महात्मा गाँधी पर चयनित कविताएं

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हमें यह याद रखना चाहिए कि भारतीय प्रज्ञा हमेशा शाश्वत मूल्यों के संवर्धन में ही अपनी रचनाधर्मिता के क्षितिज को विस्तीर्ण करती आयी है, इसलिये कई बार आधुनिक मूल्य-बोध के चश्मे से मूल्यांकन करने वाली आलोचना ऐसे सर्जक की भावभूमि को छू ही नहीं पाती है। प्रयोगों और नवाचारों की अपनी अहमियत है, परंतु हज़ारों नहीं तो कम से कम सैकडों वर्षों की काव्य-शास्त्रीय मीमांसा की विरासत से कटकर हम युगातीत प्रज्ञावान साहित्य-मनीषियों का सही मूल्यांकन नहीं कर पाएँगे, इसलिए भी ऐसी कविताओं के पुनर्पाठ की महती आवश्यकता है। ये कविताएँ न सिर्फ़ इतिहास-बोध समेटे हुए हैं बल्कि इनमें मुखरित मूल्य-बोध शास्वत हैं, इसलिए ये कविताएँ अपने युग की सीमा का अतिक्रमण भी करतीं हैं।

 प्यारे बापू
(4 सितं.  1895 – 29 मार्च 1962)

“हम सब के थे प्यारे बापू
सारे जग से न्यारे बापू
जगमग-जगमग तारे बापू
भारत के उजियारे बापू
लगते तो थे दुबले बापू
थे ताक़त के पुतले बापू
नहीं कभी डरते थे बापू
जो कहते करते थे बापू
सदा सत्य अपनाते बापू
सबको गले लगाते बापू
हम हैं एक सिखाते बापू
सच्ची राह दिखाते बापू
चरखा खादी लाए बापू
हैं आज़ादी लाए बापू
कभी न हिम्मत हारे बापू
आँखों के थे तारे बापू।”

-सियाराम शरण गुप्त

गाँधी के प्रति
(30 सितं. 1895 – 6 नवं. 1989)

“तुम शुद्ध बुद्ध की परम्परा में आये
मानव थे ऐसे, देख कि देव लजाये
भारत के ही क्यों, अखिल लोक के भ्राता
तुम आये बन दलितों के भाग्य विधाता!
तुम समता का संदेश सुनाने आये
भूले-भटकों को मार्ग दिखाने आये
पशु-बल की बर्बरता की दुर्दम आंधी
पथ से न तुम्हें निज डिगा सकी हे गाँधी!
जीवन का किसने गीत अनूठा गाया
इस मर्त्यलोक में किसने अमृत बहाया
गूँजती आज भी किसकी प्रोज्वल वाणी
कविता-सी सुन्दर सरल और कल्याणी!
हे स्थितप्रज्ञ, हे व्रती, तपस्वी त्यागी
हे अनासक्त, हे भक्त, विरक्त विरागी
हे सत्य-अहिंसा-साधक, हे सन्यासी
हे राम-नाम आराधक दृढ़ विश्वासी!
हे धीर-वीर-गंभीर, महामानव हे
हे प्रियदर्शन, जीवन दर्शन, अभिनव है
घन अंधकार में बन प्रकाश तुम आये

कवि कौन, तुम्हारे जो समग्र गुण गाये?”

– मुकुटधर पांडेय

बापू, तुम मुर्गी खाते यदि…
(21 फर. 1899 – 15 अक्टू 1961)

“बापू, तुम मुर्गी खाते यदि
तो क्या भजते होते तुमको
ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे – ?
सर के बल खड़े हुए होते
हिंदी के इतने लेखक-कवि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि
तो लोकमान्य से क्या तुमने
लोहा भी कभी लिया होता?
दक्खिन में हिंदी चलवाकर
लखते हिंदुस्तानी की छवि,
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि
तो क्या अवतार हुए होते
कुल के कुल कायथ बनियों के?
दुनिया के सबसे बड़े पुरुष
आदम, भेड़ों के होते भी!
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि?
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि
तो क्या पटेल, राजन, टंडन,
गोपालाचारी भी भजते- ?
भजता होता तुमको मैं औ´
मेरी प्यारी अल्लारक्खी !
बापू, तुम मुर्गी खाते यदि !”
सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

