साम्राज्यवाद और तीसरी दुनिया का पूँजीपति वर्ग
भूमिका
यह आलेख समकालीन विश्व में साम्राज्यवाद की विशेषताओं के बारे में सैद्धांतिक रूपरेखा प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। इसके साथ, हम विश्व के पिछड़े (विकासशील और अविकसित) देशों के साथ साम्राज्यवाद के आर्थिक और राजनीतिक संबंधों को समझने की कोशिश करेंगे, जिन्हें आमतौर पर तीसरी दुनिया कहा जाता है (हमने इस लोकप्रिय शब्द का इस्तेमाल अस्वीकरण के साथ किया है कि इस शब्दावली में वर्तमान संदर्भ में राजनीतिक स्पष्टता और शुद्धता का अभाव है)। दूसरे विश्व-युद्ध के बाद की अवधि में, वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था कई महत्वपूर्ण परिवर्तनों से गुजरी है और इसने साम्राज्यवाद के कार्य-प्रणाली में नए महत्वपूर्ण आयाम जोड़े हैं। समकालीन साम्राज्यवाद की गतिकी की गहन समझ और भारतीय तथा विश्व समाजवादी क्रांति के बारे में उस समझ से निकलने वाले सामरिक प्रश्नों के अन्वेषण के संदर्भ में, इन विशेषताओं पर कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के गंभीर ध्यान और सार्थक चर्चा की आवश्यकता है। इस संबंध में कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों द्वारा आयोजित वर्तमान संगोष्ठी निश्चित रूप से अच्छी पहल है।
वित्तीय पूंजी और इजारेदार के उद्भव और वर्चस्व के साथ पूंजीवाद साम्राज्यवाद के चरण में पहुंच जाता है। मार्क्स के समय में, वह इसे नहीं देख सके और उनके लिए इजारेदार, वित्तीय पूंजी और साम्राज्यवाद के सिद्धांत प्रदान करना संभव नहीं था। लेकिन मार्क्स ने वित्तीय प्रणाली की उधारी से जुड़ी गतिविधियों और उसके मौद्रिक आधार के बीच किस प्रकार से वित्तीय प्रणाली का केंद्रीय अंतरविरोध मौजदू है, जो कि वास्तव में मूल्य के स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है, उसके समेत तमाम भविष्य-सूचक अंतर्दृष्टियाँ दीं। हिलफर्डिंग ने बाद में कई सीमाओं के बावजूद, वित्त पूंजी का मार्क्सवादी सिद्धांत विकसित किया। लेनिन ने वित्त पूंजी के इस सिद्धांत को विकसित किया, इजारेदार की प्रक्रिया को विस्तृत किया और भू-भागों के विभाजन की बाबत साम्राज्यवादी शक्तियों के मध्य हिंसक संघर्षों पर ध्यान केंद्रित करते हुए अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा संघर्ष के लिए महत्वपूर्ण राजनीतिक निष्कर्ष निकाले। लेकिन अपने समय में, उन्होंने अपने सिद्धांत को राष्ट्र-राज्य के स्तर पर इजारेदार और वित्तीय पूंजी पर आधारित किया और भूतपूर्व उपनिवेशों की राजनीतिक स्वतंत्रता, वैश्विक स्तर पर पूंजीवादी संचयन की प्रक्रिया, वैश्विक संस्थानों के गठन, वैश्विक उत्पादन नेटवर्कों के उद्भव और उत्पादन के प्रमुख हिस्से के तीसरी दुनिया के कई विकासशील देशों में स्थानांतरण, वित्तीयकरण की नई प्रक्रिया की ओर ले जाने वाले वित्त के अंतरराष्ट्रीयकरण आदि का पूर्वानुमान नहीं लगा सकते थे। ये रूपांतरण द्वितीय विश्व युद्ध के बाद होने लगे। वर्तमान समय में लेनिन के लिए अपने समय में जो अर्थ था उसकी तुलना में ‘वित्तीय पूंजी’, ‘सुपर-मुनाफा’ के स्रोतों, ‘पूंजी के निर्यात’ का उद्देश्य, ‘अंतर-साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्विता’ गुणात्मक रूप से भिन्न अर्थों वाली मालूम पड़ती है।
पहला अनुभाग साम्राज्यवाद की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के इस ऐतिहासिक और सैद्धांतिक परिप्रेक्ष्य से संबंधित है। हम वैश्विक पूंजीवादी संचयनन की प्रक्रिया में साम्राज्यवादी परिचालन का पता लगाने की कोशिश करते हैं। समकालीन साम्राज्यवाद की आर्थिक अभिलाक्षणिक विशिष्टता में साम्राज्यवादी देशों की पूंजी और आर्थिक रूप से अधीन देशों के श्रम के बीच पूंजी-श्रम संबंध की विशिष्ट प्रकृति शामिल है, जो तीसरी दुनिया में उत्पादन के क्षेत्र में ‘सुपर-शोषण’ के माध्यम से सुपर-मुनाफा अर्जित करना संभव बनाती है। पिछले कई दशकों में सस्ते श्रम की तलाश में उत्पादन साम्राज्यवादी देशों से तीसरी दुनिया में चला गया है। श्रम की निरंकुश व्यवस्थाओं के तहत काम के घंटे बढ़ाकर संपूर्ण बेशी मूल्य निकालने तथा अधिक विकसित प्रौद्योगिकी और कार्य के तीव्रीकरण का उपयोग करके सापेक्षिक बेशी मूल्य निकालने के अलावा, बेशी मूल्य को निकालने के तीसरे तरीके को साम्राज्यवादी पूंजी द्वारा अपने दबदबे वाली अर्थव्यवस्थाओं में सुपर-मुनाफा अर्जित करने, यानि कि श्रम-शक्ति के मूल्य के नीचे मज़दूरी की गिरावट के जरिए, के लिए पसंद किया गया है। हमने बेशी मूल्य को निकालने के इस तीसरे रूप की व्याख्या की है, जिसका उल्लेख मार्क्स ने किया है, लेकिन बेशी मूल्य को निचोड़ने के दो अन्य रूपों की तुलना में उन्होंने इस पर कम चर्चा की है। अधीन देशों की भारी आबादी को व्यथित और संकटपूर्ण दशाओं में बनाए रखकर और आर्थिक रूप से अधीन देशों में ‘परवश और विरूपित’ के रूप में पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया को चलाकर साम्राज्यवादी देशों को मूल्य हस्तांतरण के लिए इसका महत्वपूर्ण तंत्र के रूप में उपयोग किया जाता है। सुपर-मुनाफा कमाने का एक अन्य महत्वपूर्ण तंत्र उन्नत प्रौद्योगिकियों पर इजारेदार है,
जो साम्राज्यवादी देशों के निगमों द्वारा विभिन्न पेटेंट कानूनों के माध्यम से संरक्षित है। उन्नत पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं और अधीनस्थ अर्थव्यवस्थाओं में पूंजी की अवयवी संरचना के बीच अंतर को बनाए रखना भी व्यापार के माध्यम से बाद वाले से पहले वाले को मूल्य हस्तांतरण की प्रक्रिया में मदद करता है। अंत में, बाजार संचयनन के बाहर, साम्राज्यवादी पूंजी ने ‘बेदखली के द्वारा संचयनन’ के जरिए तीसरी दुनिया के देशों में प्राकृतिक संसाधनों की लूट, साझी संपत्ति के संसाधनों के अतिक्रमण, सार्वजनिक और व्यक्तिगत संपत्ति के निजीकरण की प्रक्रिया को सघन कर दिया है। जहाँ संभव होता है वहाँ इन सभी पद्धतियों का उपयोग मुनाफा की दर के गिरने के रुझान के संरचनात्मक संकट का प्रतिकार करने के लिए किया जाता है।
वित्त पूंजी का अब वही अर्थ नहीं रह गया है जो हिलफर्डिंग और लेनिन के समय में हुआ करता था, क्योंकि बैंक और औद्योगिक पूँजी का एकीकरण मुनाफा के लिए उत्पादन में निवेश किए जाने के लिए होता है। बैंक पूंजी की महत्ता अब वही नहीं रह गई है। अति-संचयनन के संकट ने वित्तीयकरण की प्रक्रिया को जन्म दिया है जहां वित्तीय पूंजी वास्तविक उत्पादन में फिर से निवेश किए बिना ही केवल वित्तीय गतिविधि के द्वारा वित्तीय क्षेत्र में भारी मुनाफा कमा सकती है। वित्तीय क्षेत्र में पूंजी का बहुत छोटा हिस्सा वास्तविक उत्पादन में मदद करता है। इसका बड़ा हिस्सा कोई मूल्य नहीं जोड़ता है, सिर्फ उत्पादन से वित्त तक, वशीभूत देशों से साम्राज्यवादी देशों के वित्तीय केंद्रों तक मूल्य को हथियाता तथा हस्तांतरित करता और इजारेदार पूंजी के हित में साम्राज्यवादी और विकसित पूंजीवादी देशों के भीतर संचयनित भी करता है। वैश्विक पूंजीपति वर्ग के बीच वित्तीय अभिजात सबसे शक्तिशाली ब्लॉक के रूप में उभरे हैं, और 2007-08 और उसके बाद का संकट उनके हितों की रक्षा करने और इतने सारे देशों के मेहनतकश लोगों के लिए विनाशकारी परिणामों के साथ वास्तविक अर्थव्यवस्था में संकट को स्थानांतरित करने की उनकी क्षमता को दर्शाता है।
दूसरे अनुभाग में, हम साम्राज्यवाद की कुछ अन्य विशेषताओं, जैसे भू-राजनीतिक, सैन्य व सांस्कृतिक, और राष्ट्र-राज्य के प्रश्न पर चर्चा करेंगे। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, अपने आर्थिक, भू-राजनीतिक, सैन्य और सांस्कृतिक दावे के साथ, अमेरिका पूंजीवादी विश्व की साम्राज्यवादी ताकतों के बीच नेता के रूप में उभरा। साम्राज्यवाद के इतिहास में पहली बार इतनी मजबूत आधिपत्य वाली ताकत का उदय हुआ। वैश्विक स्तर पर पूंजीवादी संचयनन को शुरू करने, बनाए रखने और पुन: उत्पन्न करने के लिए, वैश्विक संस्थानों का गठन किया गया। अमेरिकी साम्राज्यवाद ने हाल-फिलहाल तक समूची अवधि में रेडिकल और क्रांतिकारी संघर्षों, गैर-अनुरूप सत्ताओं और फिर ‘समाजवादी देशों’ को दबाने के लिए कम तीव्रता वाले संघर्षों, युद्धों, तख्तापलटों, नरसंहारों, व्यापार प्रतिबंध आदि का नेतृत्व किया और गुप्त रूप से आयोजित करवाया। लेकिन, उन्नत पूंजीवादी देशों के मध्य अंतर-साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्विता उल्लेखनीय रूप से दबी हुई थी। इसकी बजाय, विशेषरूप से सोवियत संघ के जमाने में अमेरिकी वर्चस्व में आई सापेक्षिक कमी के उपरांत उसके विघटन के कुछ समय बाद आर्थिक प्रतिस्पर्धा (इजारेदार पूंजी द्वारा सीमित/रूपांतरित) और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा/संघर्ष प्रमुख रुझान बन गए, जो कि पिछले कुछ दशकों में तीव्र हो गए। अमेरिकी वर्चस्व के विरोध में कुछ समकालीन भू-राजनीतिक संरचनाओं पर चर्चा की गई है।
इस अनुभाग में हम तीसरी दुनिया के देशों के पूंजीवादी विकास के सवाल पर भी चर्चा करेंगे, जो राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हैं लेकिन आर्थिक रूप से साम्राज्यवाद के अधीन हैं। कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के कई समूहों के बीच तर्क है कि ऐसे देश का पूंजीवादी रूपांतरण तब तक असंभव है जब तक कि वह लोकतांत्रिक क्रांति के माध्यम से साम्राज्यवाद के साथ अपने संबंधों को पूरी तरह से तोड़ नहीं देता। इसके विपरीत, हम तर्क देते हैं कि साम्राज्यवाद का कोई निश्चित हित नहीं है कि उसे पूर्व-पूंजीवादी संबंधों को बनाए रखना है। बल्कि, ‘प्रभुत्वपूर्ण और विकृत’ पूंजीवादी विकास के जरिए, वह रूपांतरण क्रांति के बिना बहुत अच्छी तरह से हो सकता है। तीसरी दुनिया के कुछ देशों के पूँजीवादी विकास के प्रमाणों की चर्चा की गई है। इस प्रक्रिया ने भारत समेत उन कई देशों में मजबूत लेकिन ‘निर्भर’ पूंजीपति वर्ग को विकसित करने में भी मदद की है।
(भारत में पूंजीवादी विकास की प्रक्रिया और भारतीय पूंजीपति वर्ग के चरित्र पर एक लेख सेमिनार के पहले अलग से रखा जाएगा। इसलिए, इस आ लेख में भारत पर चर्चा को छोड़ दिया गया है)
तीसरे खंड में, हम रणनीति के प्रश्न पर चर्चा करते हैं। हमें मानते हैं कि अपने पहले के अर्थ में तीसरी दुनिया के देशों की राष्ट्रीय मुक्ति का कार्य अधीन देशों की राजनीतिक स्वतंत्रता के संदर्भ में मुख्य रूप में समाप्त हो गया है। साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष के वर्तमान चरण में, नव-उदारवादी और वित्तीयकृत पूंजीवादी नेटवर्क के साम्राज्यवादी परिचालन के साथ असमान और अधीनता वाले संबंध से आर्थिक और राजनीतिक प्रकृति के अलगाव का कार्य बना हुआ है। फिर से, ‘तीसरी दुनिया’ काफी विषम-जातीय अस्तित्व है।
पूंजीवादी विकास, सामाजिक कल्याण और राजनीतिक स्वतंत्रता का अलग-अलग स्तर इसकी विषम-जातीयता को चिह्नित करता है। फिर भी, जिन देशों ने वास्तविक अर्थों में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की है, उनकी राजसत्ता में पूंजीपति वर्ग है, और उन्हें पूंजीपति वर्ग के खिलाफ लक्षित समाजवादी क्रांति के कार्य को पूरा करने की आवश्यकता है। समसामयिक वैश्विक पूँजीवाद में बढ़ते पारस्परिक जुड़ाव ने ऐसी किसी भी क्रांति के अंतरराष्ट्रीय चरित्र में वृद्धि की है। साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के कार्य को पूरा करने में राजनीतिक रूप से जागरूक वर्ग संघर्षों और उनके अगुआ दस्ते की भूमिका निर्णायक मनोगत ताकत है (जैसे-जैसे यह पूंजीवाद-विरोधी संघर्ष के करीब आता है), अपने पूंजीपति वर्ग (जो साम्राज्यवादी पूंजी पर निर्भर हो सकता है) के खिलाफ निर्देशित देश विशेष में क्रांति करे और विश्व समाजवादी क्रांति के जरिए किसी भी प्रकार की साम्राज्यवादी अधीनता को समाप्त करने का कार्य पूरा करे। और, जैसी कि हमने चर्चा की है, रेडिकल सामाजिक सुधारों और जन संघर्षों, समाज के गहन लोकतांत्रीकरण, प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ संघर्ष के कार्य और पर्यावरण का प्रश्न, टिकाऊ कृषि, वित्त पूँजी के हित के बरअक्स राष्ट्रीय संप्रभुता का प्रश्न आदि आज साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के एजेंडे में आते हैं। सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावाद की प्रतिबद्धता और मेहनतकश जनता की व्यापक क्षेत्रीय एकजुटता से जुड़ी ‘प्रगतिशील राष्ट्रवाद’ की अभिव्यक्ति समकालीन साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष का ठोस कार्य है। अंततः, विश्व समाजवादी क्रांति का सिद्धिकरण, जिसका पथ (Trajectory) अभी निश्चित नहीं है, साम्राज्यवाद के प्रश्न का समाधान करता है।
अनुभाग ए: साम्राज्यवाद की राजनीतिक अर्थव्यवस्था: कतिपय परिप्रक्ष्य
I. इजारेदार पूंजी: साम्राज्यवाद के पथ में इसकी उत्पत्ति और विकास
उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के दौरान, सबसे उन्नत पूंजीवादी देशों की पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली इजारेदार चरण में पहुंच गई। पूंजी के संचयनन में अंतर्निहित विशेषता, पूंजी के संकेंद्रण और केंद्रीकरण की प्रक्रिया पूंजीवाद के इतिहास में गुणात्मक रूप से नई परिघटना के रूप में इजारेदार चरण के क्रमिक विकास की ओर ले जाती है। यह साम्राज्यवाद की राजनीतिक अर्थव्यवस्था की परिभाषित विशेषता है। मुक्त प्रतिस्पर्धा की बजाय विभिन्न आयामों में पूंजी का इजारेदार और अर्थव्यवस्था के विभिन्न पहलुओं पर इसका प्रभाव मानक बन गया। .
