बीसीएम से जुड़ी छात्राओं के लाठी मार्च को मीडिया में आखिर इतनी कवरेज क्यों मिली?

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भगतसिंह छात्र मोर्चा (बीसीएम) नामक विद्यार्थी संगठन बीएचयू में पिछले कई वर्षों से सक्रिय है। पिछले दिनों बीसीएम से जुड़ी छात्राओं ने विश्वविद्यालय में बढ़ती छेड़खाड़ी के विरोध में लाठी मार्च निकाला। मीडिया और नागरिक समाज में यह लाठी मार्च चर्चा का विषय बना। स्त्री-सशक्तीकरण के नाम पर भी शासक वर्गों ने अपनी खंडीकरण की मुहिम को बनाए रखा है, जिसके शिकार कथित मार्क्सवादी भी हो रहे हैं। यह अकारण नहीं कि बीसीएम के लाठी मार्च को मीडिया में व्यापक कवरेज मिली।
छात्रों के बीच दो तरह के संगठन काम करते हैं। एक तरह के संगठन अपने पितृ राजनीतिक दल की तरह ही मुद्दों पर विद्यार्थी समुदाय को उद्वेलित करने का काम करते हैं और इनका उद्देश्य अपनी पार्टी लायक नेता तैयार करना और अपनी पार्टी के पक्ष में जनमत का निर्माण करना होता है। इन्हें मुद्दा आधारित विद्यार्थी संगठन के रूप में समझा जाता है। दूसरी प्रकार के विद्यार्थी संगठन कैडर बेस्ड होते हैं और अपनी विचारधारा से अनुप्राणित-संचालित होते हैं।
जैसा कि नाम से ही जाहिर है बीसीएम कैडर बेस्ड संगठन है और यह भगतसिंह की विचारधारा को अपना मार्गदर्शक सिद्धांत मानकर चलता है। भगतसिंह किसानों-मज़दूरों का राज चाहते थे।
हमारे देश में दो तरह के कम्युनिस्ट पाए जाते हैं। पहले वे जो यह मानते हैं कि भारत में पूँजीपतियों का राज है और यहाँ पर मज़दूर क्रांति होगी। जबकि दूसरी तरह के कम्युनिस्टों का मानना है कि भारत अर्ध-सामंती और अर्ध-औपनिवेशिक देश है और यहाँ की सत्ता पर दलाल नौकरशाह पूँजीपति वर्ग कायम है। बीसीएम के ऐक्टिविस्टों को लंका गेट पर भाषण देते हुए मैं कई बार सुन चुका हूँ और उनके बारे में मेरी यह धारणा बनी है कि वे उन कम्युनिस्टों की तरह सोचते हैं जो देश में नव-जनवाद लाना चाहते हैं।
तो बताते चलें कि फ्रांस की तरह जब पूँजीपति वर्ग की अगुआई में क्रांति संपन्न होती है तो उसे जनवादी क्रांति कहते हैं लेकिन जब चीन की तरह कम्युनिस्ट पार्टी की अगुआई में क्रांति होती है तो उसे नव-जनवादी क्रांति कहते हैं। तो निष्कर्ष यह निकला कि बीसीएम चाहता है कि देश में पहले लोकतांत्रिक मूल्यों की स्थापना हो और फिर समाजवाद की ओर बढ़ा जाए। चूँकि इनकी लड़ाई जनतंत्र के लिए है और इस लड़ाई में इन्हें अंबेडकरवादी अपने मित्र लगते हैं तो अपनी रोजमर्रा की जन-कार्रवाइयों में ये उनके साथ भी मोर्चा बनाते हैं। संयुक्त मोर्चा का आम नियम यह है कि इसमें शामिल प्रत्येक घटक अपनी विचारधारा का वर्चस्व स्थापित करने और मोर्चे को नेतृत्व देने का प्रयास करता है, माने यह कि खुद अधिक फायदे में रहना चाहता है। लेकिन विडंबना देखिए अनुभवहीनता और विचारधारा पर पकड़ नहीं होने के चलते इनके आयोजन कई बार अंबेडकराइटों के लिए क्रीड़ास्थली बनकर रह जाते हैं। पिछली 9 जनवरी को सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख को लेकर हुआ इनका आयोजन इसका ज्वलंत उदाहरण है।
