आखिरी मुग़ल जिसने इंक़लाब की नई इबारत लिखी

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Syed Faizan Siddiqui सैयद फैजान सिद्दीकी
*और वे कहते हैं कि मुग़ल हमारे पुरखे नहीं*
तुमने किया ना याद कभी भूल कर हमें ।
हमने तुम्हारी याद में सब कुछ भुला दिया ।।
आज मुग़ल सल्तनत के आख़िरी हुक्मरान शहंशाह ए हिन्द बादशाह मिर्ज़ा अबूज़फ़र सिराजुद्दीन मुहम्मद बहादुर शाह ज़फ़र का यौम ए वफात यानी देहांत की तिथि (7 नवंबर ) है. उनके वालिद अकबर शाह सनी और मां लालबाई थीं । हालांकि वो एक कमज़ोर हो चुकी सल्तनत के फरमारवां थे, लेकिन अवाम के दिलों में उनकी बड़ी अक़ीदत और मोहब्बत थी । बहादुर शाह ज़फ़र हिन्द के वो बादशाह हैं जिनकी ताजपोशी 2 बार हुई थी पहली लालकिले में मुग़ल वारिस की बदौलत और दूसरी हिन्दोस्तां में 1857 की क्रांति का सरदार बनाकर । बहादुर शाह ज़फ़र के बारे में जब मैंने सबसे पहली बार पढ़ा तो उनकी तस्वीर देख मैंने अंदाजा लगाया कि वे कोई साधु या फ़क़ीर रहे होंगे, क्योंकि उनके चेहरे से किसी बादशाह का रौब नहीं बल्कि एक फ़क़ीर की आजिज़ी ही झलकती है। मगर वो हिंदुस्तान के बादशाह थे। उनके लिए मेरे दिल में इस बात को लेकर इज़्ज़त है कि उन्हें अपनी अवाम से बहुत मुहब्बत थी। इस बात को लेकर दिलचस्पी है कि वे बहुत बड़े शायर थे, लेकिन इस बात को लेकर बहुत दुख भी है कि अंग्रेजों ने उन्हें बंधक बनाने के बाद रंगून (बर्मा) की जेल में डाला और उनके सामने उनके ही दो बेटों के कटे हुए सिर पेश किए । जब उनके सामने थाल लाया गया। हडसन ने तश्त पर से ग़िलाफ हटाया। कोई और होता तो शायद ग़श खा जाता या नज़र फेर लेता । लेकिन ज़फर ने ऐसा कुछ नहीं किया। थाल मे रखे जवान बेटों के कटे सिरों को इत्मीनान से देखा। हडसन से मुख़ातिब हुए और कहा…
‘वल्लाह… नस्ले ‘तैमूर’ के चश्मो चराग़ मैदाने जंग से इसी तरह सुर्ख़रू होकर अपने बाप के सामने आते हैं। हडसन तुम हार गए और हिंदुस्तान जीत गया।’
अब यहां सुर्खरू लफ्ज़ देखिए इसका शाब्दिक मतलब है लाल मुंह लेकिन ये कामयाब के लिए बोला जाता है. यानी मुग़ल शहज़ादे शहीद हुए यानी कामयाब हुए और उनका चेहरा ख़ून से सुर्ख है ।
1857 की पहली जंग ए आज़ादी में क्रांतिकारियों ने दिल्ली की और कूच किया और अंग्रेज़ों को पूरे हिन्दोस्तां से खदेड़ने के मंसूबे बनने लगे । क्रांतिकारियों ने (जिनमें हर मज़हब के लोग थे) बहादुर शाह ज़फ़र को अपना कमांडर, नेता और बादशा​ह इसरार किया था । सारे क्रांतिकारी लाल क़िले पहुंचे और बहादुर शाह ज़फ़र से लीड करने की गुज़ारिश की. 82 साल के शहंशाह ने कहा….
