रश्मि सुमन की कहानी चीख

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आज बेहद ऊहापोह में थी लावण्या। मसान के करीब ही अवधूत की जटा में विराजित गंगा किनारे सीढ़ियों पर बैठ एक जीवन का अंत होते हुए देख रही थी और ढूँढ रही थी उन तमाम सवालों के जवाब जो कल से ही उसके कानों में हथौडे की तरह पति के कहे शब्द गूँज रहे थे…”अनअपडेटेड हाउस वाइफ “…..उफ़्फ़फ़!? कितनी पीड़ा, क्षोभ, गुस्से और अपमानित महसूस किया था उसने, जब खुद के ही बेटे बहू के सामने नैतिक (पति) ने यह कहकर उसे तिरस्कृत किया था।

नैतिक के लैपटॉप के कीपैड को उसने छुआ भर ही था कि बस….नैतिक ने झल्लाते हुए कहा …” तुम तो रहने ही दो, तुम्हारे वश के बाहर की चीजें हैं यह, कान्वेंट एडुकेटेड होती तो सब समझ मे आता, रहने दो तुम, इसे हाथ लगाने की जरूरत नहीं गँवारु औरत..!”

एकदम फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना, कार ड्राइविंग , कम्प्यूटर – मोबाइल की भाषा, उनके अपडेट्स, प्रोफाइल पिक्चर बदलना, स्टेटस अपलोड करना उसे नहीं आता था। उसे तो लोगों के दुःख दर्द सुनना, बच्चों के साथ पानी भरे गड्ढे में छपाक से कूदना और उन्मुक्त निश्छल सी हँसी ठिठोली करना पसंद था, लेकिन नैतिक को उसका यह सब करना गँवारू जैसा लगता, उसे लावण्या की स्वच्छंदता बिल्कुल पसंद नहीं थी, दबी हुई आवाज़ में बेटे बहू और बेटी दामाद ने भी कई बार विरोध दर्ज किया था। उनलोगों को आपत्ति थी तो सिर्फ इस बात की कि लावण्या आज के जमाने के मुताबिक अपडेटेड नहीं है। इसीलिये न केवल पति नैतिक , बल्कि बच्चे भी उसके साथ कहीं आने जाने से कतराते थे और न ही अपने दोस्तों से परिचय कराते थे। रसोईघर में ही उसकी दुनियाँ सिमट कर रह गयी थी।

भावनाओं की रिक्तता किसीं भी सम्बन्ध को लहूलुहान कर देती है। संत्रास की “चीख” उसके गले में ही घुटी घुटी सी रह गयी। खालीपन ,तनाव , अपमान और डबडबाई आँखों से अपना अलमारी खोला उसने और फेंका अपनी फ़ाइल बिस्तर पर….
1965 में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण मैट्रिक सर्टिफिकेट, महाविद्यालय की हिन्दी विभाग की प्रखर प्रवक्ता, डिप्लोमा पत्रकारिता, अनगिनत लेखों, कविताओं, व्यंग्य विधाओं के लेखन व संपादकीय अनुभव ,और भी न जाने कितने प्रमाणपत्र और छपी हुई रचनाओं की कटिंग्स भी…..सब के सब मुँह चिढ़ा रहे थे …….
एकबारगी उसने सभी दस्तावेजों, सर्टिफिकेट्स पर सरसरी निगाह दौडाई और हाथ फेरने लगी, मानो अपना खोया आत्मविश्वास और अपनी गुम होती पहचान को पुनः पाना चाहती हो। एक एक कर कई घटनायें उसकी स्मृतियों की दराजों से बाहर निकलने लगे कि कैसे लिपि (बेटी) के गर्भधारण में उसने अपनी पढ़ाई को स्थगित किया था, नैतिक के स्थानांतरण के समय भी पहली बार नेशनल एलीजिबिलिटी टेस्ट को छोड़ना पड़ा था उसे, नैतिक की माँ के हार्ट अटैक के वक़्त भी बड़ी मुश्किल से वह बच्चों ,पढ़ाई और अपनी नौकरी को मैनेज कर पाई थी, न जाने कितनी बार उसने अपनी नौकरी को तिलांजलि दे दी न जाने कितनी बार…..तो क्या ये सारी डिग्रियां बेफिजूल है सिर्फ इसलिये कि वह कॉन्वेंट एडुकेटेड नहीं?वो फर्राटेदार अंग्रेजी नहीं बोल सकती?
क्या अंग्रेजी बोलना और डिजिटली अपडेटेड रहना ही पढ़े लिखे कहलाने का मानक है। वाह! वाह रे समाज! और तुम्हारी दोहरी मानसिकता….
नहीं, अब और नहीं…
पंखों की कतरन अब उसे मंजूर नहीं….भरेगी वो लंबी और ऊँची उड़ान…खुद को तराशना है उसे, खुद को खुद में तलाशना है उसे…..
वरना इस आपाधापी में हेय और अपमान ही हाथ आयेंगे उसके….. पति व बच्चों के नकारात्मक टिप्पणी और उस पर किये गए व्यंग्यबाण से लावण्या ने ठान लिया कि अब वह खुद को इस जमाने के हिसाब से अपडेट करेगी। अब वो किसी के भी सामने खुद को कमज़ोर नहीं दिखाना चाहती थी। अपनी “चीख ” व घुटन की तिलांजली देकर वो खुद को साबित करना चाहती थी। फिर क्या था! सहसा उसके चेहरे पर दृढनिश्चय की एक चमक आयी और लॉन में बैठे अखबार पढ़ रहे पति और बेटे से सीधी, सपाट और दृढ़ता से कह दिया कि ……..”मानती हूँ मैं socially और डिजिटली अनफिट हूँ , पर मानवीय संवेदनाओं की समझ है मुझमें “। और यह भी कह दिया उसने कि माना कि “समर्पण में है प्यार की पराकाष्ठा,फिर इस एकनिष्ठा की अपेक्षा स्त्री से ही क्यूँ?”

अपनी ज़िंदगी के कड़वे अनुभवों से सबक लेकर वो निकल पड़ी अपने गंतव्य की ओर….
जहाँ नई ओस सी मासूम आज की सुबह उसका इंतज़ार कर रही थी बाँहें फैलाये गुलाबी,स्निग्ध,आशाओं से भरी…..

रश्मि सुमन
मनोवैज्ञानिक सलाहकार
इन्फेंट जीसस स्कूल
पटना सिटी
पटना (बिहार)
800008

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