चरण के रूप में इजारेदार के विकास की रेखा के साथ, साम्राज्यवाद के काल में वित्तीय पूंजी का उद्भव एक और आयामीय परिघटना है। मार्क्सवादी दृष्टिकोण से, वित्त पूंजी के सृजन के संबंध में अध्ययन पहली बार हिलफर्डिंग द्वारा वर्ष 1910 में अपनी पुस्तक, फाइनेंस कैपिटल में प्रस्तुत किया गया था। इस पुस्तक में मुख्य प्रस्थापना यह है कि पूंजीवाद के क्रमिक-विकास ने कार्ल मार्क्स द्वारा वर्णित विशेषताओं को पार कर लिया था; वित्तीय पूंजी के गठन के साथ बैंक पूंजी ने औद्योगिक पूंजी पर पूर्ण वर्चस्व स्थापित कर लिया था। अपने लेखन में, हिल्फ़र्डिंग ने निष्कर्ष निकाला कि इजारेदार चरण में औद्योगिक पूंजी ने अपना स्वतंत्र महत्व खो दिया था। इसे बैंक पूंजी के साथ जोड़ना होता है, उस युग में बैंक पूंजी का प्रमुख स्थान होता है। उन्होंने विशेष रूप से जर्मन ट्रस्टों, बैंकों और अन्य आर्थिक संस्थानों द्वारा निभाई गई भूमिकाओं की व्याख्या करके इस सैद्धांतिक समझ को प्रस्तुत किया था। हिलफर्डिंग के कहने का तात्पर्य यह था कि उद्योग में प्रयुक्त पूँजी का बढ़ता भाग उद्योगपतियों का नहीं था। यह बैंक पूंजी से आया था। बैंकों ने लोगों के सभी संभावित तबकों के स्वामित्व वाले धन को रखा। नतीजतन, यह उद्योग में प्रवाहित करने के लिए बड़ी मात्रा में धन ला सकता है। हिलफर्डिंग ने इसे बैंक पूंजी कहा, पूंजी का धन रूप जो वित्त पूँजी के रूप में औद्योगिक पूंजी में परिवर्तित हो रहा है। उनके अनुसार, उद्योग में उपयोग किया जा रहा पूंजी का बढ़ता हिस्सा वित्तीय पूंजी था। वित्तीय पूंजी संयुक्त स्टॉक कंपनियों के विकास के साथ विकसित हुई, जो इजारेदारीकरण के जरिए अपनी सर्वाधिक ऊंचाई पर पहुँचा। और इस प्रक्रिया के साथ वही व्यक्ति उस कल्पित पूंजी के मालिक बन गए जो बैंकों पर हावी थी और वही औद्योगिक पूंजी के मालिक बन गए। हिफर्डिंग ने कहा कि इसका मतलब यह नहीं था कि बड़े उद्योगपति बैंकों के निदेशकों पर निर्भर थे। बल्कि, चूँकि पूंजी अपने उच्चतम स्तर पर वित्त पूंजी में रूपांतरित होती है, magnates of capital वित्त पूंजीपति बन जाते हैं।
लेनिन ने वित्त पूंजी के इस सिद्धांत को विकसित किया। वर्ष 1916 में उन्होंने, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था लिखी काउत्सकी, बुखारिन और रोज़ा लक्ज़मबर्ग जैसे समकालीन लेखकों ने उस युग में पूंजीवादी संचयनन के अपने विचार के आधार पर साम्राज्यवाद पर अपने अलग-अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किए।
. लेनिन के अनुसार, हिलफर्डिंग की वित्त पूंजी की परिभाषा अधूरी थी, क्योंकि अपने लेखन में उन्होंने तीव्र केंद्रीयकरण और पूंजी के संकेंद्रण के परिणामस्वरूप ‘इजारेदार’ के उद्भव को शामिल नहीं किया था। हिलफर्डिंग के योगदान को स्वीकार करते हुए लेनिन ने उनके राजनीतिक विचार का विरोध किया। इसके अलावा, लेनिन ने साम्राज्यवादियों और वित्त पूँजी के द्वारा विश्व के बँटवारे के बीच अंतर-संबंध की पहचान नहीं करने को गंभीर गलती माना। उन्होंने हिलफर्डिंग के ‘पैसा’ के विचार को गलत समझे हुए विचार के रूप में चिह्नित किया। हिलफर्डिंग ने लिखा है कि पूंजीवादी व्यवस्था संकट में पड़ने पर अपने ‘मौद्रिक आधार’ पर वापस आ जाती है। यह विचार कार्ल मार्क्स के सिद्धांतीकरण से आया है। लेकिन मार्क्स ने वित्तीय प्रणाली की उधारी से जुड़ी गतिविधियों और उसके मौद्रिक आधार के बीच किस प्रकार से वित्तीय प्रणाली का केंद्रीय अंतरविरोध मौजदू है, जो कि वास्तव में मूल्य के स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। मार्क्स के सिद्धांत में, उनके समय के स्वर्ण मानक के संबंध में सूत्रबद्ध अपने मौद्रिक आधार की ओर लौट रहे पूँजीवाद को संकट काल के दौरान अपने मूल्य पर लौट रही संपदा के रूप में प्रस्तुत किया।
हिलफर्डिंग यह समझने में विफल रहे कि वित्तीय पूंजी के विकास के उन्नत चरण में इस प्रकार की परिघटना संभव नहीं है। लेनिन शायद उसी ओर इशारा करना चाहते थे। इसके अलावा, वित्त पूंजी को परिभाषित करने के लिए, हिलफर्डिंग ने बैंक पूंजी को अत्यधिक महत्व दिया, जो ऐतिहासिक परिघटना थी, सामान्य नहीं। आज का कार्यभार वित्तीय पूंजी की नई/सामान्य परिभाषा तैयार करना है।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में, एकाधिपत्य और वित्तीय पूंजी ने विश्व को विकसित पूंजीवादी देशों में विभाजित करने वाली साम्राज्यवाद की राजनीति की पूर्वसूचना दी – यह उत्पादन और पूंजी के विश्वव्यापी केंद्रीकरण का नया चरण था। एकाधिपत्य संयोजनों, कार्टेलों, सिंडिकेटों और ट्रस्टों ने अपने राष्ट्रीय बाजारों को आपस में बांट लिया; यह राष्ट्रीय बाजार फिर से विदेशी बाजार से बंधा रहा। चूँकि पूंजी का निर्यात बढ़ा, इसलिए पूँजीपतियों के अंतरराष्ट्रीय गंठजोड़ों के विकास के साथ बड़े इजारेदार संयोजनों और उनके प्रभाव वाले क्षेत्रों के विदेशी और औपनिवेशिक संबंधों में भी वृद्धि हुई। ये गंठजोड़ विश्व को आपस में बांटना चाहते थे। दुनिया के आर्थिक विभाजनों और उसी के अनुसार क्षेत्रीय विभाजनों के चलते उपनिवेशों और क्षेत्रीय वर्चस्व के लिए संघर्ष के साथ-साथ पूँजीवादी कांगलोमेरोटों (कंपनी समूहों) के मध्य विभिन्न प्रकार के राजनीतिक संबंधों ने उभरना शुरू किया। बड़े पूंजीवादी देशों ने विश्व को क्षेत्रीय रूप से आपस में बांट लिया था और उपनिवेश और अर्ध-उपनिवेश बना लिए थे। चूँकि उपनिवेशों और अर्ध-उपनिवेशों ने उत्तरोत्तर साम्राज्यवादी शक्तियों की अधीनता स्वीकार की इसलिए साम्राज्यवादियों ने अपनी लूट और शोषण में वृद्धि की।
बीसवीं शताब्दी के समूचे पूर्वार्द्ध के दौरान, उत्पीड़ित देशों को पूंजी निर्यात करके अपने संकट से पार पाने का इजारेदार पूंजी का प्रयास बहुत सफल नहीं रहा। दो विश्व युद्धों सहित उनके भीतर के युद्ध समस्या को हल करने में विफल रहे। लेकिन अगर इजारेदार पूंजी को बचे रहना है, तो विभिन्न राष्ट्र-राज्यों में स्थित इजारेदार पूंजीपतियों के बीच संघर्ष और युद्ध चलते ही रहना चाहिए। जैसा कि अपनी पारस्परिक नफरत से ऊपर उठ चुकीं राष्ट्र-राज्य के भीतर की विभिन्न राजधानियों के मामले में हुआ और संचयन की प्रक्रिया को जारी रखने के लिए आपसी आकर्षण का सहारा लेना पड़ा, वैसे ही अपनी राष्ट्रीय सीमाओं को पार कर चुकीं विभिन्न राजधानियों को संचयन की प्रक्रिया को बनाए रखने के लिए अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर जरूरी होने पर एक दूसरे के साथ विलय करना पड़ा था। लेकिन राष्ट्र-राज्य के भीतर पूँजी के संकेंद्रण और विभिन्न राष्ट्र-राज्यों से संबंधित पूँजी के संकेंद्रण के बीच विशाल –बहुत ज़्यादा विशाल– अंतर है। यह दूसरों के ऊपर अपनी पृथक सत्ता, विशिष्टता और प्रभुत्व बनाए रखने के आदी हो चुके राष्ट्र-राज्यों के दृष्टिकोण में आकस्मिक पूर्ण परिवर्तन का द्योतक है। वे वैश्विक स्तर पर पूंजी के संचयन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए इस नई भूमिका में प्रकट होने के लिए विवश हैं।
मौजूदा इजारेदार-प्राप्त व्यवस्था बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में अपने साथ पहले की इजारेदार-प्राप्त प्रणाली से भिन्न विशिष्ट अभिलाक्षणिक व्यवस्था ले आई। यानि कि न केवल विकसित राष्ट्रों के भीतर बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अंतरराष्ट्रीय निगमों के माध्यम से बहुत से विकासशील राष्ट्रों के जरिए भी सचमुच वैश्विक पैमाने और प्रकृति के पूँजी का केंद्रीकरण और उत्पादन गतिविधि का केंद्रीकरण हुआ। बड़े इजारेदार पूंजीपतियों ने स्वतंत्र रूप से और विदेशी इजारेदारों के सहयोग से, तीसरी दुनिया में बड़े कारखाने स्थापित किए हैं, असंख्य विकासशील राष्ट्रों में (तुलनात्मक रूप से) छोटे पूंजीपतियों के साथ प्रौद्योगिकीय सहयोग किया है। इसके अलावा, इजारेदार पूंजी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए, असंख्य छोटे कारखाने वैश्विक पूंजी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए मशीनरी के असंख्य पुर्जों का उत्पादन कर रहे हैं। प्रारंभ में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, कुछ अवधि के लिए फोर्डिज्म की तूती बोलती रही।
. लेकिन एक समय के बाद यह ढह गया। उत्पादन की मौजूदा व्यवस्था के तहत, उत्पादन ‘पूरी दुनिया में’ हो रहा है। और इस प्रक्रिया में, बहुत से छोटे पूंजीपति स्वतंत्र दिखाई दिए, लेकिन वे अंतत: अंतरराष्ट्रीय उत्पादन की श्रृंखला में बड़े इजारेदार पूंजीपतियों द्वारा नियंत्रित थे।
बिल्कुल शुरू से ही, इजारेदार पूँजी का यह अर्थ नहीं है कि प्रतिस्पर्धा बिल्कुल है ही नहीं। जैसे ही प्रतिस्पर्धा समाप्त होने को आती है, पूंजीवादी बाजारों समेत पूंजीवादी व्यवस्था के सभी महत्वपूर्ण स्तम्भों का ढहना तय हो जाता है। तथ्य यह है कि इजारेदार ‘प्रतियोगिता’ को जीवित रखता है, लेकिन इस काम को इसे गुणात्मक रूप से रूपांतरित करके किया जाता है। इसके अलावा, राष्ट्र राज्य के भीतर इजारेदार और प्रतिस्पर्धा के बीच का संबंध वैश्विक स्तर पर मौजूद अंतर-संबंध से बहुत अलग होता है। इजारेदार पूंजी के क्रमिक-विकास में प्रतिस्पर्धा के स्वरूप और उसका चरित्र विभिन्न अवधियों से गुजरते हैं और प्रत्येक चरण में उनमें विविध प्रकार के परिवर्तन होते हैं। स्पेक्ट्रम को ‘इजारेदार पूंजी के युग की प्रतियोगिता’ या ‘इजारेदार पूंजी द्वारा रूपांतरित प्रतियोगिता’ कहा जा सकता है। ‘इजारेदार पूंजी के दौर में होड़’ और ‘मुक्त होड़’ में क्या अंतर है और समकालीन साम्राज्यवाद को समझने के लिए और किस प्रकार से इसकी कार्रवाई समसामयिक साम्राज्यवाद को समझने के लिए बहुत ही गंभीर नुक्ता बन गई है।
लेनिन ने उत्पादन प्रक्रिया के रूप में इजारेदार पूंजीवाद की विशिष्ट खासियतों का विस्तार से वर्णन नहीं किया। साम्राज्यवाद के सिद्धांत के संबंध में लेनिन का सबसे बड़ा योगदान यह है कि वे अपने समय की मूलभूत विशेषताओं को स्थापित कर सके। लेनिन के अनुसार इजारेदार पूंजी के युग में विकसित देश ‘अविकसित’ और ‘विकासशील’ देशों का शोषण करके ही अपनी अर्थव्यवस्था को कायम रख सकते हैं। लेनिन का समय इजारेदार पूंजीवाद के उदय की शुरुआत का काल था। सौ साल पहले लेनिन के लिए संचयन की जो वैश्विक प्रक्रिया आज प्रकट हुई है उसका वर्णन करना संभव नहीं था। लेनिन का साम्राज्यवाद का सिद्धांत उन्नत पूंजीवादी देशों के बीच क्षेत्रों के विभाजन को लेकर हिंसक संघर्षों और अंतरविरोधों से कहीं अधिक जुड़ा हुआ था। साथ ही उन्होंने उस समय के अंतरराष्ट्रीय सर्वहारा वर्ग के कार्यभारों को निर्धारित किया। तभी तो लेनिन द्वारा उल्लिखित सुपर मुनाफा की प्रक्रिया पूंजीवाद के वर्तमान परिचालन में बहुत बदल गई है।
II. साम्राज्यवाद के भीतर मुनाफा और सुपर-मुनाफा की गतिकी
द्वितीय विश्व युद्ध से पहले की अवधि का एकाधिपत्य मूलतः विभिन्न राष्ट्र-राज्यों के भीतर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के भीतर एकाधिपत्य था। साम्राज्यवादी देशों के भीतर एकाधिपत्य के चलते तेज हुए सशस्त्र संघर्ष के कारण दो विश्व युद्ध हुए। साम्राज्यवादी देशों के बीच संघर्ष कच्चे माल के स्रोतों पर नियंत्रण स्थापित करने और अल्प विकसित देशों के पास जो भी सीमित बाज़ार थे, उन तक पहुँचने हेतु, अपने स्वयं के मालों को बेचने के लिए था। इस संघर्ष ने सशस्त्र युद्ध का रूप ले लिया। प्रतियोगिता के इस रूप ने अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में उच्च स्तर के संचयन (संकेंद्रण और केंद्रीकरण) को नियंत्रित दिया। साम्राज्यवाद के प्रारंभिक काल में आवश्यक संस्थागत मानदंडों (नियमों और विनियमों), सहयोग और सुरक्षा के विकास के बिना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एकाधिपत्य प्रभावी ढंग से शुरू नहीं हो सका। यह विश्व युद्ध के बाद की अवधि में संभव हुआ। ‘नवउदारवाद’ इस प्रक्रिया का अंतिम विकसित रूप है। सच्चे अर्थों में, ढेर सारे स्थिर नियमों और विनियमों के एक समूह के साथ एक विश्व पूंजीवादी व्यवस्था चलन में आई। तीव्र विश्व स्तरीय प्रतियोगिता (जो साम्राज्यवादी देशों के बीच सशस्त्र युद्ध के बिना संभव हो सकती है) जारी है और इसके परिणामस्वरूप तेजी से विश्व स्तर का एकाधिपत्य हो रहा है। साम्राज्यवादी देशों और यहां तक कि विकासशील देशों की पूंजी का और त्वरित एकीकरण हो रहा है। आज की विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का नेतृत्व साम्राज्यवादी राष्ट्र-राज्य कर रहे हैं। विश्व पूंजीवाद की पूरी गतिकी में साम्राज्यवादी देशों की निश्चित रूप से मज़बूत स्थिति है, लेकिन वे वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था की हर प्रक्रिया को पूरी तरह से नियंत्रित नहीं कर सकते हैं। एकाधिपत्य की इस प्रक्रिया में, ‘वित्त’ गुणात्मक और मात्रात्मक परिवर्तन के साथ प्रकट हुआ, जिसके लिए विशेष अध्ययन की आवश्यकता है। तर्कसंगत ढंग से, कुछ लोग आज के साम्राज्यवाद की पहचान इजारेदार पूंजीवाद के बजाय इजारेदार-वित्त पूंजीवाद के रूप में करते हैं।
अब तक के पूंजी निर्यात के तीन मुख्य रूप रहे हैं- एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश), पोर्टफोलियो निवेश और विदेशी ऋण। इजारेदार पूंजी के क्रमिक-विकास की प्रक्रिया की तुलना में पिछड़े देशों से सस्ते श्रम और कच्चे माल को प्राप्त करने के लिए, बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने उत्पादन और वितरण प्रक्रियाओं के लिए अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क विकसित किया है, जो विभिन्न देशों में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश की जगह ले रहा है (मुख्य रूप से 80 के दशक के बाद की अवधि में)।
. इसने मुनाफा अर्जित करने को ‘बराबरी के आधार पर आउटसोर्सिंग’ को उल्लेखनीय माध्यम बना दिया है। कोई कह सकता है कि यह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। एक मत यह रहा है कि अब ‘पूंजी के निर्यात’ का अर्थ राष्ट्रीय उत्पीड़न की शर्तों के तहत पूंजी-श्रम संबंध के निर्यात के रूप में उत्तरी पूंजी और दक्षिणी श्रम के बीच एक नए प्रकार का पूंजी-श्रम संबंध है। इसका अर्थ यह है कि अपने सुपर-मुनाफा को अर्जित कर रही आज की इजारेदार पूँजी की व्याख्या करने के लिए इजारेदार पूंजी और ‘पूंजी के निर्यात’ के हितों की बेहतर समझ की आवश्यकता है।
समकालीन साम्राज्यवाद के विश्लेषण का एक महत्वपूर्ण पहलू देशों के बीच शोषण की असमान दर की प्रणाली का अध्ययन करना है। पिछले तीन दशकों में, साम्राज्यवादी देशों के उद्देश्य के लिए उत्पादन सस्ते श्रम की तलाश में मुख्यतः तीसरी दुनिया के देशों में स्थानांतरित हो गया है। लेकिन इस सस्ते श्रम का क्या अर्थ है? तीसरी दुनिया के कई देशों में पिछले तीन दशकों में कपड़ा और टेक्सटाइल जैसे कई क्षेत्रों ने व्यावहारिक रूप से सरकार द्वारा स्वीकृत प्रति दिन 12 घंटे के कार्य दिवस को बढ़ाकर 14 से 18 घंटे कर कर दिया है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक कार्य दिवस को बढ़ाकर अति संपूर्ण बेशी मूल्य निचोड़ा जा रहा है। कई अन्य क्षेत्रों में अधिक विकसित प्रौद्योगिकियों का उपयोग करके सापेक्ष बेशी मूल्य निचोड़ा जा रहा है। लेकिन इन दोनों विधियों से भिन्न बेशी मूल्य निचोड़ने का तीसरा तरीका आजकल अधिक पसंदीदा बन गया है। साम्राज्यवादी वर्चस्व वाली अर्थव्यवस्थाओं द्वारा सुपर-मुनाफा कमाने के मुख्य साधन के रूप में इसका इस्तेमाल किया जा रहा है। इस काम को ‘श्रम-शक्ति के मूल्य से नीचे मजदूरी की गिरावट’ के माध्यम से किया जाता है। मार्क्स के लेखन में मूल्य मूल्य बढ़ाने के पहले दो तरीकों पर अधिक व्यापक रूप से चर्चा की गई है। हालांकि उन्होंने ‘श्रम-शक्ति के मूल्य के नीचे मजदूरी की गिरावट’ का कई बार उल्लेख किया है, जो कि बेशी मूल्य को बढ़ाने के एक तरीके के रूप में है, यह मार्क्स के समय में पूंजीवाद की मुख्य विशेषता के रूप में प्रकट नहीं हुआ था। तथापि, संपूर्ण और सापेक्षिक बेशी के साथ-साथ इस तीसरे तरीके को अधीन अर्थव्यवस्थाओं से बेशी मूल्य निचोड़ने के लिए अत्यंत महत्व के साथ अपनाया गया है।
शोषण के इस रूप को सुपर-शोषण कहा जाता है। साम्राज्यवाद के अर्थशास्त्र को समझने के लिए सैद्धान्तिक ढाँचे में ‘मजदूरी को उसके मूल्य से कम करके’ बेशी मूल्य को बढ़ाने का यह तीसरा रूप सामने आया है। यह कहना गलत नहीं होगा कि ‘सुपर-शोषण पूंजीवादी व्यवस्था के श्रम के शोषण का विशेष रूप है’ और ‘साम्राज्यवाद को परिभाषित करने वाला छिपा हुआ आम सारतत्व’ है। तीसरी दुनिया के मजदूर वर्ग को बहुत कम वेतन मिलता है, इसलिए नहीं कि वे कम ‘मूल्य’ जोड़ते हैं, बल्कि इसलिए कि वे अधीन अर्थव्यवस्था में श्रमिक हैं, क्योंकि वे कहीं अधिक शोषित हैं, क्योंकि वे सुपर-शोषण के शिकार हैं। वे मुख्य रूप से संगठित उद्योगों के असंगठित श्रमिक (स्थायी नहीं) हैं। इन देशों में न्यूनतम मजदूरी कम होने के चलते संगठित उद्योग के संगठित मज़दूरों का बड़ा हिस्सा भी सुपर-शोषण का शिकार है।
तथापि, सुपर-शोषण की इस विशेष प्रक्रिया के साथ-साथ (बेशी मूल्य को निचोड़ने के तथाकथित तीसरे रूप के जरिए) संचयन की अन्य प्रक्रियाएँ भी साम्राज्यवाद की गतिकी में क्रियाशील बनी रहती हैं। बेदखली द्वारा संचयनन, जिसके जरिए गैर-पूंजीवादी सामाजिक संबंध या खाली जगहें पूंजीवादी संचयन के दायरे में आ गई हैं, इस प्रकार की एक महत्वपूर्ण परिघटना है। यह सभी विकसित, विकासशील और अल्प-विकसित देशों में हो रहा है। भूमि, वन, जल और खनन संसाधनों सहित प्राकृतिक संसाधनों की लूट पूरी दुनिया में, विशेष रूप से विकासशील और अल्प-विकसित देशों में बेदखली द्वारा संचयन का एक महत्वपूर्ण तंत्र बन गया है। इंटरनेट और सोशल मीडिया के आगमन से हमारा दैनिक संचार भी संचयन की प्रक्रिया के अंतर्गत आ गया है। इन मध्यस्थ पारस्परिक-प्रभावों से निकलने वाला बड़ी मात्रा में डेटा पूंजी के लिए नई वस्तु बन गया है। विभिन्न क्षेत्रों में नए प्रौद्योगिकीय नवोन्मेष पूंजीवाद के लिए विशेष रूप से विकासशील और अल्प-विकसित देशों से बेशी निचोड़ने के लिए महत्वपूर्ण गुंजाइश पैदा करते हैं। विकासशील और अल्प-विकसित राष्ट्रों के कृषि क्षेत्र में हरित क्रांति ने विकसित देशों में विभिन्न इजारेदार पूंजीपतियों को कृषि के क्षेत्र से भारी बेशी-मूल्य निचोड़ने में मदद की है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता के विकास के साथ स्वचालन का नया चरण निश्चित रूप से पूंजीवाद को श्रम पर अपना नियंत्रण बढ़ाकर बेशी मूल्य सृजित करने की लाइन में जोड़ने में मदद करेगा।
हम सभी कार्ल मार्क्स के सिद्धांतीकरण से परिचित हैं कि पूंजी की आवयविक संरचना में वृद्धि के साथ पूंजी के मुनाफा की दर में गिरावट की प्रवृत्ति होती है। इस प्रवृत्ति की प्रतिपूर्ति पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर कई प्रतिकारी प्रवृत्तियों द्वारा की जाती है। लंबे समय तक इस प्रवृत्ति का अस्तित्व (और प्रतिकारी प्रवृत्तियों द्वारा प्रतिपूर्ति दिए जाने के बाद भी) पूंजीवादी व्यवस्था में स्थायी संकट को जन्म देने में महत्वपूर्ण सहायक भूमिका निभा सकता है। मार्क्स ने एकल आदर्श पूंजीवादी बाजार के विचार को ध्यान में रखते हुए ‘मुक्त’ प्रतियोगिता के युग में प्रतिकारी प्रवृत्तियों पर विचार किया। हमारी चर्चा इस बात पर है कि किस प्रकार आधुनिक साम्राज्यवाद की प्रतिकारी प्रवृत्तियाँ पूंजी के मुनाफ़े की दर में गिरावट की प्रवृत्ति को रोकने में प्रभावी रही हैं।
