आज साहित्य के पन्नों पर उपन्यास और कहानी सबसे अधिक जगह घेरते हैं। कविता की जगह सिकुड़ती जा रही है। कविता कोष्ठक में चली गयी हैं और जो कुछ बचा है वह है ‘कविता का अर्थात्’। किंतु कविता की भी अपनी अन्तर्कथा है और जिंदगी में वह हृदय जितनी जगह तो घेरती ही है। अरुण कमल आज की कविता के हृदय हैं। यद्यपि मुझे कई बार लगता है कि ज्ञानेन्द्रपति उनसे बड़े कवि हैं- कविता की प्राणसत्ता की तरह। और अरुण कमल से उनकी सहोदरता कई स्तरों पर स्थापित की जा सकती है।
‘नये इलाके में’ संग्रह में अरुण कमल ने मनुष्य और समाज के मर जाने की पीड़ा का रचनात्मक विनियोग किया था, किंतु समीक्ष्य संग्रह ‘पुतली में संसार’ में अपराधीकरण और अमानवीकरण के हाथों मरते हुए मनुष्य को बचा ले जाने की सफल कोशिश विन्यस्त है। उनकी अकुंठ काव्य-रति नए मनुष्य को जन्म देती है। यह मनुष्य के पुनर्जन्म की कविता है। इसमें पुतली के संसार को नई अरुणिमा मिली है। इस काव्य-कृति को पढ़ते हुए यह अहसास सघन होता है कि शिखर बढ़ रहा है। एक नई परिपक्वता यहाँ सुनहला आकार ग्रहण करती है।
अरुण कमल की कविता का चरित्र भूमण्डलीय (ग्लोबल) है। वह भूमण्डल, जो उनके गाँव से शुरू होता है। जिंदगी के क्लासिक्स या अनुप्रास नहीं, अनगढ़ नैसर्गिक जीवन-छवि और मानवीय पीड़ा की बारम्बारता का सौन्दर्य शास्त्र है। मनुष्य और समाज की संश्लिष्ट जैविक संरचना और व्यवस्था के नाखूनों को खूबसूरती के साथ तराशने का रचनात्मक संकल्प। जिंदगी के आघूर्णन, समाज की सांस्कृतिक अंतर्क्रियाओं की दूरसंवेदी ध्वनियाँ उनके रचना-संसार में साफ सुनी जा सकती हैं। उनकी स्वाधीन कलम पर समय का दबाव स्पष्ट देखा जा सकता है। इतिहास और जिंदगी की रगड़ से उत्पन्न ताप और अनुभवों की धीमी आँच पर कच्ची सामाजिक सामग्री को पका कर आस्वाद्य बनाया गया है। नए काव्यास्वाद के सही तापमान का रचाव जिन्दगी के रिफ्लेक्शन के भाषिक संश्लेष का परिणाम है। जहाँ मृत्यु का ‘उत्तर-जीवन’ के रूप में अनुवाद किया गया है, मृत्यु में भी जिंदगी की धमक महसूस होती है और मृत्यु की आँख से भी जीवन को देखने का रचनात्मक उपक्रम है। यहाँ आभ्यंतर एवं वाह्य के सम्बन्धों को समझने की विनम्र कोशिश समग्र जीवन-बोध से परिस्फूर्त है। उनके इस सम्पूर्ण संकलन में एक अदृश्य हाथ की परछाईं बराबर महसूस होती है और आत्मपरक संरचनाओं में सामाजिक यथार्थ संघनित होता है। यह मौन संलाप के शिल्प में मूल्यों के पुनर्वास की कविता है।
जीवन और मृत्यु के द्वन्द्व के बीच सामाजिक-आर्थिक वैषम्य उनकी कविताओं में गहरी मानवीय करुणा के साथ नियोजित है- ‘‘माफ करना प्यास से तड़पते लोगों
आज मैं दो बार नहाया।’’
