दो दिनों के लिए मेरठ जाना हुआ. वो शहर जहां के डीएन कॉलेज से मैथ्स की एमएससी करने के दौरान मैने जागरण में प्रशिक्षु उपसंपादक-रिपोर्टर के तौर पर पत्रकारिता शुरू की थी. लोकल रिपोर्टिंग और फिर स्पोर्ट्स पत्रकारिता. अब लगता है कि इस ऐतिहासिक शहर को क्यों अब तक कभी एक्सप्लोर नहीं कर सका. हाल में जब वहां गया, तो लग रहा था कि मेरठ के उस ऐतिहासिक हिस्से में जाने की कोशिश करूंगा, जो बेशक कब्रिस्तान है लेकिन जिसकी जड़ें ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रितानी राज से जुड़ी रही हैं, जिसका इतिहास 200 सालों से कहीं ज्यादा का है, जिसके इर्द-गिर्द ना जाने कितनी ही कहानियां और चरित्र बावस्ता हैं.
जागरण के पुराने साथी और शहर के चप्पे-चप्पे से परिचित अनिल सूरी से बात हुई. ऐतिहासिक कब्रिस्तान पहुंचे. बगैर अनुमति के इसमें दाखिल होना आसान नहीं. 1800 की शुरुआत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने मराठाओं से संधि के बाद बंगाल के बैरकपुर के बाद मेरठ में अपनी दूसरी बड़ी छावनी बनाई. उत्तर भारत में पहली ईस्टइंडिया की सैन्य छावनी. तीन देसी और तीन अंग्रेजी सैनिक गारदें तैनात की गईं.
ये वो समय था जब मेरठ में बनते इस छावनी शहर के साथ एक नई अर्थव्यवस्था इसके इर्द-गिर्द जन्म ले रही थी. तमाम यूरोपीय व्यापारी यहां ठौर ले रहे थे. मेरठ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इतिहास पर काम करने वाले डॉ. अमित पाठक ने इंडियन डिफेंस रिव्यू में अपने एक लेख में लिखा, मेरठ में 19वीं सदी की शुरुआत में पुर्तगाली सीमेट्री (कब्रिस्तान) थी, जिसमें एक ग्रीक कब्र भी थी. 1800 की शुरुआत में ब्रिटिशर्स के अलावा यूरोप के कई देशों के लोग मेरठ आ रहे थे, यहां व्यापार के सिलसिले में घर बना रहे थे. इस शहर पर उससे कई तरह के बदलाव आने लगे थे.
खैर, हम लौटते हैं 27 एकड़ में फैली और 200 सालों से कहीं ज्यादा पुरानी सेंट जोंस चर्च सीमेट्री की ओर. इतना लंबा-चौड़ा ईसाई कब्रिस्तान देश में कम ही होगा. इसका ऐतिहासिक महत्व भी है. 1810 में बनी किसी यूरोपीयन की पहली कब्र यहां अब भी देखी जा सकती है. 1857 की क्रांति के दौरान जो 40 यूरोपीय मारे गए, उसमें 36 यहीं दफन हुए. हालांकि अब उनमें से 09 की ही कब्र सुरक्षित हैं और उनकी पहचान हो पाती है. अब इस जगह की देखभाल कई सालों से नहीं हो पा रही है, ये झाड़ झंखाड़, लताओं और सांपों के साथ जंगल में तब्दील होने लगा ह. अगर इस पर ध्यान दिया जाता तो ये वाकई यूरोपीय ऐतिहासिक कब्रिस्तानों की तरह बेहद खूबसूरत होता. वजह शायद फंड की कमी है.
ये जगह सेंट जोंस चर्च, मेरठ कैंट के अधिकार में है, जो अब भी शहर में कई संपत्तियों की मालिक है लेकिन उसके कर्मचारियों का वेतन इतना कम है कि सुनकर ही हैरानी हो- महज 5000 रुपए और साथ में रहने के लिए फ्री क्वार्टर.