नई प्रौद्योगीकि को अपनाकर और इस प्रकार श्रम की उत्पादकता बढ़ाकर, इजारेदार पूंजी का एक हिस्सा औसत से अधिक मुनाफा प्राप्त कर सकता है। लेकिन, जैसे ही वह प्रौद्योगिकीय नवोन्मेष प्रतिस्पर्धी पूंजीपतियों के हाथ में आता है, वह सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम के समय में परिवर्तन को प्रभावित करता है। श्रम शक्ति का मूल्य और उत्पादित उत्पादों का मूल्य दोनों घटेगा। अतिरिक्त मुनाफा अब और नहीं मिल सकता है। यह नियम उतना ही वैध है जितना यह कि प्रतियोगिता मुक्त है। प्रतिस्पर्धा पर पाबंदी के अनुपात में इजारेदार पूँजीपतियों को ‘अति मुनाफ़ा’ मिलता रहेगा। प्रश्न यह है कि साम्राज्यवाद के दौर में मुनाफ़े की गिरावट को रोकने के लिए कैसे और कौन-से विरोधी प्रतिकारों का इस्तेमाल किया जा रहा है। साम्राज्यवाद अपने आधिपत्य (अधीन अर्थव्यवस्थाओं) वाली अर्थव्यवस्थाओं के साथ अपने आर्थिक संबंधों के माध्यम से सुपर-मुनाफा निचोड़ रहा है। ये देश राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हो सकते हैं; इन देशों की राजनीतिक सत्ता उस देश के पूंजीपति वर्ग के हाथों में हो सकती है। साम्राज्यवाद ऐसे कई देशों के साथ ऐसा आर्थिक संबंध स्थापित कर सकता है, जिन्हें ‘अधीनता के शिकार’ के रूप में नहीं जाना जाता है, लेकिन जो प्रौद्योगिकीय, पूंजीवादी, सैन्यवादी, भू-राजनीतिक कठिनाइयों (या इन कई कारकों का एक साथ कोई भी संयोजन) में पड़ने के कारण अतिरिक्त मुनाफा प्रदान करते हुए, साम्राज्यवाद के साथ आर्थिक संबंधों में शामिल होने के लिए मजबूर हो गए, या आज की राजनीतिक और आर्थिक दशाओं में सुविधाजनक मार्ग के रूप में ऐसा करने का विकल्प चुना है।
साम्राज्यवादी देशों के अति-आधुनिक प्रौद्योगिकीय कारखाने जबर्दस्त मुनाफा दर्शाते हैं और अक्सर इसे ‘बहुत महंगे/उच्च-प्रौद्योगिकीय खेल’ के हिस्से के रूप में देखा जाता है। इसके पीछे असली रहस्य ‘प्रतियोगिता’ है जो इन क्षेत्रों में दो प्रकार के अतिरिक्त मूल्य प्रदान करती है: 1) पूंजी की कमतर अवयवी संरचना वाले कारखाने से मूल्य का उच्चतर वाले में स्थानांतरण; 2) शोषण की उच्च औसत दर वाली पूंजी से कमतर वाले की ओर मूल्य का स्थानांतरण। इसका अर्थ यह है कि पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों को जो अतिरिक्त मुनाफा मिलता है, वह पिछड़े उद्योगों के श्रमिकों की श्रम शक्ति के हिस्से पर उन्नत प्रौद्योगिकियों वाले पूंजीपतियों द्वारा नियंत्रण स्थापित करने से आता है। चूंकि साम्राज्यवाद की अधीनता वाले देशों में पूंजी की अवयवी संरचना कमतर है और उच्च शोषण के कारण मौजूदा अंतरराष्ट्रीय उत्पादन प्रणाली के जरिए साम्राज्यवादी देशों को ‘मूल्य’ निर्यात किया जा रहा है।
अब, साम्राज्यवाद के युग में, जब उन्नत प्रौद्योगिकी वाले एक या एक से अधिक इजारेदार पूंजीवादी समूह किसी देश में उस उद्योग की पिछड़ी प्रौद्योगिकी वाले अन्य पूंजीपतियों के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं, वे अपने स्वयं के श्रमिकों से जुड़े अतिरिक्त मूल्य के अलावा, पिछड़ी प्रौद्योगिकीय कंपनियों में श्रमिकों द्वारा जोड़े गए मूल्य का एक हिस्सा प्राप्त करते हैं। यह साम्राज्यवादियों के सुपर-मुनाफा का फालतू हिस्सा है। अब यदि ये एक या एक से अधिक इजारेदारप्राप्त समूह इस तरह की प्रौद्योगिकीय श्रेष्ठता को बरकरार रख सकते हैं और अन्य पूंजीपति (वे पूँजीपति जिनकी प्रौद्योगिकी पिछड़ी हुई है) बाजार में जीवित रहते हैं, तो उन्हें प्राप्त होने वाला मुनाफे का एक हिस्सा प्रौद्योगिकी संपन्न इजारेदार समूहों द्वारा छीन लिया जाता है। और तभी तो आधुनिक साम्राज्यवाद ने हमेशा इस प्रौद्योगिकीय श्रेष्ठता की रक्षा करने की कोशिश की। नवउदारवाद के दौर में यह बहुत मजबूत और स्थिर हुआ।
पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और पूर्व-पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की निर्भरता के बीच संबंध पूंजीवादी विकास के चरण से संबंधित है। इजारेदार पूंजीवाद के साथ पूर्व-पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के संबंध का निर्धारण करने में, हमें इस क्रमिक-विकास के जरिए इस संबंध का अवलोकन करना होगा।
पूंजीवादी विकास के पहले चरण में, पूंजीवाद मुख्य रूप से बाहरी अर्थव्यवस्था से सस्ता कच्चा माल चाहता था। इजारेदार पूंजीवाद के आगमन पर भी (साम्राज्यवाद की शुरुआत के युग में), साम्राज्यवादी देश मुनाफा की दर में गिरावट को रोकने और भविष्य के बाजारों की खोज करने के लिए पिछड़ी पूर्व-पूंजीवादी अर्थव्यवस्था वाले देशों में उपनिवेश स्थापित करने में रुचि रखते थे। बेशक, इसका मुख्य लक्ष्य सस्ता कच्चा माल खोजना था।
. इन देशों को पूंजी और वस्तुओं का निर्यात कभी भी महत्वपूर्ण स्तर पर नहीं पहुंचा। ये पूंजीवादी देश अन्य देशों के साथ इस प्रकार से क्यों निपटते हैं? इसका मुख्य कारण यह है कि देश में एकीकृत (विकसित पूंजीवादी देश का) बाजार होता है। पूंजी और मालों की मुक्त आवाजाही है। देश में एकल कानूनी प्रणाली मौजूद है। अलग देश से आर्थिक संबंधों की स्थापना के साथ, लेन-देन में अलगाव का दायरा पहले वाले देश की पूंजी को देश के एकल बाजार में प्रतिस्पर्धा के नियमों को खारिज करके सुपर-मुनाफा हासिल करने के लिए विशेष मुनाफा देता है। राजनीतिक-सैन्यवादी प्रभुत्व, विदेश नीति और मुद्रा से जुा भेदभाव और भी अधिक मुनाफा प्रदान करता है। यह पूर्व-पूंजीवाद के अवशेषों या कमतर अवयवी संरचना वाले अधीनस्थ देश से ‘मूल्य’ को छीन लेने से गुणात्मक रूप से भिन्न है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के पहले चार दशकों में, साम्राज्यवादी देशों ने नए स्वतंत्र देशों के पूंजीवादी विकास पर प्रौद्योगिकीय नियंत्रण बनाए रखने पर अधिक ध्यान दिया। कृषि में साम्राज्यवादी पूंजी और प्रौद्योगिकी के वर्चस्व का विस्तार भी इस कड़ी में महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया। लेकिन, सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा साम्राज्यवादियों के हित में नई वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के पक्ष में अल्प-विकसित देशों के पूंजीवादी विकास के लिए उनकी आवश्यकता थी, जिसकी प्रकृति हावी होने वाली और विकृत थी। अब कच्चा माल उस देश में ध्यान का केंद्र नहीं रहा। नव स्वतंत्र देशों में पूँजीवादी विकास की शुरुआत के साथ ही अंतरराष्ट्रीय पूँजीवादी संचयन की एकीकृत प्रक्रिया का चलना मुख्य उद्देश्य बन गया। सहयोग और विलय के जरिए या प्रौद्योगिकीय सहायता या प्रत्यक्ष विदेशी सहायता अथवा ऋण के नाम पर बड़ी पूंजी इन देशों में भेजी गई थी। यह सोचा गया था कि साम्राज्यवादी देश इन देशों से पूँजीवादी संचयन का बड़ा हिस्सा ले जा सकते हैं। इसलिए, पूर्व-पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को बनाए रखने के बजाय, ऊपर से सुधारों के द्वारा इसे कुछ हद तक नष्ट कर दिया गया क्योंकि पूर्व-पूंजीवादी समाज से मुनाफा प्राप्त करना संभव नहीं था, जैसा कि आज साम्राज्यवादियों को चाहिए। दूसरी ओर, यदि पूँजीवादी विकास अपेक्षाकृत उच्च दर पर नहीं पहुँचता है, तो पूँजी निवेश भी ऊँची दर पर नहीं किया जा सकता है। 1940 के दशक के मध्य से 1980 के दशक के मध्य तक, विश्व भर के नए स्वतंत्र देशों में पूंजीवादी विकास धीमी गति (पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की जीडीपी विकास दर के अनुसार) में देखा गया था। लेकिन, इन चार दशकों में विश्व की भू-राजनीति में कई देश (दक्षिण कोरिया, सिंगापुर, चिली आदि…) उभर कर सामने आए और उन्हें ‘विकसित पूंजीवादी देशों’ की सूची में शामिल करना पड़ा। जिनको ‘विकासशील देश’ माना जाता है, उनमें से कई, जैसे चीन, ब्राजील, भारत आदि (चीन को छोड़कर) भविष्य में साम्राज्यवादियों के ‘अर्थव्यवस्था में वर्चस्व’ के क्षेत्र में समीकरण बदल सकते हैं। 1980 के दशक के मध्य में, साम्राज्यवादी विश्व की सभी महत्वपूर्ण अर्थव्यवस्थाओं को अंतरराष्ट्रीय नीति के तहत एक साथ ला सकते थे, ताकि उनके नेतृत्व में वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था का ढांचा सुनिश्चित किया जा सके (वास्तव में सुपर-मुनाफे के लिए शर्त के रूप में)। तब से, चीन और भारत की जीडीपी विकास दर में वृद्धि की दर 5% -10% हो गई है, जो पहले कभी 3% से ऊपर नहीं गई थी (ये सभी बुर्जुआ अर्थशास्त्र के उपाय हैं)। इस तीव्र विकास का मुख्य कारण देश के पूंजीपतियों और अंतरराष्ट्रीय इजारेदार पूंजी के बीच विश्वास के रिश्ते का कायम होना था। इन देशों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश, विदेशी संस्थागत निवेश, विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के रूप में बड़ी मात्रा में विदेशी पूंजी का प्रवेश हुआ। इन देशों ने निर्यातोन्मुखी त्वरित पूँजीवादी वृद्धि के मार्ग में प्रवेश किया (यह अधीनस्थ और विकृत क्यों है इसकी चर्चा अन्यत्र की गई है)। अगर साम्राज्यवादियों का सुपर-लाभ इस वास्तविकता का एक पहलू है तो दूसरा यह कि इन देशों के पूर्व-पूंजीवादी अवशेष पहले से कहीं ज्यादा तेजी से नष्ट होते जा रहे हैं।
पूंजीवादी व्यवस्था पूर्व-पूंजीवादी समाज के साथ अपना आर्थिक संबंध बनाए रखती है, इस आशंका के कारण नहीं कि यदि ऐसी अर्थव्यवस्थाओं द्वारा उत्पादित माल को नहीं खरीदा गया, तो वे अनबिके पड़े रहेंगे। ऐसा नहीं है कि वे ऐसी बिक्रियां नहीं चाहते, लेकिन यह पूंजीवाद के अस्तित्व की शर्त नहीं बन जाती। वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए कच्चे माल और श्रम शक्ति को उस पूर्व-पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में उनके ‘मूल्य’ से कम कीमत पर खरीदने के लिए कुछ देशों में पूर्व-पूंजीवादी हिस्से के बने रहने की आवश्यकता होती है। इस प्रकार, मुनाफे की दर बढ़ जाती है। यह ‘अतिरिक्त मुनाफा’ (जो अब पूर्व-पूँजीवादी समाज में वित्तीय लेन-देन के फलस्वरूप संभव है) पूँजीवाद को काफी हद तक बचाता है, खासकर उस समय जबकि पूंजीवाद पूंजी की अवयवी संरचना में वृद्धि के चलते लाभ की गिरती दर की प्रवृत्ति से ग्रस्त है। लेकिन, जब पूंजी का संचयन गहरे संकट में पड़ जाता है, पूँजी को जैसे ही संचयन की प्रक्रिया में ले जाया जाता है तो मुनाफे की गिरती दर की समस्या दिखाई देती है, वैसे ही ऐसी अर्थव्यवस्था की जरूरत होती है जो त्वरित गति से विकसित हो सके।
केवल बड़ी और विकासशील अर्थव्यवस्थाएं (या यहां तक कि अनगिनत छोटी लेकिन त्वरित गति से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं) ही आज की साम्राज्यवादी इजारेदार पूंजी के लिए राहत ला सकती हैं। थोड़ा पहले, हमने चर्चा की है कि एक ही देश में इजारेदार पूँजीवाद इस तरह के आर्थिक आधिक्यों को क्यों नहीं निचोड़ सकता है। लेकिन, जैसे ही किसी देश की अर्थव्यवस्था (पूंजीवादी अर्थ में) विकसित होती है, वहां से सुपर-लाभ प्राप्त करना मुश्किल हो जाएगा। इसलिए ऐसी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बनाए रखना या बनाना आवश्यक है ताकि इसके कच्चे माल (उत्पादन के लिए और श्रमिकों की खपत के लिए) सस्ते बने रहें। वहां की श्रम शक्ति का मूल्य (समाज में श्रम शक्ति के पुनरुत्पादन के लिए सामाजिक रूप से आवश्यक श्रम-समय) उन्नत पूंजीवादी अर्थव्यवस्था/अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में काफी कम है। इसके लिए ऐसी सामाजिक-अर्थव्यवस्था की आवश्यकता है जहाँ लोगों का बड़ा हिस्सा (25%-30%) गरीबी रेखा के इर्द-गिर्द पड़ता हो। विनियमों की इस तरह से आवश्यकता होती है कि आठ घंटों तक काम करने के बाद भी संगठित उद्योग के अधिकांश श्रमिक अपने जीवन और आजीविका की समस्याओं से परे नहीं देख पाएं। वे आज के ‘सभ्य पूँजीवादी समाज’ की वस्तुओं का आनंद लेने की कल्पना नहीं कर सकते हैं! केवल इजारेदार पूंजीवाद की अधीनता वाले देशों की अर्थव्यवस्थाओं को ही इस तरह से विकसित होने दिया जा सकता है। साम्राज्यवाद इसे चाहता है, और इस प्रकार नव-उदारवाद की नीति को अंतरराष्ट्रीय नीति के रूप में तैयार किया गया।
इजारेदार पूंजीवाद ऐसी स्थितियों को पैदा कर सकता है और वह उन्हें अपनी गतिविधि के केंद्र में भी सृजित करता है। प्रौद्योगिकी में हर बड़ी प्रगति के साथ, जब पुरानी कार्य-दक्षता अपनी श्रेष्ठता खो देती है, तो श्रमिकों का एक हिस्सा अपनी नौकरी खो देता है या ऐसा डर प्रकट होता है। जब इजारेदार पूंजी के केंद्रीकरण के हिस्से के रूप में बड़े विलय होते हैं, तो इसके हिस्से के रूप में बहुत सारा औद्योगीकरण रुक जाता है, और श्रमिकों को निकाल दिया जाता है। हर उस चीज़ को त्यागने की कोशिश की जाती है जो ‘लाभप्रद’ नहीं है। पूँजीवाद के प्रत्येक बड़े वित्तीय संकट में अनेक कमजोर (या कम शक्तिशाली) पूँजीवादी संस्थाएँ और क्षेत्र नष्ट हो जाते हैं। औद्योगिक उत्पादन का बड़ा हिस्सा विकासशील देशों को हस्तांतरित करने की नवीनतम और भव्य पहल, न केवल आक्रामक पूँजी द्वारा चीन, भारत या बांग्लादेश में ‘बेदखली’ अभियान चलाने करने का परिणाम है, बल्कि अपने ही देशों में श्रमिकों के अधिकारों (आर्थिक और अन्य) को छीनने के पक्ष में सामाजिक-आर्थिक माहौल भी बना रहे हैं। कई तरह से, इजारेदार पूंजी अपनी गतिविधियों के केंद्र में ‘बेदखली’ के आसपास संगठित हो सकती है और जरूरत के हिसाब से ऐसा करती है। यह कहा जा सकता है कि इजारेदार पूंजीवाद अपने भीतर पूर्व-पूंजीवादी हिस्से को पसंद करता है। अपने विकास के उच्चतर स्तर पर, जब इसके लिए अपनी जरूरतों के लिए ऐसे खंड को बनाए रखना असंभव हो जाता है, तो एक ओर वह दूसरे देशों में विकृत और पिछड़ा पूंजीवाद विकसित करना चाहता है, और दूसरी तरफ अपने देश और उन्नत पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं के भीतर पूर्व-पूंजीवादी अभिलक्षणों को संरक्षित करता है, या यहां तक कि ऐसी नई विशेषताओं को जन्म देता है। तथापि, चूंकि उन्नत देशों (साम्राज्यवादी और अन्य) में इजारेदार पूंजीवाद आर्थिक या यहाँ तक कि सामाजिक-राजनीतिक कारणों के चलते अपने स्वयं के देश (उन्नत अर्थव्यवस्थाओं) में एक सीमा से परे सुपर-लाभ की ऐसी व्यवस्था प्रदान करने में असमर्थ है, इसलिए उसे किसी न किसी ‘पिछड़ी अर्थव्यवस्था’ से जुड़े रहना है। अर्थव्यवस्था और समाज में ‘पिछड़ेपन’ की विशेषताओं को बनाए रखना उसके स्वयं के अस्तित्व के लिए बेहद जरूरी हो जाता है। हमने ऐसे पूंजीवादी विकास को ‘अधीनस्थ और विकृत पूंजीवादी विकास’ की संज्ञा दी है। इसलिए, यह सिद्धांत कि ‘पूंजीवाद हमेशा पूर्व-पूंजीवाद को संरक्षित करता है’ गलत है। आज के इजारेदार पूंजीवाद के उन्नत स्तर में, यह मुख्य रूप से पूर्व-पूंजीवाद में सुधार करके (यह एक क्रांति के माध्यम से किए जाने पर ही प्रगतिशील हो सकता है) और मुख्य रूप से इसे नकार कर संचयन की कुछ समस्याओं का प्रबंधन कर सकता है।
हालांकि आज का इजारेदार पूँजीवाद अपने संकट से निपटने के लिए विकासशील और अल्प-विकसित देशों से सुपर-लाभ निचोड़ने को मुख्य मार्ग के रूप में अपनाता है, फिर भी संकट का समाधान नहीं हो रहा है। पूंजीवादी व्यवस्था के एक निश्चित सीमा तक विकास के बाद, मुनाफे की दर की गिरती प्रवृत्ति पूंजीवादी व्यवस्था को कमजोर करती रहती है, हालांकि वह अचानक किसी संकट का सामना नहीं भी कर सकती। इजारेदार पूँजी के युग में, पूँजी के उच्च अवयवी संघटन के चलते मुनाफे की दर की गिरती प्रवृत्ति की तीव्रता कई गुना बढ़ जाती है। इससे निपटने के लिए प्रतिकारी कारकों को जितना संभव हो उतना मजबूत होना चाहिए। पूंजी संचयन की प्रक्रिया में स्थायी ‘विकृति’ अपरिहार्य हो जाती है। मानव सभ्यता का एक बड़ा हिस्सा अभी भी भोजन, आवास और अन्य आवश्यकताओं की कमी से त्रस्त है। दूसरी ओर, उद्योगों की उत्पादन क्षमता की तुलना में उत्पादन बहुत कम है। पूंजीवाद वास्तविक उत्पादन से संचयन की अपनी क्षमता खोता जा रहा है। इसका परिणाम विकासशील और अल्प-विकसित विश्व को भुगतना पड़ रहा है। विकसित देशों के लोगों, यहाँ तक कि साम्राज्यवादी देशों के मेहनतकश लोगों के एक हिस्से का जीवन स्तर पहले ही गिरना शुरू हो चुका है। पूँजीवादी व्यवस्था इससे छुटकारा पाने के लिए ही ‘जरूरी सेवाओं में कटौती’ का नारा दुहरा रही है।
. चूँकि विकसित पूँजीवादी देशों की सूची में पीछे चल रहे देशों में ‘जरूरी सेवाओं में कटौती’ का नारा जोर-शोर से सुनाई दे रहा है, इसलिए इन साम्राज्यवादी देशों के मजदूर वर्ग का एक हिस्सा भी इसके प्रभाव में आ गया है। अपने संकट से निपटने के क्रम में साम्राज्यवाद नवउदारवाद के इस युग में वित्तीयकरण नामक नए तरीके के साथ सामने आया है। वित्तीयकरण की उत्पत्ति, बेशी मूल्य के निर्माण, मूल्य हस्तांतरण और पूंजी संचय के जरिए लाभ दर के समकरण के संबंध में वास्तविक उत्पादन के साथ इसके संबंध, साम्राज्यवाद के आधुनिक परिचालन को समझने के लिए छान-बीन के महत्वपूर्ण मामले हैं। अगले भाग में हम साम्राज्यवाद की आधुनिक राजनीतिक अर्थव्यवस्था में वित्तीयकरण की प्रक्रिया को समझने के लिए कुछ पंक्तियों लिखना चाहेंगे।
III. साम्राज्यवाद की यात्रा में उधारी की व्यवस्था और वित्तीयकरण की भूमिका
मार्क्सवादी साहित्य में वित्त पूंजी की अवधारणा धन, धन पूंजी, ऋण और काल्पनिक पूंजी पर मार्क्स के विचार के विकसित रूप के रूप में सामने आई। ‘विकसित रूप’ से हमारा अभिप्राय उधारी की प्रणाली के इर्द-गिर्द घूमने वाली पूंजी के एक नए रूप के उद्भव और उसकी सर्वशक्ति से है। साम्राज्यवाद और समकालीन पूंजीवाद को समझने का मर्म पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में काल्पनिक पूंजी और उधारी प्रणाली के उद्भव की अपरिहार्यता और चरम की ओर इसकी यात्रा में निहित है।
मार्क्स ने उधारी की प्रणाली और काल्पनिक पूंजी का कोई पूर्ण-पैमाने पर विश्लेषण नहीं दिया। उन्होंने सिर्फ उधारी की प्रणाली और काल्पनिक पूंजी के पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली से संबंध को प्रतिपादित किया। माल उत्पादन के प्राथमिक चरण में, माल के सरल संचलन की आवश्यकता से पैसा भुगतान के साधन के रूप में आया। अंततः पूंजीवाद की शुरुआत के साथ इसने सामान्यीकृत चरित्र ग्रहण किया – मुद्रा को मूल्य का मजबूत और स्थायी सार्वभौमिक रूप मिल गया। वस्तुओं के आदान-प्रदान के लिए प्रतिदिन बड़ी मात्रा में मुद्रा का उपयोग होने लगा। एक ओर, मुद्रा माल के मूल्य रूप की स्वीकृति के रूप में अस्तित्व में थी। धन दूसरी ओर संचलन का माध्यम है। शुरू से ही, यह ‘पैसे’ का अंतर्निहित अंतरविरोध बन गया। बैंकों में धन का सबसे प्रभावी उपयोग उद्योग में इसका निवेश करना रहा है। पैसा केवल मूल्य की स्वीकृति और विनिमय का विषय नहीं है, यह पूंजी के रूप में सक्रिय होने लगता है। यह भविष्य के उत्पादन और भविष्य के विनिमय के लिए अग्रिम पूंजी के रूप में सामने आता है, इस प्रकार उपर्युक्त विरोधाभास को कई गुना बढ़ा देता है। मुद्रा मुद्रा पूंजी होने के नाते, अपने स्वयं के संकट से और भी अधिक प्रभावित होती है। मार्क्स के सिद्धांत में, वित्तीय प्रणाली (उधारी) और इसके मौद्रिक आधार के बीच केंद्रीय विरोधाभास यहीं से शुरू होता है।
बैंकिंग प्रणाली के मजबूत होने से निश्चित मात्रा में ब्याज की गारंटी होती है और इसी के अनुसार सामाजिक रूप से संचित धन का बड़ा हिस्सा बैंकों में जमा हो जाता है। इस पैसे का उपयोग औद्योगिक और वाणिज्यिक उद्देश्यों के लिए निःसंकोच किया जाता है। बैंकों से वाणिज्यिक ऋणों ने विभिन्न रूप ग्रहण किए। कुछ रूप हैं: प्रतिभूतियों पर ऋण, ब्याज वाले कागज, सरकारी कागज, स्टॉक के सभी रूप, उधारी के बिल पर ओवरड्राफ्ट, डॉक वारंट, स्वामित्व या मालों आदि पर ऋण। इसी प्रकार, बैंकों द्वारा स्वीकृत उधारी भी विभिन्न रूपों में आई: अन्य बैंकों पर विनिमय के बिल, उन पर चेक। कुछ बैंकों को बैंक नोट जारी करने की अनुमति दी गई थी।