बापू – सुमित्रानंदन पंत
(20 मई 1900 – 28 दिसं.  1977)

“चरमोन्नत जग में
जब कि आज विज्ञान ज्ञान,
बहु भौतिक साधन, यंत्र यान, वैभव महान,
सेवक हैं विद्युत वाष्प शक्ति:
धन बल नितांत,
फिर क्यों जग में उत्पीड़न?
जीवन यों अशांत?
मानव नें पाई देश काल पर जय निश्चय,
मानव के पास नहीं मानव का आज हृदय!
चर्वित उसका विज्ञान ज्ञान वह नहीं पचित;
भौतिक मद से
मानव आत्मा हो गई विजित!
है श्लाघ्य मनुज का
भौतिक संचय का प्रयास,
मानवी भावना का क्या पर उसमें विकास?
चाहिये विश्व को आज भाव का नवोन्मेष,
मानव उर में फिर मानवता का हो प्रवेश!
बापू! तुम पर हैं आज लगे जग के लोचन,
तुम खोल नहीं जाओगे मानव के बंधन?”

युगावतार गांधी
 (22 फरवरी 1906–1मार्च 1988)

“चल पड़े जिधर दो डग मग में
चल पड़े कोटि पग उसी ओर,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर,
जिसके शिर पर निज धरा हाथ
उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ,
जिस पर निज मस्तक झुका दिया
झुक गये उसी पर कोटि माथ;
हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु!
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम!
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम!
युग बढ़ा तुम्हारी हँसी देख
युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख,
तुम अचल मेखला बन भू की
खींचते काल पर अमिट रेख;
तुम बोल उठे, युग बोल उठा,
तुम मौन बने, युग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगधर्म तना;
युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक,
युग-संचालक, हे युगाधार!
युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें
युग-युग तक युग का नमस्कार!
तुम युग-युग की रूढ़ियाँ तोड़
रचते रहते नित नई सृष्टि,
उठती नवजीवन की नींवें
ले नवचेतन की दिव्य-दृष्टि;
धर्माडंबर के खँडहर पर
कर पद-प्रहार, कर धराध्वस्त
मानवता का पावन मंदिर
निर्माण कर रहे सृजनव्यस्त!
बढ़ते ही जाते दिग्विजयी!
गढ़ते तुम अपना रामराज,
आत्माहुति के मणिमाणिक से
मढ़ते जननी का स्वर्णताज!
तुम कालचक्र के रक्त सने
दशनों को कर से पकड़ सुदृढ़,
मानव को दानव के मुँह से
ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़;
पिसती कराहती जगती के
प्राणों में भरते अभय दान,
अधमरे देखते हैं तुमको,
किसने आकर यह किया त्राण?
दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से
तुम कालचक्र की चाल रोक,
नित महाकाल की छाती पर
लिखते करुणा के पुण्य श्लोक!
कँपता असत्य, कँपती मिथ्या,
बर्बरता कँपती है थरथर!
कँपते सिंहासन, राजमुकुट
कँपते, खिसके आते भू पर,
हैं अस्त्र-शस्त्र कुंठित लुंठित,
सेनायें करती गृह-प्रयाण!
रणभेरी तेरी बजती है,
उड़ता है तेरा ध्वज निशान!
हे युग-दृष्टा, हे युग-स्रष्टा,
पढ़ते कैसा यह मोक्ष-मंत्र?
इस राजतंत्र के खँडहर में
उगता अभिनव भारत स्वतंत्र!”

– सोहनलाल द्विवेदी

गाँधी
(27 नवं. 1907 -18 जन. 2003)

“एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,
जिस समय हिंसा,
कुटिल विज्ञान बल से हो समंवित,
धर्म, संस्‍कृति, सभ्‍यता पर डाल पर्दा,
विश्‍व के संहार का
षड्यंत्र रचने में लगी थी,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था!
एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,
जिस समय अन्‍याय ने पशु-बल सुरा पी-
उग्र, उद्धत, दंभ-उन्‍मद-
एक निर्बल, निरपराध, निरीह को
था कुचल डाला
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था?
एक दिन इतिहास पूछेगा
कि तुमने जन्‍म गाँधी को दिया था,
जिस समय अधिकार, शोषण, स्‍वार्थ
हो निर्लज्‍ज, हो नि:शंक, हो निर्द्वन्‍द्व
सद्य: जगे, संभले राष्‍ट्र में घुन-से लगे
जर्जर उसे करते रहे थे,
तुम कहाँ थे? और तुमने क्‍या किया था?
क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
यदि मिलती न हिंसा को चुनौ‍ती,
क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
यदि अन्‍याय की ही जीत होती,
क्‍यों कि गाँधी व्‍यर्थ
जाति स्‍वतंत्र होकर
यदि न अपने पाप धोती!”

