कोरोना: दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों की एक जरूरी पहल!

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– एच एल दुसाध
एक ऐसे दौर में जबकि रोजगार देने वाले बड़े-बड़े शहरों के स्लम बस्तियों में फंसे करोड़ों मजदूरों की सुरक्षित घर- वापसी तथा बेरोजगारी देश के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आई है तथा इससे पार पाने के लिए सरकारों के साथ समाजसेवी संस्थाएं और असंख्य संवेदनशील लोग अपने- अपने स्तर पर योगदान कर रहे हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने एक अनूठी पहल करते हुये राष्ट्र के समक्ष एक अपील जारी की है। 5 मई को सोशल मीडिया पर जारी उनकी अपील बड़े पैमाने पर लोगों को स्पर्श की है। लोग इस अपील को सोत्साह लाइक/ शेयर करने के साथ इस मुहिम से जुड़ने का आश्वासन दे रहे हैं। दिल्ली विश्ववद्यालय के शिक्षकों की ओर से जो अपील जारी की गयी है, वह यह है-:
‘देश में जो यह अभूतपूर्व आपदा आई है, उसने पूरे जनमानस को हिलाकर रख दिया है। बच्चे हों या बुजुर्ग, महिला हो या पुरुष, छात्र हो या मजदूर,गरीब हो या अमीर सभी अपने को असहाय महसूस कर रहे हैं। कोरोना ने पूरे मानवजाति को यह जताया है कि सभ्यता के सतत विकास के लिये प्रकृति के साथ जीना ही उचित मार्ग है। इस आपदा के सफरर तो सभी हैं लेकिन जिनपर इस आपदा की सबसे अधिक मार पड़ी है वे हैं, इस देश की नींव को सींचने वाले मजदूर। आज जब हम सुपर कंप्यूटर से लेकर सुपर सोनिक मिसाईल बना रहे हैं। धनाढ्यों की रैंकिंग में किसी को एशिया में प्रथम स्थान मिलने पर झूम रहे हैं तो वहीं करोडों मजदूर सड़कों पर घंटों लाइन में खड़े होकर दो जून की रोटी जुगाड़ रहे हैं। न जाने कितने मजदूर और उनके मासूम बच्चे भात-भात कहकर दम तोड़ रहे हैं। सरकारें कोशिश कर रही हैं पर वे पर्याप्त नहीं हैं।
लॉकडाउन के दिन से जो लॉंगमार्च का सिलसिला शुरू हुआ है, वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। फटे पांव खाये न खाए ये मजदूर अपने पत्नी और छोटे छोटे बच्चों को साथ लिये हज़ारों किलोमीटर की पैदल यात्रा पर चल पड़े हैं। वे डरे हुए हैं। अपने समाज और देश पर उन्हें भरोसा नहीं रह रहा है कि यह देश उनकी रक्षा करेगा या उन्हें भूखा मरने नहीं देगा। इसलिए वे अपनों के बीच जाना चाहते हैं। इस मुश्किल वक्त में हम उनके साथ खड़ा होना चाहते हैं। इसलिए हमने तय किया है कि ‘7-5-2020,बुद्ध पूर्णिमा के दिन 7 बजे सुबह से 7 बजे शाम’तक उनके हक व न्याय के लिये उपवास करेंगे। जो साथी हमारी इस मुहिम से जुड़ना चाहते हैं, वे अपने-अपने घरों में रहकर जुड़ सकते हैं। करना यह है कि एक बोर्ड या पेपर पर मुद्दे लिखकर तथा उसमें अपना डिटेल देते हुए फ़ोटो क्लिक करें और उसे सोशल मीडिया पर डाल दें। या हमें व्हाट्सएप कर दें।
सरकार से हम मांग करते हैं कि….1- इन मजदूरों को सुरक्षित उनके घर तक पहुंचाया जाय। इस यात्रा का व्यय उनसे न वसूला जाय ; 2- जो मजदूर अपने कार्यस्थल क्षेत्र में ही रहना चाहते हैं , उनके लिये उचित भोजन और रहने का प्रबंध हो ; 3- जबतक मजदूरों को कोई रोजगार नहीं मिल जाता तब तक उन्हें हर महीनें सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन के बराबर पैसा उनके खाते में डाला जाय; 4- सभी राज्य सरकारें एक मजदूर रजिस्टर बनाये , जिनमें यह दर्ज हो कि कौन सा मजदूर किस राज्य से आया है और किस सेक्टर में काम कर रहा है। ताकि आपदा के समय उन्हें जरूरी सुविधा मुहैया कराई जा सके और 5 मजदूर बैंक का गठन हो जिसकी सारी गतिविधि मजदूर केंद्रित हो।*क्या आप भी हमारे साथ हैं?*– जनसरोकार मंच!’