मार्क्स ने समझाया कि कैसे पूंजीवादी उत्पादन और परिसंचरण के लिए उधारी की सशक्त प्रणाली आवश्यक हो जाती है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि आधुनिक बड़े पैमाने के उत्पादन के साथ अनवरत रूप से जुड़ी उधारी की यह प्रणाली पूंजी के केंद्रीकरण का अनुसरण कैसे करती है। संयुक्त स्टॉक कंपनियों का आगमन स्वाभाविक हो गया। यह पूंजी की छोटी मात्रा के स्वामित्व का आधार बनाता है, पूंजीपतियों के एक वर्ग के लिए बड़ी सामाजिक पूंजी का नियंत्रण संभव हो गया। एक ओर, उधारी की प्रणाली ने मुनाफे की दर को बराबर करने में तेजी लाई; दूसरी ओर, इसने लेन-देन की संख्या कम कर दी। इसके फलस्वरूप, पूंजी के संचलन की दर में वृद्धि हुई। साथ ही, स्थिर और संचारी पूंजी के बीच समन्वय आसान हो गया। इसके अलावा, उधारी की प्रणाली अति-उत्पादन और अति-सट्टेबाजी की प्रेरक शक्ति बन गई। सारतः उधारी की प्रणाली पूँजी के वैश्विक वर्चस्व को स्थापित करने का एक मुख्य औजार बन गई और उत्पादक शक्ति के भौतिक विकास को तेज करके पूँजी ने अपने ऐतिहासिक मिशन को संपन्न किया। इसके अलावा, यह उधारी की प्रणाली ही है, जो पूंजी के आंतरिक अंतरविरोधों को उजागर करने, व्यवस्था को और अधिक संकट की आशंका वाली बनाने का मुख्य औजार भी बन गई।
‘पूँजी’ और ‘ग्रंड्रिसे’ में, मार्क्स ने कुछ पूँजीपतियों के द्वारा दूसरों के मुकाबले बैंकिंग और उधारी की प्रणाली पर अपने नियंत्रण के माध्यम से अधिक असरदार और शक्तिशाली बनने की प्रक्रिया पर जोर दिया। उन्होंने राजसत्ता के साथ इन पूंजीपतियों के गहरे संबंधों को भी प्रतिपादित किया। जब तक उधारी की प्रणाली (वास्तविक) भौतिक उत्पादन पर निर्भर करती है और बाजार में बेशी पूंजी को आगे बढ़ाती है, यह पूंजीवादी संचयन को गति दे सकती है। लेकिन, पूँजीवाद के ढाँचे के भीतर उधारी के इस परिचालन को पूरी तरह से नियंत्रित करना असंभव है। बेशी वस्तुएं बाजार में संचयित हो गईं। स्वाभाविक रूप से यह लोगों की क्रय क्षमता को पार कर गईं। लोगों को भारी-भरकम कर्ज़ देकर इसका समाधान निकाला गया, जिसे अधिकांश लोग लौटाने में असमर्थ थे। पूंजीवादी संचयन के ‘उत्पादित’ मूल्य के साथ किसी भी तरह के समन्वय के बिना, प्रणाली में धन पूंजी के रूप में बहुत अधिक पूंजी सम्मिलित की गई थी। इसने अति-उत्पादन के साथ-साथ अति-संचयन की समस्या भी पैदा की। दूसरी ओर, इसने उपभोक्तावाद की समस्या के साथ-साथ पूंजी के सिद्धिकरण की समस्या भी पैदा की।
अंतरराष्ट्रीय पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में 1980 के दशक के अंत में वित्तीयकरण का महत्व साम्राज्यवाद के आगमन पर वित्तीय पूंजी के महत्व से गुणात्मक रूप से भिन्न है। हम इस आलेख में वर्तमान अंतरराष्ट्रीय इजारेदार पूंजी पर अलग से चर्चा करेंगे। यहां हम इस बात की थोड़ी और छानबीन करते हैं कि वित्तीयकरण साम्राज्यवाद में क्या ला रहा है। निश्चित रूप से, राष्ट्र-राज्यों पर आधारित अलग-अलग विकसित इजारेदार पूँजियों से आगे बढ़ते हुए, संचयन की विश्व-स्तरीय प्रक्रिया सृजित करने में वित्तीयकरण ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विश्व स्तर पर संचयन के लिए वित्तीयकरण द्वारा पूंजी की आवश्यक गतिशीलता को आसान बनाया गया है। इसके अलावा, वित्तीयकरण ने विश्व के किसी भी छोर पर उत्पादित हर छोटे मूल्य को वैश्विक संचयन की प्रक्रिया में सम्मिलित करने में काफी मदद की है। एकाधिपत्य द्वारा सीमित होने पर भी आज प्रचलित तीव्र विश्वव्यापी से उत्पन्न संचयन की अंतरराष्ट्रीय प्रक्रिया वित्तीयकरण और नव-उदारवाद के संयोजन के द्वारा तेज हुई है।
दरअसल, वित्तीय क्षेत्र ने उन क्षेत्रों की कीमत पर गैर-वित्तीय क्षेत्रों (अर्थात वास्तविक उत्पादन) से से उत्पादित ‘मूल्य’ का दोहन करके अपने उच्च मुनाफों को संभव बनाया है। वर्तमान पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में इन दोनों क्षेत्रों के बीच संबंध में गुणात्मक परिवर्तन देखा गया है। बड़े वित्त निगम विनिर्माण कंपनियों को उधार देने की बजाय अपनी स्वतंत्र गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करते हैं। निश्चित रूप से, गैर-वित्त निगमों की तुलना में वित्त निगमों का मुनाफा अधिक है। पहले सहायक का जो कार्यक्षेत्र था अब पूँजीवादी मुनाफे का मुख्य कार्य-स्थल बन गया है।
पूंजीवादी देशों में वित्तीय क्षेत्र उत्तरोत्तर मजबूत होता जा रहा है। यहां तक कि सभी आर्थिक संकटों के परिणामस्वरूप, जब सभी क्षेत्र गंभीर रूप से आघात पहुँचता हैं, वित्तीय क्षेत्र लाभ प्राप्त करता रहता है। पूंजी संचयन की समूची प्रक्रिया के वित्तीयकरण की इस प्रवृत्ति ने अंतरराष्ट्रीय व्यापार के अभिलक्षणों को गहराई से प्रभावित किया है। विनिमय दर और वित्तीय सट्टेबाजी की गलत पंक्ति-योजना की सीमा विभिन्न देशों के व्यापार घाटे या व्यापार बेशी को खतरे में डाल सकती है।
नवउदारवाद और वित्तीयकरण पूरक प्रबंधन और संबंध हैं। निश्चय ही तमाम संकटों के बावजूद वर्तमान विश्व स्तर का संचयन इन्हीं दोनों की सहायता से ही संभव हो पाया है। यह आज साम्राज्यवाद का बहुत ही प्रातिनिधिक पहलू है। हिलफर्डिंग और लेनिन ने जिस वित्तीय पूंजी के बारे में बात की थी, वह मुख्य रूप से 1980 के दशक में शुरू हुए वित्तीयकरण से अलग है। इसी समय से बैंक पूंजी और औद्योगिक पूंजी का एकीकरण उद्योग में निवेश किया जाने लगा है। समकालीन वित्तीयकरण के संदर्भ में, वित्त में पूंजी को किसी भी उद्योग में निवेश नहीं किया जा रहा है (रुझान के रूप में) बल्कि यह वित्तीय बाजार में गतिविधियों से मुनाफा कमाती है। इस मुनाफे के संचयन के लिए वित्त क्षेत्र सबसे विश्वसनीय स्थान है। उत्पादक पूंजी से होने वाले मुनाफे का बड़ा हिस्सा आज संचयन की प्रक्रिया में हिस्सा लेने के लिए वित्त क्षेत्र में आ रहा है। दरअसल, जाहिरातौर पर न सिर्फ वित्तीय संस्थान बल्कि पूँजी के बड़े पैमाने के मालिक भी वित्त के दायरे के तहत आ गए हैं, जिसका अर्थ यह हुआ कि वित्त बड़ी पूँजी के अस्तित्व और परिचालन के साथ घुल-मिल गया है (या उसे ‘निगल’ गया है)।
वित्तीयकरण की यह विशाल सीमा इस बात का प्रमाण है कि कृषि, उद्योग और सेवा क्षेत्रों से अर्जित कुल मुनाफे को वास्तविक निवेश में अब और वापस नहीं किया जा सकता है। आज,विश्व के वित्त क्षेत्र का केवल एक छोटा सा हिस्सा वास्तविक उत्पादन का समर्थन कर रहा है। शेष वित्त मानव सभ्यता के लिए उपयोगी नहीं है।
. यह कोई मूल्य उत्पन्न नहीं कर सकता है। इसमें लगी श्रम शक्ति कुछ भी वास्तविक नहीं पैदा करती है। लेकिन यह अन्यथा इजारेदार पूंजी द्वारा उत्पादित मूल्य के हस्तांतरण में प्रभावी भूमिका निभाता है। इसके लिए ऐसे उद्योग या सेवा क्षेत्र में लगी इजारेदार पूंजी ने बड़ी चतुर और कुशल भूमिका निभाई है। चूंकि यह प्रक्रिया इजारेदारी पूंजी के वित्तीयकरण के संकट के इस दौर में प्रभावी है, इसलिए संचयन के पहिये को गतिमान रखना मूल्यवान है। लेकिन यद्यपि वित्तीयकरण वास्तविक उत्पादन में संचयन की समस्या के समाधान के रूप में प्रकट हुआ, लेकिन अंतिम परिणाम के रूप में इसने उसके संकट को बढ़ा दिया है। वित्तीय पूँजी आज प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रूप में नहीं बल्कि उद्योग या सेवा क्षेत्र में विदेशी संस्थागत निवेश/विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के रूप में अधिक रुचि लेती है। यह वास्तविक औद्योगिक निवेश के बजाय उद्योग में सट्टा गतिविधि में अधिक रुचि लेती है। 2007-08 के विशाल वित्तीय संकट के बावजूद, विश्व पूंजी वित्तीयकरण के रास्ते को छोड़ने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं है, वरन इसे मज़बूत करता जा रहा है। कोई भी स्पष्ट रूप से यह देख सकता है कि किस प्रकार से वैश्विक साम्राज्यवादी व्यवस्था के सत्तारूढ़ अभिजन ने 2008 के वित्तीय संकट के बाद वित्तीय संस्थानों के हितों की रक्षा के उपायों को अपनाया, यहां तक कि उत्पादन क्षेत्रों की कीमत पर भी। उन्होंने वैश्विक वित्तीय संस्थानों के हित में वित्तीय संकट के बोझ को स्थानांतरित करने के लिए ग्रीस, पुर्तगाल या स्पेन जैसे कुछ विकसित देशों की अर्थव्यवस्था को खतरे में डालने में भी संकोच नहीं किया। “वॉल स्ट्रीट’ और “ट्रोइका” के खिलाफ हाल के विरोधों ने दिखाया कि विकसित विश्व में ‘वित्तीय अभिजनवाद’ के विरोध ने वर्ग संघर्ष में नया आयाम जोड़ा है। इसके पीछे तथ्य यह है कि पूंजी के पहले से ही संचयन की समस्या का कोई समाधान नहीं है। पूंजीवाद आजकल उत्पादन बढ़ाने की बजाय पहले से उत्पादित मूल्य के हिस्से को छीनने में अधिक रुचि रखता है। अल्प-विकसित या विकासशील देशों में उत्पादन में किसी भी वृद्धि के लिए साम्राज्यवादी विश्व वित्त क्षेत्र के ऊपर नियंत्रण बनाए रखने के लिए यथासंभव सर्वश्रेष्ठ देखभाल के साथ उसे पाल-पोस रहा है।
अनुभाग-बी: समकालीन साम्राज्यवाद की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं
ऐतिहासिक क्रमिक-विकास में साम्राज्यवाद
आधुनिक साम्राज्यवाद का इतिहास पीछे यूरोप में पूंजीवाद के विकास और औपनिवेशिक लूट तक जाता है, जो ‘वर्ग युद्ध’ के इतिहास में अलग चरण का द्योतक है जो ‘अति प्राचीन काल’ से मानव सभ्यता का हिस्सा रहा है। उभरती पूंजीवादी शक्तियों के लिए उपनिवेशों से अधिशेष की भारी निकासी, उद्योग और गोरे लोगों के उपभोग दोनों ही के लिए उपनिवेशों से सस्ते प्राथमिक सामानों का भारी प्रवाह उपनिवेशवाद का आधारभूत अभिलक्षण है, जिसे बल, तैयार उत्पादों के कुछ हिस्से के लिए बाजारों के बलपूर्वक अधिग्रहण, देशज आबादी के उपनिवेशों को काफी बड़े गमन, खुली या छिपी दासता के रूप में उपनिवेशों के सस्ते श्रम तक पहुँच और उसके उपयोग के जरिए हासिल किया गया होता है। उपनिवेशवाद ने न केवल उपनिवेश बनाए गए देशों के भविष्य पर सदियों तक कब्जा बनाए रखा बल्कि पूंजीवाद की उस विशेष प्रकृति को भी गढ़ा जो ‘उन्नत पूंजीवादी’ देशों में विकसित हुई है। उपनिवेशवाद के इस इतिहास के संबंध में ‘उन्नत पूंजीवादी’ देशों के भीतर पूंजी के विशाल संचयन और उसके परिणामस्वरूप हासिल एकाधिपत्य समझना होगा। संगठित बैंकिंग उद्योग सबसे पहले ब्रिटेन में ही विकसित हुआ। जर्मनी और अमेरिका में, उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में पूंजीवादी बैंकिंग प्रणाली का मौलिक विकास हुआ। अमेरिका में 1837-63 की ‘मुक्त बैंकिंग’ प्रणाली का युग समाप्त हुआ और ‘राष्ट्रीय बैंकिंग प्रणाली’ का क्रमिक विकास हुआ। औद्योगिक पूंजी के साथ बैंक पूंजी का एकीकरण उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में तीनों शक्तिशाली देशों, यानी ब्रिटेन, अमेरिका और जर्मनी में पूंजी की राशि में वृद्धि का परिणाम था। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में, एकाधिपत्य ने वित्तीय पूंजी के युग का निर्माण किया और विकसित पूँजीवादी देशों के मध्य विश्व को बाँटकर साम्राज्यवाद की राजनीति का सूत्रपात किया। यह उत्पादन और पूँजी के विश्वव्यापी केंद्रीकरण का नया चरण था। पूंजी का निर्यात जितना अधिक बढ़ा, बड़े इजारेदार संयोजनों के साथ-साथ उनके प्रभावित क्षेत्रों के विदेशी और औपनिवेशिक संबंध भी उतने ही बढ़े। इस प्रकार पूंजीपतियों के अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ विकसित हुए। ये गठजोड़ विश्व को आपस में बांटना चाहते थे, जिसकी परिणति दो विश्व युद्धों में हुई।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अमेरिकी साम्राज्यवाद, राष्ट्र-राज्य, भू-राजनीति
द्वितीय विश्व युद्ध तक साम्राज्यवाद को समझने के लिए ‘अंतर-साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्विता’ महत्वपूर्ण श्रेणी थी। इसके बाद, साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच युद्ध की सम्भावना काफी कम हो गई है। दूसरे विश्व-युद्ध के बाद वैश्विक स्तर पर केंद्रीकरण की प्रकृति में गुणात्मक छलांग, प्रतिस्पर्धा की प्रकृति में प्रतिबिंबित हुई जो आर्थिक और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा और राजनीतिक तथा सैन्य प्रभाव के जरिए दबाव डालने और सौदेबाजी करने तक सीमित थी। अंतर-साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्विता की प्रकृति में परिवर्तन के पीछे दूसरा कारण यह था कि युद्ध (सैन्य मामलों में भारी मात्रा में प्रोद्योगिकीय विकास और निवेश को ध्यान में रखते हुए) इतना विनाशकारी होगा कि किसी के लिए आर्थिक रूप से लाभ हासिल करना असंभव होगा और समाजवाद तथा क्रांतिकारी वामपंथी मजदूर वर्ग और जन आंदोलनों व अल्प-विकसित देशों के लोगों के संघर्ष के खतरे साथ, दुनिया के लोगों की चेतना के स्तर के विकास ने साम्राज्यवादियों को लूट और शोषण के अपने अपरिहार्य कार्यक्रम को क्रियान्वित करने की अपनी रणनीति और परिचालन के तरीके को बदलने के लिए मजबूर किया।
वैश्विक स्तर पर संचयन की प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए साम्राज्यवादी शोषण को कुछ अंतरराष्ट्रीय आर्थिक नियमों के तहत संगठित किया गया और स्थायी ढांचे के जरिए इसकी देखरेख की गई। इस उद्देश्य के लिए द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रेटन वुड्स संस्थानों की स्थापना की गई। लेकिन यहां विश्व अर्थव्यवस्था में पूंजी के संचयन के उद्देश्य और शासन के तरीके के रूप में बहु-राज्य प्रणाली के बीच अंतरविरोध विकसित हुआ। पूँजीवाद वैश्विक स्तर पर जितना अधिक एकीकृत बनता है, उतना ही अधिक वह अपनी अधीनता में आने वाले लोगों के सघन प्रबंधन को प्रदान करने के लिए इस प्रकार के राज्यों की प्रणाली पर निर्भर होता है। फिर भी, यह बहु-राज्य प्रणाली विश्व पूंजीवादी संचयन को वह सहारा कभी नहीं दे सकती जो विशेष राष्ट्र-राज्य अपनी राष्ट्रीय पूँजी को प्रदान कर सकता है। इस संदर्भ में, विवादों को निपटाने और स्थिरता प्रदान करने के लिए वैश्विक नेता की आवश्यकता निर्णायक हो जाती है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद, वैश्विक नेता के रूप में अमेरिका की भूमिका विश्व पूंजीवादी संरचना के रखरखाव और पुनरुत्पादन के लिए केंद्रीय बन गई। इतिहास में पहली बार पूंजीवादी विश्व में इतनी मजबूत वैश्विक आधिपत्य वाली शक्ति का उदय हुआ।
तथापि, अमेरिकी नेतृत्व के द्वारा जिस समय भी उसको अपनी आर्थिक बाध्यता के कारण राज्य की शरण लेने की आवश्यकता हुई, जैसे कि वैश्विक मंदी (2007-08) के समय में, उसने अपने द्वारा प्रतिपादित कानूनों व विनियमों (विश्व व्यापार संगठन, सीमा-शुल्क और व्यापार पर आम समझौता आदि) का सबसे पहले उल्लंघन किया। अमेरिका ने रणनीतिक तेल और खनिज क्षेत्रों पर नियंत्रण स्थापित करने के अलावा, अन्य उन्नत देशों के पूंजीपतियों को अपने बाजार तक पहुंच के संदर्भ में गैर-तरजीही व्यवहार की पेशकश की, और उत्तरी अमेरिका, पश्चिमी यूरोप और पूर्वी एशिया के उन्नत पूंजीवादी देशों में अभूतपूर्व उच्च लाभ और उच्च वृद्धि की अवधि में साम्राज्यवादी विश्व व्यवस्था में स्थिरता का समर्थन किया। अन्य साम्राज्यवादी देशों ने विश्व अर्थव्यवस्था और भू-राजनीति में अमेरिकी आधिपत्य की इस भूमिका को स्वीकार किया। इसने ‘दुष्ट देशों’ पर रोक और व्यापार लगाए और यहां तक कि सऊदी अरब, ईरान, इंडोनेशिया, अर्जेंटीना आदि जैसे तानाशाही शासनों का समर्थन किया। अमेरिकी शस्त्रागार में प्रमुख तत्व अमेरिकी डॉलर की बढ़ती ताकत और विश्व की रिजर्व मुद्रा के रूप में इसकी स्थिति थी। अमेरिका द्वारा हासिल आर्थिक शक्ति को विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और सीमा शुल्क और व्यापार पर आम समझौता जैसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के निर्माण के द्वारा संस्थाबद्ध रूप दिया गया। जैसा कि साम्यवाद के बढ़ते प्रभाव को चुनौती देने हेतु सशक्त पूँजीवादी व्यवस्था का निर्माण करने के लिए शीत युद्ध के दौरान महत्वपूर्ण अमेरिकी लक्ष्य मार्शल प्लान के मामले में था। सोवियत संघ पर दबदबे वाली स्थिति को बनाए रखने और संभव होने पर परिधि पर साम्यवाद को ‘पीछे खदेड़ने’ के लिए सीआईए प्रायोजित तख्तापलटों, हस्तक्षेपों और अमेरिका द्वारा करवाए गए युद्धों के अनगिनत उदाहरण हैं। विदेशों में अमेरिकी उलझाव के सबसे स्पष्ट उदाहरणों में से एक रूसी हमले के समय अफगानिस्तान में निभाई गई भूमिका का मामला है। इस्लामिक कट्टरपंथी मुजाहिदीन को अमेरिकी गुप्त सहायता महत्वपूर्ण थी और उसने 1980 के दशक के दौरान रूसी वापसी के लिए दशाएं सृजित कीं।
नव-उदारवाद के आगमन, सोवियत संघ के पतन और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में चीन के समावेश के साथ अमेरिका के नेतृत्व वाले साम्राज्यवाद (इसे अक्सर जी-8 के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है) की भूमिका तीसरी दुनिया के देशों और पूर्वी यूरोपीय देशों को एकल साम्राज्यवादी मंसूबे में शामिल करने और सस्ते श्रम की विशाल आरक्षित सेना का शोषण करने के एजेंडे को बढ़ावा देने और ‘वाशिंगटन सर्वसम्मति’, विश्व व्यापार संगठन के निर्माण और ट्रिप्स आदि के तहत नई पेटेंट नीति के बाद अधिक सार्विक व्यापार नीति ‘संरचनात्मक समायोजन की नीति’ के तहत उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण के युग में प्राकृतिक संसाधनों और राज्य की परिसंपत्तियों का स्वत्वहरण करने के लिए वैश्विक अर्थव्यवस्था और भू-राजनीति में अधिक आक्रामक बन गई।
इन प्रक्रियाओं में, नवउदार राज्य के रूप में राज्य की पूरी तरह से बदली हुई भूमिका महत्वपूर्ण बन गई। पूँजी उस अंश तक बिल्कुल सीमित है जिस अंश तक यह अपने स्वयं के विस्तार के लिए दशाओं का निर्माण कर सकती है। इस समूची अवधि में, बाजार संचयन और ‘स्वत्व-हरण द्वारा संचयन’ दोनों के लिए राज्य की कार्रवाई निर्णायक थी।
साम्राज्यवादी शोषण अब कुछ अंतरराष्ट्रीय आर्थिक नियमों के तहत आयोजित किया जा रहा है और इसकी निगरानी स्थायी ढांचे के जरिए की जाती है। इस उद्देश्य के लिए विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष आदि का उपयोग किया जा रहा है। साम्राज्यवादी हितों की रक्षा ‘उनके’ संगठन जी-7 द्वारा की जाती है। मूलतः विश्व व्यापार संगठन जी-7 के देशों के पक्ष में विश्व व्यापार का नेतृत्व और नियंत्रण करने वाला संगठन है। ऐसा प्रतीत हो सकता है कि विश्व व्यापार संगठन की पुकार यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी अंतरराष्ट्रीय बाजार को प्रभावित करने में सक्षम नहीं होगा, कि यह इजारेदार नियंत्रण को नष्ट कर रहा है और नई मुक्त प्रतिस्पर्धा को निर्मित कर रहा है। लेकिन सच यह है कि इस सिद्धांत से लूट की पुरानी औपनिवेशिक-साम्राज्यवादी व्यवस्था की जगह पर नई साम्राज्यवादी आर्थिक नीति प्रभावी ढंग से लागू की जा रही है। विकासशील और अल्प-विकसित देशों के बाजार के खुलने से साम्राज्यवादी देशों को प्रभावी ढंग से उर्वर जमीन प्राप्त होगी, जिससे अंतरराष्ट्रीय इजारेदारियों के लिए इन देशों में उत्पादित ‘अतिरिक्त मूल्य’ (साम्राज्यवादियों के निवेश से उत्पन्न ‘सामान्य’ बेशी मूल्य के अतिरिक्त) को निचोड़ा जा सके। यह उन्हें किसी भी देश के प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण प्राप्त करने और कुछ हद तक इन देशों में ‘बाजार’, वस्तुओं और उत्पादन के साधनों को विकसित करने में भी मदद करता है। यह तथ्य कि स्वयं साम्राज्यवादी भी अपने द्वारा प्रतिपादित राज्य के बीच में नहीं आने के नियमों का पालन करने पर बिल्कुल भी सहमत नहीं हैं, संकट के बाद की अवधि के उपरांत स्पष्ट है और यहाँ तक कि इसके फलस्वरूप विश्व व्यापार संगठन को भी कमजोर बना दिया गया है। इस वास्तविकता ने मौजूदा 196 देशों (जून 2014 तक) के मध्य 160 को को विश्व व्यापार संगठन में शामिल होने के लिए बाध्य किया है। एक बार जब कोई देश विश्व व्यापार संगठन में शामिल हो जाता है, तो उसे अपने घरेलू बाजार और अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर साम्राज्यवादी देशों के इजारेदारियों के आधिपत्य को स्वीकार करना होता है। उसे सभी इजारेदारवादी परिपाटियों को मंजूरी और समर्थन देना होता है।
