पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था में फल-फूल रहे मनुवादियों पर आखिर कौन कसेगा नकेल?

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वर्णाश्रम व्यवस्था का विकल्प असमानता पर आधारित पूंजीवादी लोकतांत्रिक व्यवस्था नहीं हो सकती

P L ‘Shakun’
जातिवादी मानसिकता के चलते ही साम्यवाद का प्रसार आसान नहीं है. क्योंकि जातीयता बोध और उसके आधार पर ऊंच – नीच का संस्कार, केवल शीर्षस्थ जातियों की विशेषता नहीं है. शताब्दियों से पीड़ित जातियाँ भी किसी न किसी रूप में उसे सहेजे रखने का काम करती हैं. हजारों वर्षो से जाति- असमानता और ऊंच – नीच का पालन करती आयीं जातियाँ विषम परिस्थितियों के बीच भी जीना सीख चुकी हैं. जाति व्यवस्था उन्हें संतोष देती है कि समाज में सबसे निचले स्तर पर केवल वही नहीं है, उनसे नीचे भी लोग हैं. जो सबसे निचले पायदान पर है, वह यह सोचकर मन को तसल्ली दे लेता है कि ईश्वर जिसे सभी धर्मों में निष्पक्ष न्यायकर्ता और परम कृपालु माना जाता है, एक न एक दिन उस पर कृपा अवश्य करेगा. ईश्वर ऐसा करेगा, इस तरह की तसल्ली देने के लिए अनेक मिथकीय आख्यान होते हैं, जो मनुष्य को आजन्म उलझाए रखते हैं.
साम्यवाद का अंतिम लक्ष्य ऐसी व्यवस्था लागू करना है कि उसे देख कर लगे कि सभी लोग एक परिवार सरीखे हैं. सभी एक दूसरे के परिजन और सगे- संबंधी हैं. और पूरी दुनिया की सुख संपदा, आराम और आनंद ऐसे परिवार के लिए हैं, जिसके सभी सदस्यों की संपत्ति में समान भागीदारी है. यदि लोग एक दूसरे की खुशी के लिए जीना सीख जाते हैं, तो उन्हें ईश्वर या ईश्वरीय विधान की कतयी आवश्यकता नहीं है. इसके लिए स्वामी- सेवक वाली व्यवस्था को समाप्त हो जाना चाहिए. ऐसे समाज को जल्दी से जल्दी बदल जाना चाहिए, जहाँ मजदूर आज भी संस्थान का हिस्सेदार बनने की बजाय मजदूरी से संतुष्ट रहने का भ्रम पाले रहता है.
वर्णाश्रम और सामंती व्यवस्था समाज को ब्राह्मण और गैर – ब्राह्मण में बांटती थी. इसलिए गैर- ब्राह्मणों का एक बड़ा हिस्सा उस व्यवस्था का विरोधी रहा है. पूंजीवादी व्यवस्था भी समाज को मालिक और मजदूर में बाँट देती है. इस तरह दोनों ही व्यवस्थाएँ समाज की एकता, समरसता और बराबरी के लक्ष्य की राह में सबसे बड़ी बाधक हैं. ब्राह्मण गैर -ब्राह्मण और मालिक – मजदूर वाली व्यवस्थाओं में से कौनसी श्रेष्ठतर है. गैर – ब्राह्मण जो शताब्दियों से जातीय दमन और असमानता को झेलते आये हैं, क्या पूंजीवादी व्यवस्था में उनके लिए बेहतर स्थितियां हो सकती हैं? गौरतलब है कि मशीनीकरण के आरंभ से ही दलितों और शुद्रों का एक वर्ग पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का इस आधार पर समर्थन करता आया है कि इससे मनुष्य का आजीविक को लेकर चयन का अधिकार बाधित नहीं होता, उसे अपना पेशा चुनने की स्वतंत्रता होती है, जो पहले नहीं थी. दूसरे पूंजीवादी व्यवस्था आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों के अपेक्षाकृत अधिक मजबूती से समर्थन करती है. तो क्या पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को परंपरागत वर्णाश्रम धर्म द्वारा संचालित अर्थव्यवस्था की जगह दी जा सकती है? इस का उत्तर यदि पेरियार से पूछा जाय तो उनका उत्तर होगा- नहीं. अपने मत को लेकर वे पूरी तरह आश्वस्त हैं: किसी भी तरीके से, मैं नहीं चाहता कि हम वर्णाश्रम धर्म की जगह ऐसी प्रणाली लागू करें, जिसमें आर्थिक मापदण्ड अथवा किसी और कारण से मनुष्य- मनुष्य के बीच भेद – भाव किया जाता हो, जो लोगों को एक दूसरे के करीब लाने से रोकता हो.
इतना स्पष्ट है पूंजीवादी अर्थव्यवस्था, वर्णाश्रम व्यवस्था का विकल्प नहीं बन सकती. न ही उससे बेहतर परिणाम देने का पक्का वायदा कर सकती है. तो भी इसका मतलब यह नहीं है कि हम वर्णाश्रम व्यवस्था को गले की घंटी बनाये रहें. इसके लिए समाज के जागरूक व्यक्तियों को मार्ग- खोजक की भूमिका में डटे रहना चाहिए. पेरियार इसके लिए साम्यवाद पर जोर देते हैं. सहकारिता पर जोर देते हैं. वे चाहते हैं कि संसाधनों का समाजीकरण हो और लोग एक दूसरे के सुख – दुख, हानि- लाभ में साझा करते हुए, बेहतर समाज की रचना के लिए प्रतिबद्ध हों. वर्तमान मालिक- मजदूर प्रणाली, जो असल में लोगों को गुलाम बनाने का काम करती है- के स्थान पर ऐसा सिस्टम लागू हो, जिसमें यह भेद ही न हो. यह काम किसी मसीहा की मदद से अथवा मसीहाई अंदाज में नहीं हो सकता. यह तभी हो सकता है जब लोग अपने दृष्टिकोण को बदल कर उसे वैज्ञानिक बनाएं और यह तभी संभव है जब लोग अपना मार्ग दर्शक लीक से हट कर साम्यवादी विचारधारा के सिद्धांतकारों मार्क्स, एंजिल्स, लेनिन और स्टालिन को चुने.
तभी हम आज के हिंदुत्ववादी फासीवाद से लोहा ले सकते हैं.

संदर्भ;- पेरियार ई वी रामासामी, भारत के वाल्टेयर, लेखक- ओम प्रकाश कश्यप.

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