डीयू के शिक्षकों की उपरोक्त अपील पर मिल रही उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रिया से ऐसा लगता है कि लोग इस मुहिम से जुड़ेंगे। अगर मिल रहे संकेतों के मुताबिक लोग प्रत्याशित मात्रा में जुडते हैं तो, निश्चय ही इसका इम्पैक्ट ताली-थाली- शंख, दिया- मोमबत्ती, हेलीकॉपटर से पुष्प वर्षा और मिलिट्री बैंड बाजा से अधिक होगा। क्योंकि यह मुहिम सीधे सरकारों को संबोधित है, जिन पर कोरोना जनित समस्यायों से निपटने का सारा दारोमदार है। ध्यातव्य है कि देश में कोविड-19 से संक्रमित लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है जिसे देखते हुए केंद्र से लेकर राज्य सरकारें तक घबराई हुई हैं। अगर विभिन्न राज्यों में फंसे श्रमिकों को सुरक्षित जगह पहुंचाने का इंतजाम नहीं किया गया और तो स्थिति बेकाबू हो जाएगी।यह अप्रिय सच्चाई है कि गांवों मे रोजगार की व्यवस्था न होने के कारण करोड़ों लोग बड़े- बड़े शहरों की ओर पलायन करने के लिए विवश हुये, जहां उन्हें जैसे-तैसे आश्रय मिला स्लम बस्तियों में। इन बस्तियों के छोटे-छोटे डिब्बानुमा एक-एक घरों मे पाँच- पाँच, दस-दस व्यक्ति रहने के लिए विवश हुये। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा लॉकडाउन की महज चार घंटे पूर्व घोषणा होने के कारण ऐसे लोग चाह कर भी अपने गांवों की ओर लौट न सके। ऐसे मजदूरों में लाखों लोग आज सरकार और निजी संस्थाओं द्वारा बनाए गए कैंपों, स्कूलों और राहत शिविरों में रहने के लिए अभिशप्त हैं। इन कैंपों मेँ जो रह हैं वे ऐसे लोग हैं, जिन्हें अगर कुछ दिन भी काम न मिले, तो भुखमरी के शिकार हो जाएंगे। इनके पास इतनी बचत भी नहीं थी कि जिससे वे एक महीने तक भी अपने-अपने ठिकानों में रह लें। ये कैंपों में इसलिए रह रहे हैं क्योंकि वहां उन्हें जैसे-तैसे खाना मिल जा रहा है। जाहिर है कि वे वहां बेहद मजबूरी में रह रहे हैं। लॉकडाउन की पहली घोषणा के दूसरे दिन बाद ही दिल्ली, सूरत, मुंबई इत्यादि शहरों से ऐसे लाखों लोग अपनी पत्नी और बच्चो के साथ हजार-हजार, डेढ़-डेढ़ हजार किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर पैदल ही चल पड़े, जबकि प्रशासन की कड़ाई के कारण अधिकांश लोग कैंपों,स्कूलों, राहत शिविरों में रहने के लिए विवश हुये.
आज कोरोना दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात इत्यादि में जिस पैमाने पर फैल चुका है, अगर इन बेबस , लाचार मजदूरों को उन इलाकों से निकालकर कहीं और नहीं पहुंचाया गया तो ये मजदूर कोरोना बम मेँ तब्दील हो जाएंगे। इसे देखते हुये राज्य सरकारें भी दूसरे राज्यों में फंसे अपने लोगों को लाने में मुस्तैद हो गयी हैं।पर, आज दिल्ली ,अहमदाबाद, सूरत, मुंबई आदि से ही नहीं बल्कि, खाड़ी के देशों सहित अमेरिका, यूरोप इत्यादि देशों मे फंसे लाखों लोगों को सुरक्षित उनके घरों तक पहुंचाने की जिम्मेवारी सरकारों पर आन पड़ी है।ऐसे में सरकारों पर दबाव बनाने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षकों ने जो पहल की है, उससे बेहतर प्रयास बुद्धिजीवी वर्ग की ओर से और क्या हो ही सकता है! पर, अगर दिल्ली विश्वविद्यालय के गुरुजन और उनकी मुहिम से जुड़ने वाले लेखक-पत्रकार, छात्र और एक्टिविस्ट कोरोना आपदा से प्रभावित मजदूरों के हित से जुड़ी पाँच सूत्रीय मांगों के प्रति गंभीर हैं तो सिर्फ एक दिन उपवास न रखकर,उसे लंबे समय तक जारी रखने का मन बनाएं। क्योंकि ‘जनसरोकार मंच’ द्वारा जिन मजदूरों के हित में बुद्ध पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर उपवास रखने की घोषणा की गयी है, उनके प्रति हिन्दुत्ववादी सरकार का रवैया निहायत ही निर्मम है।