कच्ची सामग्रियों और विकासशील देशों के सस्ते श्रम द्वारा उत्पादित सामानों की गतिशीलता को आसान बनाने के लिए आज निर्यात-आयात बहुत महत्वपूर्ण है। उत्पादन कहीं भी हो सकता है, लेकिन जिनकी क्रय शक्ति अधिक है, वे अंतरराष्ट्रीय बाजार में अधिकतर चीजों को खरीदेंगे। साम्राज्यवादी ‘मुक्त बाज़ार’ (राज्य के हस्तक्षेप के बिना) के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन हकीकत यह है कि साम्राज्यवादियों के राज्य तंत्र कहीं अधिक हस्तक्षेप कर रहे हैं और अपने ‘खुद’ के देश से निर्यात एवं आयात व वस्तुओं और पूँजी के प्रवाह (अपनी जरूरत व हित के अनुसार) पर निरंतर अवरोध डाल रहे हैं।
2014 में विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने 21 से 23 देशों को ‘उदीयमान देशों’ के रूप में चिह्नित किया है। ‘उदीयमान देशों’ की शब्दावली से इंगित होता है कि ये देश तेजी से औद्योगीकरण की प्रक्रिया में प्रवेश कर रहे हैं, कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से बाहर आ रहे हैं और सकल घरेलू उत्पाद की उनकी वृद्धि दर अपेक्षाकृत अधिक है। ये देश विश्व अर्थव्यवस्था के ‘ग्रोथ इंजन’ बनेंगे। यह सच है कि इन देशों में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि की वार्षिक दर कम से कम 5% है (ब्राजील और रूस में तनिक उतार-चढ़ावों के साथ)। अपनी भारी आबादी और आकार के कारण चीन, भारत, रूस और ब्राज़ील जैसे देशों का दर्जा विश्व अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण हो सकता है। समग्र सकल घरेलू उत्पाद के लिहाज से यह संभव है कि ये देश अगले 10-15 वर्षों में खुद को सभी देशों के सबसे ऊपरी भाग तक उठा लें। सवाल यह है कि क्या साम्राज्यवादी देश नव-उदारवादी विश्व अर्थव्यवस्था में तीसरी दुनिया के देश के विकसित देश में रूपांतरण का स्वागत करते हैं? सामान्य उत्तर है ‘नहीं’। चीन, भारत, ब्राजील आदि वे देश हैं जहां से पहली दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियां सुपर मुनाफा कमा रही हैं और इसके लिए अमीर देशों से विनिर्माण के बड़े हिस्से को गरीब देशों में शिफ्ट कर रही हैं, मज़दूर वर्ग का सुपर शोषण कर रही हैं; और श्रम कानूनों के समस्त श्रमिक-हितैषी प्रावधानों को नष्ट कर रही हैं/बदल रही हैं। इन देशों में स्थापित उत्पादन की निर्यातोन्मुखी लाइनें मुख्य रूप से विकसित देशों के लोगों के लिए स्वाभाविक रूप से वस्तुओं का उत्पादन कर रही हैं क्योंकि प्रति व्यक्ति आय और मानव विकास सूचकांक उच्च होने के कारण वे पूँजीवादी विश्व में उपलब्ध वस्तुओं और सेवाओं के बड़े हिस्से की हमेशा मांग करेंगे। ऐसे में जबकि साम्राज्यवादी देशों का वास्तविक जीवन स्तर गिरता जा रहा है, तो अन्य देशों में इस प्रकार की मांग में वृद्धि स्थिति की तीव्रता को बढ़ाएगी। उन्हें (साम्राज्यवादियों को) अब सस्ते से सस्ते उत्पाद चाहिए। इस तरह से नव-उदारवाद (हालांकि, अपने आंतरिक अंतरविरोध से उत्पन्न उसकी अपनी सीमाएं हैं) तीसरी दुनिया के इन देशों में केवल अधीनस्थ और विकृत किस्म के पूँजीवादी विकास को सुगम बना रहा है।
पिछले दो दशकों में, और विशेष रूप से 2007-08 के वैश्विक आर्थिक संकट के बाद, अभी भी दूसरों से कहीं बेहतर आर्थिक-राजनीतिक-सैन्य शक्ति के बावजूद वैश्विक नेता के रूप में अमेरिका की घटती भूमिका ने वैश्विक संस्थानों और भू-राजनीति में अस्थिरता पैदा कर दी है। 2000 के दशक की शुरुआत से द्विपक्षीय, बहुपक्षीय और क्षेत्रीय व्यापार समझौते व्यापारिक बातचीतों का प्रमुख रूप बन गए, जहां वैश्विक संस्थानों की अक्सर जानबूझकर उपेक्षा की गई। साझे बाजार और मुद्रा के साथ यूरोपीय संघ के आविर्भाव, लैटिन अमेरिका में विपक्षी खेमों, ब्रिक्स जैसी विशाल उभरती अर्थव्यवस्थाओं के विभिन्न खेमों के आविर्भाव, अमेरिकी नेतृत्व वाले वैश्विक खेमे के प्रायः विरोध में धुरी विकसित करने के लिए चीन और रूस के सहयोग ने साम्राज्यवाद के तहत भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को सर्वथा सघन बना दिया।
भू-भागों को नियंत्रित करने में राजनीति के उपयोग यानि कि भू-राजनीति, जहाँ पर कतिपय भौगोलिक स्थान संसाधनों तथा ऐतिहासिक व सामाजिक-राजनीतिक कारणों से दूसरों के मुकाबले अधिक रणनीतिक हैं, साम्राज्यवादी प्रक्रिया का लंबे समय से महत्वपूर्ण आयाम रही है। साम्राज्यवाद के मार्क्सवादी सिद्धांत को उन रूपों का विश्लेषण करना चाहिए जिनमें आधुनिक पूंजीवाद में भू-राजनीतिक और आर्थिक प्रतिस्पर्धा एक साथ मिल गई है। वैश्विक नेता के रूप में अमेरिका के पूर्ण वर्चस्व ने द्वितीय विश्व युद्ध के बाद लंबे समय तक विभिन्न साम्राज्यवादी और अन्य शक्तिशाली राष्ट्र-राज्यों के मध्य भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा को कुछ हद तक शांत कर दिया। लेकिन चूँकि नवउदारवाद के तहत पूंजीवाद का संरचनात्मक संकट स्वयं को विभिन्न राष्ट्र-राज्यों में अलग-अलग प्रकार के संकटों के रूप में प्रकट करता है और विवादों का निपटारा करने के लिए अब कोई एकल सर्वोच्च शक्ति नहीं रह गई है इसलिए वैश्विक भू-राजनीति में पुनर्ध्रुवीकरण होता प्रतीत होता है। अमेरिकी विदेश नीति के महत्वपूर्ण आयामों में से एक मध्य पूर्व और मध्य एशिया में तेल भंडारों पर नियंत्रण बनाए रखना रहा है, जहाँ उन पाइप-लाइनों को नियंत्रित किया जाता है, जिनसे विश्व अर्थव्यवस्था की सबसे महत्वपूर्ण वस्तु प्रवाहित होती है,और इस प्रकार से अमेरिका, यूरोप और पूर्वी एशिया के प्रमुख आर्थिक प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले अपनी स्थिति को मजबूत करता है, जो अमेरिका चिंता की तुलना में कहीं अधिक प्रत्यक्ष तरीकों से मध्य पूर्व के तेल पर निर्भर हैं। इस मामले में, सऊदी अरब और इज़राइल क्षेत्रीय नियंत्रण स्थापित करने के लिए अमेरिका के वफादार सहयोगी रहे हैं। हालांकि अब ईरान, रूस और चीन के बीच सहयोग बनता दिख रहा है। सुरक्षा, प्राकृतिक संसाधन, बाजार में हिस्सा, नौसैनिक व व्यापार मार्गों और क्षेत्रीय प्रभाव जैसे विभिन्न मुद्दों पर भू-राजनीतिक नियंत्रण के लिए संघर्ष के तीन अन्य क्षेत्र दक्षिण पूर्व एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका प्रतीत होते हैं। इस प्रतिस्पर्धा में सर्वाधिक दुर्जेय खिलाड़ी बने रहने के लिए अमेरिका सैन्य खर्च, विश्वव्यापी सैन्य ठिकानों, खुफिया, विदेशी सहायता, विदेशी कर्ज आदि में भारी संसाधनों को लगाता है। साम्राज्यवादी राष्ट्र-राज्यों के बीच युद्धों के बजाय, समकालीन साम्राज्यवाद में भू-राजनीतिक संघर्ष कम तीव्रता वाले संघर्षों, व्यापार युद्धों और गैर-अनुरूप राज्यों को ‘अनुशासित’ करने के लिए प्रतिबंधों/व्यापार पर रोकों, परिधीय युद्धों में सैन्य शक्ति की अभिव्यक्ति और अंतरराष्ट्रीय ‘आतंकवादी धमिकियों’ से युक्त बताने के जरिए स्वयं को व्यक्त करता है।
सोवियत संघ के विघटन के बाद से, भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा/संघर्ष और आर्थिक प्रतिस्पर्धा के अखाड़े ने कई संरचनाओं को खोल दिया है, जिन्होंने तब से साम्राज्यवादी, विस्तारवादी और अधीनस्थ राष्ट्र राज्यों के विभिन्न खेमों से अमेरिकी वर्चस्व/आधिपत्य को चुनौती देने की कोशिश की है। साझे बाजार और साझी मुद्रा के साथ प्राथमिक रूप से जर्मनी और यूरोप के अन्य साम्राज्यवादी देशों की अगुआई में 1990 के दशक में यूरोपीय संघ का निर्माण अमेरिका के प्रतिस्पर्धी के रूप में उभरता जान पड़ा और इसने डॉलर की ताकत को चुनौती दी। कुछ शुरुआती सफलता के साथ, परियोजना ने कई यूरोपीय पूंजीवादी देशों को आकर्षित किया। लेकिन शुरुआती सफलता रुक गई और 2007-08 के संकट के बाद यूरोजोन की आर्थिक परियोजना को तगड़ा झटका लगा। यूरोज़ोन ने दीर्घकालिक मंदी में प्रवेश किया, विभिन्न देशों में राजकीय खर्च में कटौती के उपायों ने वाम व दक्षिण दोनों संरचनाओं के मध्य यूरोप को लेकर संशयी राजनीतिक प्रवृत्तियों को मजबूत किया। ग्रीस और उसके बाद ब्रेक्सिट के संकट के बाद यूरोपीय संघ की राजनीतिक परियोजना अमेरिकी वर्चस्व के विरुद्ध प्रतियोगी के रूप में कम आशाजनक प्रतीत होती है। पिछली सदी के आखिरी दशक की शुरुआत में लैटिन अमेरिका से अमेरिकी आधिपत्य का सशक्त क्षेत्रीय विरोध देखा गया। इस क्षेत्र में, अमेरिकी साम्राज्यवाद का 20वीं सदी भर में लूट, दमन, सीआईए द्वारा रचे गए तख्तापलटों और कठपुतली सरकारों का लंबा इतिहास रहा है। नवउदारवाद के पहले प्रयोगों और उनके पहले नकारात्मक परिणामों को भी विभिन्न लैटिन अमेरिकी देशों में अनुभव किया गया। लंबे समय तक अमेरिका के नेतृत्व में लगाए गए व्यापार-प्रतिबंध के बावजूद उत्तर-क्रांतिकारी क्यूबा अमेरिका साम्राज्यवाद के विरुद्ध सुसंगत अभियानकर्ता था लेकिन उसने सोवियत संघ के विघटन के बाद एक हद तक अलगाव का सामना किया। 1998 से चावेज़ के नेतृत्व में वेनेज़ुएलाई शासन के समय से, अमेरिकी नेतृत्व वाले साम्राज्यवाद के खिलाफ अभियान ने संवेग प्राप्त किया। वेनेज़ुएला में आमूलगामी सामाजिक सुधार, वेनेज़ुएला और क्यूबा के बीच मजबूत संबंध, अलग व्यापारिक खेमे का गठन और वेनेजुएला, क्यूबा, बोलीविया, ब्राजील और अन्य लैटिन अमेरिकी देशों के मध्य अमेरिका विरोधी लैटिन अमेरिकी क्षेत्रीय सहयोग के प्रसार ने दुनिया भर में साम्राज्यवाद-विरोधी और नव-उदारवाद-विरोधी संघर्ष में आशा का संचार किया।
. लेकिन ‘शावेज के करिश्मे’ और तेल से होने वाली आय पर बहुत अधिक निर्भर वेनेजुएलाई सफलता चावेज की मृत्यु और तेल की कीमतों में गिरावट के बाद हाल के वर्षों में संकटग्रस्त हो गई। पिछले कुछ दशकों में अनेक बड़े विकासशील देशों और ‘उभरती अर्थव्यवस्थाओं’ की सापेक्षिक रूप से उच्च वृद्धि के साथ, भू-राजनीतिक अखाड़े ने कुछ नए ध्रुवीकरण देखे। वैश्विक आर्थिक संकट के बाद ब्रिक्स के निर्माण ने ‘विश्व का नया ग्रोथ इंजन’, उसकी अमेरिकी नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी खेमे के मुकाबले प्रति-वर्चस्वशील भूमिका, बनने की अपनी संभाव्यता के चलते कुछ ध्यान खींचा। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में ब्रिक्स की कार्यप्रणाली इतनी सामंजस्यपूर्ण और उम्मीद जगाने वाली नहीं रही है। बल्कि चीन की गतिविधियों, रूस, ईरान, वेनेजुएला और अन्य की तरह के अमेरिकी नेतृत्व वाले साम्राज्यवाद के विरोध के मुख्य स्वरों के साथ उसके सहयोग, अफ्रीका, दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण चीन सागर में उसकी गतिविधि, 60 देशों को अपने घेरे में लेने वाली उसकी वन बेल्ट वन रोड परियोजना इन सभी ने भूराजनीतिक प्रतिस्पर्धा में कुछ नए आयाम जोड़े हैं।
शीत युद्ध की अवधि के दौरान मध्य पूर्व में अमेरिकी साम्राज्यवाद की भूमिका ने इस्लामी कट्टरपंथ के उदय में बहुत अधिक योगदान दिया। लेकिन, इस्लामिक कट्टरपंथ के विकास को पिछले दो दशकों में कई बार अमेरिकी साम्राज्यवाद का विरोध करने वाली शक्ति के रूप में देखा गया है। अमेरिकी साम्राज्यवाद अब ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ की परियोजना के तहत मध्य-पूर्व और अन्यत्र युद्ध और दमन के जरिए क्षेत्रीय नियंत्रण स्थापित करने के लिए इस टकराव का उपयोग कर रहा है और खास तरह के इस्लामोफोबिया का प्रसार कर रह है। फिर भी इस्लामिक आतंकवाद की प्रगतिशील साम्राज्यवाद-विरोधी भूमिका की कल्पना बिल्कुल गुमराह करने वाली है। इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान पर हमले के बाद, और हाल ही में सीरियाई संघर्ष के बीच, अमेरिकी साम्राज्यवाद के पक्ष में मध्य-पूर्व के देशों में भूतपूर्व भू-राजनीतिक स्थिरता और शक्ति संतुलन परिवर्तन के संकेत दर्शा रहा है। इस स्थिति में, चीन और रूस बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव जैसी अपनी परियोजनाओं के जरिए अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ करीब आने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अमेरिकी साम्राज्यवाद को इस्राइल और सऊदी अरब के साथ मजबूत गठजोड़ अभी भी इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व बनाए रखने की सहूलियत प्रदान कर रहा है।
साम्राज्यवाद का सांस्कृतिक वर्चस्व:
पूँजीपति वर्ग ने नव-उदारवाद और वैश्वीकरण के प्रश्नों को विचारधारा के प्रश्न के रूप में प्रस्तुत किया है। व्यक्ति की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, उपभोग की स्वतंत्रता और निजी स्वामित्व की स्वतंत्रता के प्रश्नों को नए ढंग से लोकप्रिय और बनाया जा रहा है और उत्सवित किया जा रहा है। उसी समय में, ‘योग्यता’ के विशेष मानक (अर्थात, बौद्धिक स्तर) विविध सांस्कृतिक परंपराओं से आने वाले लोगों की योग्यता को मापने के लिए विकसित किए गए हैं; नए और ‘वैज्ञानिक’ पैकेजों में नस्लीय श्रेष्ठता के सिद्धांतों को लाया जा रहा है; धर्म विशेष या सभ्यता के लोगों पर रूढ़िवादी और हिंसक होने का ठप्पा लगाया जा रहा है और उन्हें समूची मानवता के शत्रुओं के रूप में चित्रित किया जा रहा है। दुनिया भर में ज्ञान के संस्थानों पर साम्राज्यवाद का प्रभाव और ज्ञान उत्पादन की प्रक्रिया ऊपर पूंजी का वर्चस्व साम्राज्यवाद के बौद्धिक-सांस्कृतिक वर्चस्व का महत्वपूर्ण स्तंभ है।
उपनिवेशवाद के चरण से शुरू कर, यूरोपीय उपनिवेशवादियों ने आधुनिकता/प्रबोधन की विचारधारा को फैलाने के नाम पर ‘असभ्य’ नस्लों को ‘सभ्य’ बनाने के लिए अपने ‘सभ्यता मिशन’ की शुरुआत की। औपनिवेशिक समाजों में ‘तार्किकता’ और व्यक्तिगत स्वतंत्रता स्थापित करने के नाम पर उपनिवेशों भर में यूरोपीय सभ्यता के विश्व की किसी भी अन्य सभ्यता से कहीं अधिक श्रेष्ठ होने का प्रचार किया गया था। यूरोपीय संदर्भ में विकसित की गई श्रेणियों और मानकों का उपनिवेशों के समाज और संस्कृति को समझने के लिए समझने के लिए बिना विचारे उपयोग किया गया और उन बेगाने मानकों के आधार पर उन पर पिछड़े होने का ठप्पा लगाया गया। उपनिवेशों के काफी बड़े तबके, विशेष रूप से औपनिवेशिक समाजों के सामाजिक रूप से हावी तबकों ने इस आख्यान को आत्मसात कर लिया है और विचार के उस ढांचे के भीतर ऊपर की ओर गतिशीलता की अपनी आकांक्षाओं को साकार करने का प्रयास किया। विभिन्न देशों के साम्राज्यवाद-विरोधी राष्ट्रीय-मुक्ति आंदोलन ने इस प्रक्रिया के खिलाफ कभी-कभी सशक्त सीमा-रेखा खींची है, अन्य समय में विचारधारात्मक वर्चस्व के इस ढांचे के भीतर राजनीतिक स्वतंत्रता खोजी गई है। समकालीन साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक वर्चस्व को इस औपनिवेशिक इतिहास के साथ निरंतरता और विच्छेद के जटिल संयोजन के रूप में समझना होगा।
विश्व पूंजीवाद ने आज सट्टेबाजी और शेयर बाजार के जरिए वित्तीयकरण को इस तरह पेश किया है जो कि यह इंगित करता है कि कोई भी अमीर बन सकता है, जबकि वास्तविक तस्वीर इसके ठीक उलट है। जिस हद तक प्रौद्योगिकीय विकास विश्व भर में लोगों को जोड़ने में सक्षम रहा है, उस हद तक जिन तरीकों से फेसबुक, व्हाट्सएप, ट्विटर और मोबाइल फोन ने कनेक्शनों/संबंधों को संभव बनाया है, उसे साम्राज्यवाद द्वारा अपने खुद के उद्देश्य के लिए गढ़ा जा रहा है। ये सभी सोशल-नेटवर्किंग साइट्स प्रतिदिन बारी मात्रा में डेटा का उत्पादन कर रही हैं जिनका उपयोग पूंजी संचयन के लिए कच्ची सामग्री के रूप में किया जा रहा है। दूसरी ओर साम्राज्यवादी संस्कृति प्रतिदिन श्रम के पुनरुत्पादन के सामाजिक वर्ग का पुनर्गठन कर रही है ताकि मनुष्यों को अभिनव उत्पादों के उपभोक्ताओं के रूप में गढ़ा जा सके और इनके जरिए विश्व की सांस्कृतिक विविधता को विभिन्न तरीकों से नष्ट किया जा रहा है। साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक वर्चस्व को समझना साम्राज्यवाद के समग्र परिचालनों को समझने का बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू है।
अल्प विकसित विश्व में पूंजीवादी विकास का प्रश्न
साम्राज्यवाद के इस युग में तीसरी दुनिया में पूंजीवादी विकास की संभावना विभिन्न धाराओं के मार्क्सवादियों के बीच गहन चर्चा का विषय है। 50 के दशक की शुरुआत में, चीनी क्रांति ने विश्व साम्राज्यवाद के साथ अपने बंधनों को पूरी तरह से खत्म करके तीसरी दुनिया के विकास के लिए स्पष्ट रूप से निश्चित तरीके को चिह्नित किया। तभी से, नई जनवादी क्रांति की अवधारणा अल्प-विकसित देशों की आर्थिक प्रगति के लिए निश्चित आधार-स्वर बनी हुई है। तथापि, तमाम दूसरे देशों, जैसे कि वे देश जो कि औपनिवेशिक शासन की बेड़ियों से ‘औपचारिक’ स्वाधीनता प्राप्त करने में सक्षम रहे हैं, के संबंध में यह प्रश्न धुँधला बना हुआ है। फिर भी, ये देश साम्राज्यवाद के साथ सशक्त कड़ी में जुड़कर परिचालन करते हैं। हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद वैश्विक पूँजीवाद के साथ-साथ साम्राज्यवाद की कार्यप्रणाली कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तनों से होकर गुजर रही है। लैटिन अमेरिका में वैश्विक वित्त पूंजी की ओर से अन्य निर्भर देशों के साथ-साथ नव-स्वाधीन देशों के प्रति नीतियों में निश्चित परिवर्तन हैं।
तमाम कम्युनिस्ट क्रांतिकारी तबकों के बीच यह विचार प्रबल है कि नई जनवादी क्रांति के अलावा ऐसा कोई अन्य तरीका नहीं है जिसके माध्यम से तीसरी दुनिया की सामाजिक संरचनाओं में संभवतः पूंजीवादी रूपांतरण हासिल किया जा सके। तथापि, इस अवधारणा को वर्तमान वैश्विक संदर्भ में सैद्धांतिक और अनुभवजन्य दोनों रूप से मान्य किया जाना है। अन्यथा हम इन धारणाओं के आधार पर तीसरी दुनिया के इन देशों में क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए कतिपय गलत रणनीति और रणकौशल अपना सकते हैं।
ऊपर बताए गए प्रश्न को हल करने के लिए हमें तीसरी दुनिया में साम्राज्यवाद के संरचनात्मक दांव-पेंच की आर्थिक जड़ों को अनिवार्य रूप से समझाना होगा। लेनिन के अनुसार साम्राज्यवाद के युग में इजारेदार-प्राप्त औद्योगिक पूँजी के साथ संकेंद्रित बैंक पूँजी के मेल और वस्तुओं के निर्यात से अलग पूँजी के निर्यात के रूप में वित्त पूँजी का उद्भव अर्थव्यवस्था की दो सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषताएं हैं। तीसरी दुनिया के इन क्षेत्रों में पूंजी का निर्यात साम्राज्यवाद को निश्चित लाभ प्रदान करता है। पूंजी का निर्यात प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, प्रत्यक्ष वित्तीय निवेश, पूंजीगत वस्तुओं के निर्यात जैसे विभिन्न रूपों में होता है। पूंजी की कमी, सस्ते कच्चे माल, श्रम और भूमि के चलते यह निर्यातित पूंजी उच्च दर प्राप्त करती है। इन क्षेत्रों में पूँजी की कमी, सस्ती कच्ची सामग्री, श्रम और जमीन के लाभों के चलते निर्यात की गई इस पूँजी को लाभ की उच्चतर दर प्राप्त होती है। अतः तीसरी दुनिया के पूर्व-पूँजीवादी सामाजिक संबंधों को संरक्षित रखकर वहाँ पर इन लाभों को बरकरार रखने के लिए साम्राज्यवाद की ओर से अभियान चलाया जा सकता है। तथापि, इस इस मसले का एक और पक्ष बना रहता है, जहाँ ऊपर बताए गए रूपों में पूंजी के कुशल निर्यात के लिए साम्राज्यवाद स्वाभाविक रूप से तीसरी दुनिया के पूर्व-पूँजीवादी ढाँचों में कम से कम अच्छे-खासे स्तर का परिवर्तन करना चाहेगा। लिहाजा, साम्राज्यवाद की तीसरी दुनिया में दोहरी भूमिका है:
- उसे पूंजी निर्यात (या इसके बुनियादी विनिर्माण के हिस्से के रूप में उप-ठेकेदारी) के संरचनात्मक लाभों को बनाए रखना है और यह इन देशों में पूंजीवाद के पूर्ण विकसित विकास को सुगम नहीं बना सकता है।
- दूसरी ओर, निर्यातित पूंजी के कुशल आवंटन के लिए इसे इन देशों में अगर गुणात्मक परिवर्तन नहीं तो कम से कम पूंजीवाद के कुछ उल्लेखनीय विकास को बढ़ावा देना होगा।
हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि पिछले 100 वर्षों में विश्व में उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्षों ने पूरे विश्व के लोगों की चेतना को इस तरह से बढ़ाया कि साम्राज्यवादी ताकतें अपने विश्वव्यापी आधिपत्य और ‘मूल्य’ निचोड़ने को बनाए रखने के लिए वैकल्पिक नीति और तंत्र को विकसित करने के लिए बाध्य हुईं।
. लेकिन उपनिवेशवाद की समाप्ति या औपचारिक स्वतंत्रता की शुरुआत ने अर्ध-उपनिवेश/निर्भर देशों के पूंजीपति वर्ग को कुछ हद तक ‘स्वतंत्र रूप से’ पूंजीवादी विकास के मार्ग को चुनने की जगह प्रदान की। अंतर-साम्राज्यवादी अंतरविरोधों ने भी उस स्थान को बनाने में मदद की। जहां आंतरिक वर्ग संघर्ष और राज्य तंत्र के विकास ने सुभीता प्रदान किया, औपचारिक रूप से स्वाधीन देशों के नए सत्तारूढ़ वर्ग ने (अनुकूल लोकप्रिय औपनिवेशिक विरोधी मनोभावों का उपयोग करके) घरेलू पूँजीपति वर्ग, हालांकि वे साम्राज्यवादी पूँजी और प्रौद्योगिकी पर अत्यधिक निर्भर थे, के विकास हेतु जगह मुहैया कराने के लिए साम्राज्यवादी ताकतों के विरुद्ध सुरक्षात्मक उपाय अपनाए। साम्राज्यवादी ताकतों ने भी इस ‘संरक्षणवाद’ को अपरिहार्य विश्वव्यापी उपनिवेशवाद-विरोधी परिघटना के रूप में जाना और इन पूरी तरह से ‘संरक्षित’ पूंजीपति वर्ग को पूंजी और प्रौद्योगिकी प्रदान करने लगीं। उन्होंने उस समय के कमजोर पूँजीपति वर्ग की ओर से निर्भरता और तीसरी दुनिया के इन समस्त पूँजीपति वर्ग के साथ अपनी ओर से सहयोग के रिश्ते को बनाए रखने की कोशिश की। तीसरी दुनिया के देशों के बड़े पूंजीपतियों की यह निर्भरता और सहयोग दूसरे विश्व युद्ध के बाद के काल में विलय-सहयोग की मार्फ़त साम्राज्यवादी इजारेदार पूंजी से बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय केंद्रीकरण की प्रक्रिया में जुड़ गया।
साम्राज्यवाद के समग्र प्रभाव के तहत राजकीय हस्तक्षेपों और अनुकूल अंतरराष्ट्रीय परिस्थिति जैसी अन्य संरचनात्मक विशिष्टताओं के साथ-साथ यह आंतरिक वर्ग संबंध हैं हैं जो तीसरी दुनिया में पूँजीवादी विकास की संभावना की बाबत अंतिम कार्यप्रणाली को निर्धारित करते हैं। लेनिन के समय से ही, विदेशों द्वारा पूँजी का निर्यात, यहाँ तक कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के रूप में भी, यूरोप के भी विकसित पूँजीवादी देशों में उन्नत था। न केवल पिछड़ी अर्थव्यवस्था से प्राप्त मुनाफे की उच्चतर दर ने बल्कि आर्थिक लाभों की ओर ले जाने वाले प्रभाव क्षेत्र के रखरखाव ने भी पूँजी का निर्यात करने के लिए वित्त पूँजी को सहज ढंग से उतारू बनाया। अतः, तीसरी दुनिया का कोई देश अगर पूँजीवादी रूपांतरण से गुजरता भी है तो भी उस समय तक साम्राज्यवाद के संरचनात्मक लाभों पर रोक नहीं लगाएगा जब तक कि तीसरी दुनिया के संबंधित देश के साथ निर्भर रिश्ते के जरिए प्रभाव क्षेत्र को जारी रखा जा सकता है। और यही नहीं, न केवल अर्ध-सामंती, अर्ध-औपनिवेशिक सामाजिक बनावट, बल्कि ऐसे देश का पिछड़ा पूंजीवादी विकास भी पूंजी की अपेक्षाकृत कम औसत अवयवी संरचना को अनिवार्य बनाता है, ताकि पिछड़ी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में सामाजिक रूपांतरण पूंजी की कम औसत अवयवी संरचना से निर्गत निर्यातित पूंजी की निर्धारित उच्चतर लाभ दरों को बाधित न करे।
तीसरी दुनिया के देश और साम्राज्यवाद के बीच संबंधों की अन्य विशिष्टताएँ भी हैं। यदि साम्राज्यवाद अर्ध-उपनिवेश/निर्भर देश के बाहर सस्ते खाद्य संसाधनों और अन्य कच्ची सामग्रियों का निरंतर लाभ लेना पसंद करता है, तो वह उस देश के पूंजीवादी विकास को यथासंभव रोकने का प्रयास करेगा। तब भी, स्वयं इन कच्ची सामग्रियों के उत्पादन की प्रक्रिया भी कुछ हद तक पूँजीवादी विकास को बढ़ावा देती है। यदि साम्राज्यवाद बड़े पैमाने पर सस्ते श्रम को खरीदना पसंद करता है और उसके समानांतर अपने पूंजीगत मालों और प्रौद्योगिकी को उस देश में सार्थक ढंग से बेचना चाहता है, तो वह चाहेगा कि निश्चित हद/प्रकार का पूंजीवादी विकास हो। यह वहां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से नए उद्योगों में निवेश करेगा, अन्य पूंजीपतियों के साथ एकजुट होगा और प्रतिस्पर्धा करेगा और उस देश में बाजार के विस्तार को बढ़ावा देगा। स्पष्ट रूप से, साम्राज्यवाद कम मजदूरी दर, कम क्रय शक्ति, मेहनतकश लोगों की विशाल आबादी के लिए बुनियादी सुविधाओं के अभाव आदि को बनाए रखकर पूंजीवाद के ‘पिछड़े और विकृत’ विकास को बढ़ावा देने की कोशिश करेगा।
लिहाजा, मोटे तौर पर कहें तो अगर तीसरी दुनिया का देश वैश्विक वित्त पूँजी पर अपनी संरचनात्मक निर्भरता को बनाए रखते हुए अगर अपेक्षाकृत पिछड़ी पूँजीवादी सामाजिक संरचना में रूपांतरित होता है तो यह साम्राज्यवाद के लिए फायदेमंद होगा। इस बात की हिमायत करने वाले सिद्धांत कि प्रमुख कारक होने के नाते साम्राज्यवाद भारत जैसे तीसरी दुनिया के निर्भर देशों में सामंतवाद के साथ साठगांठ करके अर्ध-सामंती अर्ध-औपनिवेशिक संबंधों को पूरी शिद्दत से बनाए रखता है। इस विचार की मुख्य कमजोरी यह है कि इस विचार के समर्थकों का मानना है कि साम्राज्यवादी देशों के इजारेदार पूंजीवादी संचयन का एकमात्र तरीका उपनिवेशों और अर्ध-उपनिवेशों के साथ असमान व्यापार के द्वारा बेशी को निचोड़ना है, जिसे ‘लूट’ से भी संज्ञापित किया जा सकता है। वे इस तथ्य से सहमत होने की ओर उन्मुख नहीं होते कि इस पहली प्रकार की प्रक्रिया की निरंतरता के साथ-साथ इजारेदार पूँजीवाद अन्य माध्यमों के जरिए भी अपना हित बनाए रख सकता है। उन्हें यह बात सही नहीं लगती कि अधीनस्थ देश के उत्पादन के पूँजीवादी तरीके से संगठित होने पर भी साम्राज्यवादी इजारेदार पूंजी अधीनस्थ देश से बेशी मूल्य और सुपर मुनाफे को निचोड़ने में सक्षम होती है और वास्तव में ऐसा करती भी है।
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चूँकि पूँजीवादी रूपांतरण के साथ-साथ आधुनिक विश्व व्यवस्था के परिचालन की भी उनकी धारणा विकृत है, इसलिए तीसरी दुनिया के पूँजीवादी विकास का उनका लेखा-जोखा भी बहुत भ्रम फैलाने वाला है।
क्रांति के बिना तीसरी दुनिया में पूंजीवादी रूपांतरण की संभावना की अवधारणा को खारिज करने के लिए अक्सर कई समस्यात्मक स्पष्टीकरण पेश किए गए हैं। इनमें से एक स्पष्टीकरण ‘विदेशी प्रौद्योगिकी’ और ‘विदेशी पूंजीगत मालों’ की अवधारणाओं से संबंधित है। दलील पेश की जाती है कि चूंकि तीसरी दुनिया के निर्भर देश विदेशी प्रौद्योगिकी और विदेशी पूंजीगत वस्तुओं का उपयोग कर रहे हैं, लिहाजा तीसरी दुनिया के इन देशों में औद्योगिक विकास के अंतिम परिणाम को पूंजीवादी विकास के रूप में निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता है। जब तक किसी देश ने घरेलू पूंजीगत मालों के साथ-साथ घरेलू प्रौद्योगिकी विकसित नहीं की हो, तब तक किसी देश के पूंजीवादी विकास का रास्ता अंधी गली में जाकर खत्म होता है। इस तरह के तर्क का समर्थन बिल्कुल भी नहीं किया जा सकता है। यह प्रौद्योगिकी या पूंजीगत वस्तुओं का स्रोत नहीं है जो पूंजीवादी विकास को निर्धारित करता है, बल्कि यह इन प्रौद्योगिकियों और पूंजीगत वस्तुओं से पैदा होने वाले बेशी मूल्य का प्रवाह है जो इसे निर्धारित करता है। फिर चाहे उत्पादित बेशी मूल्य के कम से कम एक हिस्से का देश के भीतर उत्पादन के साधनों में फिर से निवेश किया जाए, यह निश्चित रूप से उस देश में पूँजीवादी विकास करेगा। यह विदेशी पूंजी निवेश नहीं वरन विशिष्ट वर्ग संबंध और पूंजी की संरचनात्मक विशेषताएं हैं जो किसी देश के पूंजीवादी विकास को थोड़ा भी बढ़ावा देती हैं। यहां तक कि फ्रांस और जर्मनी समेत तमाम यूरोपीय देश अपने पूँजीवादी रूपांतरण की अवधि में भी प्रौद्योगिकी के साथ-साथ पूँजीगत मालों के लिए भी अधिकतर इंग्लैंड पर निर्भर थे, जिसके लिए इंग्लैंड इज़ारेदार लाभ के जरिए अतिरिक्त ‘मूल्य’ हस्तांतरण की फसल काटने में सक्षम था। इतना ही नहीं, पुर्तगाल जैसे देशों की कई मामलों में इंग्लैंड पर जोरदार ‘प्रतिकूल’ संरचनात्मक आर्थिक निर्भरता थी। लेकिन इन कारकों ने पूंजीवादी देश के रूप में उनके रूपांतरण में बाधा नहीं डाली।
इसके अलावा, विशेष रूप से 70 के दशक के बाद विकसित अर्थव्यवस्थाओं में लंबी गिरावट के बाद, वैश्वीकरण के रूप में विदित संरचनात्मक पुन: समायोजन की प्रक्रिया के माध्यम से विनिर्माण उद्योग त्वरित गति से तीसरी दुनिया में विकसित हो रहे हैं। वैश्विक वित्त पूंजी की मजबूरियों के चलते तीसरी दुनिया के कई देश त्वरित गति से ‘वैश्विक उत्पादन नेटवर्क’ में सम्मिलित होते जा रहे हैं। सर्वाधिक उल्लेखनीय रूप से, पिछली अवधि (औपनिवेशिक काल से 1960 तक) के विपरीत, तीसरी दुनिया के देश इस वैश्विक उत्पादन नेटवर्क में प्राथमिक उत्पादकों की भूमिका नहीं निभा रहे हैं, बल्कि ज्यादातर मामलों में, ब्राजील, भारत , दक्षिण कोरिया (अब विकसित देश के रूप में पहचाना जाने वाला), दक्षिण अफ्रीका और मिस्र आदि की तरह के तीसरी दुनिया के कुछ देश वैश्विक विनिर्माण क्षेत्रों में प्रमुख सहायक उत्पादक बन रहे थे। अतः वैश्विक वित्त पूंजी के ये नए तिकड़म निश्चित रूप से तीसरी दुनिया के एक हिस्से में पूंजीवादी विकास (आमतौर पर विकृत प्रकार के) को तेज करेंगे, बशर्ते कि इन देशों के आंतरिक वर्ग संबंध और सामाजिक संरचनाएं इसके लिए अनुकूल आधार का सुभीता प्रदान करें। फिर भी, यह विकास किसी भी तरह से वैश्विक वित्त पूंजी से स्वतंत्र नहीं हो सकता।
देश विशेष के संबंध में वैश्विक साम्राज्यवाद की विशिष्ट आवश्यकता और मंसूबे और साम्राज्यवादी ताकतों पर घरेलू पूँजीपति वर्ग की निर्भरता की प्रकृति और हद के अतिरिक्त, औपचारिक रूप से स्वतंत्र इन देशों के राज्य की संरचना है जो विश्व युद्ध के बाद की अवधि में साम्राज्यवादी संबंधों के रूपों और हद के साथ-साथ पूँजीवादी विकास की कार्यप्रणाली को निर्धारित कर रही है। ‘औपचारिक रूप से स्वतंत्र संरचना’ होने के नाते ये राज्य राजनीतिक रूप से औपनिवेशिक काल की प्रत्यक्ष साम्राज्यवादी अधीनता से मुक्त हैं, अब से आगे आंतरिक वर्ग निर्माण की प्रक्रिया और वर्ग संबंधों व अन्य गैर-वर्ग संबंधों के बीच की गतिकी की अभिव्यक्तियों को प्रतिबिंबित करते हैं। दलाल (कंप्राडोर) से शुरू होकर राष्ट्रीय तक के पूँजीपति वर्ग के विभिन्न स्तर के साथ-साथ उसके सापेक्षिक संतुलन की तरह के आंतरिक वर्ग संबंधों के विभिन्न आयाम, राजकीय हस्तक्षेपों को विनियमित करने वाले सामंती प्रभुओं और लगान लेने वालों की सापेक्षिक शक्ति, दमित किसान और मज़दूर वर्ग, स्वतंत्रता के बाद इन देशों में उदीयमान नए टुटपुंजिया वर्ग की भूमिका – ये सभी इन देशों के राजकीय ढाँचों और राजकीय हस्तक्षेपों में प्रतिबिंबित हुए हैं। मौजूदा वर्ग संबंधों के साथ-साथ धर्मों, जाति आधारित (विशेष रूप से भारत के लिए), जातीय, नस्लीय और राष्ट्रीयता के संघर्षों जैसे गैर-वर्गीय पहलुओं ने भी तीसरी दुनिया के इन देशों में राजकीय नीतियों को बनाने में गहरा प्रभाव डाला है। अंततः, इन बहुविध कारकों में अंतर मतभेद राज्य की नीतियों और हस्तक्षेपों में प्रकट हो रहे हैं और ये इन देशों के भीतर विकास के रास्ते को प्रभावित कर रहे हैं।
. ये कारक तीसरी दुनिया में पूंजीवादी विकास के संबंध में विभिन्न परिणामों को समझने के लिए संकेत के रूप में बने हुए हैं; दक्षिण कोरिया या चिली जैसे कुछ देश उल्लेखनीय पूंजीवादी विकास करने में सफल रहे हैं जबकि अन्य जैसे पाकिस्तान या उप-सहारा अफ्रीका के अधिकांश देश कोई भी प्रभावी विकास करने में विफल रहे हैं। आइए अब हम भारत सहित तीसरी दुनिया के कुछ देशों के विशिष्ट उदाहरणों के साथ इस विकास पर चर्चा करते हैं।
तीसरी दुनिया के चीन के कुछ देशों में पूंजीवादी रूपांतरण
पिछले दशक से, पूंजीवादी विश्व में यह भलीभाँति स्पष्ट है कि चीन प्रभावी शक्ति के रूप में उभर रहा है। आर्थिक शक्ति (कुल जीडीपी के अनुसार) और सैन्य शक्ति (प्रतिरक्षा व्यय के लिहाज से) के रूप में दूसरे स्थान पर होने के नाते और इस तरह के तमाम कारकों ने उसे ऐसा बनाया है। हालांकि विश्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या संयुक्त राष्ट्र चीन को विकसित देश के रूप में शामिल नहीं करते हैं (प्रति व्यक्ति आय और मानव विकास सूचकांक कम होने के चलते), पर अमेरिका के लगातार कमजोर होने ने चीन के महाशक्ति बनने की संभावना को जन्म दिया है।
1980 के दशक से पहले, चीन का आर्थिक मार्ग विश्व पूंजीवादी संचयन प्रक्रिया से अलग था। हालांकि ग्रामीण चीन में क्रांतिकारी भूमि सुधारों ने पूर्व-पूंजीवादी तत्वों को व्यापक रूप से नष्ट कर दिया, लेकिन सुस्त उत्पादक शक्तियों के कारण कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में मेहनतकश जनता की सत्ता के सामने उत्पादन, वितरण और गरीबी उन्मूलन की चुनौतियाँ खड़ी हो गईं। चूँकि पार्टी के भीतर पूंजीवादी पथगामी आर्थिक विकास के अपने विचार के साथ हावी थे, इसलिए चीन ठीक उसी रास्ते पर 1960 के दशक के आखिरी समय से चल पड़ा।
1950-85 का चीनी इतिहास दर्शाता है कि वर्तमान पूंजीपति वर्ग की भूमिका साम्राज्यवादी ताकतों के संबंध में भारत और तीसरी दुनिया के देशों की भूमिका के विपरीत ‘स्वतंत्र’ है। सत्ता में रहने वाला पूँजीपति वर्ग ‘वैश्विक शक्ति’ के रूप में विकसित होने की आकांक्षा में साम्राज्यवादी हितों के नेतृत्व वाली विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था से जुड़ गया। उन्होंने अपनी प्रगति के लिए अन्तर्राष्ट्रीय इजारेदारी पूँजी का सहयोग, पूँजी और प्रौद्योगिकी प्राप्त करने का निश्चय किया। सस्ती कच्ची सामग्रियों की लूट और श्रमिकों के अत्यधिक शोषण के द्वारा अमेरिका और अन्य साम्राज्यवादी देश लगभग तीन दशकों से चीन का शोषण कर रहे हैं, जिसने बदले में चीन को सशक्त पूँजीवादी देश बना दिया, हालांकि तमाम तमाम कुरूपताओं के साथ। ‘स्वतंत्र’ पूँजीपति वर्ग की भूमिका और क्रांतिकारी भूमि सुधार के निष्पादन के उपक्रम ने चीन को नव-उदारवाद के आर्थिक-राजनीतिक वर्चस्व के बीच अनूठे रास्ते से आगे बढ़ने में मदद की।
चीन में पूंजीवादी सुधार 1978 में शुरू हुए। सुधारों के चरणों के बाद, चीन अपनी आंतरिक अर्थव्यवस्था में कई पूंजीवादी सुधारों को अंजाम देते हुए 2001 में विश्व व्यापार संगठन में शामिल हुआ। लेकिन, चीन बस अन्य विकासशील देशों की तरह शामिल नहीं हुआ, इसके उलट साम्राज्यवादी शक्तियों ने अपनी आंतरिक कमजोरी के चलते पूरी सतर्कता के साथ चीन को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में शामिल करने का निर्णय लिया। अन्य देशों के पूँजीपतियों के विपरीत, जहाँ पर नव-उदारवाद के आदर्श में राजकीय हस्तक्षेप पर सख्त प्रतिबंध लागू किए गए हैं, सार्वजनिक क्षेत्रों की बाबत चीन के पूँजीपतियों के स्वयं के निर्णयों के बावजूद उसे अपवादिक रूप से सम्मिलित किया गया।
लेकिन इस प्रक्रिया ने चीन को वैश्विक पूंजीवादी नेटवर्क में फँसा दिया है। उन्होंने अनेक वर्षों तक अपनी मुद्रा का मूल्य घटाए रखकर विदेशी पूंजी निवेश को आकर्षित किया। इस प्रकार, चीन ने उच्चतम वैश्विक विदेशी मुद्रा भंडार बनाया है। लेकिन, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि को लंबे समय तक 10% पर बनाए रखने के लिए तीन दशकों तक श्रमिकों के वेतन को बहुत कम स्तर पर रखा गया, ताकि चीन के उत्पादों को वैश्विक स्तर पर बहुत कम कीमत पर बेचा जा सके। विकसित देश कई ऐसे उद्योगों को चीन लेकर गए जो पर्यावरण को पहुँचने वाली हानि के मद्देनजर उनके अपने देश में अवांछित थे। इससे पानी और अन्य प्राकृतिक संसाधनों की भारी हानि हुई और पर्यावरण प्रदूषण चीन में गंभीर सामाजिक समस्या बन गया।
दूसरी ओर, त्वरित पूंजीवादी विकास ने लोगों में बेहतर जीवन की आकांक्षा को जन्म दिया, जिस पर राजकीय दमन के द्वारा वर्चस्व कायम नहीं किया जा सकता। पिछले दो दशकों में, चीन के मजदूर वर्ग ने देश के विभिन्न औद्योगिक इलाकों में असंख्य संघर्षों का गठन किया है। बेहतर पर्यावरण की मांग को लेकर तेजी से जनांदोलन खड़े हुए। परिणामस्वरूप, 2004 से एक दशक तक श्रमिकों के वेतन में 12-15% की वृद्धि होती रही।
. नतीजतन, अन्य देशों की तुलना में, चीन अपने सस्ते श्रम को लेकर मैदान छोड़ना शुरू कर दिया। निचोड़ के तौर पर कहें तो चीन ने उस राजनीतिक-आर्थिक चरण को पार करना शुरू कर दिया, जिसने इसके पहले साम्राज्यवादियों के तईं सुपर-शोषण या पर्यावरणीय रक्षा-कवच को खतरे में डालना सुनिश्चित किया था। अर्थव्यवस्था पर भी कुछ भारी प्रभावी के साथ वित्तीयकरण की वैश्विक लहर ने चीन के तटों को भी सराबोर कर दिया।
आज चीन कई कारकों के चलते चौराहे पर खड़ा है। विभिन्न गुण-दोष के बीच, वे चुनौतियों से पार पाने के लिए तकनीकी श्रेष्ठता हासिल करने के पथ का संधान कर रहे हैं। अनुसंधान एवं विकास के क्षेत्र में, उन्होंने 2006 में सकल घरेलू उत्पाद का 1.4% (जापान का 3%, अमेरिकियों का 2.6%) खर्च किया, जो एक दशक पहले की तुलना में दोगुने से भी अधिक था। चीन के लिए अब कई फायदे हैं। उन्होंने ‘न्यू नार्मल’ नामक आर्थिक विकास के नए रास्ते की शुरुआत की, जिसकी 2011-2016 की पंचवर्षीय योजना में स्पष्ट रूप से घोषणा की गई थी और यह ऐसे समय में है जबकि अमेरिका पूँजीवादी व्यवस्था के नेता के रूप में दिन ब दिन अपने प्राधिकार को खोता जा रहा है और कोई भी दूसरा देश अकेले उस नेतृत्व का दावा करने में सक्षम नहीं है। साम्राज्यवादियों ने भी 2008 के बाद के संकट में अपनी ताकत खो दी है। वे विकासशील देशों पर मजबूत नीतियां थोपने की स्थिति में नहीं हैं। पूंजीवादी दुनिया नई राह, नए नेता की तलाश में है और चीनी पूंजीपति वर्ग (जिसका प्रतिनिधित्व चीनी कम्युनिस्ट पार्टी करती है) इससे भलीभाँति अवगत है। उन्होंने ‘न्यू सिल्क रोड’ (2015 में जारी बेल्ट एंड रोड एक्शन प्लान) बनाने के लिए $900 बिलियन की विशाल योजना निर्धारित की है जो मध्य एशिया, मध्य पूर्व और यूरोप के बीच व्यापार को बढ़ाएगी।
लेकिन, चीन की राह इतनी आसान नहीं है। संयुक्त राष्ट्र के 2007 के आंकड़ों के अनुसार, चीन में लगभग 13 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिहाज से चीन अभी भी विकासशील देश (मध्यम आय समूह का देश) है। चूँकि विदेशी निवेशकों ने सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट के कारण देश को छोड़ना शुरू किया, इसलिए चीनी पूंजीपति वर्ग ने (2012-2013 में) घरेलू मांग, घरेलू उत्पादन और घरेलू बाजार में वृद्धि के नए रास्ते पर और तेजी से चलने का फैसला किया। लेकिन, निर्यात पर निर्भर व्यापार में गिरावट के चलते सरकार ने चीन की मुद्रा में त्वरित गिरावट को रोकने के लिए डॉलर के भंडार को खर्च करना शुरू कर दिया। फिर सरकार को कर्ज लेना शुरू करना पड़ा और वह भी बढ़ता ही जा रहा है। पूंजीवादी चीन को वैश्विक पूंजीवादी बाजार में और अधिक सक्रिय होने की राह पर आगे बढ़ना होगा। लिहाजा, उनके पास पूंजीवादी बाजार के अपरिहार्य नियम से खुद को अलग करने का कोई विकल्प नहीं है। उनके लिए महाशक्ति बनने की पूरी संभावना है, जो अभी तक विकसित पूंजीवादी देश बनने के निशान को पार नहीं कर सके हैं। तथापि, पूँजीवादी चीन को पूँजीवाद के विश्व इतिहास में ‘पूंजीवाद का इतिहास तनिक अलग’ लिखने का उत्कृष्ट अवसर मिल सकता है!