– हरिवंशराय “बच्‍चन”

गाँधी – रामधारी सिंह “दिनकर” ( 23 सितम्बर 1908–24 अप्रैल 1974)

“देश में जिधर भी जाता हूँ,
उधर ही एक आह्वान सुनता हूँ
“जड़ता को तोड़ने के लिए
भूकम्प लाओ ।
घुप्प अँधेरे में फिर
अपनी मशाल जलाओ ।
पूरे पहाड़ हथेली पर उठाकर
पवनकुमार के समान तरजो ।
कोई तूफ़ान उठाने को
कवि, गरजो, गरजो, गरजो !”
सोचता हूँ, मैं कब गरजा था ?
जिसे लोग मेरा गर्जन समझते हैं,
वह असल में गाँधी का था,
उस गाँधी का था,
जिस ने हमें जन्म दिया था ।
तब भी हम ने गाँधी के
तूफ़ान को ही देखा,
गाँधी को नहीं ।
वे तूफ़ान और गर्जन के
पीछे बसते थे ।
सच तो यह है
कि अपनी लीला में
तूफ़ान और गर्जन को
शामिल होते देख
वे हँसते थे ।
तूफ़ान मोटी नहीं,
महीन आवाज़ से उठता है ।
वह आवाज़
जो मोम के दीप के समान
एकान्त में जलती है,
और बाज नहीं,
कबूतर के चाल से चलती है ।
गाँधी तूफ़ान के पिता
और बाजों के भी बाज थे ।
क्योंकि वे नीरवताकी आवाज थे।”

गांधी के चित्र को देखकर
(1अप्रैल 1911–22 जून 2000)

“दुख से दूर पहुँचकर गाँधी।
सुख से मौन खड़े हो
मरते-खपते इंसानों के
इस भारत में तुम्हीं बड़े हो
जीकर जीवन को अब जीना
नहीं सुलभ है हमको
मरकर जीवन को फिर जीना
सहज सुलभ है तुमको।”
– केदारनाथ अग्रवाल

तीनों बंदर बापू के
(30 जून 1911–5 नवंबर 1998) 

“बापू के भी ताऊ निकले
तीनों बंदर बापू के !
सरल सूत्र उलझाऊ निकले
तीनों बंदर बापू के!
सचमुच जीवनदानी निकले
तीनों बंदर बापू के!
ज्ञानी निकले,ध्यानी निकले
तीनों बंदर बापू के!
जल-थल-गगन-बिहारी निकले
तीनों बंदर बापू के!
लीला के गिरधारी निकले
तीनों बंदर बापू के!………
– नागार्जुन

तुम कागज पर लिखते हो
(29 मार्च 1913 – 20 फर. 1985)

“तुम काग़ज़ पर लिखते हो
वह सड़क झाड़ता है
तुम व्यापारी
वह धरती में बीज गाड़ता है ।
एक आदमी घड़ी बनाता
एक बनाता चप्पल
इसीलिए यह बड़ा और वह छोटा
इसमें क्या बल ।
सूत कातते थे गाँधी जी
कपड़ा बुनते थे ,
और कपास जुलाहों के जैसा ही
धुनते थे
चुनते थे अनाज के कंकर
चक्की पीसते थे
आश्रम के अनाज याने
आश्रम में पिसते थे
जिल्द बाँध लेना पुस्तक की
उनको आता था
भंगी-काम सफाई से
नित करना भाता था ।
ऐसे थे गाँधी जी
ऐसा था उनका आश्रम
गाँधी जी के लेखे
पूजा के समान था श्रम ।
एक बार उत्साह-ग्रस्त
कोई वकील साहब
जब पहुँचे मिलने
बापूजी पीस रहे थे तब ।
बापूजी ने कहा – बैठिये
पीसेंगे मिलकर
जब वे झिझके
गाँधीजी ने कहा
और खिलकर
सेवा का हर काम
हमारा ईश्वर है भाई
बैठ गये वे दबसट में
पर अक्ल नहीं आई ।”
– भवानीप्रसाद मिश्र