लॉक डाउन की घोषणा के बाद यातायात की अनुपलब्धता के कारण हमने जो भूखे-प्यासे लाखों गरीब, युवा – बूढ़ों- बच्चों, अंधों-विकलांगो और स्त्री- पुरुषों को दिल्ली, मुंबई, अहमदाबाद इत्यादि से सौ-सौ, हजारों किलोमीटर दूर अवस्थित उनके गावों के लिए पैदल मार्च का जो दृश्य देखा; लॉक डाउन के महिना भर बाद भी जिन लोगों को आधुनिक श्रवण कुमार बनकर अपने माँ को पीठ पर लाद कर चलते देखा; जिन बच्चों को पैदल चलते-चलते मौत के मुंह में जाते सुना; जिन लोगों ने लॉकडाउन की घोषणा के बाद लॉन्ग मार्च करते हुये भारत विभाजन के वर्षों पुराने दुखद दृश्य की बार-बार अवतारणा किया; उनमें 90 प्रतिशत से ही अधिक लोग दलित, आदिवासी,पिछड़ो और अल्पसंख्यकों से युक्त उस बहुजन समाज से रहे, जिन्हें गुलामों की स्थिति में पहुंचाने का कोई भी अवसर मोदी सरकार गंवाना नहीं चाहती, और उसका विशेष कारण है हिन्दू राष्ट्र। आरएसएस नामक जिस संगठन से प्रशिक्षित होकर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के पद की शोभा बढ़ा रहे हैं,उसका वर्षो पुराना सपना है हिन्दू धर्माधारित कानूनों द्वारा परिचालित अर्थात वर्ण- व्यवस्थाधारित:हिन्दू राष्ट्र! चूंकि वर्ण- व्यवस्था मेँ शक्ति के समस्त स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक – के भोग का अधीकारी सिर्फ सवर्ण तथा दलित-आदिवासी- पिछड़ों से युक्त बहुजन शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत विशुद्ध गुलाम रहे, इसलिए संघ के हिन्दू राष्ट्र के सपनों को साकार करने मेँ जुटी मोदी सरकार बहुजनों को गुलामों की स्थिति मेँ पहुंचाने के लिये अपनी तानाशाही सत्ता का अधिकतम इस्तेमाल कर रही है। चूंकि वर्ण-व्यवस्था के गुलाम संविधान के सौजन्य से शक्तिसम्पन्न बनकर हिन्दू धर्म को भ्रांत प्रमाणित कर रहे हैं, इसलिए हिन्दुत्ववादी मोदी सरकार इन वर्गों के प्रति पूरी तरह निर्मम है। इस निर्ममता के कारण ही अपनी सारी तैयारी पूरी करने के बाद मोदी नाटकीय रूप से लॉकडाउन की घोषणा कर दिये। अगर फरवरी से कोरोना की लगातार अनदेखी करने वाले मोदी बहुजनों के प्रति शत्रुतापूर्ण मनोभाव नहीं रखते, वह मजदूरों को वापस अपने घर जाने के लिये चार घंटे की चार – पाँच दिन का समय दे देते । बाद मेँ जब हालत बेकाबू होने के बाद मजदूरों को वापस घर भेजने की नौबत आई , वह बिना किराया लिये कंगाल बन चुके मजदूरों के सुखद वापसी की व्यवस्था कर ही सकते थे, किन्तु उनकी हिन्दुत्ववादी सोच बीच मेँ एवरेस्ट बनकर खड़ी हो गयी।बहरहाल आज जबकि दिल्ली विश्व विद्यालय के गुरुजन कोरोना आपदा से सर्वाधिक प्रभावित वर्ग के हित मेँ एक दिन का उपवास रखने जा रहे हैं, बेहतर होगा वे प्रधानमंत्री की हिन्दुत्ववादी सोच को ध्यान मे रखते हुये साप्ताहिक उपवास का लंबा सिलसिला शुरू करें। ऐसा करके ही हिन्दुत्ववादी शासन तंत्र पर विस्थापित मजदूरों के हित मेँ अवश्यक दबाव बनाया जा सकता है: पांच सूत्रीय मांगों पर अमल करने के लिये बाध्य किया जा सकता है।
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. संपर्क – 965481691)

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