मान्य मार्क्सवादी प्रस्थापना यह है कि हर प्रश्न को राज्य के शोषक-उत्पीड़क और मानवद्रोही चरित्र से जोड़कर प्रस्तुत करना होता है। अपने समय में इतिहास में महापुरुषों ने जो योगदान दिया होता है, हमें उनको स्मरण करने के बहाने उसे भुनाना होता है। आज के समय के जो कार्यभार निकलते हैं हमें उसे बताना है और इसके लिए अगर हमें भगतसिंह को लेकर जनमानस की पवित्र भावना का अगर दोहन करना पड़े तो क्या हर्ज है? आखिर हम उदात्त और व्यापक उद्देश्य के लिए ही तो ऐसा कर रहे हैं। लेकिन अगर हम अपने कार्यभारों को मज़बूती से प्रस्तुत करने की बजाय भगतसिंह को लेकर लहालोट होने लगें तो हमें बुर्जुआजी को पांतों को ज्वाइन कर लेना चाहिए। स्त्री-शिक्षा का प्रश्न किस प्रकार से शोषक-उत्पीड़क राज्य के ढाँचे से जुड़ा हुआ है और आज किसी व्यक्ति के प्रयासों की इस बाबत कोई अहमियत नहीं है, यह बात स्पष्ट की जानी चाहिए थी जो कि नहीं की गई। मज़दूर राज में ही सबको समान और निःशुल्क शिक्षा मिल सकती है और हमें उसी के लिए संघर्ष करना है, यह रेखांकित होने से रह गया। इस बात को हल्के-फुलके ढंग से भी नहीं रखा जा सका।
अंबेडकर तो बुर्जुआ दायरे में रहकर सभी प्रश्नों को हल करने के हिमायती थे, हालांकि उत्कट डेमोक्रेट थे। पर बीसीएम की वैचारिकी के अनुसार सत्ता तो बरजोरी हासिल की जानी है। जब सत्ता को चुनावों के जरिए नहीं वरन ताकत के दम पर हासिल किया जाना है तो हर मौके और हर बहाने मार्क्सवाद के प्राधिकार को स्थापित करने की कोशिश क्यों नहीं की जानी चाहिए। बीसीएम से जुड़े लोग क्या यह स्पष्ट करना चाहेंगे कि 9 जनवरी को दलित-महिला प्रोफेसर प्रतिमा सोनकर को बिल्कुल शुरू में ही, जबकि श्रोता अभी एकदम तरोताजा थे और विचारों को रिसीव करने की बेहतर स्थिति में थे, डेढ़ घंटा बोलने का मौका क्यों दिया? दलित महिला प्रोफेसर ने वहाँ उस मंच का इस्तेमाल दलितों के पेटी-बुर्जुआ दर्शन (अपने फलितार्थ में अंबेडकराइट संगठनों) को वैधता प्रदान करने के लिए किया या फिर बीसीएम के लोग मार्क्सवाद के प्राधिकार को स्थापित करने में कर पाए। आखिर इस आयोजन का उद्देश्य क्या था? पैंतरेबाजी को अगर पैमाना मानें तो आपको केवल तब सफल माना जाएगा जब आप सर या मैम को मज़दूर राज के श्रेष्ठतम होने का कायल बनाते हुए उन्हें बुत की माफिक मंच पर बैठे रहने को राजी कर सकें और उनके होने का रणकौशलात्मक (टैक्टिकल) लाभ उठा सकें। लेकिन अगर वे ही जरा से फेवर के एवज में आपकी पूरी मेहनत से सजे मंच-श्रोतागण को अपने ध्येय की पूर्ति के लिए उपयोग में ला रहे हैं तो फिर आपको सोचना होगा कहीं व्यवहार में आप अंबेडकरपंथी-सुधारवादी होकर तो नहीं रह गए हैं।
