स्वरूप में व्यक्त होने लगती है। शादी (जो निर्विवाद रूप से बिल्कुल निजी संपत्ति का एक रूप है) का स्थान औरतों का समुदाय ले लेता है। यानी एक ऐसी व्यवस्था जिसमें महिला सामुदायिक और सामान्य संपत्ति बन जाती हैं। कोई कह सकता है कि महिलाओं के समुदाय का यह विचार इस अधकचरे और अविवेकी साम्यवाद का खुला रहस्य है। जैसे कि इसमें महिलाएं शादी की व्यवस्था से निकल कर शाश्वत वेश्यावृत्ति में पड़ जाती हैं वैसे ही संपत्ति की यह पूरी दुनिया (यानी मनुष्य का वस्तु के रूप में अस्तित्व) समुदाय के साथ शाश्वत वेश्यावृत्ति के रिश्तों में पड़ जाती है। यह साम्यवाद जो हर क्षेत्र में मनुष्य के व्यक्तित्व का निषेध करता है, निजी संपत्ति की तार्किक अभिव्यक्ति मात्र है, जो इस निषेध में प्रकट होता है। शाश्वत ईर्ष्या अगर खुद को एक ताकत के रूप में स्थापित कर लेती है तो यह वास्तव में लालच का ही एक छद्म रूप होती है जो एक अलग स्वरूप में खुद को प्रतिष्ठापित करती और बढ़ाती है। प्रत्येक वैयक्तिक निजी संपत्ति की सोच ईर्ष्या के रूप में अमीर निजी संपत्तियों के खिलाफ केंद्रित हो जाती है और चाहती है कि सबको घटाकर एक ही सामान्य स्तर पर लाया जाए। यानी, यह ईर्ष्या और सामान्यीकरण वास्तव में प्रतिद्वंद्विता का ही एक रूप होती है। अधकचरा साम्यवाद इसी ईर्ष्या और चीजों को घटाकर पूर्वनिर्धारित न्यूनतम बिंदु तक लाने की प्रक्रिया का चरम रूप मात्र है। निजी संपत्ति के इस उन्मूलन में वास्तविकता का कितना कम नियोजन है, यह इस बात से स्पष्ट होता है कि कैसे इसमें संस्कृति और सभ्यता के पूरे संसार का अमूर्त निषेध हो जाता है और कैसे उन गरीब तथा आवश्यकतारहित लोगों को अप्राकृतिक सादगी की ओर पीछे लौटना पड़ता है जो न केवल निजी संपत्ति से ऊपर नहीं उठ सके हैं बल्कि उसे हासिल भी नहीं कर पाए हैं। समुदाय का मतलब सिर्फ कार्य का समुदाय और मजदूरी की समानता का समुदाय होता है जो सामुदायिक पूंजीपति द्वारा दिया जाता है, यानी एक सार्विक पूंजीपति के रूप में समुदाय द्वारा। रिश्ते के दोनों पक्ष एक तरह से सार्विक रूप ले लेते हैः श्रम एक ऐसी परिस्थिति के रूप में जिसमें हर कोई होता है और पूंजी समुदाय की मान्य ताकत और सर्वाधिकार के रूप में।’

आत्म साक्षात्कार की मार्क्स की संपूर्ण अवधारणा को कार्य की उनकी अवधारणा से जोड़कर ही पूरी तरह समझा जा सकता है। सबसे पहले तो यह बात नोट की जानी चाहिए कि मार्क्स की नजर में श्रम और पूंजी केवल आर्थिक श्रेणियां नहीं हैं। वे मानवशास्त्रीय श्रेणियां हैं, उसके जीवन मूल्यों में पूरी तरह डूबी हुई, जिनकी (जीवनमूल्यों की) जड़ें उसकी इंसानी दशा में होती हैं। पूंजी जो कि संचित होती चलती है, अतीत की नुमाइंदगी करती है। दूसरी ओर श्रम जीवन की अभिव्यक्ति होता है या स्वतंत्र होने पर उसे ऐसा होना चाहिए। कम्यूनिस्ट मैनिफेस्टो में मार्क्स कहते हैं, ‘… बुर्जुआ समाज में अतीत वर्तमान पर हावी होता है। कम्यूनिस्ट समाज में वर्तमान अतीत पर हावी रहता है। बुर्जुआ समाज में पूंजी स्वतंत्र होती है और उसकी अपनी वैयक्तिकता होती है जबकि जीवित व्यक्ति आश्रित होता है और उसकी कोई वैयक्तिकता नहीं होती।’ यहां भी मार्क्स हीगल के विचारों का अनुसरण करते हैं जिन्होंने श्रम को ‘मनुष्य के स्वयं सृजन की कार्रवाई’ के रूप में समझा था। मार्क्स की नजर में श्रम कोई वस्तु नहीं बल्कि गतिविधि है। मार्क्स ने मौलिक तौर पर मनुष्य के कार्यों को श्रम नहीं बल्कि ‘आत्म क्रिया’ कहा था और श्रम के उन्मूलन को ‘समाजवाद का उद्देश्य’ करार दिया था। बाद में जब उन्होंने स्वतंत्र श्रम और अलगाव वाले श्रम के बीच फर्क किया तो ‘श्रम की मुक्ति’ शब्द का प्रयोग किया।