दक्षिण कोरिया
जापान का भूतपूर्व उपनिवेश दक्षिण कोरिया तीसरी दुनिया के देशों के मध्य पूंजीवादी विकास का उल्लेखनीय मार्ग है। अपनी धरती के गर्भ में कमोबेश कोई भी प्राकृतिक संसाधन नहीं रखने वाले और भारी आबादी वाले, स्वतंत्रता के शुरुआती दिनों से अमेरिकी साम्राज्यवाद वाद पर गहरी आर्थिक और राजनीतिक निर्भरता में उलझे हुए दक्षिण कोरिया का नामनात्र की जीडीपी में 11वाँ और क्रयशक्ति की बराबरी में 14वाँ स्थान है। वह हाल के दिनों में विश्व का आठवां सबसे बड़ा निर्यातक और दसवां सबसे बड़े आयातक हैं। विकसित देश के रूप में इसे घोषित किया गया है।
दक्षिण कोरियाई पूंजीवादी विकास को 1960 से 1988 तक सकल घरेलू उत्पाद में 6.2% की प्रति वर्ष तेज वृद्धि दर हासिल करते जाने और हर ग्यारह वर्षों में जीवन स्तर के लगातार दोगुने होते जाने के रूप में चित्रित किया गया है। और ‘चमत्कार’ इस तथ्य में निहित है कि- (ए) यह मुख्य रूप से संरक्षित अर्थव्यवस्था के रूप में विकसित हुआ लेकिन धीरे-धीरे नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के प्रभाव में आ गया। (B) कोरियाई पूंजीवादी विकास के पक्ष में इतिहास में विशिष्ट दशाएं आईं। प्रथम चरण में कोरिया का त्वरित औद्योगिक रूपांतरण जापान और अमेरिका से आर्थिक सहायता और ऋण पर बहुत अधिक निर्भर था। और बाद में, उत्तर कोरिया से वैचारिक और सैन्य रूप से लड़ने के लिए अमेरिका द्वारा वित्तीय सहायता, और वियतनाम के लोगों के खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व वाले युद्ध में उसकी भागीदारी के लिए विभिन्न प्रोत्साहन, (सी) वर्गीय संबंधों और राज्य की नीतियों जैसे आंतरिक कारकों ने भी अत्यधिक सहायता की। इस तरह के चमत्कारी विकास के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण संवेग भूमि सुधार और ग्रामीण पुनर्गठन से मिला। ग्रामीण क्षेत्रों में तीव्र वर्ग संघर्ष शुरू करने को तैयार विशाल कृषक वर्ग के साथ कम्युनिस्ट चीन और उत्तरी कोरिया से घिरे होने के नाते दक्षिण कोरिया ने ग्रामीण विकास परियोजना के साथ 1950 के वर्ष में कृषि से जुड़े सशक्त सुधारों को लागू किया। इस रणनीति की मुख्य विशेषताओं में सड़कों का निर्माण, नई कृषि प्रौद्योगिकियों और फसल की बेहतर किस्मों को अपनाना, स्थानीय लोगों को तत्पर होकर शिक्षा उपलब्ध कराना और उनमें परिश्रम, स्वयं सहायता और सहयोग जैसे मूल्यों का संचार करना शामिल था।
इसके साथ-साथ, कोरिया ने शुरुआती दिनों में संरक्षणवादी सीमा-शुल्क को बनाए रखते हुए बड़ी निजी पूंजी के नेतृत्व में निर्यात आधारित औद्योगीकरण (ईएलआई) की नीति अपनाई। भारत की तरह ही, तीसरी दुनिया का हिस्सा होने के नाते, दक्षिण कोरिया को औद्योगीकरण की अपनी मुहिम हेतु पूरी तरह से विदेशी प्रौद्योगिकी और पूंजी के लिए, विशेष रूप से अमेरिका पर निर्भर रहना पड़ा।
लेकिन 80 के दशक के अंत के बाद दक्षिण कोरिया नवउदारवादी व्यवस्था के तहत वैश्विक उत्पादन नेटवर्क और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली के भीतर सशक्त ढंग से सम्मिलित हो गया। 90 के दशक के बाद से सेवा और वित्तीय क्षेत्रों में निवेश में भारी बदलाव आया है। इसने अंततः वर्ष 1997 में गहरे वित्तीय संकट को जन्म दिया, जिसने इसकी अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित किया। आईएमएफ द्वारा दिए गए बेल आउट पैकेज के साथ, संकट के बाद दक्षिण कोरिया में उत्पादन क्षेत्र और श्रम की व्यवस्था में भारी बदलाव आया। सामाजिक सुरक्षा के विकल्प के रूप में ऋण आधारित उपभोग घरेलू ऋण के जीडीपी के 190 प्रतिशत हो जाने के साथ समूची अर्थव्यवस्था के और अधिक वित्तीयकरण की ओर ले गया। (स्रोत Reuters.com, 2018) वर्तमान में अन्य विकसित देशों की तरह दक्षिण कोरिया केवल 2.7% की बेहद धीमा वृद्धि से जूझ रहा है और बेरोजगारी 3.1% तक बढ़ गई है।
ब्राजील
दक्षिण अमेरिका के तीसरी दुनिया के देश, विशेष रूप से ब्राजील का साम्राज्यवाद के साथ तनिक निराला संबंध है, जो भारत या दक्षिण कोरिया की तुलना में किंचित अलग है। ब्राजील में अपने खुद के वर्ग संबंध और राज्य के ढाँचे के चलते विदेशी पूँजीवादी हमला भिन्न प्रकार का है। ब्राजील ने 1822 में पुर्तगालियों से अपनी औपचारिक स्वतंत्रता वापस हासिल की, लेकिन यह 1930 के दशक से पहले सशक्त औद्योगिक नीति नहीं लागू कर सका। ब्राजील का राजनीतिक इतिहास अशांत बना रहा, जिसने भारत या दक्षिण कोरिया के विपरीत, राष्ट्रीय पूंजीवादी विकास के लिए राज्य के हस्तक्षेप की अनुमति नहीं दी। ब्राजील के इतिहास में, व्यापक विद्रोहों के रूप में सामने आए वर्ग संघर्ष के प्रत्युत्तर में क्रमशः 1934 और 1964 में दो जुंटाएं सत्ता में आईं। ब्राजील में भूमि वितरण बहुत विषम बना रहा, यहाँ तक कि 2003 में भी 3.8% आबादी के पास 56% भूमि थी, जबकि 59% के पास केवल 6%। इस स्थिति में, एमएसटी आंदोलन के रूप में विख्यात भूमिहीन किसानों का संघर्ष 1979 से जोरशोर से जारी है, जिसकी वजह से 1990 के बाद से थोड़ा-बहुत जमीन का वितरण हुआ। इसके बावजूद, ब्राजील में कृषि बहुत अधिक पूंजी सघन है, नकदी फसलों के उत्पादन के लिए विकसित विदेशी प्रौद्योगिकियों का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया जाता है, और इस तरह से भूमिहीनों को ठहराव का शिकार औद्योगिक क्षेत्र में काम मिलना बंद हो गया। ऐसा ब्राजील के विशाल प्राकृतिक संसाधन के चलते हुआ है कि जमीन का मालिकान रखने वाला कुलीन वर्ग कृषि क्षेत्र में साम्राज्यवाद के साथ मजबूत गँठजोड़ कायम किए हुए है। 90 के दशक में उदारीकरण के बाद, कृषि के क्षेत्र में साम्राज्यवादी हमले में वृद्धि हुई और उसने अत्यधिक विकसित संकेंद्रित कृषि-व्यवसाय क्षेत्र की स्थापना की। यूरोपीय संघ, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया के बाद 45 प्रतिशत बाजार हिस्सेदारी पर कब्जा रखने वाली भारी विदेशी निवेश वाली 17 कंपनियों के साथ विश्व के निर्यातकों में इसका स्थान चौथा है। विश्व युद्ध के बाद की अवधियों में ब्राजील में औद्योगीकरण ने ऊपर की ओर दौड़ लगाई और 70 के दशक के अंत तक 6.5% की औसत वृद्धि और 1967 से 1973 के बीच कुल 200% की वृद्धि हुई। इसके उपरांत आयात प्रतिस्थापन मॉडल को अपनाया गया और पेट्रोलियम, खनन, बिजली जैसे प्रमुख क्षेत्रों को राज्य के मालिकाने में रखा गया। फिर भी, भारत के विपरीत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और एमएनसी के हमले ने अनेक तरीके से प्रमुख तरीके से योगदान दिया। ब्राजील के पूँजीपति वर्ग की सापेक्ष कमजोरी और साम्राज्यवादी एजेंटों के विभिन्न शेड्स के साथ दुरभिसंधि रचने वाले जमीन के मालिकों की मौजूदगी के चलते ब्राजील का पूँजीवादी विकास इस अवधि के दौरान भी बहुत अधिक विषम और विकृत रहा है। ब्राजील के पूंजीपति वर्ग का भारत की तरह न तो विशाल घरेलू बाजार पर नियंत्रण है और न ही वे दक्षिण कोरिया जैसे ईएलआई मॉडल के साथ अंतरराष्ट्रीय बाजार को हथिया पाए हैं। यह उस समय सुस्पष्ट हो गया जब ब्राजील की अर्थव्यवस्था इस आकर्षक वृद्धि के बाद ऊँची होती अमेरिकी ब्याज दर के चलते अस्सी के दशक में गहरे ऋण संकट में फँस गई। 1990 के बाद ब्राजील उदारीकरण के सशक्त मॉडल का अनुसरण कर रहा है और विदेशी पूँजी तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों की अर्थव्यवस्था में भारी दखलंदाजी हुई है। 2001 के वर्ष में व्यापार अधिशेष प्राप्त करके और ऐसे तैयार-अर्ध-तैयार उत्पाद का उत्पादन विकसित करके, जिसकी कीमत 2002-2005 के बीच वैश्विक बाजार में 43% बढ़ गई हो, वैश्विक अर्थव्यवस्था में ब्राजील की स्थिति मजबूत होती जा रही है और वह वैश्विक नॉमिनल जीडीपी उत्पादन में 7वें स्थान पर है। लेकिन चूँकि यह विकास माल निर्यातक के रूप में वैश्विक उत्पादन नेटवर्क में भाग लेने पर आधारित था, 2007-08 के संकट ने ब्राजील की अर्थव्यवस्था को वास्तव में भारी तरीके से प्रभावित किया।
. चूंकि 2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के चलते वैश्विक बाजार में माल की कीमत कम हो गई थी, इसलिए ब्राजील की अर्थव्यवस्था की विकास दर 2010 के बाद तेजी से गिरनी शुरू हो गई थी। इसने धीरे-धीरे 2015 से ब्राजील की अर्थव्यवस्था में गंभीर संकट को जन्म दिया और नकारात्मक विकास दर लगातार 3 वर्षों तक जारी रही। इस अवधि के दौरान बेरोजगारी की दर के 12 प्रतिशत तक बढ़ने के साथ ही इसने राजनीतिक संकट को भी जन्म दिया, जो कि राष्ट्रपति डिलामा रौसेल्फ के खिलाफ महाभियोग की ओर ले गया। अब अमेरिकी साम्राज्यवाद के मार्गदर्शन में काम कर रहे ब्राजील का वर्चस्वशील पूंजीपति वर्ग संकट के इस बोझ को मेहनतकश वर्गों के कंधों पर डालने के लिए राजकीय खर्चों में कटौती और वित्तीयकरण की अधिक कठोर नीति अपनाने की हिमायत कर रहा है।
एक अन्य दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना की एक कहानी है। लेनिन के साहित्य में अर्ध-उपनिवेश के रूप में परिभाषित अर्जेंटीना असल में प्रत्यक्ष साम्राज्यवादी हमले का ठिकाना था। यहाँ तक कि तथाकथित ‘पेरोनियन’ क्रांति के पहले 1945 तक देश के उद्योग का 45 प्रतिशत हिस्सा विदेशी मालिकाने वाला था। रेलमार्ग ब्रिटिश और फ्रेंच द्वारा नियंत्रित थे; मांस-पैकिंग व्यवसाय अमेरिकी फर्मों के हाथों में थे, सार्वजनिक क्षेत्र की जनोपयोगी सेवाओं का स्वामित्व और संचालन अमेरिकी और स्विस कंपनियों द्वारा किया जाता था, ऑटोमोबाइल उद्योग अमेरिकियों द्वारा संचालित थे और विनिर्माण कंपनियां या तो जर्मन थीं या फिर डच। पेरोन के सत्ता में आने के बाद वह ‘संगठित श्रम’ को नव-उदीयमान टुटपुंजिया वर्ग के साथ पूरे विश्वास के साथ जनरल कॉनफेडरेशन ऑफ लेबर के तहत ले गए ताकि विकास के उग्र-राष्ट्रवादी विज़न को निर्मित किया जा सके। जीओयू की नीति के साथ पेरोन के स्वामित्व वाले तथाकथित तीसरे रास्ते और ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता के अधिनियम’ के तहत शुरू की गई कई परियोजनाओं ने धीरे-धीरे सभी विदेशी स्वामित्व वाली कंपनियों को राज्य के नियंत्रण में ला दिया। अमेरिकी साम्राज्यवाद इन कदमों का बहुत विरोध कर रहा था और अंतत: 1955 में तख्तापलट करके उन्हें सत्ता से हटाने में सफल रहा। उसके बाद, तीखे वर्ग और गुटीय संघर्ष के साथ उथल-पुथल से प्रेरित राजनीतिक इतिहास ने 1973 में पेरोन को फिर से सत्ता में ला दिया, जिसके बाद 1976 में फिर से जुंटा शासन आया। इन अवधियों में से किसी में भी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था ने पूर्व-पेरोन काल की तरह सीधे विदेशी हमले के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया था। यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि लैटिन अमेरिका में कुल एफडीआई का 5% से भी कम 1983 से पहले अर्जेंटीना में गया था, जबकि वह फ़ॉकलैंड के युद्ध में नाटो से हार गया था। उसके बाद, अशांत राष्ट्रीय स्थिति में, उदारीकरण और आईएमएफ के हस्तक्षेप के जरिए, अर्जेंटीना ने अमेरिकी दबाव में नव-उदारवादी मार्ग अपनाया, और इसका पूंजीवादी रूंपातरण पहले ही पूरा हो चुका था। आजकल पूँजी के नौकरशाना मूल का पूँजीपतियों का सशक्त समूह समग्रता में साम्राज्यवाद पर भारी निर्भरता के साथ देश का नेतृत्व कर रहा है।
कुछ लैटिन अमेरिकी देशों की इस तरह की कहानी के बावजूद, पैराग्वे, इक्वाडोर, उरुग्वे, पनामा आदि की तरह के कुछ अन्य देश अपने पूंजीवादी रूपांतरण में बहुत पिछड़े हुए हैं, जबकि वे आर्थिक और सैन्य दोनों तरीकों से साम्राज्यवाद, विशेष रूप से अमेरिका द्वारा दृढ़ता से अपने अधीन किए जा रहे हैं।
दक्षिण अफ्रीका को छोड़कर उप-सहारा अफ्रीका के अधिकांश देशों की कहानी एक जैसी है, जिन्होंने रंगभेद के बाद की अवधि में निश्चित पूंजीवादी रूपांतरण का अनुसरण किया। अफ्रीका के अधिकांश देश अभी भी प्रत्यक्ष साम्राज्यवादी हमले के केंद्र हैं। कई ने अभी भी भूमि सुधार के लिए कोई औपचारिक कदम नहीं उठाया है और विनिर्माण में उल्लेखनीय रूप से पिछड़े हुए हैं। उनमें से कई आर्थिक और सैन्य दोनों तरह से परिचालित साम्राज्यवाद के द्वारा समर्थित सर्व-सत्तावादी व्यवस्था द्वारा शासित हैं।
मध्य पूर्व के अधिकांश हिस्सों में, तेल अर्थव्यवस्था पर पूरी तरह से साम्राज्यवाद का वर्चस्व है। मिस्र जैसे कुछ अपवाद हैं, जिसने औपनिवेशिक अतीत के बावजूद पूंजीवादी रूपांतरण हासिल किया। 1952 में नासिर के नेतृत्व में क्रांति ने मिस्र में पूंजीवादी रूपांतरण का मार्ग प्रशस्त किया। ‘फेलिया’ (काश्तकारों) के पक्ष में भूमि सुधार, राष्ट्रीयकरण और बैंक मिस्र के सुदृढ़ीकरण जैसी सशक्त नीतियों के साथ, मिस्र ने पूंजीवादी रूपांतरण के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया। राज्य के नेतृत्व में, मिस्र के नए उभरते पूंजीपति वर्ग ने 80 के दशक के भीतर विनिर्माण क्षेत्र की सतत वृद्धि का विस्तार किया, जिसने मिस्र में पूंजीवादी विकास की महत्वपूर्ण अवधि को चिह्नित किया। बाद में इसने तीसरी दुनिया के अधिकांश देशों की तरह नव-उदारवादी नीति अपनाई।
तो इन तमाम उदाहरणों पर गौर करने के बाद यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वैश्विक वित्तीय पूंजी पर निर्भरता के बावजूद तीसरी दुनिया में बिना किसी क्रांतिकारी परिवर्तन के पूंजीवादी रूपांतरण संभव है। लेकिन यह रूपांतरण न तो प्रकट है और न ही इस बात को जोर देकर कहा जा सकता है कि यह साम्राज्यवाद के नेतृत्व में हुआ है।
बल्कि जटिल वर्ग संबंधों और विभिन्न तरीकों से साम्राज्यवाद के साथ अंतरक्रिया करने वाली अन्य आंतरिक संरचनाओं ने तीसरी दुनिया में पूंजीवादी रूपांतरण का मार्ग प्रशस्त किया है। अफगानिस्तान से लेकर मध्य-पूर्व के अधिकांश देशों तक, एशिया में फिलीपींस से लेकर उप-सहारा अफ्रीका के बहुसंख्यक देशों तक तीसरी दुनिया के विशाल बहुसंख्या में अभी भी उस रूपांतरण की कमी है, जबकि वे आर्थिक व सैन्य दोनों ही तरीकों के जरिए साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के द्वारा गहन रूप से छलनियोजित हो रहे हैं।
अनुभाग सी : तीसरी दुनिया में क्रांति का प्रश्न
पूंजीवादी संचयन की अपनी समस्या से पार पाने के लिए साम्राज्यवाद किस प्रकार विकासशील और पिछड़े देशों का आर्थिक शोषण कर रहा है, इस पर हमने विस्तार से चर्चा की है। अगर समकालीन पूंजीवाद के कामकाज की विशिष्टताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता है तो सामान्य तौर पर, साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष में कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के कार्यभारों और उत्तर-पूंजीवादी समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण को निर्धारित नहीं किया जा सकता है।
उपनिवेशवाद के युग में विश्व स्तर पर तीसरी दुनिया में क्रांति का प्रश्न उपस्थित हुआ। सभी प्रगतिशील लोगों ने इसे साम्राज्यवाद के जबड़े से मानव सभ्यता को मुक्त करने के प्राथमिक कार्य के रूप में स्वीकार किया। इस अवधारणा को क्रियाविधि को रूपांतरित करने में कम्युनिस्ट अगुआ दस्तों में से एक थे। परिणामस्वरूप, कुछ देशों में क्रांति और असंख्य देशों के साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्षों में लोगों की भारी भागीदारी ने ऐसी प्रेरणा दी जिसने साम्राज्यवाद को अपने शासन और शोषण के रूपों को बदलने के लिए मजबूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उपनिवेशवाद में बदलाव और अधीन देशों की राजनीतिक स्वतंत्रता ने विश्व भर में साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में शानदार बदलाव का आगाज़ किया। तथापि, इन देशों के कम्युनिस्ट क्रांतिकारी मुख्य रूप से अगले चरण में इजारेदार पूंजी के कामकाज और इन देशों की आंतरिक राजनीतिक और आर्थिक स्थिति पर इसके प्रभाव को समझने में विफल रहे। इन देशों में कम्युनिस्टों की गतिविधियों में गंभीर ऊहापोह और विभिन्न मार्गों को अपनाए जाने के पीछे यह एक महत्वपूर्ण कारण था।
आज के साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की बाबत हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि अधीन देशों की राष्ट्रीय मुक्ति का कार्य अधीन देशों की राजनीतिक स्वतंत्रता के संदर्भ में कुछ हद तक समाप्त हो गया है, जो मुख्य रूप से उपनिवेशवाद के अंत तक साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के पहले चरण के साथ समाप्त हुआ। हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि इस तथ्य के बावजूद, कई देश अपवादिक रूप से इस वर्गीकरण से बाहर हैं। राष्ट्रीय मुक्ति के शेष प्रश्न को केवल साम्राज्यवाद के साथ अपने शोषक आर्थिक संबंध के पृथककरण या साम्राज्यवाद के राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक वर्चस्व को पूरे विश्व से समाप्त करके ही हल किया जा सकता है। साम्राज्यवाद से राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने वाले अधिकांश देशों (यदि सभी नहीं) में हम पूंजीपति वर्ग को राजनीतिक सत्ता में देखते हैं। चूँकि पूंजीवादी विकास के चरण और उसके फलस्वरूप साम्राज्यवाद के साथ उनके संबंध प्रत्येक देश के लिए व्यापक रूप से भिन्न हैं, इसलिए विभिन्न स्वरूपों के पूंजीवादी देश उभरे हैं। उनमें से अधिकांश को पूंजीवादी विकास के पैमाने के अनुसार ‘विकासशील और अल्प- विकसित’ कहा जा सकता है। इन देशों में पूंजीपति वर्ग के सत्ता में आने के बाद से ऐसे देशों में क्रान्ति की अवस्था को ‘समाजवादी’ कहा जा सकता है।
तथापि, ‘विकासशील और अल्प विकसित देशों’ के बीच भी, उनके पूंजीवादी विकास के आधार पर विभिन्न परतें मौजूद हैं। ऐसे देशों की पहली परत वे हो सकते हैं जिनकी प्रति व्यक्ति जीडीपी (पीपीपी) $18,000 से ऊपर है, जहां पूंजीवाद काफी हद तक विकसित हो चुका है। अंतिम परत में वे देश आते हैं जो मुख्य रूप से अफ्रीका से हैं और जिनकी स्थिति बहुत ही दयनीय है। पहली और अंतिम श्रेणी के बीच अन्य परतें हैं। वैसे भी, हालांकि जीडीपी के आंकड़ों से निर्भरता की सही प्रकृति को प्रकट नहीं किया जा सका, पर यह कहा जा सकता है कि ‘तीसरी दुनिया’ की श्रेणी में सशक्त विषमांगता है। ‘तीसरी दुनिया’ के एक देश के दूसरे देश के ऊपर आधिपत्य की तरह के अन्य कारकों ने काफी हद तक साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की संभाव्यता को काफी हद तक संरचनात्मक रूप से कम कर दिया है, जैसे कि नेपाल, भूटान या श्रीलंका के ऊपर भारत का क्षेत्रीय वर्चस्व या वह आर्थिक आधिपत्य और शोषण, जिसका प्रयोग अफ्रीका में चीन कर रहा है।