जिंदगी के बोझ से ढँकी आँखों वाले मजदूर उनके सपनों में सूराख करते हैं- ‘‘मुझे तो हर दिन नाखून से/खोदनी है नहर/और खींच कर लानी है पानी की डोर/धुर ओंठ तक/जितना पानी कंठ में/उससे अधिक तो पसीना बहा/दसों नाखूनों में धँसी है मट्टी/खून से छल-छल उँगलियाँ।
इसीलिए कवि हीरे का तमका छाती में खोभ मँहगे कालीनों पर खून टपकाता फिरता है। उनकी कविता का रास्ता उजड़े घरों और बरबाद खेतों से होकर गुजरता है। जीवन की जटिलता, लगातार कम होती हवा में साँस लेने के संघर्ष को मूर्त करती उनकी कविता राजनैतिक स्तर पर कहीं प्रशासनिक मशीनरी की सुरक्षा-व्यवस्था के तनावों से मुठभेड़ करती है तो कहीं ‘ईख के रस’ के माध्यम से जन और अभिजन के मध्य संबंधों में मिठास घोलती है। अर्थसत्ता ने हमारी सांस्कृतिक चेतना का अपहरण कर लिया है। उनकी कला-चेतना में लघुता की महिमा की स्वीकृति अपनी समस्त स्वरलिपियों के साथ मौजूद है। ‘दस बजे’ शीर्षक कविता आज के शहर की जाम हो गयी जिंदगी का अच्छा रूपक है। जहाँ सब कुछ एक-दूसरे से संबंद्ध एक-दूसरे पर घात-प्रतिघात कर रहा है। साधारण जीवन-दशाओं, स्थितियों के अंकन में असाधारण सौन्दर्य भर देने वाले अरुण कमल रात की स्याही से रोशनी लिखने वाले दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। उनकी संवेदनशीलता के संस्पर्श से एक शव भी प्राणवान हो उठता है और अपनी छाया पर चलते आवारा कुत्ते की छाया भी उनकी पुतली पर पड़ती है। वे बकरियाँ जो वर्षा की पहली बूँद गिरते ही भागीं और छिप गयीं पेड़ की ओट में- वे सभी कवि के भाव-परिसर में प्रवेश पाती हैं। उसकी कविता से काले पंखों के नीचे कौओं के सफेद रोयें तक भीगते हैं। उन मजदूरों के लिए, जो सोख रहे हैं बारिश मिट्टी के ढेले की तरह, उसकी कविता में गर्म रोटी की भाप फैल रही है। और हमारे लिए तवे पर सिंकती परथन की पिछली रोटी छूट जाती है। अतीत और वर्तमान के तनाव को झेलती नई पीढ़ी के रक्त में पूर्वजों के सारे रोग संक्रमित हो गए हैं – ‘‘हमारी ही थाली में शासकों के दाँत छूटे हुए/और जरा सी धूप में धधक उठती है आदिम हिंसा।’’
इसी हिंसा के कारण आज घर सबसे अधिक असुरक्षित और कब्रगाह सबसे अधिक सुरक्षित है। इसी आतंकवाद की कोख में एक बच्चा मृतक माँ का दूध पी रहा है। और इसी आतंक के कारण एक बच्चे का खून होते देखने के बावजूद गवाही देने से कतराती एक माँ को अनुभव होता है कि – ‘‘धीरे-धीरे वो बंदूक घूम रही है मेरी तरफ।’’
आज की आत्मकेंद्रित जीवन-शैली के साथ ही पूँजी का संकेन्द्रण भी कवि के प्रहार का निमित्त बना है। स्त्री-मुक्ति का सपना अपने देसी प्रकृति में शब्दों में जाग उठता है। अपने प्रिय के देहावसान के समय अनुपस्थित कवि सोचता है – ‘‘जिसमें इतनी आग थी/उसकी इतनी कम राख!’’