‘सबसे पहले, श्रम एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें मनुष्य और प्रकृति दोनों शिरकत करते हैं और जिसमें मनुष्य स्वेच्छा से अपने और प्रकृति के बीच भौतिक प्रतिक्रियाओं को आरंभ करता, नियमित करता और नियंत्रित करता है।’ वह प्रकृति की अपनी ही एक ताकत के रूप में खुद को खड़ा करता है, अपने हाथ-पांव, सिर आदि को यानी शरीर की प्राकृतिक ताकत को गति में लाता है ताकि प्रकृति के उत्पादनों को अपनी जरूरतों के मुताबिक विनियोजित कर सके।  इस प्रकार बाहरी दुनिया पर काम करते हुए और उसे बदलते हुए वह खुद अपनी प्रकृति को भी बदलता चलता है। वह अपनी सोयी शक्तियों को जगाता है और उन्हें अपने प्रभुत्व के अधीन काम करने को मजबूर करता है। यहां हम श्रम के उन शुरुआती प्रवृत्तिगत स्वरूपों की बात नहीं कर रहे जो पशुओं की याद दिलाते हैं। जब मानवीय श्रम अपने प्रारंभिक चरण में होता है उस अवस्था को दूसरी अवस्था जिसमें मनुष्य अपने श्रम को उत्पाद के रूप में बिक्री के लिए बाजार में लाता है, से अलग करने वाला समय का अंतराल इतना लंबा होता है कि उसे मापना भी मुमिकन नहीं होता। हम श्रम के उस स्वरूप को पहले ही स्वीकार कर लेते हैं जो उस पर पूरी तरह मानवीय होने का ठप्पा लगा देता है। एक मकड़ी ऐसा कार्य करती है जो बुनकर से मिलता-जुलता है। एक मधुमक्खी जब अपना घर बनाती है तो बड़े-बड़े वास्तुनिर्माताओं को शर्मिंदा कर देती है। लेकिन जो चीज सबसे खराब वास्तु को सबसे अच्छे मधुमक्खी निवास से विशिष्ट बनाती है वह यह है कि वास्तु निर्माता वास्तव में ढांचा खड़ा करने से पहले उसे अपनी कल्पना में बना चुका होता है। हरेक श्रम प्रक्रिया के बाद हमें जो परिणाम मिलता है वह इसकी शुरुआत से ही श्रमिक की कल्पना में मौजूद रहता है। वह न केवल उन वस्तुओं के स्वरूप में बदलाव लाता है जिन पर उसे काम करना होता है बल्कि अपने मकसद का भी एहसास उसे होता है जो (मकसद) उसके कार्य करने का ढंग तय करता है। इस क्रम में उसे अपनी इच्छा को दबाना पड़ता है। और इच्छा को दबाने की यह प्रक्रिया क्षणिक नहीं होती। शारीरिक अंगों पर जो जोर पड़ता है वह तो है ही, इस प्रक्रिया में यह भी जरूरी होता है कि पूरे अभियान के दौरान श्रमिक की इच्छा उस मकसद के साथ दृढ़ता से तालमेल बनाए रखे। इसका मतलब है पूरा ध्यान केंद्रित रखना। वह कार्य की प्रकृति से और कार्य की शैली से जितना कम आकर्षित होगा, यानी इसका जितना कम आनंद लेगा, उसका ध्यान उस मकसद से उतनी ही करीबी से जुड़ा रहेगा।‘

श्रम मनुष्य की आत्माभिव्यक्ति है, उसकी वैयक्तिक शारीरिक और मानसिक शक्तियों की अभिव्यक्ति। इसकी वास्तविक गतिविधियों की प्रक्रिया में मनुष्य खुद को विकसित करता है, वह खुद बनता है। श्रम किसी साध्य का साधन – उत्पाद – भर नहीं है, वह अपने आप में एक साध्य भी है। मानवीय ऊर्जा की एक सार्थक अभिव्यक्ति। यानी श्रम का आनंद लिया जा सकता है।