सेंट जोंस सीमेट्री जब 1800 की शुरुआत में बनाया गया तो अंग्रेजों ने इसे पूरी योजना के साथ ही बनाया कि हर कुछ दशक के साथ आने वाले सालों में कब्र किस हिस्से में बनाया जाएगा. इस योजना के तहत आज भी यहां जगह है और कब्र बनती रही हैं. हालांकि वो सिलसिला अब कम हो गया है. अंग्रेज वाकई बड़े योजनाकार थे, कुछ भी करने से पहले समय से बहुत आगे के हिस्से तक का ख्याल रखते थे.
चूंकि ये कब्रिस्तान 200 से कहीं ज्यादा सालों को समेटे है, लिहाजा अलग युग में इस्तेमाल होने वाले तौर-तरीकों, सामग्रियों और स्थापत्य शैलियों के दर्शन भी कब्र के रूप में होते हैं. वैसे ब्रिटेन और यूरोपीय देशों में प्राचीन समय से कब्र को हमेशा को एक खास महत्व दिया गया है. उन्हें खास शैलियों में बनाने का रिवाज रहा है.
यहां मुगलिया दौर बनीं कब्र ज्यादा लंबी-चौड़ी और गुंबददार संरचना में हैं तो बाद की अलग रोमन, गोथिक और आधुनिक शैलियों में. साधारण तौर पर हर कब्र के साथ एक हेडस्टोन जरूर खड़ा किया जाता है, जो कब्र का परिचय होती है, जिस पर मृतक के जन्म, मृत्यु की तारीख और उसके बारे में कुछ खास बात या कोई आदर्श वाक्य लिखा जाता है.
हेडस्टोन, ग्रेवस्टोन या टंबस्टोन बनाने के लिए पत्थर से लेकर ग्रेनाइट, स्लेट, सीमेंट, संगमरमर और सैंडस्टोन का इस्तेमाल होता रहा है. हालांकि बहुत सी जगहों पर लकड़ी, धातु या किसी पौधे से काम लिया जाता है. हालांकि दुनिया की बहुत सी कब्रगाहें ऐसी भी हैं, जहां जरूरत से ज्यादा हेडस्टोन इसलिए हटाये जा रहे हैं कि वे बेतरतीब थे, हरी-भरी घास के साथ खूबसूरती में बाधा बन रहे थे. ईसाई धर्म में कब्र को खूबसूरती से बनाने को फ्यूनरेरी आर्ट माना जाता रहा है. इसे स्थापत्य में खास जगह दी गई.
मेरठ कैंट का मतलब है उत्तर भारत की दिल्ली से सटी बहुत बड़ी सैन्य छावनी, जो अब भी खास महत्व रखती है. ये खूबसूरत भी है और हरियाली के साथ खास तरह के भवनों और सैनिक रिहाइशों-सुविधाओं से युक्त खुली-खुली जगह. कब्रिस्तान इसी कैंट इलाके में है. चारदीवार से घिरा हुआ. खास तरह का गेट इसका प्रवेश द्वार है. आमतौर पर यहां अनुमति से ही अंदर प्रवेश मिल पाता है. ये मेरठ कैंट के सेंट जोंस चर्च की संपत्ति है. एक जमाने में ये चर्च मेरठ में खासा असरदार था. स्कूल, अस्पताल, धर्मस्थान से लेकर कब्रिस्तान तक की गतिविधियां संचालित करता था. हालांकि अब भी उसके पास मेरठ में बड़ी संपत्तियां हैं.
कब्रिस्तान का केयरटेकर राबिंसन नाम का शख्स करता है. सफेद दाढ़ी, 60 साल के आसपास. उसके पिता किसी जमाने में अंग्रेज के खानसामा थे. अलीगढ़ से उसका परिवार मेरठ आ बसा. रोबिंनसन 20 सालों से कहीं ज्यादा समय से इस कब्रिस्तान में बने क्वार्टर में परिवार के साथ रह रहा है. वो कहते हैं-कोई भूत-वूत नहीं होता, मैने तो यहां इतने सालों में कभी हल्का सा भी कुछ महसूस नहीं किया. सब बस कहने वाली बातें हैं.
