अपने शहर में सड़क किनारे लगातार बढ़ते स्कूल और अस्पतालों को देखते हुए ‘विशेषणों’ की बेदमी अखरती है।पहले अस्पताल या हॉस्पिटल काफ़ी हुआ करता था।धीरे धीरे ‘मल्टी स्पेशियलिटी’ और फिर अब ‘सुपर मल्टी स्पेशियलिटी’ आदि आदि हो चला है।उनमें ‘मल्टी’ या ‘सुपर मल्टी’ क्या है!फ़िलहाल यह छोड़ देना ही बेहतर!
ऐसे ही सब्ज़ियां, मसाले, दूध या अनाज वग़ैरह जैसे जैसे नकली होते चले गए, रेस्तरां और होटलों में ग्लेज़ बोर्ड्स पर बड़े बड़े, ओस धुले से स्वादिष्ट और पौष्टिक दिखने वाले उनके ताज़े चित्र दिखने लगे।
पहले अनुभूति की सघनता के कारण आई अभिव्यक्ति की कठिनाई के बावजूद मूल भाव बच जाया करता था।इधर अभिव्यक्ति में पांडित्य प्रदर्शन और कर्मकांड इस क़दर बढ़ा है कि ‘अच्छा’ और ‘बहुत अच्छा’ जैसे परिपूर्ण विशेषण सामान्य होते गए हैं।
‘अद्भुत’ जैसा गंभीर और भारी शब्द तो अर्थहीन तरीके से इस्तेमाल हो रहा है।विशेषणों का अतिरेकी उपयोग भाषा में सम्प्रेषणीयता के संकट का संकेत कर रहा है और भाषा मे बढ़ती हुई चापलूसी को उकसावा भी दे रहा है।
विशेषणों के इस दौर में एक गंभीर उद्देश्य के साथ सरल कहानी पढ़ने की इच्छा है !मसलन छोटे छोटे वाक्यों और मामूली शब्दों के साथ सरलता में जीवन समेटे हुए!!
शीर्षक ‘लक्ष्य’ फ़िल्म के गीत का मुखड़ा है।जावेद अख़्तर का लिखा गीत में भाषा और सौंदर्यबोध के कुछ सूत्र हैं।
गीत के अंत मे ‘कहन’ के घुमाव फिराव में नायक को उलझाती चतुर नायिका उस ‘कहन’ को यूँ सुलझाती है!
‘अगर मैं कहूँ तुम्हें पता नहीं है क्यों..है प्यार मुझे भी तुमसे तो क्या कहोगे !
मैं तुमसे कहूँगा मेरे दिल का है ये कहना..हम को है साथ में रहना!
ये दोनों के दिल में है ना तो फिर क्यों कहना!’

तुम्हें पता नहीं है क्यों?’ सम्प्रेषणीयता की दिक्कतों पर ज़रूरी सवाल है।
‘मैं तुमसे कहूँगा मेरे दिल का है ये कहना..हम को है साथ में रहना!’
सटीक जवाब मिलने पर अंततः लड़की कहती है-
‘ये दोनों के दिल मे है न..तो फिर क्यों कहना!
————————————
डॉ. वंदना चौबे
————————————
डॉ. वंदना चौबे