मार्क्स की पूंजीवाद की केंद्रीय आलोचना धन के वितरण में होने वाले अन्याय को लेकर नहीं है। उसकी मुख्य आलोचना है श्रम का एक मजबूर, अलगावग्रस्त, निर्रथक श्रम में विकृतीकरण। यानी मनुष्य का एक पंगु राक्षसी (क्रिपल्ड मॉन्सट्रोसिटी) रूप में अवतरण। मनुष्य की वैयक्तिकता की अभिव्यक्ति के रूप में श्रम की मार्क्स की अवधारणा संक्षेप में उनके इस विचार में झलकती है कि इंसान को पूरी जिंदगी के लिए एक ही पेशे में झोंक देने के प्रचलन को पूरी तरह बंद कर देना चाहिए। चूंकि मानवीय विकास का मकसद एक संपूर्ण सार्विक मनुष्य का विकास है, इसलिए मनुष्य को विशेषज्ञता के अपंगकारी प्रभावों से बचाना ही होगा। मार्क्स लिखते हैं, “पूर्व के सभी समाजों में मनुष्य एक शिकारी, एक मच्छीमार, एक गड़ेरिया या एक छिद्रान्वेषी आलोचक हुआ करता था और अगर उसे अपनी आजीविका गंवाना न हो तो इसी काम से आजीवन चिपके रहना होता था। इसके विपरीत कम्यूनिस्ट सोसायटी में चूंकि किसी को भी किसी एक काम से ही चिपके रहने की जरूरत नहीं होती, जो जिस क्षेत्र में चाहे कुशलता अर्जित कर सकता है, इसलिए समाज सामान्य उत्पादन को नियमित करता है और मेरे लिए यह गुंजाइश बनाता है कि मैं चाहूं तो आज एक काम करूं और कल दूसरा, कि सुबह मैं शिकार करूं तो दोपहर में मछली मारूं, शाम को भेड़ें चराऊं और रात को डिनर के बाद आलोचना करूं। क्योंकि मेरे पास एक दिमाग है और हमेशा के लिए शिकारी, मच्छीमार, गड़ेरिया या आलोचक बन जाने की मजबूरी नहीं।”

मार्क्स के बारे में इससे बड़ी गलतफहमी या गलतबयानी दूसरी नहीं हो सकती जो सोवियत कम्यूनिस्टों, सुधारवादी समाजवादियों, समाजवाद के विरोधी पूंजीवादियों के मन में पाई जाती है। जो यह माने बैठे हैं कि मार्क्स श्रमिक वर्ग की आर्थिक स्थिति भर सुधारना चाहते थे और यह कि वह निजी पूंजी का उन्मूलन इसलिए चाहते थे ताकि मजदूर वर्ग वे चीजें हासिल कर सके जो आज पूंजीपतियों के पास हैं। सचाई यह है कि मार्क्स के मुताबिक रूसी ‘समाजवादी’ कारखाने, ब्रितानी राजकीय कारखाने और अमेरिकी कारखाने (जैसे जनरल मोटर्स) के मजदूर की स्थितियां मोटे तौर पर एक जैसी ही होती हैं। निम्न पैरे में मार्क्स ने यह बात बड़ी स्पष्टता से कही हैः

“वेतन में जबरन की गई बढ़ोतरी गुलामों को मिलने वाले भुगतान में इजाफे से ज्यादा कुछ नहीं हैं और यह श्रम या श्रमिक की गरिमा, उसकी मानवीय सार्थकता की प्रतिष्ठपना नहीं करेगा।

“यहां तक कि आमदनी की समानता भी, जिसकी मांग प्रूधों करते हैं, सिर्फ आज के श्रमिकों के श्रम से रिश्तों को सभी मनुष्यों के श्रम से रिश्ते में बदल सकती है। तब समाज को एक अमूर्त पूंजीपति के रूप में देखा जा सकेगा।“

मार्क्स का मूल मुद्दा है अलगावग्रस्त, निरर्थक श्रम का उत्पादक, मुक्त श्रम में रूपांतरण सुनिश्चित करना, न कि अलगावग्रस्त श्रम को प्राइवेट या अमूर्त राजकीय पूंजीवाद द्वारा बेहतर वेतन मुहैया कराना।

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