कब्रिस्तान में घुसते ही दायीं ओर गुंबद वाली संरचनाएं दिखाई पड़ती हैं. दरअसल ये कब्रें 1800 में शुरू के दौर की हैं. गुंबदकार कब्रें यानि तत्कालीन मुगलिया दौर का असर. इसके बाद की कब्रों की शैली ठेठ यूरोपीय होती चली गई. 1857 के आसपास की कई कब्रें एक लाइन में अलग अलग आकारों वाली. ये वो कब्रें भी हैं, जिनकी 1857 की मशहूर क्रांति के दौरान हत्या हुई. इसमें अंग्रेज सैन्य अफसरों और सैनिकों की कब्रें हैं. उनके परिवार के लोगों की भी.
उनमें कुछ नाम ऐसे हैं, जिन्हें इंटरनेट पर आज भी आराम से तलाशा जा सकता है. हर कब्र की अपनी कहानियां है. बहुत सी कब्र ऐसी भी हैं, जिनके परिवार के लोग आज भी ब्रिटेन से यहां आकर श्रृद्धांजलि देते हैं. 1857 के विद्रोह में एक ओर ईस्ट कंपनी का जुल्म और क्रूरता थी तो दूसरी ओर भारतीय सैनिकों का उनके हाथों अपमानित होते जाने का गुस्सा. ये कब्रें उस समय की तमाम कहानियां कहती हैं.
हालांकि मेरठ के लिए ये ऐसे निशां हैं, जहां कम से कम उस शहर में तो कोई याद नहीं रखना चाहता और ना ही किसी को इस हिस्से में कोई दिलचस्पी ही है.ये वो बीता हुआ वक्त है, जो वाकई यादों से गायब हो चुका है, हां बस किताबों में जरूर मिल जाता है.
मेरठ में तब 89 भारतीय सैनिकों ने नए कारतूस इस्तेमाल करने से मना कर दिया था. तब तुरंत उनकी वर्दियां छीन ली गईं. दस साल के लिए जेल में डाल दिया गया. ये भारतीय सैनिकों का बहुत बड़ा अपमान था. कुछ सैनिक इसे बर्दाश्त नहीं कर पाए. जेल से भाग निकले. विद्रोह कर दिया. हालांकि ब्रितानियों ने विद्रोहियों और निर्दोष लोगों को मारकर गुस्से को और भड़काया. अंग्रेजों ने मेरठ के आसपास के कुछ गांव जला दिए गए. माना जाता है कि उसमें दस हजार भारतीय मारे गए तो ब्रितानियों की ओर सैकड़ों, सैनिक, नागरिक, महिलाएं और बच्चे.
विद्रोह में मारे गए ब्रिटिश सैनिक 53 वर्षीय जान फेनिस की कब्र यहीं है. वो 10 मई 1857 को मारे गए थे. इसी दिन मारे गए विंसेंट रेसर और 57 साल के कैप्टेन जान हेनरी भी यहीं 163 सालों से अपनी अपनी कब्र में हैं. ये सभी 20वीं रेजिमेंट से ताल्लुक रखते हैं. एक खूबसूरत सी कब्र 30 साल की लुसिया सोफिया की है, जिस पर लिखा है कि विद्रोह के दौरान सैन्य अफसर डोनाल्ड मैकडोनाल्ड की ये पत्नी अपने तीन बच्चों के साथ मार दी गई. वो बचने के लिए अपने नौकरों की ड्रेस पहनकर जलते हुए घर से बचने के लिए निकली थी.
कब्रिस्तान में घूमते हुए बेशक कुछ डर जैसा महसूस नहीं होता लेकिन अजीब सी नीरव शांति वहां छाई रहती है. फैलती हुई बेतरतीब लताएं. झाड़-झंखाड़ के बीच खड़ी कब्रें अपने समय का मूक संवाद करती हुई ही लगती हैं. बहुत सी कब्रें उखड़ रही हैं. बहुत सी समय के साथ जर्जर हो चुकी हैं लेकिन जिधर देखो, उधर वो अलग-अलग आकार-प्रकार में खड़ी नजर आती हैं. ऐसा लगता है कि मानों फुसफुसा रही हों कि हमारी भी एक कहानी थी लेकिन हर कहानी कहीं ना कहीं ठहरती है और उसका ठहरना ही जिंदगी की नश्वरता बताता है.
Sanjay Srivastava की फेसबुक पोस्ट से