किसी देश में क्रांतिकारी स्थिति/आंदोलन का विकास कई वस्तुगत और मनोगत कारकों पर निर्भर करता है। शोषण की सीमा, आंतरिक असमानता की भयावहता और सबसे बढ़कर, आजीविका की असहनीय स्थिति जिसमें किसी देश के अधिकांश लोगों को समय/समयावधि के विशेष मोड़ पर रहने के लिए बाध्य किया जाता है, किसी देश में क्रांतियों के लिए अनुकूल दशाओं का निर्माण करती है। लेकिन देश में ऐतिहासिक रूप से क्रमशः विकसित स्वतंत्रता-समानता-लोकतंत्र का बोध और ‘तीसरी दुनिया’ के देश के लोगों द्वारा ऐतिहासिक रूप से प्राप्त आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों और आर्थिक संपन्नता की सीमा इन पैमानों पर ‘विकसित देशों’ से काफी भिन्न है। दूसरी ओर, प्रमुख विकसित देशों में वास्तविक मज़दूरी पिछले कुछ दशकों से बढ़ नहीं रही है, बल्कि किंचित गिर ही रही है। आर्थिक संकट के उपरांत विकसित दुनिया की श्रमिक आबादी के जीवन स्तर को और अधिक नीचे गिराया है, जिससे उनमें से कई बेरोजगार या बेघर हो गए हैं। यह प्रश्न कि विश्व क्रांति विकासशील और अल्प-विकसित देशों में होगी या विकसित देशों में, किस क्षेत्र से या किस देश से, विभिन्न देशों में वर्ग संघर्ष की वस्तुगत और मनोगत दशाओं की जटिल गतिकी और भविष्य में वैश्विक पूंजी की गतियों से उत्पन्न संकट की प्रकृति द्वारा तय किया जाएगा।
विकासशील और अल्प-विकसित देशों (जिन्हें ‘तीसरी दुनिया’ कहा जाता है) में सामान्य साम्राज्यवाद-विरोधी कार्यभार साम्राज्यवाद के हितों को साधने वाले नव-उदारवादी और वित्तीय वैश्विक पूंजीवादी नेटवर्क के सभी असमान और अधीनस्थ आर्थिक और राजनीतिक संबंधों से अलग होना है। यह कार्य केवल विकासशील और अल्प-विकसित देशों के क्रांतिकारी आंदोलन का कार्य नहीं है। कई विकसित पूंजीवादी देशों के लिए भी इस कार्य के प्रासंगिक होने के कारण हैं। साम्राज्यवाद का गहरा संकट विकसित देशों के साथ-साथ विकासशील और अल्प-विकसित देशों के मजदूर वर्ग द्वारा साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्ष की स्थिति पैदा करेगा। व्यावहारिक रूप से, यह एकता केवल मजदूर वर्ग के जागरूक संघर्ष के विकास के माध्यम से ही आगे बढ़ सकती है। ये प्रश्न वास्तविक जीवन में प्रासंगिक होंगे या नहीं, वर्तमान स्थिति में भविष्यवाणी करना संभव नहीं है।
आज वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था की स्थिति ऐसी है कि पूंजीवादी देशों के बीच अंतर्संबंध गहराई से बढ़ गए हैं, जिससे किसी देश विशेष में क्रांति का अंतरराष्ट्रीय चरित्र बढ़ गया है। प्रतिस्पर्धा की निरंतर गतिशीलता के साथ जिसके जरिए उत्पादन स्थल लगातार उन देशों की ओर स्थानांतरित हो जाते हैं जहाँ सस्ते कुशल श्रम और अन्य संरचनात्मक सुविधाएँ उपलब्ध हैं, वैश्विक उत्पादन नेटवर्क के मार्फत सृजित श्रम के नए वैश्विक विभाजन के साथ, विकासशील देशों की पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को प्रतिस्पर्धा की दुनिया में खुद को बनाए रखने के लिए खुद को और अपनी राजकीय नीति को लगातार ढालने के लिए मजबूर किया जा रहा है।
पूंजीवाद की अपने संकट को एक व्यापार से दूसरे व्यापार में या एक भू-राजनीतिक क्षेत्र से दूसरे में स्थानांतरित करने की क्षमता बढ़ गई है। तो प्रतिस्पर्धी बाजार में टीएनसी के पिछड़ने वाले कुछ परिधानों की समस्या को इसके पूरे उत्पादन को सस्ते श्रम वाले देशों में स्थानांतरित करके हल किया जा सकता है। किसी देश के मुद्रा भंडार में संकट, या ऋण संकट को किसी अन्य देश के ‘बेदखली के मार्फत संचयन’ के खिलाफ किंचित प्रतिरोध को कुचलने में स्थानांतरित किया जा सकता है। इसके अलावा, वित्त पूँजी की त्वरित गतिशीलता ने सिर्फ मुनाफे के मार्जिन के प्रतिशत में किंचित वृद्धि के लिए किसी देश की अर्थव्यवस्था को तबाह करके जबर्दस्त राजनीतिक उथल-पुथल पैदा करने के खतरे को उपस्थित किया है। आंदोलनों के सामान्यीकरण के दायरे में भी वृद्धि हुई है। भारत में ऑटोमोबाइल फैक्टरी में कुछ महीनों की हड़ताल अमेरिका में फैक्टरियों में कुछ हफ्तों के लिए उत्पादन के ठप होने का कारण बन सकती है और वास्तव में बंद कर रही है। लिहाजा, जब पूँजीवाद के एक केंद्र पर चोट पड़ती है तो उसका असर अन्य स्थानों पर पड़ेगा, जिसका क्रांतिकारी आंदोलन के उभार की लहर पर असर पड़ना ही पड़ना है।
विकासशील और अल्प-विकसित देशों में मेहनतकश लोगों के जीवन और आजीविका की स्थिति दयनीय दौर से होकर गुजर रही है। वस्तुनिष्ठ ढंग से, यह कहा जा सकता है कि क्रांतिकारी स्थिति विद्यमान है या परिपक्व हो रही है। लेकिन, सर्वहारा वर्ग और अर्ध-सर्वहारा वर्ग के एक बड़े हिस्से के बीच सचेत संघर्ष को आगे बढ़ाने की कोई प्रवृत्ति नहीं दिखती है, जो इस स्थिति को क्रांतिकारी संघर्ष में रूपांतरित करने में मददगार हो सकती थी। यह सच है कि कम्युनिस्ट आंदोलन की कमजोर स्थिति और वैश्विक स्तर पर पिछले आंदोलनों की तबाही ने मजदूर वर्ग की चेतना में क्रांतिकारी रूपांतरण के प्रति रुचि विकसित करने में नकारात्मक प्रभाव डाला है।
. लेकिन, यह इस तरह का एकमात्र कारक नहीं है। कम्युनिस्ट आन्दोलन में इस बात की चर्चा की जानी चाहिए कि सचेतन वर्ग संघर्ष को विकसित करने में और भी कई तत्व सक्रिय बाधा के रूप में देखे जा रहे हैं। दुनिया भर में पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली द्वारा किए गए संरचनात्मक परिवर्तनों के बाद या साम्राज्यवादियों के नेतृत्व में सर्वहारा विचारधारा के खिलाफ बुर्जुआ विचारधारा के पक्ष में सशक्त और सफल अभियान द्वारा, और उनके द्वारा खड़े किए गए विभिन्न प्रतिगामी जन आंदोलनों के प्रभाव के चलते वर्गीय आंदोलन के विकास के समक्ष बहु-आयामीय समस्याएं उपस्थित हो गई हैं। कम्युनिस्ट सचेत या अचेत तरीके से इन समस्याओं का सामना करने के लिए बाध्य हैं। ऐसी स्थिति में यदि विकासशील और अल्प विकसित देशों में ‘क्रांति के प्रश्न’ को ज्वलन्त प्रश्न के रूप में संबोधित किया जाना है तो समाधान आज वर्ग आंदोलन के विकास से पहले उठने वाले जिंदा सवालों से निपटने के मार्ग में निहित है। तत्काल क्रांति की संभावना को मानकर चलते हुए, तीसरी दुनिया में क्रांति के सवाल पर विचार करना नितांत मनोगतवाद होगा।
आज की दुनिया में, हमें इस बात को ध्यान में रखकर चलना होगा कि किसी भी राष्ट्र-राज्य में क्रांति पहले के मुकाबले अन्य भू-भागों में क्रांति से कहीं अधिक जुड़ी हुई है, जबकि हम वहाँ पर क्रांतिकारी कार्यभार को तय कर रहे होंगे। क्रांति का मुख्य निशाना उन सभी देशों में संबंधित पूंजीपति वर्ग होना चाहिए जहां पर वास्तविक राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल की गई थी। चूंकि एक राष्ट्र राज्य का पूंजीपति वर्ग साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था के साथ आर्थिक रूप से (आम तौर पर आर्थिक वर्चस्व के संदर्भ में) कायदे से जुड़ा हुआ है, साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की केंद्रीय धुरी उस राष्ट्र-राज्य के पूंजीपति वर्ग के खिलाफ वर्ग संघर्ष होगा। इसका अर्थ यह है कि वहाँ वर्ग संघर्ष की विभिन्न अवस्थाओं (निचली अवस्था में भी) में साम्राज्यवाद की अर्थव्यवस्था और नीति के साथ संघर्ष के अंतर्संबंध के महत्व का मूल्यांकन करना बहुत ही महत्वपूर्ण है। जब वर्ग संघर्ष का विकास आर्थिक संघर्ष से आगे निकल जाता है तो यह स्वाभाविक रूप से पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की समग्र चेतना से समृद्ध क्रांतिकारी कार्य को आत्मसात कर लेगा।
किसी भी विकासशील और अल्प-विकसित देश के सर्वहारा वर्ग और अर्ध-सर्वहारा वर्ग का सबसे उन्नत तबका समाजवादी क्रांति का कार्यभार संभालने और उसे वर्ग आंदोलन में तब्दील करने में सबसे दक्ष होता है। इस तरह के अगुआ दस्ते इस कार्य को वास्तविकता में कैसे समझेंगे और इसके लिए खुद को कैसे तैयार करेंगे, यह क्रांति के सिद्धिकरण के लिए सबसे बुनियादी पूर्व शर्त है। आज कम्युनिस्टों का कार्यभार आज की वास्तविकता में सहायक की भूमिका निभाना और जीवंत ढंग से क्रांति के प्रश्न को उपस्थित करना है।
किसी देश में स्पष्ट रूप से साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र (आज नवउदारवाद विरोधी) वाले जन आंदोलन स्वाभाविक रूप से कम्युनिस्टों का ध्यान आकर्षित करेंगे। समाज सुधार के लोकप्रिय जन आंदोलनों में कम्युनिस्टों की पहल और नेतृत्व को महत्वपूर्ण कार्यभार माना जाना चाहिए। साम्राज्यवादी विश्व भर में प्रतिगामी जन आंदोलनों द्वारा लोकतांत्रिक चेतना के विपथगमन की कोशिश कर रहे हैं और लोगों के मध्य के सामाजिक विभाजनों का उपयोग करके सक्रिय रूप से संचित भी कर रहे हैं। इस प्रकार, वर्ग संघर्ष के विकास के लिए समाज का गहरा लोकतांत्रीकरण पूर्व शर्त बन गया है। इस परिप्रेक्ष्य से जाति-विरोधी या लैंगिक संघर्षों या सभी प्रकार के सामाजिक उत्पीड़न और भेदभाव के खिलाफ संघर्षों में कम्युनिस्टों की भागीदारी क्रांति को बढ़ाने में मदद करेगी। औद्योगिक उत्पादन के नाम पर प्राकृतिक संसाधनों के असीमित विनाश और दुरुपयोग के खिलाफ जन संघर्षों, साम्राज्यवादी पूंजी और प्रौद्योगिकी को काम में लाने के लिए कृषि में जैव विविधता के विनाश, बीज-उर्वरक-कीटनाशक के गलत प्रयोग और इन पर एकाधिकार, साम्राज्यवाद द्वारा पर्यावरण (नदियों, समुद्रों, वायु, जंगलों आदि) के विनाश और टिकाऊ कृषि और छोटे किसानों के पक्ष में चल रहे वर्ग संघर्षों से जारी वर्ग संघर्ष को समाज में उच्चतर अवस्था में ले जाने में मदद मिलेगी।
वित्तीय पूंजी का प्रभुत्व और सर्वव्यापकता आज किसी भी आर्थिक रूप से विकासशील देश के लिए और अंततः उसकी संप्रभुता के लिए खतरा है। इसके आंदोलन की दिशा मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय इजारेदार पूंजी के हित के पक्ष में तय की जाती है। लिहाजा यह व्यावहारिक संघर्ष और उससे प्राप्त अनुभव के मार्फत वित्त पूंजी और वित्तीयकरण के चरित्र को बेनकाब करने और उसकी शक्ति और परिचालन की पहचान करने के लिए वर्ग-चेतना के विकास और मजदूर वर्ग की उन्नति के लिए सहायक होगा।
आज साम्राज्यवाद-विरोधी ‘प्रगतिशील राष्ट्रवाद’ को मजबूत करना आवश्यक क्रांतिकारी कार्यभार बन गया है। यह राष्ट्रवाद सभी प्रकार के क्षेत्रीय आधिपत्य के खिलाफ संघर्ष करेगा चाहे वह अधीनस्थ राष्ट्र-राज्य के कारण हो या प्रभुत्वशाली राष्ट्र-राज्य के कारण हो। यह उन सभी देशों और राष्ट्रीयताओं की गरिमा और समानता के लिए अभियान चलाएगा जो मूल रूप से सर्वहारा अंतरराष्ट्रीयतावाद का अनुसरण करते हैं। ऐसे देश विशेष के पूंजीपति भले ही किसी अन्य अपेक्षाकृत कमजोर देश के लोगों का शोषण, लूट और दमन करने में सक्षम होते हैं, तो भी यह पहले वाले देश के मेहनतकश लोगों की मदद नहीं करेगा बल्कि उनके खिलाफ इस्तेमाल किया जाएगा। इस बात को मेहनतकश जनता को धैर्यपूर्वक बताना होगा और यह कार्यभार प्रगतिशील राष्ट्रवाद का अभिन्न अंग होगा। यह राष्ट्रवाद प्रत्येक राष्ट्र-राज्यों के प्राकृतिक संसाधनों और मानव संसाधनों की सर्वोत्तम उपयोगिता के लिए पर्यावरण-हितैषी और टिकाऊ तरीके से जनमत तैयार करेगा और प्राकृतिक संसाधनों की साम्राज्यवादी लूट के खिलाफ संघर्ष करेगा। इस जनमत के निर्माण की दिशा में कम्युनिस्ट समाज के भावी क्रांतिकारी अवस्थांतर के पक्ष में प्रतिस्पर्धी राष्ट्रवाद और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के खिलाफ दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशियाई मेहनतकश लोगों (सर्वहारा अर्ध-सर्वहारा) के मध्य साम्राज्यवाद-विरोधी क्षेत्रीय सहयोग और एकजुटता लाने का प्रयास करेंगे।
साम्राज्यवाद ने आज अपना सांस्कृतिक वर्चस्व लादकर विकासशील और अल्प विकसित देशों पर चौतरफा हमला कर दिया है। साम्राज्यवाद के सांस्कृतिक हमले के खिलाफ सांस्कृतिक प्रतिरोध का निर्माण करना क्रांतिकारी गतिविधि का आवश्यक हिस्सा बन गया है। इसके लिए किसी देश की विविध भाषाई, क्षेत्रीय और जातीय संस्कृतियों की एकता को मजबूत करना और सामाजिक समानता और प्रगति के अनुकूल समस्त सांस्कृतिक परंपरा और रीति-रिवाजों के साथ इसे बढ़ाना आवश्यक है।
विकासशील और अल्प-विकसित देशों की क्रान्ति की अभिलाक्षणिक विशिष्टता पूँजीवादी विकास का ‘अधीनस्थ-विकृत’ चरित्र होगा।
निष्कर्ष
निष्कर्ष के तौर पर, कुछ और शब्द। उपर्युक्त तबकों ने साम्राज्यवाद की विशेषताओं, पिछली सदी के दौरान इसके विकास के संक्षिप्त इतिहास और सबसे बढ़कर तीसरी दुनिया के देशों के साथ इसके बदलते संबंधों को आजमाया और उसका प्रबंध किया है। हम ईमानदारी से मानते हैं कि जब तक हमें साम्राज्यवाद के तेजी से बदलते तौर-तरीकों और उसके साथ-साथ विश्व के विकासशील और पिछड़े देशों के शोषण के रूपों में होने वाले परिवर्तनों के बारे में अच्छी जानकारी नहीं होगी, हमारे सहित किसी भी देश में किसी भी क्रांति की सही रणनीतिक और रणकौशलात्मक दिशा विकसित करना असंभव है। . कामरेड लेनिन के समय से ही क्रान्ति ने अंतरराष्ट्रीय आयाम ग्रहण करना शुरू कर दिया था और किसी भी देश की साम्यवादी क्रान्ति विश्व समाजवादी क्रान्ति का अंग बन गयी थी। पिछले 100 वर्षों के दौरान विश्व पूंजीवादी व्यवस्था ने न केवल वैश्विक स्तर पर अपना फंदा कस लिया है बल्कि अपने प्रभाव क्षेत्र को हजार गुना तक फैला लिया है। दुनिया भर के सभी क्रांतिकारियों के लिए इसके शोषण के बहु-विध तरीकों का आद्योपांत अध्ययन, कभी-कभी दूसरे देशों पर खुला और बेशर्म-हमला, कभी-कभी मित्रता और समानता की प्रकट भाव-भंगिमा के साथ बहुत चतुर पैंतरेबाजी के साथ, दुनिया भर के समस्त क्रांतिकारियों के लिए फौरी कार्यभार बन गया है। भारत में हमारा यह कार्य बहुत कठिन और जटिल है क्योंकि साम्राज्यवाद हमारे साथ अधिक सूक्ष्मता और अधिक सावधानी से व्यवहार करता रहा है क्योंकि हमारे देश के बरअक्स उसका हित सर्वाधिक है।
इस पेपर के पाठकों को प्रभावित करने का हमारा प्रयास रहा है और इसके साथ ही हम भी कॉमरेड लेनिन और कॉमरेड माओ के समय से आए साम्राज्यवाद के परिचालन के तरीके में भारी बदलाव को समझना चाह रहे हैं। . . यदि हम इन परिवर्तनों को समझने में विफल रहते हैं, तो कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की ओर से हमारे महान नेताओं द्वारा सफलतापूर्वक काम में लाई गई पुरानी रणनीति और रणकौशल को काम में लाने की प्रवृत्ति बनी रहेगी। अजीब बात यह है कि हम सभी सैद्धांतिक रूप से आश्वस्त हैं कि (जैसा कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद ने हमें सिखाया है) सब कुछ हमेशा परिवर्तन की प्रक्रिया में होता है और इन ठोस परिस्थितियों का ठोस विश्लेषण करना कम्युनिस्टों का अनिवार्य कार्यभार है। लेकिन सबसे अधिक निराशा की बात यह है कि जब वास्तविक जीवन की बात आती है, यानी भारतीय क्रांति की दिशा तैयार करने का वास्तविक कार्य, हम आमतौर पर इन मूलभूत सबकों को भूले रहते हैं। क्या भारतीय कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के लिए यह बड़ी क्षति नहीं है कि सैकड़ों समर्पित कामरेड ऐसी राजनीतिक दिशा के अनुसरण में अपने कीमती जीवन का बलिदान कर रहे हैं जो मुश्किल से भारतीय वास्तविकता से मेल खाती हो? ये कामरेड यह अनुमान लगाने में बुरी तरह असफल हो रहे हैं कि वे कॉमरेड माओ के समय में नहीं जी रहे हैं।
. . पिछले 70 वर्षों के दौरान, न केवल साम्राज्यवाद का चरित्र, बल्कि भारतीय बुर्जुआ वर्ग का चरित्र भी व्यापक रूप से बदला है, इतना अधिक कि यह हमारी रणनीतिक और रणकौशलात्मक दिशा को प्रभावित करता ही करता है। इन कॉमरेडों को जितनी जल्दी अपनी गलती का अहसास हो जाए भारतीय क्रांति के लिए उतना ही बेहतर होगा, क्योंकि उनके समर्पण और बलिदान का जज्बा एकदम से निर्विवाद है।
सामाजिक उत्पादन के रूप के तौर पर पूंजीवाद अपने साथ इसके विनाश के बीज लेकर आता है। यह मुनाफे की गिरती दर की अपनी सहज प्रवृत्ति से कभी मुक्त नहीं हो सकता था। पिछले 100 वर्षों से पूंजीवाद इस अनवरत रुझान से पार पाने या अधिक उपयुक्त शब्दावली का उपयोग करके कहें तो बचे रहने का प्रयास करता रहा है। लेकिन इसे हासिल करने में लगातार नाकाम रहकर वह मार्क्स के समय से भी तरह-तरह के तरीके ईजाद करता रहा है। मार्क्स कल्पना कर सकते थे कि कैसे ‘उधारी की प्रणाली’ पूंजीवाद के अस्तित्व के लिए अपरिहार्य घटकों में से एक होने जा रही थी और उन्होंने केवल आने वाली वित्तीय पूंजी के शुरुआती लक्षणों की रूपरेखा प्रस्तुत की थी। कॉमरेड लेनिन ने इजारेदार पूंजी का पूर्ण सैद्धान्तिकीकरण किया और इसी चरण से इजारेदार पूंजी यानी साम्राज्यवाद का दौर शुरू हुआ। . लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, इजारेदार पूंजीवादी व्यवस्था ने बार-बार संकट का सामना शुरू कर दिया। एक खतरे को टालने के लिए वह दूसरे खतरे में फंस जाती है, जो पहले वाले से ज्यादा कठिन और गंभीर होता है। राष्ट्र-राज्य में संचयन के संकट से निपटने के लिए, यह पूंजी के वैश्विक केंद्रीकरण पर चली गई। इसने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय आर्थिक संगठनों के साथ-साथ उनके प्रबंधन के लिए विभिन्न मंचों को जन्म दिया। ऐसा चरण शुरू हुआ जब इन संगठनों ने प्रतिस्पर्धा की ऐसी नीतियां विकसित कीं जो वैश्विक इजारेदार पूंजी के समग्र हित की देखभाल करेंगी। ठीक इसी अवधि में तीसरी दुनिया के कई देश सामने आए और काफी विकसित पूंजीवादी विकास को हासिल किया लेकिन अभी भी विकसित साम्राज्यवादी देशों द्वारा उनका शोषण किया जा रहा था और साथ ही उन्होंने खुद भी अधिक पिछड़े देशों का शोषण करना शुरू कर दिया। हमारा देश इसी श्रेणी से संबंध रखता है। आज की इजारेदार पूंजी की महत्वपूर्ण विशेषता पिछड़े देशों में सस्ते श्रम की खोज है। साम्राज्यवादी देश सस्ते श्रम की तलाश में उत्पादन को वहां स्थानांतरित कर रहे हैं और मजदूरों का ‘सुपर शोषण’ कर अमानवीय तरीके से अत्यधिक मुनाफा निचोड़ रहे हैं।
आज के संदर्भ में साम्राज्यवाद अत्यंत जटिल परिघटना है। उत्तरजीविता के साधनों की बेतहाशा खोज में, यह संचयन के विभिन्न तरीकों को अपना रहा है। साम्राज्यवाद द्वारा उठाए जाने वाले हर कदम के साथ, इसका प्रभाव सीधे तीसरी दुनिया के देशों पर पड़ रहा है, यह उनके आंतरिक वर्ग संबंधों और उत्पादन के तरीकों को बदल रहा है। हमारे देश को इसका उत्कृष्ट उदाहरण माना जा सकता है कि साम्राज्यवाद किस प्रकार से हमारे उत्पादन की आंतरिक गतिकी, वर्ग-संरचना और हमारे समाज को उसके सांस्कृतिक मानकों समेत समग्रता में प्रभावित कर रहा है। क्या अब उपयुक्त समय नहीं आ गया है कि हम साहस के साथ साम्राज्यवाद और हमारे देश में उसके भारतीय सहयोगियों के द्वारा हमारे सम्मुख उपस्थित की गईं चुनौतियों को स्वीकार करें। इसके लिए हमें रणनीतिक और रणकौशलात्मक दिशा निर्धारित करने के काम को साहसपूर्वक अपने हाथ में लेते हुए नए वस्तुपरक दशाओं का सामना करना होगा और खुद को ऐसे जारी वर्गों संघर्षों से गंभीरतापूर्वक जोड़ना होगा जो हमारे सूत्रीकरणों को परखेंगे और इस तरह से उन्हें आगे और विकसित करेंगे?
15 जुलाई 2018
किसी भी साथी को अगर परचे का अंग्रेजी वर्जन चाहिए तो वाट्सऐप पर मांग सकता है।
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