सत्तर अस्सी के दशक में संघर्षरत् बहुत ही करीबी साथी कामरेड शशि शर्मा को याद करते हुए:-
इतनी भी क्या जल्दी थी कामरेड!
माना कि हम ने कई लड़ाइयां हारी
लेकिन लड़ ही तो रहे थे
लड़ते लड़ते फिर से खड़ा हो जाते
फिर जितने की आदत भी आ जाती
हारना हमारा अधूरा इतिहास है
उस इतिहास में हम जीते भी तो हैं
बताओ कामरेड!
दुनिया का कौन सा ऐसा अभियान रहा
जिसमें सिर्फ जीतें हासिल हुई
हारना हमारी नियति नहीं है कामरेड
जीतना हमारा भविष्य है
तुम नहीं ठहरे
उस दिन की प्रतीक्षा में
जब मुक्ति योद्धा मार्च करते
कारखाने दर कारखाने
जब बाजार की शक्तियों को
अंतिम रूप में पराजित कर देते हम
तुम तो उन स्वप्न देखने वालों में थे
जिसने रूमानियत से भरे उस क्षण को जिया था
कि पचहत्तर तक
भारत के हर खेत हर गांव में
कल कारखानों में
लाल परचम लहराने लगेगा
मैं तुम्हें विदा नहीं कहूंगा
तुम्हें हमारे साथ रहना होगा
अभी तो हमने फिर से
राख में पड़े बुझे कोयले को
चुनना शुरू ही किया है
अस्सी के दशक में हमलोग कई वर्ष तक पटना की झूंगी झोपड़ियों में मजदूरों के बीच साथ साथ काम किया था। संघर्ष से जुड़े अभिन्न साथी की मौत की सूचना अभी मिली। कितना अकेला कर देता है, पुराने दिनों में साथ रहे साथियों का जाना । एक बार फिर युवा अवस्था के, उम्मीद और उत्साह के उस दौर के दिनों की याद में डूब गया।
नरेंद्र कुमार
नरेंद्र कुमार