बापू
(30 जून 1919 – 17 सितं. 1977)

” भौतिकता की मदिरा पीकर,
जब कि विश्व था मतवाला।
और चूमने को आतुर था,
हिंसा का विषमय प्याला।
घोर अनय के बंधन में पड़,
जब धरती सिसक रही थी।
मानव की करुणा मानव से,
जब भय खा खिसक रही थी।
जमी सरलता के पथ पर जब,
कुटिल द्वेष की काई थी।
न्याय और सच्चाई पर जब,
भ्रम की कालिख छाई थी।
अंधकार की उस रजनी में,
था तेरा अवतार हुआ।
चिर नृशंसता की कारा से,
जननी का उद्धार हुआ।
सत्य अहिंसा के प्रकाश ने,
युग का तिमिर हटाया था।
त्याग और संयम का जग को,
अभिनव मंत्र सिखाया था।
विहँस उठा था जन-जन का उर,
नई चेतना जागी थी।
बलिदानों की होड़ मची थी,
औ’ कायरता भागी थी।
थर्राया प्रभुता का अँचल,
दानवता बल-हीन हुई।
शोषण का उर डोल उठा था,
बर्बरता थी क्षीण हुई।
विकसी मानवता की क्यारी,
शुचि विवेक दल थे निकले।
छू कर तेरी ज्योति-किरण को,
सद्गुण सुभग प्रसून खिले।
राह बताई तूने जग को,
अब है वह बेराह नहीं।
तेरी आत्मा चिर अजेय है,
मिल सकती है थाह नहीं।
मनुज नहीं तू करुणामय की,
करुणा बन कर आया था।
सदियों की तंद्रा टूटी वह,
गीत जागरण गाया था।
ज्वलित विश्व शीतल प्रलेपमय,
तेरी नीति हिमानी है।
अविनश्वर, नश्वर जगती में,
‘बापू’ तेरी वाणी है।”
-ज्योतींद्र प्रसाद झा “पंकज”

गांधीजी के जन्मदिन पर
(1 सितं. 1933 – 30 दिसं. 1975)

“मैं फिर जनम लूंगा
फिर मैं
इसी जगह आउंगा
उचटती निगाहों की भीड़ में
अभावों के बीच
लोगों की क्षत-विक्षत पीठ सहलाऊँगा
लँगड़ाकर चलते हुए पावों को
कंधा दूँगा
गिरी हुई पद-मर्दित पराजित विवशता को
बाँहों में उठाऊँगा ।
इस समूह में
इन अनगिनत अचीन्ही आवाज़ों में
कैसा दर्द है
कोई नहीं सुनता !
पर इन आवाजों को
और इन कराहों को
दुनिया सुने मैं ये चाहूँगा ।
मेरी तो आदत है
रोशनी जहाँ भी हो
उसे खोज लाऊँगा
कातरता, चु्प्पी या चीखें,
या हारे हुओं की खीज
जहाँ भी मिलेगी
उन्हें प्यार के सितार पर बजाऊँगा ।
जीवन ने कई बार उकसाकर
मुझे अनुलंघ्य सागरों में फेंका है
अगन-भट्ठियों में झोंका है,
मैने वहाँ भी
ज्योति की मशाल प्राप्त करने के यत्न किये
बचने के नहीं,
तो क्या इन
टटकी बंदूकों से डर जाऊँगा ?
तुम मुझकों दोषी ठहराओ
मैने तुम्हारे सुनसान का गला घोंटा है
पर मैं गाऊँगा
चाहे इस प्रार्थना सभा में
तुम सब मुझपर गोलियाँ चलाओ
मैं मर जाऊँगा
लेकिन मैं कल फिर जनम लूँगा
कल फिर आऊँगा ।”

दुष्यंत कुमार

अमर पंकज
(डाॅ अमर नाथ झा)
एसोसिएट प्रोफेसर
स्वामी श्रद्धांनंद महाविद्यालय
दिल्ली विश्वविद्यालय
मोबाइल-9871603621

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