दुनियाँ बड़ी है और छोटे पड़ गए कपड़े की तरह सम्बन्धों को अलविदा कहने के क्रम में आत्मीय अनुवादक की देहगाथा समाप्त होने पर कवि प्रतीक बुनता है- ‘‘पोखर पर अचानक फूटता है चाँद का बताशा।’’
कवि यायावरी वृत्ति के संदर्भ में भी मानव-मन के तिलिस्म से मुक्त नहीं हो पाता- ‘‘पेट जहाँ ले गया, गया/जैसे मैं जहाँ गया, मेरा जूता गया/और जहाँ गया, वो जगह/मुझे इस तरह दाबे रही/जैसे एड़ियों को जूता काटता।’’ फिर भी ग्राम्य प्रकृति और ‘चाँद की वर्तनी’ के कई फॉन्ट उनकी कविता में सघन ऐन्द्रिय सम्वेदना के साथ मौजूद हैं। उनकी स्मृति का फलक बड़ा है। फंतासी बिम्बों की सृष्टि वाली उनकी एक कविता में कई कविताएँ मौजूद हैं। जीवन में एक साथ कई चीजें घट रही होती हैं।
इसलिए इकहरापन तोड़ने के लिए संभवतः ऐसा किया गया है। फैन्टेसी की बुनावट, चाक्षुष बिम्ब-योजना, अर्थ-सघन ऐन्द्रिय-बोध, नाटकीयता, एकालाप, संवादधर्मिता, वृत्तचित्र शैली, आख्यान परकता आदि के प्रयोग के साथ ही लोकजीवन से उठाए गए अनछुए प्रासंगिक अप्रस्तुत विधान के कारण ये कविताएँ अपने रचना-समय का स्मारक बन गयी हैं। इनमें भाषा का अमूर्तन नहीं, संवेदना की सादगी लक्षित होती है। भारतीय जीवन-चेतना की सही पहचान प्रकारान्तर से भूमण्डलीकरण एवं सांस्कृतिक उपनिवेशवाद के विरुद्ध प्रतिरोध की शिल्प-प्रविधि का आविष्कार भी है। इसलिए माथे पर लोटा भर पानी पड़ते ही याद आते श्लोक की तरह ये कविताएँ जीवित रहेंगी- कविता की मृत्यु की असंख्य घोषणाओं के बावजूद। काव्यार्थ की सांद्रता, भाव-खनिजता एवं संगीत-लिपियों में भोजपुरी लिखावट वाली इन कविताओं में बिहार के विद्रूप की वीडियोग्राफी और जिंदगी के अशौच बिम्ब बार-बार आते हैं। एक वेल्डिंग करने वाले मिस्त्री की जिंदगी की रस्सी गाँठ पड़ते-पड़ते छोटी हो गयी है। पर भीतर बजते सूखे बीज की भांति उल्लास का ध्वनन निःशेष नहीं होता।
कहना नहीं हेागा कि प्रेम और प्रकृति के उदात्त सौंदर्य-चित्रों के साथ ही जीवन और जगत के दार्शनिक प्रश्नों से बच निकलना उनके क्षितिज को परिमित भी करता है। मनुष्य के अन्तर्जीवन का यथार्थ कवि की पकड़ से छूट जाता है। कहीं-कहीं कविता में संरचनागत दरारें भी ढूँढी जा सकती हैं। बड़े जीवन-चक्रों को हाथ में लेना, आचरण के उच्चतर प्रतिमानों की खोज शायद अरुण कमल की प्रार्थना नहीं है। किन्तु माइक्रो हिस्ट्री के माध्यम से विश्व-जीवन की चेतना अर्जित करने या अणु में विराट की संकल्पना आयत्त करने के कारण उनकी कविता आम पाठक को संबोधित है। यह अणिमा सिद्धि ही उनकी लोकप्रियता का सशक्त आधार है।
अरुण कमल बड़े कवि हैं। इसलिए उनके संदर्भ में एक और सवाल उठाना चाहूँगा। गीतों में गाली भी अच्छी लगती है। सम्वेदनात्मक सघनता, सांस्कृतिक चेतना, लालित्य, लयवहता और स्मृति में चिरंजीविता की दृष्टि से गीत अधिक संप्रेष्य होते हैं। कसे हुए छंद लिखना आम कवि के बस का है नही। अतः मुझे कई बार यह लगता है कि गीत को यदि अरुण कमल की प्रतिभा मिल जाए तो भविष्य की कविता और कविता के भविष्य के प्रति आश्वस्त हुआ जा सकता है।
– अजित कुमार राय