अब बात को शुरू से शुरू करते हैं। जब उनका नव-जनवाद कायम हो जाएगा माने सत्ता उनकी पार्टी के पास होगी तो छेड़खानी की समस्या से कैसे निपटेंगे, यह बात भी तो बीसीएम के प्रेस नोट में आनी चाहिए थी। आज ऐसे तमाम जनपक्षधर समाचार पोर्टल हैं जो उनकी इस विषयक बातों को भी छापेंगे। लंपटई सिर्फ छात्र करते हैं या कर सकते हैं यह भी तो नॉन-डायलेक्टिकल एप्रोच है, जो आम संवेदनशील छात्रों को भी कटघरे में खड़ा करती है। एक को दो में बाँटते हुए, लंपटई के लिए उत्तरदायी सामाजिक-पारिवारिक परिवेश पर भी बात होनी चाहिए थी और यह बात भाषणों-प्रेस नोटों के जरिए की जानी चाहिए थी, जो कि नहीं की गई। मर्दवादी विचार-सामंती मूल्य हवा में हैं जिन्हें युवा रिसीव करते हैं। इस ऐतबार से कहें तो सामाजिक पिछड़ेपने को भी आलोचना का निशाना बनाना चाहिए था, पर किसी भी रूप में नहीं बनाया गया और समूची छात्र आबादी को एक तरह से कलप्रिट के रूप पेश किया गया। अगर आंदोलन को इसी तर्ज पर खड़ा किया जाता है फिर तो छात्राओं का आदर्शीकरण होगा, ठीक वैसे ही जैसे कि दलितों का किया जाता है और दलित बुर्जुआ के लंपट-लखैरे नौनिहाल इसका भरपूर फायदा उठाते हैं। नौकरी के लिए निकलने वाले फॉर्मों की कीमत में बेतहाशा वृद्धि हुई है, फीस वृद्धि का मसला तो अभी गरम है ही। बेरोजगारी की समस्या और छेड़खानी की समस्या दोनों के सिरे सत्ता-व्यवस्था के चरित्र के तंतु से जुड़ते हैं और मार्क्सवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धांत मानने वालों को यह बात समझनी और समझानी होगी। रही बाता छात्राओं के आदर्शीकरण के विरुद्ध कुछ कहने की तो यह काम स्त्रियों को ही करने देते हैं बस इस प्रसंग में फ्लर्ट करने माने यूँ ही किसी का ध्यान खींचने, उसे डिस्टर्ब करने पर गोर्की की एक कहानी के होने की बात का जिक्र कर देते है, जिसमें स्त्री-पुरुषों दोनों में ही व्याप्त इस कुप्रवृत्ति की वह तीखी आलोचना करते हैं।
छात्र-छात्राओं दोनों को मिलकर मज़दूर राज के लिए लड़ना है और ऐसे में श्रेयस्कर तो यह रहेगा कि ऐसे मुद्दों पर आंदोलन खड़ा किया जाए, उसे तेज किया जाए जो परिधि की बजाय मूल बातों पर फोकस करते हों। जी हाँ, छेड़खानी परिधि का मुद्दा है और यह भी जब तक पूँजीवादी सिस्टम है, इस या उस रूप में बनी रहेगी। इसे खत्म करना है तो मज़दूर राज लाना होगा। शासक वर्ग तो चाहता ही है कि परिधि के मुद्दों को लेकर आंदोलन खड़े होते, चलते-बढ़ते रहें और अनपेड लेबर यानि मज़दूरों के बेइंतिहा शोषण पर कोई बात ही न हो। तो हर प्रश्न को मज़दूरों की रौरवा नरक सरीखी जिंदगी और पूँजीपतियों की बढ़ती दौलत से जोड़कर प्रस्तुत करने की पूरी कोशिश होनी चाहिए वर्ना हम फ्लॉप हैं और शासक वर्ग सफल। तो बीसीएम की छात्राओं के लाठी मार्च को हम तो फ्लॉप शो के रूप में ही देख रहे हैं।

कामता प्रसाद

कार्यकारी संपादक

 

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