“न तो मैं बादशाह हूँ और ना बादशाहों की तरह तुम्हें कुछ दे सकता हूं . बादशाहत तो अर्सा हुआ मेरे घर से जा चुकी. मैं तो एक फक़ीर हूं जो अपने बच्चों को लिए तकिये* में बैठा है” (*तकिया फक़ीर के घर को कहते हैं इसीलिए बाज़ मोहल्लों के नाम तकिये पर होते हैं )
लेकिन क्रांतिकारी ज़िद पर अड़ गए और बहादुर शाह को उनकी बात माननी पड़ी लेकिन बदक़िस्मती से उनकी वो कोशिश कामयाब ना हो सकी । आसमान ने अपना रंग बदला, अंग्रेज़ों ने 14 सितंबर को कश्मीरी गेट तोड़ कर दिल्ली पर कब्ज़ा किया और बहादुर शाह ज़फ़र को गिरफ्तार कर के उन्हें इस पूरे हंगामे का ज़िम्मेदार ठहराया गया और हुमायूं के मक़बरे में उन्हें क़ैद कर लिया गया । जब ज़फ़र को कैद कर लिया गया तो अंग्रेजों ने उनकी बोहोत तौहीन की । एक अंग्रेज़ ऑफिसर बहादुर शाह ज़फ़र से मिलने आया कि देखें अकबर-औरंगज़ेब जैसे महान बादशाहों का बेटा कैसा है? उसने देखा कि एक बूढ़ी औरत चूल्हे पर कोई चीज़ बना रही है जिस से बदबू उठ रही है और एक बूढ़ा थोड़ी दूरी पर बैठा हुआ हुक्का पी रहा है.अंग्रेज़ ऑफिसर उनके पास गया और एक ज़ोरदार थप्पड़ मारा और फ़ख़्र करता हुआ निकल गया. बूढ़ा शहंशाह इसी तरह बैठा रहा । ये इनकी तौहीन के ज़रिये हिन्द के लोगों में खौफ पैदा करना चाहते थे कि देखो, हम तुम्हारे बादशाह का ये हाल कर सकते हैं तो तुम्हारी क्या बिसात है! चूंकि ज़फ़र शायर थे, इसलिए उन्हें कैद करने के बाद अंग्रेजों ने शायरी के जरिए ही उन्हें अपमानित करना चाहा। अंग्रेजों की ओर से कहा गया —
दमदमे में दम नहीं है खैर मांगो जान की ।
बस ज़फ़र बस चल चुकी अब तेग हिंदुस्तान की ।।
(दमदमी एक तोप का नाम था, जो विशाल गोला फेंकने के लिए मशहूर थी) ज़फ़र कहां सुनने वाले थे, उन्होंने फरमाया —
ग़ाज़ियों में बू रहेगी जब तलक ईमान की ।
तख़्त ए लंदन तक चलेगी तेग हिंदुस्तान की ।।
क़िस्मत कहूँ या उनके ऊपर किए हुए ज़ुल्म की इंतेहा से हडसन को उसके किए की सज़ा मिलने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा था और लखनऊ के बागी 11 मार्च, 1858 को बेगम कोठी में हुए एक मुकाबले में उसको मार गिराने में कामयाब रहे थे. लेकिन यह क़िस्मत बस वहीं ठहर गई थी. बाद में फातेह अंग्रेजों ने ज़फ़र के खिलाफ राजद्रोह व हत्याओं के आरोप लगाये और 19 सुनवाई, 21 गवाहों और 100 से ज़्यादा फ़ारसी और उर्दू के सबूतों को पेश करने के बाद 27 जनवरी से 09 मार्च, 1858 तक
मुक़दमे के 41 दिन लंबे नाटक के बाद कहा की गिरफ्तारी के समय दिए गए वचन के मुताबिक बर्मा निर्वासित करके उनकी जान बख्श दी जा रही है.
ज़फ़र बूढ़े हो चुके थे और अंग्रेजों के क़ैदी थे, लेकिन उनकी शायरी ने कभी गुलामी स्वीकार नहीं की । ब्रिटिश हुक़ूमत को इस बात का डर था कि अगर ज़फ़र को भारत की किसी जेल में क़ैद किया गया तो लोग उनके नाम पर दोबारा एकजुट हो जाएंगे । बहादुर शाह को काले पानी की सज़ा हुई. जब उन्हें रंगून ले जाया जा रहा था तो पूरी दिल्ली सड़कों पर खड़ी थी और अपने शहंशाह को आखिर विदाई दे रही थी. कोई ऐसी आँख नहीं थी जिसमें आंसू नहीं था. अकबर ए आज़म और औरंगज़ेब आलमगीर का पोता आज अपने ही बाप दादा की विरासत से बे दखल हो रहा था, 17 अक्टूबर 1858 को बाहदुर शाह ज़फर मकेंजी नाम के समुंद्री जहाज़ से रंगून पहुंचा दिए गये थे ,शाही खानदान के 35 लोग उस जहाज़ में सवार थे ,कैप्टेन नेल्सन डेविस रंगून का इंचार्ज था , उसने बादशाह और उसके लोगों को बंदरगाह पर रिसीव किया और दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी हुकूमत के बादशाह को लेकर अपने घर पहुंचा । बहादुर शाह ज़फर कैदी होने के बाद भी बादशाह थे, इसलिए नेल्सन परेशान था, उसे ये ठीक नही लग रहा था कि बादशाह को किसी जेल ख़ाने में रखा जाये । इसलिए उसने अपना गैराज खाली करवाया और वहीँ बादशाह को रखने का इंतज़ाम कराया बहादुर शाह ज़फर 17 अक्टूबर 1858 को इस गैराज में गए और 7 नवंबर 1862 को अपनी चार साल की गैराज की जिंदगी को मौत के हवाले कर के ही निकले , बहादुर शाह ज़फर ने अपनी मशहूर ग़ज़ल इसी गैराज में लिखी थी ….
लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में ।
किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में ।।
कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें ।
इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में ।।
काँटों को मत निकाल चमन से ओ बाग़बाँ ।
ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में ।।
बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला ।
क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में ।।
एक शाख गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमान,
कांटे बिछा दिए हैं दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में।
उम्र-ए-दराज़ माँग के लाये थे चार दिन ।
दो आरज़ू में कट गये दो इन्तेज़ार में ।।
दिन ज़िन्दगी ख़त्म हुए शाम हो गई ।
फैला के पांव सोएंगे कुंज-ए-मज़ार में ।।
कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ्न के लिए ।
दो गज़ ज़मीन भी ना मिली कू ए यार में ।।
बहादुर शाह के ख़ादिम अहमद बेग़ के अनुसार 26 अक्तूबर से ही उनकी तबीयत नासाज़ थी और वो मुश्किल से खाना खा पा रहे थे. दिन पर दिन उनकी तबीयत बिगड़ती गई और 2 नवंबर को हालत काफी बुरी हो गई थी. 3 नवंबर को उन्हें देखने आए डॉक्टर ने बताया कि उनके गले की हालत बेहद ख़राब है और थूक तक निगल पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा है. 6 नवंबर को डॉक्टर ने बताया कि उन्हें गले में लकवा मार गया है और वो लगातार कमज़ोर होते जा रहे हैं. 7 नवंबर को बादशाह की खादमा परेशानी के हाल में नेल्सन के दरवाज़े पर दस्तक देती है , बर्मी खादिम आने की वजह पूछता है तो खादमा बताती है बादशाह अपनी ज़िन्दगी के आखिरी साँस गिन रहा है गैराज की खिड़की खोलने की फरमाईश ले कर आई है, बर्मी ख़ादिम जवाब में कहता है, अभी साहब कुत्ते को कंघी कर रहे है, में उन्हें डिस्टर्ब नही कर सकता, ख़ादमा ज़ोर ज़ोर से रोने लगती है, आवाज़ सुन कर नेल्सन बाहर आता है, ख़ादमा की फरमाइश सुन कर वो गैराज पहुँचता है । बादशाह के आखिरी आरामगाह में बदबू फैली हुई थी ,और मौत की ख़ामोशी थी, बादशाह का आधा कम्बल ज़मीन पर और आधा बिस्तर पर, नंगा सर तकिये पर था लेकिन गर्दन लुढ़की हुई थी, आँखे बाहिर की तरफ़ निकली हुई थी, और सूखे होंटो पर मक्खियाँ भिनभिना रहीं थी । नेल्सन ने ज़िन्दगी में हज़ारो चेहरे देखे थे लेकिन इतनी बेचारगी किसी के चेहरे पर कभी नहीं देखी थी । वो बादशाह का चेहरा नही बल्कि दुनिया के सबसे बड़े भिखारी का चेहरा ज़्यादा लग रहा था और उनके चेहरे पर एक ही फ़रमाइश थी, आज़ाद साँस की । हिंदुस्तान के आख़िरी बादशाह की ज़िन्दगी ख़त्म हो चुकी थी ..