ज्ञान की जलेबी खाने से मजदूर वर्ग का इन्कार पर हमरा ललवा तो बजिद है

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गोविंदा एफर्टलेस डांसर है और ठीक इसी तर्ज पर जब मैं जब कसरी पटरीदार उर्फ बियहकटवा पर लिखने की शुरुआत करता हूँ तो उंगलियाँ टपा-टप चलने लगती हैं, माने कुछ सोचने की जरूरत ही नहीं पड़ती। ऐसा नहीं है कि मैं गजब का लिक्खाड़ हूँ या अद्भुद प्रतिभाशाली हूँ, बात बस इतनी सी है कि कसरी पटीदार की करतूतों और उसकी रग-रग से इतना परिचय है कि भाषा खुद ब खुद लय पकड़ लेती है।
लेकिन अफसोस हमारा ललवा माने कि शशिप्रकाश सिन्हा और उसकी लँगड़ी औलाद यानि कि अभिनव सिन्हा इतनी छोटी सी बात नहीं समझ पाए कि कांटेंट जब आ जाता है तो वह खुद ब खुद कोई कायदे की शेप ही ले लेता है तो किसी की नकल करने की बजाय कांटेंट विकसित करने पर जोर होना चाहिए। अपनी शब्द-चातुर्य जनित महानता पर आत्ममुग्ध ललवा की विडंबना देखिए, अलबेला बनाने की ललक में लौंडे को आत्म-भव्यता पर रीझकर पगला जाने वाला मनोरोगी बना दिया।
अभिनव सिन्हा दिन-रात अश्वमेध यज्ञ की चुनौती देता फिरता है कि आओ मुझसे बहस करो, देखो मैं तुमसे ज्यादा मार्क्सवाद जानता हूँ। पिछले 300-400 सालों में मनुष्यता ने जितने भी शानदार प्रयोग किए हैं, ललवा उन सबकी नकल उतारने में लगा हुआ है लेकिन चूँकि ललवा को जिंदगी भर लाठी खाने से भय लगता रहा और उसके लौंडे को अपनी इकलौती टांग की चिंता सताती रही, इसलिए बाप-बेटे कभी जमीनी प्रयोगों में नहीं उतरे, माने जब ओरिजिनल कांटेंट डेवलप हो, ऐसी सूरत ही नहीं बनी तो दूसरों के उगले हुए की ही न जुगाली करेंगे।
लेकिन गुरू मानना पड़ेगा, हमारे ललवा के पास स्कीमें तो एक से बढ़कर एक हैं लेकिन सब की सब चुराई हुई। वर्ष 2009 के आसपास ललवा ने असंगठित क्षेत्र के कामगारों को इकट्ठा करने की कायदे की बात कही थी लेकिन अमल में कभी लेकर नहीं आया। उसने एक ढंग की बात और कही थी कि शासक वर्ग के एक धड़े के क्रांति के पक्ष में आने पर ही मुकम्मल बदलाव होगा, लेकिन इस दिशा में भी उसने ढंग का कोई काम नहीं किया। राजकीय मशीनरी में सेंध लगाने का काम।
सुना है कि ललवा ने लखनऊ में बहसबाजी का अड्डा खोला हुआ है, ज्ञानपूजक मध्यवर्गीय चुगदों से बाहर लाला की नजर ही नहीं जाती, अगर जाती होती तो लाला अपने लिखे परचे को लेकर मजदूर आबादी के बीच जाता तो उसे समझ में आ जाता कि वह भाषा कैसी होनी चाहिए, जिसे मजदूर वर्ग समझे-समझाए। लेकिन अफसोस, लाला को सिर्फ गुरू बनना था, जनता की चेलाही करनी ही नहीं थी और बिना जनता की चेलाही किए गुरू घंटाल बनने की ललक बिजूका बनने की ओर ले जाती है। लाला और उसका लंगड़ा लौंडा इतिहास में बिजूके की भाँति दर्ज होकर हम जैसों का मनोरंजन करते रहेंगे।
लाला शशिप्रकाश तुम्हारा एकमात्र योग्य शागिर्द मैं हूँ जो नवोन्मेषी ढंग से सोच पाता है। तुम मुझे बताओ सावयविक बुद्धिजीवी बनाने के लिए देश के किन मजदूर इलाकों में जमीनी काम हो रहा है, बुनियादी माँगों पर तुम्हारे लौंडे ने कब पुलिसिया टार्चर का सामना किया। भुच्चड़ प्रसाद तुम्हारी बात केवल तभी सुनेंगे और समझेंगे जब तुम उनकी जिंदगी से जुड़ी लड़ाई को लड़ते नजर आओगे। —————–
ललवा सनीमा दिखाता है-किताब पढ़वाता है, सुरुचिपूर्ण जिंदगी का ढंग-ढर्रा बताता है बस नहीं करता तो मजदूरी की लड़ाई लड़ने का काम। इलाहाबाद-बनारस में उसके कई चंपू हैं लेकिन मजाल है कोई वर्किंग मासेस को एकजुट करने के काम में लगा हुआ हो।
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जितना खोखला-पिलपिला हमारा ललवा है, उतने ही बौड़म जंगली भाई हैं। इसलिए इस देश में कुछ नहीं होने जा रहा। बिना इंगेज किए ज्ञान की जलेबी खाने से मजदूर वर्ग इन्कार कर चुका है।
कामता प्रसाद

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