कफ़न दफ़न की तय्यारी होने लगी । शहज़ादा जवान बख़्त और हाफिज़ मोहम्मद इब्राहीम देहलवी ने ग़ुस्ल दिया । बादशाह के लिए रंगून में ज़मीन नही थी तो सरकारी बंगले के पीछे दफन कर दिया की गयी और बादशाह को खैरात में मिली मिट्टी के निचे डाल दिया गया । उस्ताद हाफिज़ इब्राहीम देहलवी के आँखों को सामने 30 सितम्बर 1837 के मंज़र दौड़ने लगे, जब 62 साल की उम्र में बहादुर शाह ज़फर तख़्त नशीं हुए थे, वो वक़्त कुछ और था और ये वक़्त कुछ और था । इब्राहीम देहलवी सुरह तौबा की तिलावत करते है , नेल्सन क़बर को आख़िरी सलामी पेश करता है और इस तरह सात नवंबर 1862 को बहादुर शाह ने वफ़ात पाई और मुग़ल सल्तनत का आफताब ए इक़बाल हमेशा हमेशा के ग़ुरूब हो गया. बदनसीब बहादुर शाह ज़फर को अपने ही यार के कूचे में दो गज़ ज़मीन भी नहीं मिली । लोगों के दिल में उनके लिए कितनी इज़्ज़त है उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हिंदुस्तान में जहां कई जगह सड़कों का नाम उनके नाम पर रखा गया है, वहीं पाकिस्तान के लाहौर शहर में भी उनके नाम पर एक सड़क का नाम रखा गया है। बांग्लादेश के ओल्ड ढाका शहर स्थित विक्टोरिया पार्क का नाम बदलकर बहादुर शाह ज़फ़र पार्क कर दिया गया है। “अंग्रेज़ों ने बहादुर शाह ज़फ़र को दफ़्न कर ज़मीन को बराबर कर दिया था ताकि कोई पहचान नहीं रहे कि उनकी क़ब्र कहां है. इसलिए उनकी क़ब्र कहां है इसे लेकर यक़ीनी तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता. “बहादुर शाह ज़फ़र चाहते थे कि उन्हें दिल्ली के महरौली में दफ़्न किया जाए लेकिन उनकी आख़िरी इच्छा पूरी नहीं हो पाई थी. जब 1882 में बहादुर शाह ज़फ़र की पत्नी ज़ीनत महल की मौत हुई तब तक बहादुर शाह ज़फ़र की कब्र कहां थी, ये किसी को याद नहीं था. इसीलिए उनके शव को अंदाज़न उसी जगह एक पेड़ के क़रीब ही दफना दिया गया. “1903 में भारत से कुछ पर्यटक बहादुर शाह ज़फ़ऱ की मज़ार पर जा कर उन्हें याद करना चाहते थे. इस वक़्त तक लोग ज़ीनत महल की कब्र की जगह भी भूल चुके थे. स्थानीय गाइड्स ने एक बूढ़े पेड़ की तरफ इशारा किया था. वो लिखते हैं “1905 में मुग़ल बादशाह की कब्र की पहचान और उसे सम्मान देने के पक्ष में रंगून में मुसलमान समुदाय ने आवाज़ उठाई. इससे जुड़े प्रदर्शन कई महीने चलते रहे जिसके बाद 1907 में ब्रिटिश प्रशासन ने इस बात पर राज़ी हुआ कि उनकी कब्र पर पत्थर लगवाया जाएगा. ये तय हुआ कि इस पत्थर पर लिखा जाएगा, ‘बहादुर शाह, दिल्ली के पूर्व बादशाह, रंगून में 7 नवंबर 1862 में मौत, इस जगह के क़रीब दफ्न किए गए थे.’ बाद में उसी साल ज़ीनत महल की कब्र पर भी पत्थर लगवाया गया. 1991 में इस इलाके में एक नाले की खुदाई के दौरान ईंटों से बनी एक कब्र मिली जिसमें एक पूरा कंकाल मिला था. रंगून में बहादुरशाह ज़फ़र के मज़ार के ट्रस्टी यानी प्रबंधक कमेटी के एक सदस्य और म्यांमार इस्लामिक सेंटर के मुख्य कंवेनर अलहाज यूआई लुइन के अनुसार “जो क़ब्र मिली जिसके बारे में स्पष्ट तौर से न सही लेकिन सारे लोगों ने यह मान लिया कि बहादुरशाह ज़फ़र की असली क़ब्र यही है. इसके कई कारण हैं. वो कहते हैं, “हालांकि बहादुरशाह ज़फ़र को मुसलमानों के रीति रिवाज़ के अनुसार दफ़नाया गया लेकिन अंग्रेज़ों ने जानबूझ कर यह कोशिश की कि उनके क़ब्र का कोई निशान न रहे.” लेकिन उनका ताज आज भी लंदन के रॉयल कलेक्शन में रखा हुआ मुग़ल सल्तनत की अज़ीम दास्ताँ बयाँ कर रहा है । ज़फ़र वो बादशाह हैं जो मौत के बाद भी लोगों के दिलों पर राज करते हैं ।

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